वे फागुन के खुशनुमा दिन थे। पेड़ों की छाँव-धूप में रंग घोलने लगी थी। गुनगुनी बतास में जैसे तितलियाँ अठखेलियाँ करतीं हैं,माला भी तितली बनती जा रही थी। गुस्सा तो तब बहुत आता था जब वह चलती क्लास में कहती,”लाली! तुझे मालूम है? पापा लड़का देखने जयपुर गये हैं। वो भी मेरे लिए!”
“चुप्प…गए होंगे,अभी तो पढ़ ले मेरी माँ!” 
चिढ़कर मैं कहती तो वह फ़िक्क से हँस देती और कहती,”तू ठीक से लिख,तेरी ही कॉपी देखूँगी।” उसे देखकर कोई भी कह सकता था कि माला के दिन-रात बेहद हसीन होंगे!
ग्यारहवीं क्लास पास करते-करते माला अक्सर गहने-कपड़े का मोल-भाव मुझे बताकर शादियों के किस्से सुनाने लगी थी। हर किस्से का अंत अपने से जोड़कर करती,”मेरे पापा बहुत अच्छे हैं। अभी तक कम से कम बीस लड़के देख चुके होंगे लेकिन मुझे पता है, वे मेरा दूल्हा अच्छा वाला ही चुनेंगे। तो कभी कहती, उन्हें लड़का मिल तो गया है लेकिन पापा उसकी जासूसी कर रहे हैं।” दरअसल माला बताना चाहती थी कि उसके पिता का मानना है कि जिस लड़के को अपनी बेटी के लिए चुनो उसके घर-खानदान के बारे में शादी से पहले पता लगा लेना ही अक्लमंदी है। सुई की नोंक भर बात कच्ची मिलने पर निर्णय बदल सकते हैं। मगर उसकी माँ को माला के हाथ पीले करने का जैसे भूत सवार था। कारण थी माला की नानी। माला की माँ अपनी माँ की इकलौती औलाद थी इसलिए वे अपनी माँ का जुमला,”माला बहुत सयानी हो गयी है” को ख़ारिज नहीं कर पा रही थीं। लेकिन माला की माँ के विचलन पर भी उसके पिता अपनी ही कहते रहते,”मुझे बेटी ब्याहनी है, गुड़िया नहीं। जब तक ठौंक-बजाकर पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो जाऊँगा,ढूँढ़ता रहूँगा।” ये सब बातें बताते हुए माला किसी बिगडैल किन्तु लाड़ली लड़की की तरह अक्सर मचल-मचलकर अपने पिता के दुलार को सुनाकर मुझपर और चंपा पर रौब जमाती रहती।
खैर,अभी माला का गौना और मेरी बाहरवीं क्लास पूरी हो पायी थी कि मेरे लिए भी लड़का देखने की बातें मेरे घर में चल पड़ी थीं। मुझे देखकर आजी उँसाँसें भरते हुए अक्सर कहतीं,”हे ईश्वर दुश्मन को भी बिटिया न देना…।” उनके बेटे यानी कि अपने पिता का स्वाभिमान घटाने वाली मैं,उनको फूटी आँख न सुहाती। लेकिन माँ मेरा होना अपराध नहीं मानती थीं इसलिए मुझे कोई गम नहीं था। आख़िर आजी ने ‘दही-मछली’ का उवाच पढ़कर एक दिन पिता को भेज ही दिया। वे तीसरी बार किसी के घर लड़का देखने के नाम पर गये थे। किसी को क्या पता था! कि लड़का उन्हें सड़क पर पड़ा मिल जाएगा। दरअसल इस मामले में मेरी माँ, माला की माँ से भाग्यवान निकली थीं। आख़िर साइंस साइड का विद्यार्थी उनका पति कुछ तो वैज्ञानिक सोच रखता? मेरी माँ के पति ने अपने अन्य