क्यों खुद को कटे हुए लकड़ी की तरह नष्ट कर रही हो, या तो गल जाओगी या डूब जाओगी। जानती हो न! समंदर भी मर्द है, तराशी गई नाव को ही सतह पर तैरने की इजाज़त होती है। बेडौल टूटी हुई लकड़ी समंदर की अथाह गहराइयों में खो जाती है और गल कर बालू हो जाती है।
नाव बनो प्रिया नाव….
उठो !!!
अचानक प्रिया को लगा कोई उसे झकझोर रहा है। ये आवाज़ बदल कैसे गई उसने आँखें खोली…सामने जमुना उसपर झुकी हुई उसे जगा रही थी। तो क्या, वो गहरी नींद में सो गई थी?
इतनी गहरी नींद!..
“जाग बाबा उठो तो… तुमको कबसे उठा रहा हम, कोई भद्रलोग आया है। दोनों दादा और बाबू सब उनके साथ बैठ कर क्या-क्या बातें कर रहा है। तुम तो कैसा सोया है उठो तुमको भी बुलाया है “बाबू”..”
कौन है जिससे बैठ कर घर के सारे लोग बातें कर रहे और उसकी भी बात चल रही है। ये सोचते-सोचते प्रिया ने अपना हुलिया थोड़ा दुरुस्त किया। आदतन बालों का जूड़ा  सही करने गई और मुस्कुरा कर चश्मे को उठाया | नाक पर रख सीढ़ियों तक आई। कुछ धुंधला-सा दिखा उसे आवाज़ भी जानी पहचानी लगी – ओह! यह आवाज़ तो वही …..वही हूबहू।
चश्मे को नाक से खींच पल्लू से पोछते हुए जैसे दिमाग पर जमी धूल को भी साफ़ कर रही हो। प्रिया निचली  सीढ़ी पर जाकर ठिठक गई | अरे! ये तो वही है!..लेकिन इतने सालों बाद अचानक कैसे और क्यों ?
सामने जाते ही वही जानी-पहचानी-सी मुस्कान जैसे थमा-सा हुआ था वक़्त उसके लिये ही। उसी तरह झटके से खड़े होते हुए वो थोड़ा करीब आकर रुका।
“क्या हाल है आपका, कैसी हो ? थोड़ी सी मोटी हो गई हो,दोपहर को इतना सोने से और होगा भी क्या। और ये क्या! बिंदी  काजल कहाँ है तुम्हारी? बिना बिंदी मुर्दा लगती हो तुम, बिल्कुल मरियल बीमार सी”…”
प्रिया सिर्फ़ उसे ही निहारे जा रही थी। शायद वो खुद को यक़ीन दिला रही हो। सपने में भी आवाज़ बन गूँजने वाला इंसान सच पूरे एक दशक का फ़ासला दो मिनट में तय कर उसके बिल्कुल बगल में खड़ा है? तभी वो फ़िर अपनी आदत के अनुसार बोल उठा.. “ओ जोमुना दी, जाओ तो एकटा बोड़ो देखे टिप आनो बोउदी र जोने”…
जमुना ने भी आश्रय से कहा…”जा टिप कोथाय पाबो?”
वो फिर कह उठा “केन आलमारी ते ना होले स्नानघर सोब जाये गये तो ओर टिप थाके”…
धीरे से स्वप्निल ने कहा..”अब किसी स्नानघर में कोई बिंदी नहीं चिपकती”…क्या ये कहते हुए स्वप्निल  ज़रा दुःखी हुए थे या कटाक्ष था वो ! जानने की कोशिश करती  प्रिया उन्हें देखे जा रही थी।
उसे न तब इन बातों की परवाह होती थी न अब हुई। उसने हाथ पकड़ प्रिया को सोफ़े पर बिठाते हुए कहा, “चलो बैठो-बैठो यह तुम्हारा ही घर है। शरमाओ मत भले नेमप्लेट पर तुम कहीं नहीं हो”….
