आसमान लाल–सिंदूरी डोरों से घिरा, फिर भी उदास था… धूसर रंग की तरह। ‘ये मलियाते रंग मन को नहीं लुभाते, उल्टे उदासी सौंप जाते हैं’। बालकोनी में पड़ी कुर्सी पर बैठ चाय की चुस्की लेते हुए उसने आसमान निहारा और फिर चाय के स्वाद में डूब गई। ‘आज की चाय भी कैसी बेस्वाद बनी है! मुँह कड़वा हो आया। ऊँह!’ वह उठी और तेज़ क़दमों से भीतर कमरे से होते हुए रसोई चली गई और सिंक में चाय उड़ेलती हुई क्षण भर को थिर हो गई। ‘बोदि चली गई!… अच्छा हुआ या बुरा? वह साल भर से अधिक समय से कष्ट में थी। पता नहीं कब से यूट्रस कैंसर पनपता हुआ भीतर अपनी जगह बना रहा था, किसी को पता नहीं चला। पता चलता भी कैसे, कभी ढंग से इलाज होता तब न! … इलाज कैसे हो जब कोई कमाने वाला न हो! हे प्रभु! बड़ा दुख भोगा उसने। मेजो दा के गए भी तो दो दशक हो गए और वे भी कौन अपनी मौत मरे! बुरा हो इन बड़े अस्पताल वालों का, जनरल वार्ड के पेशेंट को आदमी समझते ही नहीं। जाने क्या कर देते हैं कि आदमी जिस रोग के लिए इलाज करवाने जाता है, वह तो ठीक हो जाता है या कुछ दिन ठीक होने का भ्रम देता है मगर साथ ही नई बीमारी ऐसी साथ लाता है कि या तो अपंग हो जाता है या मौत की गोद में सो जाता है। कुछ तो गड़बड़ होता है! पेशेंट घर आने के कुछ दिनों बाद इस तरह बीमार होता है। सुक्कू चौधरी का भी तो ऐसा ही हुआ। बेचारा सुक्कूचौधरी! भरी जवानी में चला गया। उसके तो बच्चे भी छोटे-छोटे हैं| ’
उसने कमरे की बत्ती जलाई। पूजा का दीपक निकाला, घी की बाती डाली तो सामने बोदि दिखने लगी। वही तो संझा देती थी। ध्यान में बोदि और सजोय दा ही घूमते रहे। कानों में स्वर गूँजा, “काकी! हमारा बिआ होगा तो एक रोटी में से आधा हम खाएगा, आधा उसको खिलाएगा। हाहाहहा…”
“क्या सजोय दा! अबी तो आपका लिए कोइ बउ भी नइ देखा गया, अबी से आधा रोटी ….” कीर्ति ने चुटकी ली। सजोय दा सबसे हँसते-बोलते तो सारे छोटे बच्चे उनके साथ मस्ती करते और ऐसी ही मिली बोदि! निम्मी बोदि! साँवला रंग, छोटी आँखें देख काकी माँ चिढ़ गई थी, “बिजोय गोरा लारा और बउ!” शादी का रंग चढ़ा तो खिलने लगा रंग और हँसोड़ ऐसी कि कोई नाराज़ हो ही नहीं सकता, होना भी चाहे तो बोदि हँसा–हँसा कर मना ले। जेठू खुश, जेठा माँ ख़ुश, तापस दा ख़ुश और क्या चाहिए था! काम करने में बिजली-सी फुर्ती ! लाख तकलीफ़ हो, कभी किसी ने शिकन न देखी होगी। सजोय दा ने कई व्यापार शुरू किए, सब फेल। सुना था तापस दा खीझने लगे हैं अब, उस दिन सुन भी लिया,