कार्यों की भांति बेटी ब्याहने में भी अपना शोधपूर्ण नज़रिया ही अपनाया था। किसी के बताए अनुसार जा कहीं रहे थे और हवा के झौंके की तरह किसी ने ऐसा रेशमी मोड़ दिया कि पहुँच कहीं और गए। पहुँचना एक बात थी, पिता पहली बार में रिश्ता पक्का कर आये। उसके बाद उन्होंने मेरी कुंडली उस पंडित से मिलवाई जो पिता का अंधभक्त था। उसने छत्तीस गुण मिलाकर ‘ललिता-हृदेश’ की जोड़ी सामन्य वर-बधू की श्रेणी से हटा कर राम-सिया की जोड़ी बना दी। एक ये बात तय की गयी शादी को अटल दृढ़ता दे रही थी। दूसरे उनके समाजशास्त्री नेता टाइप एक मित्र ने लड़के को बाज़ार में स्कूटर से निकलते देख कर पिता की पीठ थपथपाते हुए शाबाशी दे डाली थी कि उन्होंने लड़का ‘गुलाब का फूल’ ढूँढा है। मैंने अपने पिता को सदैव ही विशेष आदर्शपूर्ण बातें और बेजोड़ मेहनत करते ही देखा था। सो माँ का पता नहीं, मुझे उनके चुनाव पर पूरी तसल्ली हो गयी थी। 
मुझे आज भी याद है कि जब पिता मेरा ब्याह पक्का कर मानसिक रूप से हल्के होकर घर लौटे थे तो  आजी ने जैसे ही खुशखबरी सुनी थी, दौड़कर चुटकी भर राई-नोन पिता के सिर से उतार कर आग में झौंक आई थीं। पिता भी उस दिन बेहद खुश थे। माँ ने इशारा किया तो कटोरी में लड्डू और गिलास में पानी देकर मैंने भी खम्भे की ओट ले ली। पिता ने बैग आजी को पकड़ाया और कुर्ता उतार कर आँगन में लगे हैंडपम्म के डंडे पर टांग दिया। माँ झपटकर उठीं उन्होंने कुर्ता अपने कंधे पर रख लिया और पीतल की बाल्टी में पानी खींचकर पिता की ओर बढ़ा दिया। हाथ-मुँह धोकर वे चौकी पर बैठ गये। थकन के बावजूद बहुत देर तक वे अपनी अक्लमंदी की बातें करते रहे थे। जिसे सुनकर आजी निहाल होती जा रही थीं लेकिन माँ शांत भाव से सुनती जा रही थीं। जब बहुत देर तक माँ कुछ नहीं बोलीं तो पिता उनकी तरफ  मुखतिब होते हुए बोले।  
“सुमन, तुम कुछ नहीं कहोगी? देखा अम्मा, ये तुम्हारी बहू! नाहक परेशान हो रही थी। हम कहते थे न! जिस दिन ललिता के लिए लड़का देखने की नौबत आएगी,चुटकी बजाने की देरी रहेगी…’ वही हुआ। लड़का देखने के नाम पर दीनानाथ श्रीवास्तव जी का ये तीसरा ही तो घर है और उनसे मुलाकत पहली। बड़े सीधे-सादे आदमी मिले हैं। हमने उनसे लेन-देन के बाबत पूछा तो कहने लगे कि हम कुछ नहीं जानते। हमारी माताजी अगर आपसे हाँ कर देंगी तो हमारी ओर से ओके समझना, पटेल साहब।”
“हैं!! तो क्या मान गयीं उनकी…?” मेरी माँ उस दिन थोड़ा-सा होंठों में मुस्कुराई थीं। 
“मानना ही था। जहाँ हमने उनके पाँव पर अपना सिर टिकाया, वहीं हँसकर वे कहने लगी।” अरे रे रे! उठो उठो पटेल, अब तुम भी दीनानाथ से कम थोड़ी रहे हमारे लिए।” बस जाओ आराम से अपने घर हो गयी शादी पक्की। ख़ुशी रही!”