इन लगभग दस सालों में कुछ नहीं बदला उसमें न बोलना, न मुस्कुराना, न ताने, न बेफिक्री, न ज़बान से कम आँखों से ज्यादा कहना, कुछ भी तो नहीं।
ये सोचती हुई प्रिया मन-ही-मन मुस्कुरा उठी… नज़र भर देखा उसे। उम्र ने दस्तक क्यों न दी इसके दरवाज़े, बस कान के पास हल्की सफ़ेदी और जेब मे चश्मे के अलावा।
सबके बीच बैठ कर भी प्रिया वहाँ नहीं थी बाकी लोग बातों में मशगूल थे, चाय नाश्ता जमुना रख गई थी,प्रिया की ज़रूरत तो अब यहाँ सबके मध्य बस इस सोफ़े पर पे बैठने तक है ताकि घर लगे मकान।
लेकिन ये तो बाकियों के लिए था। उसके लिए नहीं… वो कब मेहमान बनकर आया जो आज टिक कर बैठता, चाय ख़त्म करते ही बेटों को एक लिस्ट पकड़ा कर बाज़ार रवाना कर दिया कि, “आज डिनर मैं बनाऊंगा ये सब लेकर आओ दोनों। जाओ-जाओ जल्दी”….
स्वप्निल  ने हँसते हुए कहा “अब भी तुम्हारी पकाने की आदत नहीं गई न”….वो मुस्कुरा उठा और ठुड्डी पर हाथ रखते हुए स्वप्निल  की आँखों में आँख डाल कर कह उठा – “तुम बदले क्या”….और अगले ही पल प्रिया से मुख़ातिब होते हुए कहा उठा, “सुपारी संभाल रही हो क्या मुंह में ? इतनी देर  से इंतज़ार कर रहा हूँ कुछ बोलो, लेकिन तुम न बस, आँखों से ही डरा रही हो”….
प्रिया मुस्कुराने की नाकाम कोशिश करती है। जैसे वो हँसने, रोने, बोलने, रूठने और मान जाने का जतन मन ही मन करती हो। बस चेहरे पे कोई भाव नहीं ला पाती.. वैसे ही।
स्वप्निल  ही अचानक रोष भरे लहजे में कह उठे – “जाने कौन सी दुनिया में रहती है कबसे  ये, न बोलना, न घर द्वार की सूझ, बस ये होकर भी न होना तो कोई इनसे सीखे। पहले कम से कम बोलती तो थी? लड़ती थी, रोती थी,हँसना तो जैसे 24 घण्टे का इनका ही काम था।लेकिन अब देखो”….एक लंबी सांस लेकर जैसे उन पलों को उतार कर जीने की कोशिश करने लगे।
वो एकटक हैरानगी से प्रिया  को देखने लगा \ फिर स्वप्निल की तरफ देखा और आँखों की भोहों को चढ़ा कर मानो  सवाल  पूछा
“ऐसा क्यों ? “
“तुम देख रहे हो न हुलिया इनका? तीन  बरस पहले  एक दिन अचानक गहने,चूड़ी सब उतार दिए,बाल बेतरतीब खुद ही काट लिया,काजल बिंदी धो कर बैठ गई”..! स्वप्निल ने उदास भरे गले से कभी न कही बात आज कह दी
“अब बस बैठी रहती है…कहो तो सो जाती है,पुकारो तो जाग जाती है,न दो तो खाना भी न मांगे, बिठा दो तो जो है खा ले।“
वो बस सुन रहा था स्वप्निल  को और आँखों से पूछ रहा था प्रिया से – “किस बात की नाराज़गी है? और सज़ा खुद को क्यों दे रही हो?”
प्रिया उन आँखों के सवालों से खुद को बचा नहीं पा रही हो जैसे अपने को। मुँह घुमा लिया उसने दूसरी तरफ़ जैसे कह रही हो – “तुम भी नहीं समझ पाये!”..
