इस कालोनी में आये मुझे चार दिन ही हुए हैं। फ्लैट काफी बड़ा है और हवादार भी। टेरेस पर खड़े हो जायें तो सामने बागान की कोठी का लॉन दिखाई देता है। कोठी लाल रंग की है। काफी शानदार ढंग से बनी हुई। देखने से ही महसूस होता है कि कोठी में रहने वाले काफी सम्पन्न हैं। पोर्टिको में खड़ी सीलो कार। अहाते में रखे क्रोटन, डहेलिया, गुलाब और तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूल घर की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे हैं। मैं सोच ही रही थी कि कौन रहता होगा यहाँ।
तभी मुझे वो प्यारी सी, बच्ची दिखाई दी।
‘‘रचना बिटिया’’ आया पीछे-पीछे भाग रही थी और वो एक गुड़िया लिये आगे-आगे।
बच्ची बहुत प्यारी थी। बिल्कुल सुर्ख गोरा रंग, कटे हुए सुनहरी बाल, गुलाबी झलबेला, भूरी आंखें।
मैं उसे खड़ी देखती ही रहती अगर ये मुझे न बुला लेते। मेरे पति एक साइक्रियाट्रिस्ट हैं यानी मनोवैज्ञानिक। यहां मेडिकल कालेज में उनकी नियुक्ति हुई थी।
अब तो मुझे अभ्यास हो गया है वरना पहले घर बदलने में बड़ी परेशानी होती थी। बिटिया मेरी अभी छोटी ही है। इसलिए स्कूल वगैरह की ज्यादा आफत नहीं है।
आते ही महरी भी काफी अच्छी मिल गई। कपड़े धोना, पोंछा बर्तन कर जाती है। साथ में सब्जी काटना, मसाला पीसना और आटा गूंथना भी करती है।
जल्दी ही काम निपटा लेती हूँ और फिर स्निग्धा को नर्सरी स्कूल भेजकर टेरेस से मैं दृश्यावलोकन करती रहती हूँ। आजकल मेरे आकर्षण का केन्द्र लाल कोठी और उसके रहने वाले ही हैं।
सुबह-सुबह देखती हूँ, खानसामा झकाझक सफेद कपड़ों में साहब की मार्निंग टी बाहर लान में ही लगाता है। साहब रौबदार हैं। लम्बे, गोरे चिट्टे गाउन पहनकर अखबार पढ़ते हुए चाय पीते रहते हैं। पंन्द्रह-बीस मिनट बाद मेमसाहब आती हैं। मेमसाहब, खूब नुकीले नैन-नक्शों वाली हैं। बंगाली सी लगती हैं रंग साहब जैसा दूधिया तो नहीं फिर भी काफी गोरा है। बंगाली लावण्य है उनके नमकीन चेहरे पर। देखने पर जल्दी नजर हटाने की इच्छा नहीं होती। फिगर भी काफी अच्छा है, बिल्कुल स्लिम और ट्रिम।
मेमसाहब भी बैठकर चाय पीती हैं और साहब से बातें भी करती रहती हैं। उनकी जलतरंग सी खिलखिलाहट कभी-कभी मेरे कानों में भी रस घोला करती है।
उस दिन मुझे उठने में देर हो गयी थी। उठने के बाद घर के कामों को निपटाकर इनके जाने के बाद मैं अपने प्रिय स्थान पर आ बैठी। देखा मेमसाहब अकेली ही बैठी हैं। रोज की नाइटी की जगह बदन पर मिनी स्कर्ट और स्लीवलेस टॉप है। मुझे नाश्ते में देर हो गई थी अतः मैं टेरेस पर ही बैठी पोहे खा रही थी। तभी चम्मच मेरे हाथों से नीचे गिर गया। आवाज सुनकर मेमसाहब ने सिर उठाया। मैं भौंचक्की हो उठी। रोज के ताजे नमकीन चेहरे की जगह ये कौन है? गाढ़ी पुती हुई लिपिस्टक, बेढंगा मेकअप, हाथ में सिगरेट। मुंह में छल्ले उड़ाते हुए उन्होनें वेटर को आवाज दी। रोज की मीठी जलतरंग की जगह एक सपाट भावहीन सी भद्दी आवाज। आवाज तो जो थी सो थी, लेकिन बोलने का लहजा और बातचीत सुनकर तो मैं जैसे सातवें आसमान से ही गिर पड़ी।ा
“ साले रामदीन सुनाता नहीं है .कबसे कह रहा हूँ .ड्रिंक बना के दे ,मवाली ,चोर.।”
रामदीन अन्दर से आता  दिखा ।हाथ की ट्रे में बोतल ,बर्फ और गिलास।ट्रे उसने मेमसाब के सामने रख दी । चेहरा एकदम निर्विकार।
“अब बना के दे .बनाएगा कौन तेरा बाप या मैं बनाऊंगा “।
फिर न जाने कितनी देर तक उनकी गली गलौज का प्रवाह जारी  रहा मुझे पता नहीं . मैं अपने बिस्तर पर आ गिरी .आश्चर्य ने मेरी सोचने समझाने की शक्ति छीन ली थी ।
पतिदेव घर लौटे तो मैंने उन्हें दिन के घटना के बारे में बताया लेकिन वे थके थे इसलिए ज्यादा तवज्जो नहीं दी।  फिर तो दस बारह दिन में मुझे तमाशा देखने को मिल ही जाता। उस समय मेमसाहब की गन्दी बातें और भद्दे फिकरों में रोज की सुसंस्कृत औरत कहीं खोकर रह जाती ।
एक दिन रात  को हमारे फ्लैट की घंटी बजी । देखा तो रामदीन था .बहुत घबराया हुआ था ।कहने लगा ,” साहब  ने कहा है की आपके साहब को बुला लायें .वो दिमाग के डॉक्टर है न ?”मैंने इन्हें बुलाया । रामदीन से पूछा “क्या हुआ ?”
