खुद को किसी के साथ जोड़े रखने के लालच में, हम कितनी ही तरह के जुगाड़ों से गुज़र जाते हैं |कभी सच तो कभी झूठ..बस अपनी ही बात को सही साबित करने के लिए..कितना कुछ अपनों के साथ भी गलत करते चले जाते हैं और जैसे जैसे अपना वक़्त खत्म होना शुरू होता है,तब ये बात तो सिर्फ अपना मन ही जानता और समझता है,पर तब तक बहुत देर ह चुकी होती है |

परिवार हो या यारी दोस्ती हर तरफ से बैलेंस बना कर चलते हुए भी कभी ना कभी कोई ना कोई चूक हो ही जाती है |हर किसी के सोच पर खरा उतने के लिए कितनी बार खुद को मार कर जीना पड़ता है,ये बात तब समझ आती है जब अपने हाथ से अपने ही रिश्ते फिसल जाते हैं और अपने पास अफ़सोस मनाने के अतिरिक्त कुछ नहीं बचता |

मै पवन पंजाब के लुधियाना के करीब एक छोटे से कस्बे, नवांशहर का जानामाना व्यापारी हूँ ,मेरी मेरे कस्बे में बहुत इज्ज़त है |सभी लोग मुझे मेरे नाम से पहचानते हैं | आज मेरे शहर में दो गुटों की लड़ाई की वजह से कर्फू लगा हुआ है और इसी वजह से मुझे घर बैठाना पड़ा ,इस पे सबसे बड़ी बात ये की दिव्या(मेरी पत्नी) कर्फू से पहले की अपने मायके गयी हुई है |बच्चे मेरे साथ होते हुए भी मेरे करीब नहीं हैं,वो अपनी ही दुनिया में मस्ते थे |उन्हें मेरे घर पर होने या ना होने से कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था, ये बात मुझे बहुत अजीब लग रही थी…पहले तो दिव्या घर पर होती थी तो रात का वक़्त हम सब एक साथ एक ही रूम में बैठा करते थे…भले ही मैं टीवी देखते हुए खाना ख कर सो जाता था पर बच्चें अपनी माँ के साथ यही इस कमरे में बैठे रहते थे पर दिव्या के साथ साथ मेरे कमरे की रोनक भी चली गयी थी मैं अपने आप में कितना अकेला हो गया था, ये अच्छे से जान रहा था |

मुझे ऐसा लगने लगा है जैसे इस भरेपूरे घर में,हर कोई अपने आप में व्यस्त है,संयुक्त परिवार होते हुए भी मैं खुद को एकदम से अकेला महसूस कर रहा हूँ इसी लिए आज मुझे दिव्या की बहुत याद आ रही है, उसकी क्या अहमियत है मेरे जीवन में मुझे समझ में आ रहा ,पर इस वक़्त दिव्या मैं कहाँ से लेकर आऊँ ?

इतने सालों के बाद आज मैंने अपने कमरें को अच्छे से देखा होगा…..कमरे का हर सामान दिव्या की याद दिला  रहा था और पता नहीं क्यूँ आज मेरा मन बहुत बेचैन हो रहा था, आज से पहले मैंने अपनी बीबी को कभी भी इतनी शिद्दत से मिस नहीं किया था | आज ऐसा क्या था जो मुझे दिव्या से जोड़ रहा था ?

शायद मैं उम्र के उस दौर से गुजर रहा हूँ ,जहाँ मुझे ऐसा लगने लगा है कि हर इंसान अपने आप को अकेला और असुरक्षित महसूस करता है |ये उम्र ऐसी है कि  हर किसी को ऐसे वक्त अपने जीवन साथी की सब से ज्यादा जरुरत होती है,बच्चे बड़े हो रहें होते है और अपनी ही दुनिया में मस्त होते चले जाते है|

मुझे दिव्या ने बहुत बार समझाने कि कोशिश कि ”पवन मेरे लिए और अपने बच्चों के लिए वक़्त निकालो नहीं तो हम दोनों ही नहीं बल्कि तुम बच्चो से भी दूर हो जायोगे’’ पर मैंने कभी उसकी किसी बात को गंभीरता से नहीं लिया और हर समय अपने व्यवसाय को बढ़ाने की धुन में अपनों से ही दूर होता चला गया |