इतने में बच्चे मय सामान वापस आ गये थे | रसोई में लगकर जाने क्या-क्या बना रहा था वो।खुश्बू वही थी,सबने साथ खाना खाया इस बीच ढेरों बातें हुईं – अचानक  उसने कहा, “अरे गिफ्ट्स हैं सबके लिए।मैं तो भूल ही गया था”…सबको सुंदर से पैकिंग वाले पैकेट पकड़ाने  के बाद सबकी तरफ देखते हुए  वो प्रिया को निहार रहा था। प्रिया को एक पल बुरा लगा उसके लिए तो कुछ भी नहीं था।
उसने कहा “अरे पैकेट्स खोलो सब और देखो तो क्या है”…सबके पैकेट में किताबें थी।
— मेरे मन के एहसास —
इस नाम को पढ़ते ही प्रिया कांप गई, कुछ  सोच ही नही पा  रही थी कि बेटा चिल्ला उठा  “मम्मा आपकी  लिखी हुई है ये तो”….
प्रिया नम आँखों से बस उसे एकटक देख रही थी   और वो मुस्कुरा रहा था। स्वप्निल ने हैरानगी से कहा – “अरे ये कब लिखी इसने? इसकी तो कोई डायरी भी नहीं! और बोलना तक तो भूल गई है यह। लिखती कब है”…स्वप्निल की मोटी आँखें गोल गोल होकर कभी उसको कभी प्रिय को देख रही थी |
प्रिया ने एक झटके से मेज पर रखी किताब को उठाया और सीढिया चढ़ती हुयी  अपने कमरे में आ गयी | दरवाज़ा बंदकर उस पर पीठ टिकाये उस किताब को एक बच्चे की तरह से अपने सीने से लगा लिया । पलंग पर ओंधे मुंह लेटकर और पन्ना पलट कर धीरे से बुदबुदा उठी – “तुम मेरे मन के अहसास “…प्रिया अतीत के गलियारे में तेज़ी से पहुँच गई।
जब प्रिया   उत्तर प्रदेश के एक कसबे बिझौनी से कोलकाता आई थी तो इस महानगर  की भागमभाग देखकर सहम सी जाती थी।सड़क का नाम याद करे कि बस नम्बर…उफ़्फ़फ़ कितने लोग थे यहाँ फ़िर भाषा का भी फर्क | क्या-क्या सही करे।और स्वप्निल के पास फुर्सत ही नहीं थी ।उसका अपना रुआब था | अपना सामाजिक दायरा था |बच्चे काफी छोटे थे अभी। घर से बाहर क़दम निकलने में संकोच रहता था | बाजार जाने के नाम से ही डरती थी वो। ग़लती होने पर स्वप्निल से बुरी तरह डॉट पड़ती थी वो अलग।
एक दिन अचानक डोर बेल बजी.. बच्चे नीचे पार्क में खेल रहे थे | डरते डरते उसने दरवाज़ा खोला एक सुदर्शन सा दुबला सा गोरा सा लड़का ( लड़का ही लग रहा था } बच्चों संग बिल्कुल बच्चों सी हँसी  हंसता हुआ  खडा था| प्रिया की हैरान आँखें देख एकदम से बोला, “मैं आलोक! इसी बिल्डिंग में रहती हूँ”…अचानक  प्रिया ने कहा  “रहती हूँ नहीं रहता हूँ”…
उसने झट जवाब दिया – “ये हिंदी इतनी बायस्ड क्यों है? कॉमन जेंडर नहीं हो सकती|  बंग्ला की तरह, जाता, जाती,हूँ, हाँ इन सब हिंदी में सब एनर्जी वेस्ट”…
मुस्कुरा कर रह गई प्रिया। बात तो सही है। अब वो अक्सर आने लगा नॉन स्टॉप बातें और जाने कैसे-कैसे   किस्से उसके पिटारे में भरे रहते।उसे सब आता था,खेलना,खिलाना,पकाना।
अब आलोक घर का सदस्य बन चुका था | उसकी पत्नी किसी दूसरे शहर में  जॉब करती थी और उसके माता पिता के साथ रहती थी | वो यहाँ कोलकाता  में  जॉब पर था | कभी दिन की शिफ्ट कभी शाम या रात की शिफ्ट में रहता वो, किसी भी समय मिल्क नही है या  मछली ताज़ी किधर मिलेगी, के सवाल लिए आ खड़ा होता था | स्वप्निल का तो प्रिय बन चुका था |
एक दिन स्वप्निल  का ऑफिस से फोन आया, जल्दी से कम्प्यूटर ऑन करना था कुछ जरुरी कागजात  चैक करके बताओ मेल में आये या नहीं ,,
प्रिया बेटे को आवाज़ लगाती हुई छत पर गई कि
“जल्दी चलो बेटा पापा को मेल देखकर बता दो फ़िर खेलना”.