माँ की अचम्भित आँखें घबराकर थोड़ी और बड़ी होकर फ़ैल गईं। पिता उनकी ओर से अपनी तारीफ़ सुनने को लालायित थे सो लड्डू खाते हुए उन्हीं को निहार रहे थे। आजी मसनद की टेक लेकर वहीं चौकी पर लुढ़क कर,”ऊसर गुड़ाय बाबुल ककरी बुआई, न जाने करुई की मीठी…” लाड़ली गीत गुनगुनाने लगीं। लेकिन माँ जब बोलीं तो जैसा चम्पा बताया करती थी; बिलकुल उसकी माँ की तरह प्रश्न पर प्रश्न करने लगीं। पिता ने भवें चढ़ाते हुए उनके सभी प्रश्नों के उत्तर,”लड़का लेखपाल की नौकरी करता है” एक वाक्य में समेट दिए। माँ फिर भी संतुष्ट नहीं हुई थीं सो प्रश्नों की सूची लेकर उनके पीछे ही पड़ गईं।
“लड़के में कोई ऐब तो नहीं है? उसके पिता का स्वभाव कैसा है? उनके घर की औरतें कैसी दिख रही थीं? उनके चेहरों पर रूहत थी? औरतों ने साड़ी ऊँची-ऊँची तो नहीं पहन रखी थी? आदमी लोग कपड़े कैसे पहने थे? कमीज़ों की बटनें आधी टूटकर लटक तो नहीं रही थीं? लड़के के भाई-बहनों ने आपसे नमस्ते की थी? उनके चाय-पानी के बर्तन कैसे थे? कप की तली में चायपत्ती जमी तो नहीं मिली? कपों की कोरें चटकी तो नहीं थीं? वर्तन उधार मतलब किसी से माँगे हुए तो नहीं थे? कौन आया था जलपान लेकर? शादी की बात किसने की थी? बातें करते हुए कितनी बार लड़के के पिता ने अपने बारे में सेखी बघारी? आत्मकेंद्रित आदमी तो नहीं ? आत्मगौरव सही किन्तु आत्मकेंद्रित व्यक्ति सभी को बेबकूफ समझता है। आपमें कोई रुचि दिखाई उन्होंने….? घर का रंग कैसा था? उनका दीवानखाना कैसा लगा? पलंग पर चादर साफ़ बिछी थी? चादर पर सलवटें तो नहीं दिख रही थीं? हाथ पंखों की झालरें उधड़ी तो नहीं थीं? उनके घर में बिजली के बल्ब लटके हुए दिखे? हीटर तो नहीं चलाते हैं वे लोग? याद है न! आपको, मालती की बिटिया हीटर से चिपक कर…। अरे कुछ तो बोलो! उन्हें लड़की कैसी चाहिए ? क्या ललिता उनके घर लायक है भी? अपनी ललिता लायक वह है भी?”
लगातार माँ के प्रश्नों को सुनते हुए मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था सो मेरा दिमाग चकराने लगा। मैंने देखा पिता का चेहरा भी थोड़ा-थोड़ा  तमतमा उठा था। आजी खरी-खोटी माँ को सुनाकर उठ गयी थीं। पिता ने गमछे से माथा पोंछते हुए अपने वाले उत्तर में दो चार बातें और जोड़ दीं। 
“लड़का नौकरी करता है। उसके घर में तिज़ोरी है। लड़के के बाप-दादे ज़रूर जमींदार रहे होंगे। आज के जमाने में घर में तिज़ोरी होना क्या मज़ाक है! हमारे जैसे छोट-मोटे व्यापारी के लिए तो ये बहुत बड़ी बात है। ऐसी बात नहीं…,अपनी लड़की के लिए भी मैंने पूछा था। श्रीवास्तव जी कहने लगे, माताजी ने शादी के लिए हाँ कह दी है तो अब लूली-लंगड़ी लड़की भी होगी तो भी हमारे लिए ठीक है।” 
