Thursday, October 24, 2024
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राजेश गुप्ता का व्यंग्य-लेख : स्मार्टनेस क्या बात है!

  • राजेश गुप्ता

यह एक सुखद और स्मार्ट यात्रा थी।सुखद इसलिये कि हम आरक्षित सीट पर थे और स्मार्ट इसलिये कि रेलवे ने हमारी दो वेटिंग सीटों के स्थान पर आधी-आधी सीट अलाट कर दी थी।भाड़ा पूरा लिया गया लेकिन सीट एक ही उपलब्ध करवाई गई। समय पर घर वापिस आने की जल्दी थी। मन में गुस्सा तो बहुत था परन्तु विभाग की चतुराई भी जबरदस्त थी। अंतत: एक पारिवारिक रिश्तेदार की सलाह पर कि आप गाड़ी में बैठने पर टी.टी.से कहना कि मैं तुम को समझ लूंगा।
बस यही बात सुन वह आपको सीट दे देगा लेकिन यह जुमला सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए कि मैंने अभी तक तो किसी को कभी घूर कर नहीं देखा तो फिर मैं टी.टी.को कैसे धमकी दे सकता हूँ कि मैं तुम्हें देख लूँगा और इस के बाद अगर वह गुस्से में आ गया और उसने मुझे गाड़ी से नीचे उतार दिया तो फिर मैं क्या करूँगा,मेरी तो फिर एक सीट भी जाती रहेगी लेकिन जब मैंने अपने उसी पारिवारिक रिश्तेदार से कहा कि‘मैं टी.टी.को धमकी नहीं दूँगा,अगर वह इस बात पर गुस्से में आ गया तो’।
‘तो क्या यार,इस जुमले का मतलब नहीं समझते हो यह धमकी नहीं है इसका मतलब है कि तुम मुझे सीट दो मैं तुम्हें कुछ दूँगा’लेकिन यकीन मानिए कि यह बात मुझे हज़म नहीं हुई।गाड़ी में चढ़ते वक्त मैंने टी.टी.को खूब ढूँढा कि चलो उसे ‘मैं तुम्हें देख लूँगा’न कह कर उसे विनम्र-विनती ही कर लूँगा किंतु गाड़ी में चढ़ने से पहले टी.टी.मुझे मिला ही नहीं और फिर मैं हार कर अंत में अपनी आधी सीट पर पूरे अधिकार से जा बैठा।मेरी अर्धांगिनी जो कि मुझे बार-बार टी.टी. से मिलने को कह रही थी अंत में थक हार कर वह भी बाकी बची आधी सीट पर आराम से जा बैठी यह कह कर कि चलो कोई बात नहीं इसी पर ही गुज़ारा कर लेगें जब जिंदगी के तेईस साल मिल बाँट कर गुज़ार लिए तो फिर अब क्या आठ घण्टे नहीं काट सकते।
मुझे उसकी बात बहुत अच्छी लगी। फिर मैं सुकून से आधी सीट पर पूर्ण रुप से जा बैठा और टी.टी.के आते ही उसे टिकट दिखा कर एक और सीट देने का अनुरोध किया भलेमानस की तरह लेकिन उस पर उसने यह कह कर मना कर दिया कि गाड़ी भरी हुई है कोई सीट खाली नहीं है और मैं चाह कर भी उसे वह जुमला नहीं कह पाया कि मैं तुम्हें देख लूँगा क्योंकि यह मेरे स्वभाव में ही नहीं था क्योंकि मैं एक आम-जन था यानि आम-नागरिक
आप चाहें तो इसे शराफ़त कह लें या फिर जो भी आपको अच्छा लगे।हां,अगर मैं कोई नेता होता तो शायद जरूर कहता कि मैं तुम्हें देख लूँगा।बस शरीफ़ पब्लिक की तरह मैं अपनी पत्‍‌नी के साथ एक ही स्लीपर पर मेंढक की तरह दुबका रहा और अपने गन्तव्य के आने का इंतज़ार करता रहा और सारे राह मैं रेलवे की स्मार्टनेस को कोसता रहा कि मुझ से दो टिकट के पैसे लेकर एक पर सटा दिया। वाह क्या बात है।
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