.आलोक भी छत पर बच्चों संग पतंग उड़ा रहा था। बेटे के साथ नीचे उतरकर उसने  “ चाय पिला देंगी “  का सवाल किया | न करने का सवाल ही नहीं था |
चाय पीते पीते अचानक उसने सवाल उछाला “पढ़े लिखे हो न आप? या अंगूठा छाप”..
प्रिया एकदम  तुनक कर बोली – “मतलब क्या है आपका ,  बी ए पढ़ी लिखी हूँ, डिग्री दिखाऊँ क्या”…अब वो मुस्कुरा कर कह उठा “ना बस हिम्मत दिखाई”…
हाथ पकड़ प्रिया को स्टडी रूम में ले जाकर कंप्यूटर टेबल के सामने रखी कुर्सी पर बिठा दिया और कहा – “चलो ऑन करो, आज से तुम्हें एक नई दुनिया में चलना सिखाऊं”..
प्रिया उठती हुई बोली – “अरे ना ना मुझे क्या करना इसका, रसोई सम्भाल लूँ यही बहुत है।”
आलोक ने झट  कंधे से पकड़ उसे वापस बिठा कर कहा – “ना.. चुपचाप बैठो और सीखो”।
जाने क्या था उस वक्त़ आवाज़ में उसके।प्रिया बच्चों की तरह बैठ गई,कुछ ही महीनों में कम्प्यूटर में पारंगत हो गयी |  अपनी पत्नी के लिए शौपिंग  करने के लिए प्रिया से कपड़े पसंद करने का आग्रह करते हुए प्रिया के लिए भी कपड़े  खरीद लेता.. बाद में प्रिया उसको जबरन पैसा दे देती | धीरे-धीरे उसने प्रिया के पहनावे से लेकर उसके लुक तक को बदल डाला।
एक दोपहर उसने कहा – “मुझे हिंदी पढ़ना-लिखना  सिखाओ आप, सिर्फ बोलने से काम नहीं चलता अब “…
प्रिया ने कहा – “क्या करोगे आप हिंदी सीख कर ?”
“जब आप लिखोगे तो पढ़ेगा कौन?”
अब प्रिया चौंक गई।
“अरे बाबा मैं क्या और क्यों लिखूंगी?.”
“क्यों नहीं लिखोगे,इतना अच्छा बोलती हो,उसे ही शब्द दो।और वो जो डायरी है न?उसमें आपका ही लिखा हुआ है।“आलोक शरारती मुस्कान से बोला
प्रिया बस उसे देखे जा रही थी,आश्चर्य के साथ। डायरी कभी खोली नहीं उसने देखी नहीं,फ़िर कैसे पता उसे?