पैसा तो बहुत आया पर जिस वक्त सबको मेरी जरुरत थी,मैं नहीं था और जब आज मुझे मेरे अपनों के साथ की जरुरत है तो मेरे करीब कोई नहीं है | मेरी सोच है कि थमने का नाम ही नहीं ले रही,आज मैं किसी अपने से जी भर के बाते करना चाहता हूँ पर मुझे सुनने वाला मेरे पास कोई नहीं है,भैया-भाभी अपने कमरे में है और संजय-ऋतु (मेरा भतीजा-बहु )वो वैसे भी घर पर कम और घूमने में ज्यादा मस्त रहते हैं ,कसूर उनका भी नहीं है क्यों कि अभी उनकी शादी को ज्यादा वक्त भी तो नहीं हुआ और ये वक्त हर कोई अपनी बीबी के पहलू में ही बिताना पसंद करता है |

तभी मेरी सोच भटकती है और मैं अपने वक्त को सोचने लगता हूँ ‘क्या मैंने कभी दिव्या को इतना वक्त दिया ?क्या दिव्या ने ऐसा कुछ सोचा होगा?क्या अपनी नयी शादी को लेकर दिव्या के मन में कोई अरमान जागे होंगे ?पर उसने मुझे कभी कुछ ऐसा कहा तो नहीं?

फिर अपने आप से ही बाते करते हुए बोलने लगता हूँ कि’अगर वो कहती तो क्या मैं उसे सुनता ?हो सकता है उसने मुझ से मेरे व्यवहार को लेकर शिकायत की भी हो,पर क्या मैंने कभी उसकी बातों पर गौर किया?दिव्या ने मुझ से कभी शिकायत नहीं की ,बस वो मेरी बात को आदेश मान कर उसे पूरा करती चली गई….ऐसे ही जिंदगी की कितनी ही बातें थी जो दिव्या ने आँखें मूंद कर मानी होंगी|कभी मुझ से किसी भी बात के लिए शिकायत नहीं की …पर क्यों नहीं की आज ये सवाल मुझे बहुत परेशान  कर रहा था |

ऐसे ही पता नहीं कितने सवाल थे जो अब मेरी सोच पर हावी थे,आज मुझे अपनी हर वो बात याद आ रही है जिसे दिव्या करने के लिए मना करती थी और मैं अपनी ही जिद्द में करता चला जाता था कि ये काम दिव्या ने मुझे मना क्यों किया, उस वक्त कितना बचपना था मेरे अंदर |मैं कभी दिव्या को समझ ही नहीं पाया कि वो आखिर मुझ से चाहती क्या है?

दिव्या तो बस अपने और बच्चों के लिए मुझ से मेरा थोडा सा समय ही मांगती थी ना, जो मैं कभी उसे दे नहीं सका |पैसा कमाने और खुद को सबसे बेहतर बताने की होड़ में मैं हमेशा भागता ही रहा ..मैंने कभी उसकी दिल की इच्छा जानने की कोशिश ही नहीं…कभी उसकी भावनाओं की कद्र नहीं की….फिर क्यों आज मुझे दिव्या और बच्चों के बिना अपना ये वक्त और जीवन व्यर्थ लग रहा है ,सोचा ना था कभी की ऐसा भी दिन आएगा कि मुझे मेरे अपने मुझ से दूर खड़े नज़र आएँगे|
छटपटाहट में अपने ही कमरे को मैंने ग्राउंड बना दिया, ऐसे ही बेकार में रबर की बॉल सामने की दीवार पर मारते-मारते जब मैं थक गया तो अपने लिए एक पेग बना कर पलंग पर आ कर बैठ गया |