“शादी का शौक और कमाने का अकल घास चरने गया। सब पूँजी बुड़ा दिया। कोइ धन्ना सेठ है जो बैठ कर उमर भर खाएगा।”
और पास से गुज़रती बोदि के चपल पाँव ठिठक गए थे। तापस दा चुप नहीं हुए, बोलते ही गए…. “हमारा शादी नइ हुआ, छोटे का हो गया, कोइ बात नइ, मगर ए तो कोइ सोचता ही नहीं कि एक हम साला कमाने वाला और ….” बोदि पर नज़र पड़ गई तो शब्द चबा गए। हट गई बोदि सामने से, आँखें गीली थीं। होंठ थरथरा रहे थे। बबन पर नज़र पड़ते ही बोली, “दादा ठीक ई तो कहते हैं।“
बबन सजोय दा की शादी में होगा यही कोई बारह–तेरह साल का। बोदि का दुलारा देवर! “आप कहो बिजोय दा को कुछ काम करे, नहीं तो आप छोड़कर चले जाने का बात बोलो।”
“बबन ! एय फिल्म नइ है। आपका दादा को छोड़कर कहाँ जाएँ? और एय जो है आपका दोनों भतीजा, इसको कहाँ ले जाएँ। अकेला होता तो कुछ सोचता भी।“ न चाहते हुए भी मुस्कुरा दी थी बोदि।
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“सजोय दा सुस्त हुए जा रहे बोदि! आप सबके ताने सहते और काम करते रहते हो। जेठा माँ से बोलो न कि एक बार तापस दा से बात करे|”
“क्या बात?”
“डॉक्टर से दिखाने बोलो। सजोय दा ऐसा नइ था। पता नहीं, भीतोर-भीतोर कुछ बेमारी हो” कीर्ति बोली।
…
और उस दिन भूचाल आ गया! “सजोय को ब्रेन ट्यूमर! सजोय के ब्रेन ट्यूमर! रोक्खा करो स्वामी!” जो कल ताने मारते थे, सब प्रार्थना करने लगे। आनन–फानन एमपी कोटे से एम्स में भर्ती कराया गया। तापस दा और बोदि साथ में गए। ऑपरेशन हो गया। दादा बच गए। एक महीने बाद लौटे वे तो बोदि की झिझक ख़त्म हो चुकी थी। तापस दा की भी।
…
“अब क्या?”
“बिजोय का बोली लड़खड़ाता है। चल भी नहीं पाता। अब तो पूरा जीबोन वाकर का साथ ही कटेगा लगता है!” माँ बोली, “बउ का रंग–ढंग ठीक नइ लगता। ओ तो ऐसे मटकता है तापस को देख कर जैसे….”
“तुम भी न माँ!”
“देखना! सुनना एक दिन! कीर्ति को भी लगता है। एक तुमी अलादा है।”
“और जेठा माँ को ?”
“उसको लगेगा भी तो कुछ बोलेगा क्या? … सजोय धूप में बराण्डा में बैठा चिल्लाता रहता है एक–एक बात के लिए, बउ सुनता नहीं। आता भी है तो तमक कर जवाब देता है। बेचारा सजोय! बउ का पाँ शुभ नइ है, नइ तो शादी का बाद हँसता– बोलता सजोय ऐसा दुख भोगता!”
“संदीप दा भी तो बिआ का बाद से कबी ठीक नइ रहता| हेल्थ चला गया| तुम लिपि बोदि को तो कुछ नहीं कहती| … वेसे बी सुचित्रा बोदि को कौन-सा सुख है?”