माँ ने अपना सिर पकड़ लिया। मौका बचाते हुए चिकने घड़े-से पिता बाहर चले गये। उस दिन के बाद से माँ के जी में एक घुन-सा लग गया। वे कुछ भी करतीं लेकिन उनका मन उड़ा-उड़ा-सा रहता। मेरी ओर देखती तो अनायास ही आँखें भर आतीं। उसके बाद उठते-बैठते दबी जबान में सही, वे लगातार कहती रहीं,”एक बार और चले जाते श्रीवास्तव जी के यहाँ। उनके गाँव में कोई तो ऐसा मिलेगा जो उन लोगों की सही-सही जानकारी दे सकेगा। एक बात हमेशा ध्यान रखना-उन व्यक्तियों से कभी मिलकर कुछ मत पूछना जो लड़के वालों के शुभचिंतक हों। वही लोग पहले बड़ी-बड़ी तारीफ़ें हाँकेंगे बाद में हवा हो जायेंगे। जिन्हें श्रीवास्तव जी के कार्य-व्यापार की पुख्ता खबर हो, उनसे मिलकर कुछ पूछ आओ। अच्छा छोड़ो, घर-खानदान जैसा भी हो, चलेगा। लड़का और उसके पिता के बारे में पूरी जानकारी ले आओ। अभी बात अपनी है। एक बार ललिता उनके घर पहुँच गयी तो फिर कुछ कहते नहीं बनेगा। कितना भी लोग कहें कि नई पीढ़ी असरदार होती है। लेकिन पिता के गुण बच्चों में बहुत जाते हैं।”
माँ की हर बात से उनके घायल हृदय की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता था लेकिन उनकी बौखलाहट पिता को नागवारा सूझती जा रही थी। आजी अलग ही माँ पर तानाशाही झाड़ रही थीं। जिस घर में साथ में खाना खाने का नियम-सा था। उस घटना के बाद से सभी अलग समय पर खाना खाने लगे थे। ताकि कोई किसी से कुछ कह-सुन न सके। भयंकर तनावपूर्ण माहौल में एक दिन पिता, माँ से बोले,”कल किसनपुरा जा रहा हूँ। साथ में मंसौदपुर वाले ज्योतिषाचार्य भी जायेंगे। सुबह दो-चार घी की पूड़ी सेंक देना।” 
माँ सिलौटी पर चटनी पीस रही थीं सो हाथ रोकर पिता की ओर ताकने लगीं। “फिर वही अपनी बात! घर-वर की ख़ोज में ज्योतिषाचार्य का क्या काम? लड़की के पिता का जागरूक होना जरूरी है। आप ठीक से तहकीकात करके आना। पूछने-बताने में झिझकना मत।” माँ और भी कुछ कहना चाहती थीं, लेकिन पिता की हमेशा से हिदायत रहती आई थी कि जब वे बाहर जाने की योजना बनाएँ तो कोई भी उनका मंतव्य न पूछे। उनकी आग्नेय आँखें देखकर चुप्पी साधने में ही, माँ ने भलाई समझी।
“तुम्हारी वजह से अपना सारा काम छोड़कर लड़के की जासूसी करने गया था। कोई सुने तो क्या कहेगा! लेकिन चलो, ये भी सही। हमें कुछ समय पहले ही पता चला था कि श्रीवास्तव जी का लड़का छुट्टी आया है। सो किसनपुरा के पास वाले कस्बे में पंडित जी के साथ पान की टपरी में बैठा रहा। वह टपरी लड़के के किसी स्कूल मित्र की थी। जैसा कि लोगों ने बताया था कि लड़का वहाँ आता-जाता रहता है। थोड़ी देर इंतजार करने के बाद सच में वह साइकिल से आ पहुँचा। उधर उसने ‘गणेश छाप’ तंबाकू की पुड़िया माँगी इधर मैंने पंडित जी को इशारा कर दिया। मंतव्य भाँपते हुए पंडित जी ने लड़के के माथे की लकीरें पढ़कर गणित लगाया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए बोले,”पटेल साहब लड़का,हीरा ढूँढा है।” अब हो गई शांति? दिमाग खराब करके धर दिया था इस औरत ने। पता नहीं खुद को क्या समझती है। औरतों को यदि नाक न होती तो….’ काहे अम्मा, हमने सही कहा न ?”  