सारा दिन काम भी कोई नहीं किया और थकावट भी बेहिसाब हो रही थी |ऐसा लगा कि मुझे पेग बनाता हुआ देख, सामने रसोई से दिव्या मेरे लिए स्नेक्स की ट्रे बना कर ला रही है …..बर्फ़ के साथ साथ चार तरह के बाउल रखे हुए हैं ….और प्लेट में पनीर को छोटा छोटा काट कर उस में सिर्फ नमक और नीबू मिला कर वो अपने आप मेरे सामने रख देती है …..पर आज के दिन के लिए ये सिर्फ मेरी सोच थी ….आज बीबी मेरे सामने तो क्या मेरे घर पर भी नहीं थी |

रात के आठ बज गए नीचे से भाभी ने एक बार भी खाने के लिए नहीं पूछा….कुछ खाने को मन कर रहा था बहुत बार ऐसा कुछ करने का सोच कि किसी काम कर करके उस में मन लगा लूँ,पर सफल नहीं हो सका, खालीपन इस कदर मुझ पर हावी था कि बहुत बोर सा लग रहा था ऐसे खाली घर पर बैठना समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ ?

किसी तरह ये वक़्त बीत जाए और जल्दी से सुबह हो जाए और मैं अपनी दिव्या को उसके घर ले आऊँ, बस इसी सोच के चलते मैं अपने कमरे की हर चीज़ को उलट पलट के देखने लगा| तभी कुछ फटे हुए पन्ने आह!जिंदगी डायरी मेरे हाथ लगी |उसे उलट पलट के देखा फिर ये सोच कर उसे खोल लिया कि देखूं तो सही कि दिव्या अपने खाली वक्त में लिखती क्या है ?ये क्या!इस में तो उसकी लिखी हर कविता है जो वो लिखने के बाद मुझे पढ़ने को देती थी और मैं बिना पढ़े, टाइम ना होने का बहाना बना मैं उसे हर बार मायूस कर देता था पर आज वही डायरी मुझे बहुत अपनी सी लगी| बहुत देर तक उसे मैंने अपने सीने से लगाए रखा ,तो मेरी आँखे भर आई और फिर उसे खोल के पढ़ने लगा |आज मुझे दिव्या का लिखा हर शब्द बहुत अपना सा लग रहा था ऐसा लग रहा था जैसे मै दिव्या को ही पढ़ रहा हूँ |जैसे जैसे डायरी पढता गया मै अपने आप को भूलने लगा ऐसा लगा मेरे सामने दिव्या बैठी है और मेरे संग बतिया रही है,कभी उसकी लिखी बातो पर खुदबखुद हँस पड़ता और कभी मेरी आँखे नम हो जाती कैसी-कैसी कविताओं का लेखन किया था उसने …

बड़ी उदास है ये ज़िन्दगी
बेमन से भटकती ये ज़िन्दगी
कुछ तलाशती

कुछ पा के खोने का दर्द
झेलती ये ज़िन्दगी ..

साथ पाने को तरसती

ये ज़िन्दगी
भटकती ज़िन्दगी को

ना किनारे अच्छे लगे ..
ना उठती लहरों का शोर …
फिर भी एक साहिल तलाशती

ये ज़िन्दगी

.२ ..मैं उसके वादे का अब भी यकीन करती हूँ
जिसे हज़ार बार आज़मा लिया है मैंने ||

३…भूलने की बहुत कोशिश की
फिर भी सांस बन कर

उसका नाम आ ही जाता है  ||

४ …कुछ रिश्ते मन के ऐसे भी

तुम्हारे साथ के समस्त तारों को
अपने अंदर चमकते हुए महसूस करती हूँ
ये सब, मेरे भीतर अपनी रोशनी संग
विराजमान हैं
जब जग सो जाता हैं ,
तो भी नींद नहीं आती है ..