उसने एक क़लम पकड़ाते हुए कहा..लिखो इससे।
वो क़लम आज तक रखी ही रह गई।न तो  प्रिय हिंदी सीखा पायी न कुछ लिख पायी
आलोक को  आगे की पढ़ाई के लिये उसकी कंपनी ने फेलोशिप देकर बाहर ऑस्ट्रेलिया के एक यूनिवर्सिटी में भेज दिया था | एक पल तो प्रिया को लगा  जैसे वो एकदम से खाली हो गयी हैं शून्य सी , लेकिन खुद को सम्भाला और अंदर ही अंदर बुदबुदाई “क्या इस वजह से वो अपने दोस्त को रोक ले!कि वो अकेलापन महसूस करेगी ? इतनी स्वार्थी तो नहीं हो सकती। शनिवार सुबह  दरवाज़े पर दस्तक हुई एक साँवली सी लड़की बड़ी-बड़ी आँखों वाली,गुलाबी कुर्ते सलवार  में खड़ी थी,और साथ ही वो आलोक भी था।आलोक ने ही कहा – “अरे ये अपने दोस्त का घर है। तू चाहे तो इनको भाभी बोल, बोउदी बोल मेरी तो दोस्त है।”
वो मुस्कुराती हुई आकर गले लगी,और कहा कि “मैं मिली हूँ”..प्रिया ने कहा “जानती हूँ तुम्हें। इसके पर्स  में तुम्हारी फोटो रहता  है और दिन भर की बातों में तुम ही होती हो।“
आलोक अपनी पत्नी मिली के साथ ऑस्ट्रेलिया चला गया।और रह गई जो बची सी वो केवल प्रिया।
उसी दौरान फेस बुक ने जब इन्टरनेट  पर काफी धूम मचाई हुयी थी ।और ऐसे में कुछ समय के बाद बच्चों के माध्यम से प्रिया का भी एक एकाउंट बन गया।धीरे-धीरे फेसबुक की दुनिया इस अकेलेपन पर कुछ राहत बनकर आई।समय बीतता रहा और प्रत्येक दिन कुछ नया सीखने को मिलता रहा।फार्म विल्ले खेलते हुए कभी दो लाइन लिखकर इसी दौरान उसने  मित्रों की फेसबुकिया टोली में से कुछ अच्छे मित्र,भाई-बंधु भी बनाये।खाली समय उन्हीं संग कुछ लिखकर,कुछ पढ़कर,कुछ बातें करते,सुनते बीत जाया करता था ।वहीं फेसबुक पर ही मिली थी वो…”ध्रुव” से।
ध्रुव नाम था उसका और अपने नाम ही की तरह वो दूर-दूर रहता था |बहुत शानदार कलमकार था ध्रुव।उसकी पोस्ट प्रिया जब भी पढ़ती,उसी में डूब सी जाती थी।ऐसा महसूस होता था जैसे कि उसने यह कविता,शायरी,नज़्में उसके  लिये ही लिखी हैं।हमेशा उसके लेखन के माध्यम से खुद को खोजते हुए  फेसबुक पर चली जाया करती थी।कमाल का लिखता था वो।कलम का जादूगर था शायद।ऐसा लगता था जैसे हर वक़्त वो साथ हैं एकदम पास।
एक दिन उसने प्रिया के  मैसेंजर में कुछ कहा था या  पूछा  था यह याद नहीं,लेकिन उससे बातचीत का सिलसिला वहीं से बनता गया।अब खाली समय में दोनों खूब बातें किया करते थे।अब तो मोबाईल नम्बर का अदान-प्रदान भी हो चुका था एक दूसरे के बीच।इस तरह फिर  वाट्सप से भी दोनों जुड़ चुके थे।उसका अपना एक अलग जादू था।बहुत सलीके से बोलता और फेसबुक पर गंभीर दीखता वो खूब हँसा करता था।उसके सारे हाव -भाव और बातें करने का तरीका वही थे जो कभी प्रिया सपनों में सोचा करती थी।
इधर बच्चे बड़े हो रहे थे।पढ़ाई का बोझ उनपर बढता जा रहा था।ट्यूशन की व्यस्तता उन बच्चों पर हावी थी।स्वप्निल  भी प्रमोशन पाकर अपने कामों में व्यस्त से रहने लगे थे।