“लिपि का बात मत करो| ओ संस्कारी घर का बेटी है| संदीप बीमार पड़ा तो उसका अफसर ससुर –साला डाक्टर-दबाई में कोई कसर नइ छोड़ा| लिपि तुमारा उमर का है| बच्चा है अबी| और बउ … तुम यहाँ रहो तो जानो। ओ तो मरद पटाने का मंतर जानता है। तापस को देखोगे तो … कैसा जो लट्टू रहता है। दोनों कैसा खिचड़ी पकाता है ! राधे!राधे!” माँ कान छूकर सिर हिलाती रही।
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“बिजोय दा नहीं रहे। आ सको तो आ जाओ” कीर्ति ने फोन पर कहा, “देख जाओ अंतिम बार, ओ जाने से पहले तुमको याद कर रहा था।” उसके कान सुन्न हो गए। ‘अभी पिछले सप्ताह तो ठीक थे! मतलब वैसे ही…. अपाहिज की जिंदगी और कचोट के साथ …. फिर भी इतनी जल्दी जाना!’ चटपट तैयार होकर बस पकड़ने चल पड़ी।
बोदि की चीत्कार कलेजा में छेद कर देती। रह–रह कर बेहोश होती रही बोदि। दोनों बेटे कीर्ति से चिपके रहे। माँ, काकी माँ जेठा माँ को संभालती रही, बोदि की माँ और बहनें बोदि को। बर्फ़ की सिल्ली पर लेटे सजोय दा मुस्कुरा रहे थे। वर्षों बाद उनके चेहरे पर मुस्कान थी, वही पुरानी मीठी मुस्कान! ऐसा लगा मानो कह रहे हों, ‘तुम आ गई! देखो तमाशा! जब हम साफ़ नइ बोल सकता था तब सब दुरदुराता था। मेरा जिंदगी नरक बन गया था, आज सब रो रहा है। तुम्हारा बोदि भी तो तंग हो रहा था, अब ….!!’
“किसका भरोसा छोड़ गया? एय दोनों का क्या होगा?” बोदि विलाप करती जाती|
“नौटंकी तो देखो, जैसे पहले सजोय पाल रहा था। है न दूसरा पालने वाला, बश में तो कर रक्खा है, चिंता क्या है इसको!” महिला की भीड़ में से किसी की फुसफुसाहट सुनाई दी। “एक तो है ही, दूसरे को भी बश में रखा है। बबन को देखो, मजाल है बोदि का खिलाफ कोई कुछ बोल दे। अच्छा बाँध रक्खा है दो–दो को! हमसे तो एक नइ संभलता!” फिद्द-सी हँसी कान को चुभी, मगर उस आवाज़ को ढूँढना मुश्किल ही रहा। उसे लगा, अभी–अभी बोदि ने चूड़ी तोड़ी और चीखकर बेहोश हो गई है। भरी जवानी में लुट गया सुहाग! लुट गया साज–सिंगार!
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“बोदि! आप यहाँ?”
“क्या नइ आ सकते?”
“अरे, हमारा ओ मतलब नहीं था। आओ ना!”
मेरी नज़र बोदि का निरीक्षण करने लगी। हल्के हरे रंग की जड़ीदार साड़ी, कान में बड़े कुंडल, हाथ में सीप की चूड़ी, दमकती बिंदी …. क्षण भर को लगा पहले वाली बोदि आ खड़ी हुई है। ‘तो माँ ठीक ही कह रही थी। इनका साज–सिंगार कम होने के बदले सचमुच बढ़ गया!’
“क्या सोच रहे हो?”
“अं, कुछ तो नहीं! आपका साथ बिताया पुराना दिन याद आ गया। … और सब बढ़िया?”
“हाँ! …. देखो न मीतु (छोटी बहन) जबर्दस्ती पहना दिया। बोली शादी में ऐसे रहोगी क्या! अब सब पहनता है|”
“ठीक ही तो कहा उसने।”
“यही जिद पर अड़ गया तो आना पड़ा और… आप पढ़े–लिखे हो न, इसलिए समझते हो। घर–बाहर सब तो ….” उन्होंने अपने होंठ काट लिए। मीतु ने धीरे से उनका हाथ दबाया था।
“छोड़ो न बोदि! जिसको जो बोलना है, बोलने दो। आपका उमर तो ख़त्म नहीं हो गया ना! यहाँ तो बूढ़ा–बूढ़ा सब पहनता है।”
“ओ तो सिर्फ पार वाला साड़ी पहनता है।”
“अब छोड़ो भी! अबी कब तक हो यहाँ?”