आँखे सोच के साथ
आंखमिचौली खेलने लगती है
और नींद से बोझिल आँखे,
अचानक से, मौन के तारे गिनने लगती है||

५ …. अब भी तूफानों से लड़ रहे

कश्ती बचाने  को

साँस की डोर टूट जाने से पहले

अब भी तूफ़ान से लड़ रही हूँ

पलों में बदलती है जिंदगियाँ

तेरा एक पल का साथ पा लेने को

क्यों लिखी चिट्ठियां लौट आती है

वीरानियों का संदेसा लेकर,

उदासियों के साए में

अब भी तूफ़ान से लड़ रही हूँ ||
अभी तक की डायरी में ऐसा कोई विषय नहीं था जो दिव्या की कलम से अछूता रहा गया हो |जैसे-जैसे मैं कविताएँ पढ़ने लगा पन्ने-दर-पन्ने दिव्या का एक नया पहलू मेरे समक्ष खुलने लगा था कि वो कितना गंभीर सोचती है उसने अपने रिश्तों को कितनी गंभीरता से लिया है,इसकी सोच और उसकी उड़ान कितना विस्तार पा चुकी है और इसी पन्नों को पढ़ने और पलटने के क्रम में जैसे ही डायरी के कुछ बचे अगला पन्ना पलटा तो वहाँ किसी ‘प्रीत’ का नाम देख ऐसा लगा जैसे मैंने सब कुछ खो दिया अपनी जिन्दगी में |पर आज मैं  अपनी दिव्या को पढ़ना चाहता था उसकी जिंदगी को अपनी जिंदगी से जोड़ना चाहता था, एक डोर जो बहुत पहले मेरे हाथों से फिसल गई थी उस डोर को फिर से उसी मजबूती से पकड़ने की चाहत थी जो मैंने शादी के वक्त अपने वचनों में कही थी इसलिए उसने जो भी लिखा वो मैंने पढना शुरू किया तो पन्ने के शुरुआत में ही प्रीत बहुत बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था फिर भी  उसने जो भी लिखा वो मैंने पढना शुरू किया ,मेरे नाम को संबोधित करते हुए लिखा था!
मेरे पवन
आज मैं आपको अपने बारे में वो सब कुछ बताना चाहती हूँ जो मै सोचती हूँ आप जानते है कि  हमारी शादी मेरी पढाई की बीच में ही हो गई कालजे भी मैंने शादी के बाद पूरा किया और मैंने कुछ ऐसी भी पढाई नहीं की हुई की मै अपने को कुछ काबिल समझूँ | साधारण बी.ए और वो भी हिंदी मीडियम में, जिस की आज के वक्त में कोई किम्मत नहीं है अनपढ़ की श्रेणी में,मैं खुद को मानती हूँ | अपने आप को किसी से बात करने के लिए मुझे सौ बार सोचना पड़ता है |मैं हर बार एक हीनभावना से घिर जाती थी,वक़्त बदला ,शादी हुई और वक़्त के साथ बच्चे भी अपने वक़्त पर हो गए हमारे |सारा वक़्त घर के काम और बच्चो की देखभाल में बीतने लगा . कभी कभी तो घर का काम इतना होता था की रोते बच्चो की आवाज़ भी कानो तक नहीं पहुँच पाती थी और मै कुड़-कुड़(गुस्से में) करती सारा काम करती जाती थी | हर वक़्त मन भारी सा रहता था कि अपने बारे में कुछ सोच सकूँ इतना भी वक़्त नहीं था मेरे पास | बहुत बार पवन आप से भी कहासुनी हो जाती थी जब भी घर के बारे में( सास या जेठानी की बात ) बात करनी चाही आप नाराज़ हो गए,आपकी ये नाराज़गी मुझे चुप करवाती चली गई और मै अपनी बात कहने के लिए घुटने लगी ऐसा कोई नहीं मिला जो मेरे दिल की सुने,जो मुझे समझे जो मुझे जाने,मेरे संग बाते करे और थोडा वक़्त बिताए ,हर छोटी-छोटी इच्छा के लिए तरसती रही |
बच्चे बड़े हो गए और अपने रस्ते पे चल पड़े और पवन आप अपने मे ही व्यस्त थे |आपको अपने काम से कभी फुर्सत नहीं मिली,पवन ऐसा नहीं है कि आप ने मुझे प्यार नहीं दिया बहुत प्यार मिला मुझे आप से और मेरे बच्चो से .पर घर पर  मुझे कभी वो इज्ज़त नहीं मिली जो एक घर की बहु को मिलनी चाहिए थी.मानती हूँ कि कदम कदम पर आपने मुझे संभाला पर आपसे वो जुडाव महसूस नहीं कर सकी जो एक औरत आदमी से करती है जब भी मै रोई,आपने कभी चुप नहीं करवाया,जब भी मै रूठीअप ने कभी मुझे नहीं मनाया, आपके मन मुताबिक आपको प्यार करती रही पर जब भी मेरा प्यार करने का मन हुआ आपने मुझे दुत्कार दिया और मै रोती हुई मुँह मोड़ के सारी रात रोती रहती थी और आप सारी रात बड़े आराम से सोते रहते थे|
फिर भी एक पत्नी को जो प्यार अपने पति से मिलना चाहिये वो मुझे भी मिला और मै इस में ही बहुत खुश थी, पर वक़्त के साथ अकेलापन और आपका काम बढता चला गया ,आप ओर व्यस्त होते गए |आप मन से भले ही मुझे से दूर-बहुत दूर हो रहें थे पर मैंने कभी उस दूरी को हम दोनों के बीच नहीं आने दिया  कभी भी आपसे दूर नहीं हुई , आज भी आपको उतना ही मान सम्मान देती हूँ जितना की शादी के वक़्त आप आज भी मेरे दिल के बहुत करीब है आप मेरे है, मेरे घर की धूरी है, आप से मेरा वजूद है इस जहान में ,आपसे अलग होने की सोच भी नहीं सकती…..बस अब मौत ही मुझे आपसे अलग कर सकती है |तभी मेरी मुलाकात प्रीत से हुई, प्रीतम नाम है उसका मुझ से 5 साल बड़ा  है वो पर उसकी बाते उसका अपनापन मेरे दिल को छू गया पहले पहले तो मुझे ऐसा लगा की ये इन्सान अपनों में अकेला है इसे अपनेपन की बहुत जरुरत है जो मै उसे अपनी बातो से देने लगी पर नहीं जानती थी की इस से बाते करने की ऐसी आदत पड़ जायेगी की ये मेरी जरुरत बन जायेगा |हर ख़ुशी और दुखा बँटा मैंने प्रीत के साथ पर कभी उसने या मैंने अपनी हदे पार नहीं की|

