वह शहर के एक प्रतिष्ठित विद्यालय में शिक्षिका थी।उसे स्कूल में बच्चों को पढाने के साथ – साथ उनके व्यक्तित्व का विकास  करने के लिए शिक्षण के साथ अन्य  शैक्षिक गतिविधियां भी करानी पडती थी।  ऐसे ही एक शैक्षिक कार्यक्रम के तहत वह स्कूली बच्चों को वृद्धाश्रम का भ्रमण कराने के लिए ले गई थी जिसका उद्देश्य था बच्चों और वृद्धों के बीच बढ़ते जनरेशन गेप को कम करना ।
उसकी वृद्धाश्रम आने से पहले उसके संचालक से बात हो गई थी सो उन्होंने एक बड़े से हॉल में बच्चों और वृद्धों के बैठने की व्यवस्था कर दी थी। उसके वृद्धाश्रम पहुंचने पर थोड़ी ही देर में सभी वृद्ध हॉल में इकट्ठे हो गए और वहां रखी अपनी – अपनी कुर्सियों पर बैठ गए थे। 
चूंकि आज के कार्यक्रम का मकसद बच्चों और वृद्धों के बीच संवाद स्थापित कराना था सो वह आज के कार्यक्रम में सूत्रधार की भूमिका में थी ।
उसने तथा उसके साथ आए बच्चों ने वहां बैठे बुजुर्गों का हाथ जोड़कर अभिवादन किया और उनके साथ अपने संक्षिप्त परिचय का आदान-प्रदान किया।
वहां उपस्थित सभी बुजुर्ग जिनमें तीन-चार वृद्ध महिलाएं भी थी ।सभी के चेहरे हताश, जीवन से हारे हुए सिपाहियों की भांति लग रहे थे।उसे उनके इस तरह मुरझाए हुए चेहरे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे उनके जीवन की गाड़ी कई पड़ावों से गुजरकर अपने अंतिम पडाव पर खडी हो जहां से फिर एक नई शुरुआत करना लगभग असंभव सा था। उसने वहां उपस्थित वृद्धों से बातचीत करने के उद्देश्य से उन्हें अपने यहां आने का उद्देश्य बताया और उनसे कहा कि हमारे बच्चे आपसे कुछ जानना चाहते है इसीलिए वे आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहते है। तो वहां बैठे एक बुजुर्ग जिनके चेहरे के आभामंडल से लग रहा था कि जैसे वे किसी संभ्रात परिवार से हो। वह अपनी रौबीली आवाज में बोले 
” मैडम यहां उपस्थित हम सभी वृद्ध वक्त और हालात के मारे है हम लोग क्या बोलोगे?”
“फिर भी पूछो क्या पूछना चाहते हो ?”
उसके साथ आए एक बच्चे ने उनसे पूछा।
दादाजी हम लोग ऐसा क्या करें कि हम और हमारे पिताओ के मध्य ऐसे हालात कभी ना बने कि उन्हें वृद्धाश्रम आना पड़े?
इसके लिए तुम लोग उन्हें खूब प्रेम और सम्मान दो । मां-बाप संपत्ति नहीं सम्मान के भूखे होते हैं ।
तभी दूसरे बच्चे ने उनसे पूछा दादा जी हम सुनते हैं कि मां-बाप अपने संतानों को जैसा संस्कार देते हैं संताने वैसे ही बन जाती फिर क्या आपके संस्कारों में कोई कमी रह गई जिसके कारण आपको वृद्धाश्रम आना पडा।
 