मेरी माँ से तकरार और अपनी माँ से इसरार करते हुए पिता उठ खड़े हुए थे लेकिन लड़के की तम्बाकू वाली बात पर माँ अटक गईं। “लड़का तम्बाकू ही खरीदने क्यों आया था? और फिर ख़रीदने आया था तो वह खाता भी जरूर होगा? सुनो जी! तंबाकू तो दूर, तुम तो इलाइची भी नहीं खाते हो। यदि लड़के में नशे की लत निकली तो ललिता कैसे निबाहेगी? और अपने समाज में दोष लड़की को ही दिया जाएगा। अब छाया में उगने वाले पौधे को उखाड़कर धूप में यदि रोप दिया जाए तो क्या वह फूल-फल दे सकेगा? कच्चा कपड़ा भी तो अपना रंग उतारने में वक्त लेता है। ललिता तो लड़की है और इतनी बड़ी भी नहीं, कहीं और देख लेंगे।”
पिता ने माँ की किसी बात का प्रतिउत्तर देना ज़रूरी नहीं समझा और मेरी शादी दीनानाथ श्रीवास्तव के लड़के हृदयेश से होने की तिथि नज़दीक आ गई। इलाइची भी न खाने वाले पिता ने शराब-सिगरेट का स्वाद चखते हुए शादी का जश्न शान से मनाया। वर पक्ष से आए चढ़ावे में क्या आया? क्या नहीं आया? रिश्तेदारों ने माँ को घेरना शुरू कर दिया था। जो रिश्तेदार पिता की ख़ुशी देखकर अंदर ही अंदर जले-भुने जा रहे थे- वे माँ की खराब स्थिति जानकर मुस्की छोड़ते हुए उन्हें कुरेदने लगे।
”सुमन, तुमने तो सच में कुछ भी नहीं देखा! भूखे-नंगों के घर बेटी ब्याह दी….।” दूर के मामा ने माँ के आगे अपनी भड़ास उलट दी।
आँचल से मुँह दबाते रोते-बिलखते अकेले में मौका पाते ही माँ ने पिता से कहा,”लड़की कैसी सूनी-सूनी मंडप के नीचे बैठी है। न कान में बाली हैं न गले में मंगलसूत्र और न ही तुमने कुछ उसके लिए….। माँग-टीका और एक-एक कँगन लाए हैं, श्रीवास्तव जी। ऊपर से कंगनों की नाप भी छोटी है। मैं लाली के कान में उसके बचपन की बालियाँ डालने जा रही हूँ।” पिता झल्लाते हुए बोले,”जिसकी बहू है अब वे जाने। मेरा काम आज से खत्म हुआ। तुम तो बस विदाई की तैयारी करो सुमन। हल्का-फुल्का नाश्ता खिला-पिला कर सबको रफ़ा-दफ़ा करेंगे….।” 
“और लाली का क्या? जिस उम्र में आपने उसे ब्याह दिया है, इस उम्र में लड़कियों को शादी का मतलब सिर्फ़ गहने-कपड़े ही समझ आता है और उसके पास तो वो भी नहीं।” माँ सुबक पड़ीं।
“तुमसे जितना कहा जा रहा है उतना ही सुनो। ज्यादा दिमाग़ लगाने की ज़रूरत नहीं।” आँगन में पड़े पीतल के पतीले को पिता ने पाँव से ऐसा उछाला कि वह मंडप पार करते हुए मामी के सिर पर जाकर गिरा। घर में लेने के देने पड़ गये। पिता के क्रोध ने उन्हें भी सब कुछ जानने का अवर दे दिया जिनसे कुछ बातें छिपी थीं।
माँ अपने दुःख को कडुई दवाई की तरह निगलते हुए मेरी विदाई की तैयारी में लग गईं। मामियों और भाभियों ने पीले चावलों का कौंछ डालकर मुझे उस रास्ते पर रवाना कर दिया था जो उस देहरी की ओर अब कभी लौटने वाला नहीं था। माँ मेरे और अपने भाग्य पर देर तक निश्चित ही बिसूरती रही होंगी लेकिन मेरे जीवन ने तो गहरे मौन के साथ चुपचाप ‘यू-टर्न’ ले लिया था। नाव तालब पर बाँधी गयी थी या नदी पर, ठाँव जानने की बारी अब मेरी थी।