प्रिया इस दुनिया में रहकर भी इस दुनिया से कटती जा रही थी।एक अलग कश्ती में सवार होकर एकाकी भंवर से उबरकर, भावनाओं के समुन्दर को वो पार करने की कोशिशों में लगी थी।
जब कभी ज्यादा कुछ जमा हो जाता मन में,उसे वो निश्चिंत होकर आलोक  के इनबॉक्स में लिख आती थी।उसको इत्मिनान था कि…उसे तो हिंदी पढ़नी ही आती।प्रिया ने जैसे उसके इनबॉक्स को अपनी डिजिटल डायरी बना लिया हो।
एक दिन अचानक आलोक का कॉल आया और धीमे से बोला
“मुझे पता था कि तुम अच्छा लिख सकती हो,मगर इतना अच्छा?वैसे कहीं तुम्हें किसी से प्रेम तो नहीं हो गया न!इस उमर में वैसे होना नहीं चाहिए प्रेम।“
फिर जोर से ठहाका लगाकर बोला
“अरे हाँ…क्या नाम है तुम्हारे हीरो का? और क्या उसको पता है,सब कुछ?” प्रिया एक पल को सकते में चुप रह गई।
 “तुमने हिंदी में लिखा सब कैसे  पढ़ लिया “
आलोक ने हँसते हुए कहा “अरे बाबा, अब ये किस तरह का सवाल? मेरे इनबॉक्स में अगर कुछ आये तो टटोलकर ही सही पढ़ना तो पड़ता ही है न!चाहे ट्रांस्लेटर से हेल्प ही लेकर।“
प्रिया इस उलूल-जुलूल,सवाल-जवाब से अपने पागलपन पर  मुस्कुरा उठी।वो ये कैसे भूल गई,ये डिजिटल वर्ल्ड है यहां सबकुछ मुमकिन है।
” अच्छा यह बताओ इस डायरी का नाम क्या है”?
प्रिया ने बेबाकी से कहा “मेरे मन के एहसास”।
“और यह अहसास किसके लिए लिखे गये हैं ? कौन हैं वो लकी मैन?”
“ध्रुव”…..अचानक के सवाल और जल्दी के जवाब में बोल कर जीभ ही काट लिया प्रिया ने।
उफ़…. क्या सचमें!वो भी ये मन ही मन मान ही बैठी है… कि “ध्रुव”।
थम सी गई थी प्रिया,जम ही गई थी प्रिया।
अगले दिन ध्रुव का कॉल आया,ढेरों बातें वो करता रहा जाने क्या-क्या।प्रिया तो जैसे सुन ही न रही हो या जो वो सुनना चाहती हो वो ध्रुव जानता ही न था।
इसी कशमकश कश में दो साल और निकल गये।प्रिया की कहानियां,फेसबुक पर काफी पसंद की जाने लगी थी।वो धीरे-धीरे साहित्यिक गलियारों में एक चर्चित नाम बन चुकी थी।
स्वप्निल  का गुस्सा उम्र और काम की व्यस्तता से बढता ही जा रहा था।उन्हें जैसे प्रिया के लिखने पढ़ने जैसी इन सारी बातों से चिढ़ होने लगी थी । प्रिया को विभिन्न मंचों,संस्थाओं से बुलाया जाने लगा था।दबी सहमी सी उनकी पत्नी अब एक सामाजिक प्राणी बन गयी थी पुरुष ईगो से बर्दाश्त नही हो रहा था | स्वप्निल का सामाजिक दायरा भी अब उनकी पत्नी के सामाजिक स्टैट्स को लेकर उनको कुछ ल कुछ कहने लगा था |
किस्सागोई के लिए वो कहानियां पढ़ती,तो लगता था जैसे कि एक फ़िल्म पर्दे पर चल रही हो।उसकी आवाज़ के लिए लोगो में दीवानगी थी |प्रिया को जब खुद पर यकीन होने लगा,तो इसका असर उसके व्यक्तित्व में भी दिखने लगा। स्वप्निल अब  धीरे-धीरे दिल और दिमाग़ से दूर हो रहे थे।वैसे सिर्फ देह के अलावा वे पास ही कब थे!