“ कुछ नहीं कल वाला तमाशा है । आज  ज्यादा कर दिया है ।पहले सिर्फ साहब के जाने के बाद करती रही ।आज साहब दौरे पर जाने वाले थे अचानक दौरा कैंसिल हो गया तो लौट आये ,देखा तो मेमसाहब की भयंकर हालत , किसी ने आपका पता दिया है ।”
पतिदेव जल्दी- जल्दी कपडे पहन कर चलने लगे ,मैं भी उत्सुकता वश साथ हो ली । स्निग्धा सो ही चुकी थी ।बंगले के अन्दर रामदीन सीधे हमें साहब के बेडरूम में ही लिवा ले गया।
घर  बाहर से जितना शानदार लगता था अन्दर से भी उतना ही सजा हुआ था बेडरूम काफी सुसज्जित था लेकिन बिस्तर पर पड़ी हुई औरत के हाव  -भाव को देख कर वितृष्णा हो रही थी बिलकुल वेश्याओं जैसे हावभाव। शराब के नशे में बुदबुदाती जबान से पति को वो जिस भाषा में बुला रही थी मैं यहाँ पर लिख ही नहीं सकती।
पतिदेव ने उसे इंजेक्शन लगाया। लगते ही दास मिनट बाद उसकी आँखें बोझिल होने लगी और वो थोड़ी देर में सो गयी । पत्नी के सो जाने के बाद ही उनके पति यानि साहब हमारी तरफ मुड़े। उनकी जुबानी जो कुछ भी सुना वह जीवन का अनुभव ही नहीं मनोविज्ञान की अनबूझ पहेली भी है ।
मेमसाहब यानी दिव्या आई ए एस ऑफिसर की दुलारी बिटिया थी। माँ के मरने के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली ।विमाता का स्वभाव बहुत तेज था । बात बे बात दिव्या के ऊपर हाथ उठा देती .  हार कर पिता ने बेटी को हॉस्टल में रख दिया। .हॉस्टल में उसे ये महसूस होने लगा की माँ के मरने के बाद पिता का प्यार भी  उसके लिए कम हो गया है। तभी उन्होंने उसे घर के बाहर  भेज दिया है ।  लाहिरीmr जी  ऐसे नहीं थे लेकिन कच्ची  उम्र में दिल में जो बात बैठ जाए आसानी से नहीं निकलती .दिव्या दिन पर दिन अंतर्मुखी होती चली गयी ।.