प्रीत से मेरी मुलाकात कहाँ और कैसे हुई ये मै आपको वो भी बताना चाहती हूँ, हाँ  पर इतना जरुर कहूँगी की प्रीत ओर मेरा रिश्ता इतना पवित्र है की हम दोनों के मन में प्रेम-आदर-प्रेम के अतिरिक्त कोई ओर भाव आया ही नहीं | हमने घंटो बैठ के बाते की,पर कभी एक दूसरे से मिले नहीं,देखा तक नहीं, वो एक रोंग नंबर बन कर मेरे जीवन में आया और अपनी दोस्ती-प्रेम की महक छोड़ गया, उसके अपनेपन ने मुझे जीवन में फिर से एक बार सोचने को मजबूर किया, कुछ महीनो की बातों ने हम दोनों को बहुत करीब कर दिया,पर पवन ये भी उतना ही सच है कि हमने कभी अपने परिवारों को दाव पर लगा के दोस्ती नहीं की हम दोनों के लिए हमारे परिवार ही सब कुछ हैं, बस हमें बाते करना और एक दूसरे का साथ देना अच्छा लगता है क्यूंकि वो मुझे सुनता है और मै उसे |

पवन मैं जब भी आपको अपना लिखा हुआ पढने को बोलती थी तो आप मुझे मना कर देते…कभी डांट देते या कहते कि मैं कोई इतना ज्ञानी नहीं हूँ जो ये सब बेकार की बातें पढता रहूँ  और मै मन ही मन में हमेशा ये सोचती थी कि कोई तो ऐसा हो जो मेरा लिखा पढ़े ओर मुझे उस में क्या कमी है ये बता दे ताकि मै अपना लिखा ओर सवारं सकूँ पर आपने कभी मेरी किस बात की तरफ गौर नहीं किया और मैं मन से अकेली होती चली गई ,पर मैंने अपने मन में इस ख्याल को सदा याद रखा कि मित्रता भी एक सम्बंध है और मुझे उसे सहेज कर रखना है और तभी उस खाली वक़्त में मुझे प्रीत का साथ मिला|