और “ध्रुव”.. करीब आये जा रहा था।जबकि यह खबर और इस बात का गुमां उसे भी न था।
एक शाम किसी साहित्यिक कार्यक्रम से वापसी में प्रिया को कुछ देर हो गई।घर में इसी बात को लेकर स्वप्निल  ने एक तूफ़ान खड़ा कर दिया।उसी वक़्त “ध्रुव” का कॉल आया।
स्वप्निल  ने गुस्से में उसे भी जाने क्या-क्या कह दिया।
गुस्से और दुःख के इस उहापोह में अपमान का घूंट पीती हुई प्रिया,पूरी रात सोफ़े पर बैठी गुजा़र गयी ।स्वप्निल को कोई फ़िक्र न हुयी कि प्रिया  पूरी रात कहाँ सोई |
दूसरे दिन दोपहर ध्रुव का कॉल आया।पता नहीं कैसे कम जवाब देने या चुप्पी से उसे यह आभास सा हुआ था कि कुछ तो हुआ है।उसने बड़े ही आत्मीयता से कहा   “प्रिया”..शायद कुछ हो रहा है तुम्हारे साथ और तुम्हारे घरेलू जीवन में,कारण हो भी सकता है मैं ही रहा होऊंगा।मैं यह नहीं चाहता कि तुम्हारी गृहस्थी के उजड़ने का मैं कारण बन जाऊं।अब इस उम्र में क्या गलत और क्या ललक।तुम यदि कुछ साल पहले मुझे मिली होती,तो निश्चित ही ब्याह कर घर ले आता तुम्हें यार।अब देखो न!हम दोनों की  अलग-अलग दुनिया है,बच्चे भी टीनएजर्स हैं हम दोनों | “
बोलते-बोलते गले में जैसे कुछ शब्द अटक से गये हों।शायद वो आंसू में था या आवाज़ लड़खडा़ई थी।प्रिया नहीं समझ पाई इस कंपन का राज़।तभी उसने अपने आपको कुछ सम्भाला।वो फ़िर से कह उठा..।
“वैसे तुम्हें कभी कहा नहीं लेकिन आज सुनो! तुम काटन की साड़ी पहन कर जब बड़ी सी बिंदी लगाती हो,और इन बड़ी-बड़ी आँखों में काज़ल लगा कर मेरे सामने विडिओ कॉल पर  आती हो,तो बड़ी प्यारी सी लगती हो।बिल्कुल किसी ख्वाब के पहले पहर सी और ऐसी कि….एक बार बस,इस काज़ल लगी आँखों और बिंदी लगी पेशानी को होठों से चूम लेने को जी चाहता है।आज जो दिल में ठहरा था सो कह पाया,क्योंकि अब अलविदा, अब हम कभी बात नहीं करेंगे “….।
प्रिया सकते  में आ गई।धम से वहीं ज़मीन में बैठ गई।अभी खुशी मिली अभी ग़म उतर आया?प्रिया ने अपने आपको ज ब तक काबू किया,फोन बंद हो चुका था उसका। आजतक न उस नम्बर से कोई कॉल ही आया और न प्रिया ने नम्बर डायल करने का प्रयास ही किया।बस उस पल से उसी पल में खुद को खुद में ही मार डाला गया।दर्द  में जान देना यानी जिस्म को मारना है,यह किसने कहा?…रूह को मार कर अपनी ही लाश को ढोना भी तो एक मौत है।
“आलोक” के इनबॉक्स में भी ये सब लिखती रही  प्रिया।वहीं तो सबकुछ सहेजती थी।
इस हादसे के बाद  “प्रिया” ने कभी बिंदी न लगाई, और न काज़ल को छुआ।बस कै़द होकर एक कमरे में रह गई उम्रकैद झेलने के लिए।उस गुनाह के लिये जो किया भी था और नहीं भी।आज १० साल बीत गए इस बात को।पूरे घर को आदत हो गई है इसी प्रिया की।स्वप्निल की डांट की चुभन से ध्रुव की कही बात के कंपन से लेकर  इस चुप्पी तक,जो उस स्याह से सुबह को,गले में अटका था सांसों के साथ वही हिचकी,वही चुप का गोला,अब चट्टान बनकर अवरुद्ध कर गया कंठ।आज भी एक लाश अपने कमरे में टहलती है।आज भी एक रुह खिड़की के उस पार भटकती है।

 

आशा पाण्डेय
कोलकाता
संपर्क – ashandey1974@gmail.com

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