“बस आज भर! माँ (सास) से अब काम नइ होता है। बाबा और माँ को मेरा रहते एक गिलास पानी उठाकर लाना नइ पड़ता है। ओ तो चला गया। हम भी नइ देखें तो… उसका हिस्सा सेबा भी तो हमी करेगा और कोन करेगा।”
बोदि चली गई। उनके शब्द देर तक कानों में गूँजते रहे। ‘लोग बोदी को ख़ुश नहीं देख सकते। उनके पहरावे पर उँगली उठाते हैं, मगर उनकी सेवा–भावना कोई नहीं देखता! ख़ुश रहने और सबको ख़ुश रहने की कोशिश कोई नहीं देखता। अज़ीब है दुनिया, अज़ीब बिरादरी!’ मन के उद्गार आप ही फूट पड़े थे।
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“कल तापस दा का बिआ है मंदिर में|”
“ओ बधाई! … मंदिर से क्यों?”
“तापस दा का मन!”
“नइ बोदी का परिवार बहुत गरीब है, शायद इसलिए!”
“चलो, अच्छा हुआ|” बबन को बधाई देकर फोन रखा ही था कि माँ का फोन बज उठा।
“हाँ, मालूम है|”
“सुचित्रा तो ख़ुश नइ लगता।“ माँ ने पहली बार बोदि का नाम लिया था, वह बोलती रही, “लगेगा कैसे? अब तक ओ अकेला मालकिन था। तापस सब मन पूरा करता था, अब ओ अपना बीबी को देखेगा कि उसका सिंगार–पटार जुगारेगा।”
“क्या जवान विधवा को पहनने ओढ़ने का हक़ नहीं है?”
“किसको दिखाएगा?”
“क्या किसी को दिखाने के लिए पहना –ओढ़ा जाता है?”
“आपरूप भोजन पररूप सिंगार। जब सोहाग नइ तो सिंगार कैसा? किसके लिए? दूसरा मरद को रिझाने के लिए?”
“माँSS!”
चिल्ला पड़ी मैं…. “ऐसा बात तुम वहाँ का औरत सब से करो, जिसको पता नहीं है कि अकेला दो बच्चा को पालना कैसा होता है, जब नौकरी के लायक भी न हो। बोदि पूरा घर जिस तरह संभाल रहा, और भी तो बउ है, कौन करता है इतना? इसलिए न कि उसका किस्मत ख़राब था जो सजोय दा से शादी हुआ। क्या सुख भोगा ओ, क्या जाना? बउ लोग जैसा क्या शौक-मौज किया? आया और चूल्हा–चौका में लग गया…..” माँ ने स्तब्ध होकर बिना कुछ कहे फोन काट दिया।
बोदि जेठा माँ–बाबा और बाकी की तीमारदारी में लगी रही। सोमू और टिक्कु स्कूल से भाग आते। “स्कूल में पढ़ाई नहीं होती तो क्या करें!” सोमू–टिक्कु पर ध्यान देने वाला कोई रहा नहीं। बबन ने भी कहीं नौकरी पकड़ ली। घर की स्थिति चरमराती रही, बोदि का मन ढहता रहा, मगर कभी ज़ाहिर नहीं हुआ भीतर का हाहाकार। यही हाहाकार निगलता गया ….। वह अकेली और अकेली होती गई। मन खंडहर–सा जहाँ अपनी ही परछाहीं डराती हो।
“शर्म! उसको! अब बबन को फाँस रखा है कुलटा ने। देखना उसका भी बिआ में रोड़ा अटकाएगा। मरद को तो खा गई, अब बड़ा–छोटा सबसे नैन मटकन करती है। चाल–ढाल देखो तो…. घर का मरद सबको उकसाता है।…. तुम्हारा बाबा भी…. ”
“हद! माँ! कुछ तो सोचो, क्या बोल रही हो!”