अबकी बार उनकी दुखती रग पर जैसे किसी ने हाथ रख दिया हो। वह पीडा से तिलमिला उठे और विषाद की एक रेखा उनके चेहरे पर उभर आई।
“संस्कार तो सभी मां बाप अपने बच्चों को अच्छे से देने की कोशिश करते हैं, लेकिन इसके बावजूद यदि संतान गलत निकल जाए तो क्या किया जा सकता है?”उन्होंने एक ठंडी सांस लेते हुए कहा।
“मुझे ही देखो मेरे चार – चार बच्चे हैं वो भी लड़के जिनके लालन – पालन व पढ़ाई-लिखाई में मैंने कभी कोई कोर – कसर नहीं छोड़ी। दिन- रात कडी मेहनत से जिनके लिए तीस करोड़ से अधिक की संपत्ति जोड़ी। फिर भी उनकी वजह से आज मैं यहां पर हूं।हालांकि  कोई भी व्यक्ति यहां अपनी मर्जी से नही आना चाहता है।पर जब वक्त और हालात ऐसे हो जाते हैं कि इंसान को जीवन और आत्महत्या में से किसी एक विकल्प को चुनना पडता है तब वह व्यक्ति यहां का रुख करता है। यहां आने से पहले मैं भी एक बार आत्महत्या की कोशिश कर चुका था। लेकिन जिसने मुझे बचाया उसने मुझे यहां की राह दिखाई।
उनकी आँखों में आंसू छलक आए।सभी बुजुर्ग सिर झुकाये चुपचाप बैठे थे। उनके चेहरे उदास थे ।उसे बहुत ढूँढने पर भी उनके चेहरे पर खुशी का कोई चिन्ह दिखाई नही दे रहा था। पूरे वातावरण में जैसे मातम सा पसरा था। बोलने के नाम पर सिर्फ एक वही बुजुर्ग बोले जा रहे थे।शेष सब गहरे अवसाद में डूबे थे।फिर उन्हीं बुजुर्ग ने अपने बीच बैठे एक अन्य बुजुर्ग की ओर हाथ का इशारा कर कहा कि इन्हें देखो जो अपने करमों पर हाथ लगाये बैठे हैं।
सभी उस ओर देखने लगे।
“अभी पंद्रह दिन पहले ही यहां आए हैं, बेटा नही है इसलिए बेटी के पास रहते थे। कुछ महीने पहले इनकी बेटी गुजर गई तो उसके ससुरालियों ने इन्हें लात मारकर घर से बाहर निकाल दिया। और इनसे कहा जब तुम्हारी बेटी ही न रही तो तुमसे कैसा रिश्ता।”
यह सुनकर उसका दिल धक्क सा रह गया । 
ये हमारे समाज को क्या होता जा रहा है? क्या लोगों मे इतनी भी संवेदना नही बची है कि रिश्तों का मान बचा रहे? वह अपने मन मे सोच रही थी।
 
फिर उन बुजुर्ग ने वहीं बैठे एक अन्य खिचड़ी बालों वाले दाढ़ी रखे बुजुर्ग व्यक्ति के बारे में बताया। इन्हें इनके पत्नी और बच्चों ने ही घर से निकाल दिया । इन्हें यहां आए अभी चार पांच दिन ही हुए हैं। जब ये यहां आए थे तो इनकी तबीयत बहुत ज्यादा खराब थी अस्थमा का अटैक पड़ा था लेकिन अब यहां धीरे -धीरे इनके स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है।
  
वहां उपस्थित बच्चों में से एक बच्चे ने उन बुजुर्ग से पूछा।
दादाजी क्या कभी आपके बच्चे आपसे मिलने यहां  आये है ?
उन्होंने इंकार मे सिर हिलाया।
उस बच्चे ने फिर उनसे प्रश्न पूछा – दादाजी क्या कभी आपके मन मे अपने बच्चों के लिए बद्दुआएं निकलती हैं?
उन्होंने थोड़ा-सा गंभीर होते हुए कहा, “देखो बेटा वैसे कोई भी मां बाप अपने बच्चों को बद्दुआएं नही देता है लेकिन जब अंदर से आत्मा रोती है तो उससे अनायास ही निकलती हैं।”
खिचड़ी दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने उनकी इस बात से अपनी असहमति जताई और कहा कोई भी मां बाप इतने कठोर कभी नहीं हो सकते हैं कि वह अपनी ही संतान को बद्दुआ दें।
इस दौरान वह अपने साथ लाई फल सभी बुजुर्गों के बीच बांट चुकी थी।
बच्चों के यह पूछने पर आप सभी यहां कैसे रहते हैं। 
वह बुजुर्ग बड़े उत्साह से सबको अपने रहने के कमरे दिखाने लगे। साथ मे बताते जा रहे थे कि यहां रहने वाले ऐसे बुजुर्गों की संख्या कम है जिनके बच्चे हो। ज्यादातर तो वहीं है जिन्होंने अपना जीवन यूं ही गुजार दिया ऐमाल (बुराइयां) करते हुए।फिर धीरे से बोले यहां जो वृद्ध महिलाएं रहती है अब उनके बारे में क्या कहा जाए बस इतना समझ लीजिए इन्होंने अपनी जवानी के दिनों मे अपने घर परिवार को कुछ  समझा ही नही बस यारों के चक्कर में रही।
उसने सोचा अच्छा ही किया इन वृद्धाओं ने कम से कम अपना जीवन अपनी शर्तों पर तो जिया और उनको क्या मिला? जिन्होंने अपना सारा जीवन अपने घर – परिवार को समर्पित कर दिया । यह वृद्धाश्रम  ?  वह अचानक से आक्रोशित हो उठी ।
फिर स्वयं को संयत करते हुए वह वृद्धाश्रम का निरीक्षण करने लगी।
एक बड़े से आंगन के दोनों तरफ कतारबंद पंक्ति में कमरे बने थे। सभी कमरे छोटे – छोटे लेकिन साफसुथरे थे। एक कमरे में एक बुजुर्ग बैठे थे।जिनके पेशाब की नली डली थी । थोडा और आगे बढ़ने पर एक कमरे में पलंग पर कंबल ओढे एक बुजुर्ग लेटे थे। पूछने पर साथ चल रहे उन बुजुर्ग ने बताया इन्हें अस्पताल से डॉक्टरों ने वापस भेज दिया है । अब ये दो चार दिन के ही मेहमान है ।पिछले पांच दिनों से इन्होंने कुछ खाया- पिया नही है । बस यूं ही बिस्तर पर पडे अंतिम सांसे गिन रहे है।
उन्होंने कंबल हटाकर पलंग पर लेटे बुजुर्ग से पूछा?
दादा केला खाओगे ?
उन्होंने हाँ में सिर हिलाया।
उन बुजुर्ग ने हाथ में पकड़ा हुआ एक केला उन्हे अपने हाथों से खिलाया । 
वे बुजुर्ग बीच – बीच में बताते जा रहे थे ।यहां खाने- पीने की कोई कमी नहीं है । यहां आनेवाले दानदाता इतना दे जाते है कि सारा  खाना खाया – पिया भी नही जाता है। बस यहां कमी है तो अपनों की।
जब आप अंतिम सांसे गिन रहे होते है तो कोई आपकी देखभाल करनेवाला, आपके पास बैठने वाला कोई नही होता है।
अभी तक सभी की पीडा बता रहे उन बुजुर्ग की अपनी पीड़ा भी छलछला आई।
वे बताने लगे ।
“मुझे भी डॉक्टर ने गले का कैंसर बताया है बस कुछ ही महीनों का मेहमान हूं।”
वह उन बुजुर्ग की बात सुनकर सन्न सी रह गई।
हे ! भगवान इतनी जीवटता से भरे व्यक्ति को इतनी भयंकर बीमारी भी हो सकती है उसे यकीन नही हो रहा था।
“तो आप कहां से ईलाज ले रहे हैं ?” उसने धीरे से उन बुजुर्ग से पूछा।
“कही नही।”
आप इलाज क्यों नहीं करा रहे? 
“बस अब जीने की इच्छा नहीं रही।”
फिर वह बुजुर्ग हाथ जोड़कर बोले बस मेरी आप सभी  लोगों से इतनी सी प्रार्थना है कि आप लोगों को जहां कहीं भी कोई असहाय या लावारिस हालत में कोई बुजुर्ग मिले तो उसे यहां का पता जरूर बता देना…
उसका मन यहां रहने वालों की पीड़ा से बोझिल हो उठा। उसने हा कहा और वहां उपस्थित सभी बुजुर्गों का आभार प्रकटकर बडे ही व्यवथित मन से घर चली आई। 
उसने घर आकर कमरे में खेल रहे अपने छोटे बच्चे को अपनी छाती से इस प्रकार चिपका लिया जैसे उससे कह रही हो, मुझे वृद्धाश्रम कभी मत छोड़ना मेरे बच्चे।

1 टिप्पणी

  1. वृद्धावस्था के विषय पर थोड़ा हटकर लिखी गई रचना प्रभावित करती है। हालांकि कथ्य में दिखाई गई स्थितियां सही होते हुए भी पूरी तरह स्वाभाविकता के अनुरूप नहीं है, फिर भी काफी ग़ौरतलब है। सुंदर कथा शैली के लिए बधाई आपको।

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