***
अजनबियों के बीच मन में गहरे सन्नाटे समेटे मैं अपने में खोई-खोई बतख-सी सिमटी एक दालान में बैठी थी। मेरे कानों में दूर से हल्की आवाज़ें पड़ रही थीं। उन्हीं में कोई नयी दुल्हन के लिए कमरा कौन-सा ठीक रहेगा? कह रहा था। जिस पर बहुत देर विचार-विमर्श चलने के बाद किसी ने कहा था तिजोरी वाला कमरा ठीक रहेगा। ‘तिजोरी’ शब्द ने मेरे मन में एक कौंध पैदा की थी। दूसरे दिन रात को बड़े-से अहाते को लाँघते हुए मुझे उसी कमरे में पहुँचाया गया था। चारों ओर कपड़ों से लदीं खूँटियाँ हाँफ रही थीं। एक पीले बल्ब ने कमरे में मेरा स्वागत किया। जहाँ मुझे बैठाया गया था वहाँ दीवारों की दरारों में बीड़ी,सिगरेट के अधजले टुंडे और टूटे बालों के गुच्छे अटके दिख रहे थे। नमी की बदबू मेरी नाक में सनसनाहट पैदा कर रही थी। मैंने अपनी मेंहदी वाली हथेली जब नाक पर रखी तो राहत मिली। सब ओर घूमते हुए जब तिजोरी पर नज़र पड़ी तो माँ के सारे प्रश्न जो उन्होंने पिता से पूछे थे; जहन में उछल-कूद मचाने लगे। ढलती रात के साथ मैं अकेली निरापद एकाकीपन में भींगती रही। फिर अचानक मेरी गहरी ऊँघ में लगा किसी ने मुझे पाँव से ठेला था। आँख खुली तो देखा माँ का पहला प्रश्न “लड़के में कोई ऐब तो नहीं?” का उत्तर अपनी भयंकरता के साथ प्रस्तुत हुआ था। मेरी रूह की भी रूह काँप उठी। जिस दीवार से पीठ सहारा लिए थी अगर न होती तो कभी न लौटने के लिए शायद भाग गई होती। खैर, पहली रात की सिसक में मेरा बचपन वाला सम्पूर्ण आह्लादित जीवन बिना बोले आकंठ खेद के साथ डूब गया। और नाव को ज्ञात हो गया था कि उसे तालाब के किनारे पर बाँधा गया था,जो कीचड़ से लबालब भरा था।
प्रिय माँ!
स्नेह!
अत्र कुशलम् तत्रास्तु! माँ,अपने यहाँ लड़कियाँ माता-पिता के पाँव क्यों नहीं छूती हैं? देखो तो नियम बनाने वालों ने माता-पिता के आशीर्वाद पर भी लड़कियों का हक़ नहीं रहने दिया। खैर, मेरे न आने का पत्र तुम्हें मिल चुका होगा। ससुर जी की माताजी बता रही थीं। कि उन्होंने मेरी विदाई देर से होने की खबर तुम्हें भेज दी है। माँ, वैसे तो मेरी ‘बहू-रसोई’ दूसरी बार आने पर छुआई जाती लेकिन विदाई का शुभ मुहूर्त निकल ही नहीं रहा है। इसलिए लगभग एक महिना बीतने के बाद ही मैं तुम्हारे पास आ सकूँगी। कुछ खरमास का चक्कर भी बताया जा रहा है। मुझे तो ये डर लग रहा है कि अगले से अगला महिना यदि मैंने यहाँ बिताया तो मेरा ज़िन्दा मुँह तुम देख भी पाओगी या नहीं। अरे मैंने तो मजाक कर रही हूँ लेकिन ये बात मैं अच्छी तरह जानती हूँ, जितनी मुझे तुम्हारी याद आ रही  है, तुम्हें भी आती होगी। इसलिए अपनी ओर से ये पत्र छिपा कर लिख रही हूँ। 