चौदह साल की  उम्र में दिव्या हॉस्टल से घर आई तो उसका योगेन्द्र से परिचय हुआ।. योगेन्द्र उसकी विमाता का चचेरा भाई था ।.योगेन्द्र ने उसका परिचय शारीरिक संबंधों से करवाया , शर्म और अपमान से दिव्या काठ हो गयी। उसने कई बार विमाता के सामने ये सब कहना चाहा लेकिन उनके व्यवहार ने उसे मुंह खोलने ही नहीं दिया। पिता से ये सब नहीं कह सकती थी। अन्दर ही अन्दर घुटती रही दिव्या और इसी तरह कई साल बीत गए।
        तभी उसके अन्दर मैत्री का जन्म हुआ ।मैत्री अंतर्मुखी दिव्या का बहिर्मुखी रूप , अन्दर अन्दर घुटती भावनाओं ने मैत्री का वह शर्मनाक रूप ले लिया था। जब दिव्या मैत्री बन जाती तो कोई भी उसके व्यवहार  पर चकित रह जाता। हॉस्टल में जब उसका दुर्व्यहार  और उछंख्रिलता सीमा फर्लांग गयी तब वार्डन ने उसके पिता को बुला भेजा । सारी बातें सुन कर उसके पिता के पैरों तले से जमीन निकल गयी .लड़की को साथ लेकर घर आये ।घर पर विमाता ने पहले की तरह दुर्व्यवहार करना चाह तो मैत्री ने उनका जीना हराम कर दिया ।
          जिन परिचितों को इसके बारे में मालुम हुआ तो वो तरह तरह की सलाह देने लगे ।किसी ने इसे देवी प्रकोप बताया तो किसी ने भूत प्रेत की बाधा ।कभी झाड़ फूंक तो कभी गंडे ताबीज यही सब चलने लगा। लाहिरी जी का समय इसी में  बीतता। इतने पढ़े लिखे आधुनिक होकर भी वे जैसे तन मन से पस्त हो उठे थे .फिर उन्होंने मेडिकल कॉलेज में दिव्या का चेक  अप कराया लेकिन चेक अप में कोई भी बीमारी पकड़ नहीं आई। दोस्तों ने राय दी की शादी कर दो हो सकता है शादी के बाद ये समस्या ठीक हो जाये ।
लाहिड़ी जी ने भी यही सोचा। एक बार नैनीताल घूमते समय सुशान्त बोस से उनकी मुलाकात हुई थी। जितने धनी घर का लड़का था उतनी ही प्रखर बुद्धि थी। कम उमर से ही अपनी एक्सपोर्ट की फर्म संभाल रहा था। उन्होंने तभी सोचा था कि दिव्या की शादी की बात चली तो यहां भी किस्मत आजमायेंगे। अतः वे सुशान्त के घर पहुँच गये। दिव्या का सलोना रुप सुशान्त के घरवालों को  पसन्द आ गया और उनकी शादी हो गई।
         शादी के बाद दो साल आराम से गुजरे। परिवार के स्नेह की वर्षा के साथ रचना के जन्म ने उनकी खुशियों में चार चांद लगा दिये। परेशानी शुरु हुई जब दिव्या को सुशान्त के साथ यहां आना पड़ा। सुशान्त के घरवालों ने काम बढ़ा लिया था। वहां पिता और भाई संभाल रहे थे। यहां नई फर्म का भार सुशान्त के कन्धों पर था। सुशान्त दिन पर दिन व्यस्त होता गया और साथ ही बढ़ती गई दिव्या की तनहाई।
        अकेलेपन में उस पुराने मर्ज ने सर उठाया और एक दिन सुशान्त घर के नौकरों से खबर पाकर दंग रह गया कि उसके टूर पर जाने के बाद दिव्या ने मैत्री के रुप में क्या-क्या शर्मनाक हरकतें कीं। फिर तो सिलसिला अकसर चलने लगा। सुशान्त के घर से बाहर जाने के बाद अक्सर थोड़े-थोड़े अन्तराल पर मैत्री का प्रार्दुभाव होने लगा। आज सुशान्त एक जरुरी फाइल घर पर छूट जाने की वजह से घर वापस आ गये। मैत्री के रुप में दिव्या को सामने देखकर उन्हें क्रोध आ गया और उन्होंने उसे एक थप्पड़ दे मारा। फिर तो जैसे प्रलय आ गई। दिव्या ने जो कुछ भी हाथ में पाया सुशान्त पर दे मारा। हिंसक होती दिव्या को बड़ी मुश्किल से नौकरों की मदद से काबू में किया सुशान्त ने।
     पतिदेव ने दूसरे दिन  क्लीनिक पर बुलाया दिव्या को। मेडिकल चेकअप और कई मनोवैज्ञानिक तरीकों से पता चला कि दिव्या को मल्टीपल पर्सनेलिटी डिसआर्डर हैं। इन्होंने बताया कि जब कोई  इन्सान बहुत ज्यादा मानसिक दबाव से गुजरता है तो उसका मन उस दुःख को अपने से एक दूरी पर रख लेता है। इस तरह से वह मानसिक प्रतिरोधी क्षमता को विकसित कर लेता है। बाद में जब भी दर्द भरी यादें सताती हैं तो अपने मस्तिष्क से उन्हें अपने से दूर करने के लिए फिर मन से अलग भागता है .इस तरह उसका व्यक्तित्व दो हिस्सों में बाँट जाता है .एक वो जो दर्द याद रखता है और दूसरा जो दर्द भूल जाता है .व्यक्तित्व के ये हिस्से एक दूसरे को याद नहीं रखते .व्यक्तित्व के दो से ज्यादा हिस्से भी हो सकते हैं .
इसीलिए तो जब दिव्या मैत्री बनती तो उसे मैत्री की करतूतें याद नहीं रहती .दिव्या का इलाज तो जारी है लेकिन मैं सोचती हूँ की जाने ऐसी कितनी दिव्यायें होंगी जिन्हें बचपन की किसी दुर्घटना ने इस तरह बाँट दिया होगा .झाड़ फूंक बाबा ओझा के चंगुल में फंसी इन् को कौन इनके एक होने का अहसास दिलाएगा ???

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