“तुमारा आँख पर पट्टी है। कुछ नइ देखता–सुनता है। यहाँ रहेगा तब न देखेगा लीला। कीर्ति समझता है| तुमसे तो बात करना बेकार है। हमको बबन बोला कि तुमको शादी में आने का जिद करना है, इसलिए फोन किया। तुमारा मन हो तो आना, नइ तो अपना ओ भोला बोदि के लिए सोचते रहना और हमसे लड़ते रहना।“
माँ ने बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए फोन काट दिया।
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“बाबा! क्या हुआ?”
“ओ ,जरा गिर गया। चिंता मत करो। ठीक हो जाएगा। पिछला बराण्डा पर हल्का पानी था, अँधेरा में दिखा नहीं, चप्पल फिसल गया।” फोन पर बाबा की आवाज़ में कराह सुनकर वह तड़प उठी।
“क्या बात है माँ?”
“जैसा करम किया, भगवान वैसा फल दिया।“ माँ की आवाज़ में कटुता थी।
“अब बाबा ने क्या किया?”
“हम देखा बउ को पिछला बराण्डा जाते। बाबा भी देखा होगा, तबी तो पीछे–पीछे गया। क्या करने गया अँधेरा में? पूछो तो … लेकिन सेवा तो हम ई करेगा, ओ तो नइ करेगा!“
“माँ, बाबा अक्सर वहाँ से धोबी काका को आवाज़ देकर बुलाते हैं, इसलिए गए होंगे!”
“ऐसा कोन काम था जरूरी कि उसी समय जाना था। हमको मत सिखाओ ज्ञान… ससुर- जेठ सब का फरक भुला दिया। तुम अपना दुनिया देखो। छोड़ो यहाँ का बात!”
‘माँ की झल्लाहट और बोदि को गलत ठहराते–ठहराते अब बाबा को भी गलत ठहराना कितना गलत है माँ क्यों नहीं समझती! कैसे समझाऊँ कि अपनी सुखी बगिया में शक की चिंगारी न फेंके।‘ वह देर तक सोचती रह गई !
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‘बाबा चले गए। माँ रोई। अब ज्यादा रोती है। अब समझ आता है उसे, अब पछताती है। बोद को लेकर अब कड़े शब्द नहीं कहती। “बोदि की सेवा सोमू कर रहा। बीमारी लाइलाज़ हो गया। समय पर इलाज शुरू नइ हुआ, होता तो शायद बच जाती। अब तो उम्मीद नइ है|” माँ की आवाज़ में करुणा है। बाबा के जाने और अपना जीवन बिखरते देख कर समझ चुकी है दर्द बोदि का। अब कभी शिकायत नहीं करती, नहीं कहती बउ ने उनके बेटों को फाँस लिया है। अकेलेपन का ज़हर पीते–पीते वह अब बोदि का गुण गाती है कि कैसे उसने सजोय का और जेठा माँ–बाबा का सेवा किया। कैसे पूरा घर को जोड़े रही, जबकि उसका घर उजड़ गया।… आज कीर्ति ने उस घर से उसके जीवन का आख़िरी पन्ना भी फट जाने की खबर सुना दी। बोदि चली गई। दोनों जवान बच्चों को छोड़कर… दूर–बहुत दूर…
मैं बाहर बालकोनी में आ गई हूँ, देख रही हूँ आसमान का बदलता रंग। आसमान अब नन्हें बादलों के साथ खेल रहा है। वहीं कहीं हैं सजोय दा और बोदि भी!
बेहद मार्मिक समाज की संकीर्णता का चित्रण करती कहानी। जब पठनीयता बनी रहे तो कहानी स्वयं ही अपनी अच्छाई बताती है। बहुत सुंदर। हार्दिक बधाई
धन्यवाद सुदर्शन जी।
स्त्री के संत्रास को व्यक्त करती बहुत ही भावप्रवण कहानी। यह विडम्बना ही है कि केवल स्त्री पर ही उँगली उठाई जाती है, सारी बंदिशें केवल स्त्रियों के लिए हैं।