मेरे लिए प्रीत का साथ एक वरदान साबित हुआ,मन खुश रहने लगा अकेलापन दूर होता गया और कुछ नया  लिखने की ताकत फिर से आ गई, मुझे मेरे गुस्से से मेरे चिडचिडेपन से मुक्ति मिलने लगी थी,इसकी वजह से मैं अपनी सोच को कागज़ पे उतारती चली गई |ये रोंग नंबर की बातचीत अब इंटरनेट से जा जुडी और मैं अपनी लिखी हर कविता-कहानी प्रीत को सब से पहले पढ़ने को देती |मेरे लिखे को कभी कभी वो  ठीक भी कर दिया करता था जिस से उसका रंग-रूप और सोच ही बदल जाती थी  |

मैं उसके संग अपने मन की उड़ान को नए रंगों में भरने लगी और वो दूर खड़ा साक्षीभाव से मुझे निहारता चला गया |मेरे नए सपनों की उड़ान में आपकी जगह ‘प्रीत’ मेरे साथ मुझे दिखाई देता है आज मुझे ये कहने मे ज़रा भी शर्म नहीं है कि मै प्रीत की दिल से इज्ज़त करती हूँ,हम दोनों के बीच एक ऐसा प्यार है जो आप को या ओर किसी ओर को कभी समझ नहीं आ सकता |ये हर इच्छा,हर ख्याइश और हर दुआ से ऊपर है |

मैंने ‘प्रीत’ के साथ प्यार के उस हर रूप को जिया है जो मैं आपके साथ सोचा करती थी,कभी मैं बच्ची बन बातों ही बातों में उसके कंधे पर चढ़ जाती थी कभी किसी बात की ज़िद्द कर ज़मीन पर नाराज़ होकर लेट जाती थी और वो पागल मुझे मनाने लग जाता था, तो कभी कॉलेज के दोस्त बन उस से झूठ-मूठ का झगड़ा करके नाराज़  हो जाती थी और वो प्रेमी बन मुझे उसी पल मनाने आ जाता था और कभी माँ बन उसे प्यार से बच्चे,बच्चवा ,बाबू शोणा पता नहीं क्या क्या कहा और सुना होगा |

प्रीत के साथ मुझेहर रूप में ,प्यार की हर उड़ान को अपने भीतर महसूस करना अच्छा लगता है और उसे दिल से मैंने जिया भी है ”| अभी बहुत से पन्ने बाकी बचे हुए थे…वैसे ही फटे हुए, पर अब बस… मैं इस से आगे ओर कुछ नहीं पढ़ सका |

सच कहूँ तो अब मुझ में ओर पढ़ने की हिम्मत ही नहीं बची थी |जो वक्त और प्यार मुझे दिव्या को देना चाहिए था वो उसे ‘प्रीत’ से मिला इस में दिव्या की तो कोई गलती नहीं है और जहाँ-जहाँ प्यार की बात आई थी कितनी आसानी से दिव्या ने प्यार को इतने कम शब्दों में परिभाषित कर दिया था |

ये मैं शुरू से जानता था कि दिव्या का दिल प्यार से भरा पड़ा है पर वो प्यार के हर रूप को इतने अच्छे से समझा जाएगी ये नहीं जानता था|प्यार सिर्फ वासना नहीं ,वो मीरा है,प्यार माँ-बहन और एक प्रेयसी भी है और माँ रूपी प्यार बांटने के लिए आपका उस उम्र में  होना जरुरी नहीं ,प्यार एक सखा और सखी है ,प्यार एक दोस्त का दोस्त से जो सिर्फ बातो को ही खुद के भीतर जी के अनुपम सुख की अनुभूति का एहसास कर देता है,प्यार जो साथ देता ,खुद के होने का एहसास देता है,प्यार जो हँसना सिखाता है ,बस वही प्यार जो सिर्फ  देना जानता है भले ही आप खुद से अंदर तक खाली हो पर उस प्यार के एहसास को आप अपने अंदर तक जी लेने की हिम्मत और ताकत रखते हो |

आज दिव्या मेरे पास नहीं है,और मेरा मन बार बार बस एक ही सवाल मुझ से करता है कि

‘क्यों नहीं हो दिव्या तुम आज मेरे पास ?