माँ, वैसे तो सारी बातें आपको घर आकर ही बताती लेकिन जिन बातों को मैं किसी भी तरह हजम नहीं कर पा रही हूँ, लिखने जा रही हूँ। लेकिन पहले वादा करो कि तुम रोओगी नहीं। पिता ने सच में मेरे लिए बहुत अच्छा घर-वर ढूँढ़ा है। वह अलग बात है कि मुझे अच्छा देखने का शायद शऊर नहीं। हाँ, पिता और आजी को बता देना कि ‘वर’ में नौकरी छोड़ सारे गुण मौजूद हैं। जिन लोगों के बीच रहती हूँ, उनके बोलने-चालने का अंदाज़ भी बड़ा निराला है। मुझे कुछ भी समझ नहीं आता और कुछ भी अच्छा नहीं लगता लेकिन रसोई पूजा के बाद गृहकार्यों की पूरी ज़िम्मेदारी मेरी हो गयी है। सारा काम खत्म करते-करते तीन बज जाते हैं। मुझे नहीं मालूम लेकिन क्या पिता ने शादी में लेन-देन में कुछ हेरा-फ़ेरी की है? यहाँ के लोग घुमा-फिरा कर बहुत कुछ बुरा-भला उन्हें सुनाते रहते हैं। पिता के लिए कुछ भी गलत सुनना मुझे असहनीय पीड़ा से भर जाता है। अपना आँगन,अमरूद की छाँव और आसमान पर उड़ते पंछी, बहुत याद आते हैं। दिन कैसे कट जाता, नहीं पता लेकिन हर रात मुझे बहुत रुलाती है। इस घर के लोग शाम को जान-बूझकर बेसिर पैर की बेतुकी चर्चायें छेड़कर बैठ जाते हैं। और घंटों बेबात की बात पर बहसा-बहसी करते रहते हैं। बड़े-छोटे का किसी को कोई लिहाज नहीं। सबसे ज्यादा खतरनाक ये देखना होता है कि चलते-फिरते ससुर जी सासू माँ को लात मारकर गिरा देते हैं। जब वे कराह कर उठने की कोशिश करती हैं तो उनके अपने बच्चे भी पिता के साथ ठट्ठा मारकर हँस पड़ते हैं। उससे भी ज्यादा बुरा तब लगता है जब ससुर जी की करतूत पर माताजी, सासू माँ को ही उनके शारीर में जान नहीं है क्या? कहकर डाँटने लगती हैं। 
खैर,मालती मौसी की बिटिया की वजह से तुमने कभी घर में हीटर नहीं जलाया। यहाँ खाना हीटर पर ही बनता है। एक दिन रोटी सेंकते हुए हीटर ने मुझे ऐसा करेंट मारा कि दो दिन दाहिना हाथ ऐंठता रहा। जबकि कोई भी यहाँ काम धंधे पर नहीं जाता है फिर भी सुबह से लेकर शाम तक कुछ अच्छा खाना है, की पुकार गूँजती रहती है। खाने-पीने की वस्तुओं को उधार ले-लेकर खाने में भी इन लोगों को कोई गुरेज़ नहीं है। इस बात को सुनकर हो सकता है तुम्हें घिन आ जाए लेकिन दीनानाथ श्रीवास्तव जी भरी गरमी में भी तीन-तीन दिन स्नान नहीं करते हैं। मुझे खुद बहुत ताज़्जुब होता है, जब उनकी माताजी उन्हें छोटे बच्चे की तरह स्नान करवाने के लिए घेरती हैं; तब वे अपना पहना हुआ जाँघिया उलट कर पहन लेते हैं। और कहते हैं कि,”लो सूर्य स्नान कर लिया।” माँ, क्या पिता भी ऐसा करते हैं? मुझे लगता तो नहीं….। 
वैसे तो शादी के बर्तनों में से मैं कोई भी बर्तन सासू माँ की आज्ञा से निकाल सकती हूँ लेकिन तुम्हें बता दूँ यहाँ हर थाली-प्लेट-कटोरियों में गहरी पचकें पड़ी हैं। टूटे-पचके बर्तनों में खाना-पीना खाने में मुझे बहुत बुरा लगता है। एक दिन जब रहा नहीं गया तो सासू माँ से पूछ ही लिया। उन्होंने जो बताया, सुनकर रूह तक थर्रा गयी। इस घर में खाना में थोड़ा-सा भी स्वाद इधर-उधर होने पर लोग खड़े-खड़े थालियाँ फेंक देते हैं। सासू माँ ने साक्ष्य के रूप में अपना एक पाँव दिखाया जो फैकी थाली में से गर्म दाल की कटोरी फैलने से जला था। साफ़-सफाई जैसी तो कोई बात किसी में है ही नहीं। अपने अनुसार मैंने कुछ साफ़-सुथरा करना चाहा तो बड़ी माताजी का मिजाज़ बिगड़ गया। उन्होंने  ससुर जी के सामने मुझे बुरी तरह झाड़ लगाते हुए कहा,”पटेल की बिटिया को यदि छूट दे दी जाए तो ये घर का दरवाज़ा पूरब की जगह पश्चिम में लगा दे।” जबकि आप जानती हो मैं कुछ भी ऐसा नहीं करुँगी। बस यहाँ के चाल-चलन अपनाने की कोशिश ज़रूर कर रही हूँ। कितना अपना सकूँगी, भविष्य ही बतायेगा। माँ, माला और चंपा घर आये तो उनसे ज़रूर कह देना कि शादी के ख्याली सुर्ख गुलमुहर जो उन दोनों ने मुझे थमाये थे, सारे के सारे सूख कर झर चुके हैं। 
अंत में एक आखरी बात बताकर पत्र बंद करूँगी। जिस तिजोरी की बात पिता ने रेखांकित करते हुए तुम्हें बताई थी,उसमें ‘वीकली लाट्री’ के टिकटों की गड्डियाँ ठुसी हुईं भरी हैं। ससुर जी तन-मन-धन से लाट्री खेलते हैं। जैसा उनका काम वैसा ही उनका धाम है। न जाने पिता क्यों इस घर पर लट्टू हो गए थे। खैर छोड़ो, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि लाट्री के टिकिट होते कैसे हैं? एक दिन मैंने चार-पाँच बंडल निकाल कर माताजी कम ‘हिटलर’ को दिखाकर पूछा कि ये किसके टिकट हैं तो चिढ़कर वे मुझ पर चिल्लाने लगीं,”अभी से मालकिन बनने का ख़्वाब सजा लिया तूने? क्या जरूरत थी तुझे छान-बीन करने की।” कसम से माँ, मुझे कुछ पता नहीं था। न ही मुझे यहाँ किसी की पदवी हासिल करनी है। वो तो एक दिन झाड़ू लगाते वक्त तिजोरी के पल्ले में निकली एक लोहे की फाँस में मेरी साड़ी उलझ गयी। अपना पल्ला खींचा तो उसका दरवाज़ा बहुत भारी होने के बावजूद खुलता चला आया। शायद कोई ताला लगाना भूल गया था। खुलते ही ढेर सारे रंगीन और सफेद कागज़ के टुकड़े भरभराकर नीचे फ़ैल गये। मैं तो देखकर दंग ही रह गयी। क्योंकि पिता की तरह मैंने भी हमेशा यही सोचा था कि कुछ भी यहाँ पर भद्दा सड़ा-गला होगा लेकिन तिजोरी ज़रूर लाल-लाल नोटों और गहनों के मखमली डिब्बों से भरी होगी….। लेकिन कोई बात नहीं माँ, एक जीवन काटने में कितना समय…? एक जीवन ही तो लगेगा न! काट लूँगी। लेकिन अगले जन्म यदि तुम प्रश्न करना तो निर्णय लेने की हिम्मत भी जुटा लेना माँ! स्त्री जब स्त्री-पुरुष को पैदा कर सकती है तो वह कुछ भी कर सकती है। फिलहाल कुशल शब्द को ही मेरी कुशलता का पर्याय समझना…!

2 टिप्पणी

  1. नाव तालब पर बाँधी गयी थी या नदी पर, ठाँव जानने की बारी अब मेरी थी…बचपन में माँ से एक लोक गीत सुन था, विदा करके माता उऋण हुई सासरे की मुसीबत क्या जाने ? बेटी एक ऋण है, बस कहीं भी कैसे भी चुका दो की मानसिकता पर प्रहार करती मार्मिक कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई कल्पना जी

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