आज तुम्हारा माथा चूम के माफ़ी मांगने का मन हुआ है कि मेरी नादानियों की वजहें से तुम्हे किसी ओर के सहारे की जरुरत पड़ी |

क्यों मै वो नहीं दे पाया जो तुमको पसंद था”?

आज मुझे अपने आप से घिन हो रही है क्यों कि प्रेम करना सरल है पर उसे निभाना उतना ही कठिन और मैं यहीं पर बहुत साधारण तरीके से चूक गया | मैं अपने बिजनेस में सच में व्यस्त रहता था पर इतना भी नहीं कि घर पर वक़्त ना दे सकूँ…घर से बाहर रहना और खुद में अपनी जिंदगी को एन्जॉय करना…मुझे अच्छा लगने लगा था ये जाने बिना कि इसके लिए मुझे भी किम्मत अदा करनी पड़ सकती है |कितना पाखंडी और कृत्रिम सा हो गया था मैंने अपनी जिंदगी को लेकर |

अपने बच्चों और बीबी से मैं ये उम्मीद करता हूँ कि वो मेरे करीब रहें…पर क्या सारी  उम्र मैंने कभी उन्हें एक पल का भी अहसास दिया कि मैं उन सबके सबसे करीब हूँ’’?

भले ही ये समाज..मेरे घर के बाकि के सदस्य दिव्या के प्यार के अहसास को स्वीकार ना करें पर मैं गलती से भी उसे इस बात के लिए कभी दोषी नहीं ठहरा सकता क्योंकि दिव्या के बहकने के पीछे…उसके साथ मेरा ना खड़ा रहना ही था |मैं अपने अहंकार में खुश रहा ये जाने बिना कि दिव्या के मन में,सोच में और विचारों में आखिर चल क्या रहा है |

अब मै एक पल की भी देरी नहीं कर सकता मुझे आज ही खुद जा के दिव्या को अपने घर लाना होगा| बस बहुत रह लिया उसने  दूसरो के सहारे अब उसे अपने पवन के पास ही रहना होगा ” सोचता हुआ जैसे ही घर से निकलने के लिए मैंने दरवाज़ा खोला,सामने पुलिस की जीप को रुकता हुआ देख कर मेरा दिल किसी अनहोनी के डर से कांप उठा |तभी एम्बुलेंस के सायरन ने मेरी रही सही हिम्मत भी तोड़ दी …मेरे शब्द ..मेरी आवाज़ गले में ही घुट कर रह गई |

तभी सामने से पुलिस वाले ने मुझे एक कार्ड देते हुए पूछा कि ‘’क्या ये पता यहीं  का है ?हमें कर्फू के दौरान ये लाश आप ही की गली के मुहाने पर मिली है और इनके हाथ में इस छोटे से बेग से ये कार्ड और मोबाइल मिला है…इस कार्ड पर इसी घर का पता लिखा हुआ है ‘’|

बहुत बुरा होने की आशंका से,मेरी आँखों खुदबखुद छलक गई और आगे बढ़ कर  जैसे ही स्ट्रेचर पर पड़ी लाश पर से कपड़ा हटाया तो एक चीख के साथ वहीँ घर की दहलीज़ पर अपना सर पकड़ कर बैठ गया |सुन्न होते दिमाग में बस अब एक ही सोच खून के दौरे की तरह दौड़ रही कि ….सच में रिश्तों तक पहुँचने में, मुझे फ्लांग भर की दूरी तय करने में भी बहुत-बहुत-बहुत,बहुत देर हो चुकी थी और पता नहीं कैसे मुझे उसकी कविता की कुछ लाइन्स, जो मुझे पता नहीं किस कारण से याद रह गयी थी,अभी भी दिमाग में घूम रही थी……..

कश्ती बचाने  को

साँस की डोर टूट जाने से पहले

अब भी तूफ़ान से लड़ रही हूँ |

 


Anju Chowdharyअंजू चौधरी

 

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