आज नाड़ा पुराण…
- विजय शर्मा
आजकल अधिकाँश कपड़ों में नाड़ा नहीं, उसके स्थान पर इलास्टिक का प्रयोग होता है।
अनघा को यह सुन कर आश्चर्य होता है, साथ ही यह सुन कर उसका भी मनोरंजन होता है कि एक समय था जब हमारे कच्छे, घुट्टने, पजामे, गरारे, शरारे, सलवार, चूड़ीदार, पेटीकोट सबके नेफ़े में नाड़ा हुआ करता था। अक्सर एक व्यक्ति के पास एक नाड़ा होता और परिवार संयुक्त होते थे। जहाँ दादी, बाबा, बुआ, चाचा, चाची, ताई, ताऊ, जीजी, भाई, पिता और तमाम आए गए चचेरे, ममेरे, मौसेरे भाई बहन और न जाने कितने और लोग हुआ करते थे। ऐसे में नाड़ा खिचाई बड़ी स्वाभाविक थी।
उन दिनों नाड़ा बाजार से खरीद कर नहीं लाया जाता था। घर में ही धागे से स्त्रियाँ इसे बुनती थीं, अथवा धोती-साड़ी की किनारी से यह बनाया जाता था। किनारी पतली हुई तो उसे बट लिया जाता और नहीं तो मजबूत किनारी का यूँ ही प्रयोग होता। कभी-कभी कपड़ा सिलते हुए उसी की लीर से नाड़ा भी सिल लिया जाता था।
उसी एक नाड़े को आप एक नेफ़े से निकाल कर दूसरे में डालते थे। नाड़ा डालने के लिए सेफ़्टी पिन, हेयर पिन, टूथब्रश के हेंडल (ब्रश का हिस्सा तोड़ कर) और अँगुलियों का प्रयोग होता था। कई बार नाड़ा नेफ़े से छोटा होता, आपने इधर से डाला और वह उधर से गायब। मजा तो तब आता जब आप नहानघर या पेशाब घर (उन दिनों टॉयलेट, बाथरूम, वॉशरूम शब्द प्रचलन में न था।) में गए और जब नाड़ा बाँधने का वक्त आया पता चला कि वह तो सरक चुका है। अब या तो अँगुलियों से उसे सरकाइए अथवा अगर आपके पास सेफ़्टी पिन, हेयर पिन है, जो कि उन दिनों सबके पास हुआ करती थी (सबकी चूड़ियों, ब्लॉउज, चोली में सेफ़्टी पिन के गुच्छे लटकते रहते थे। बालों में हेयर पिन खुँसी रहती थी।) तो उसका उपयोग किया जाता। इस बीच कोई-न-कोई आपका दरवाजा खटखटा-पीट रहा होता, आप पर चिल्ला रहा होता।
एक बार एक लड़की, जब वह पेशाब घर में थी, उसका नाड़ा नेफ़े में खो गया। बहुत समय लगा उसे नाड़ा जगह पर लाने में। क्योंकि उसके पास न तो सेफ़्टी पिन थी और न ही हेयर पिन। इस बात को ले कर बाहर खूब हो-हल्ला मचा। कहा गया जरूर वह भीतर कुछ उल्टे-सीधे काम कर रही होगी। हालाँकि बाहर खड़ी लड़कियों को उल्टे-सीधे काम की कोई खास जानकारी न थी। मगर सुनी-सुनाई बात दोहराने में क्या लगता है। तब सच में मुसीबत आ जाती जब नाड़ा टूट जाता। फ़िर उपाय किया जाता, नाड़े में गाँठ लगा कर काम चलाया जाता या किसी दूसरे का नाड़ा चुरा कर काम चलाने का प्रयास किया जाता, जिसमें सदा खतरा और जोखिम होता।
तब बड़ी चिखचिख, खटपट होती जब किसी का नाड़ा गायब हो जाता। जाहिर-सी बात है नाड़े के पैर तो होते नहीं सो वह खुद कहीं नहीं जा सकता था। मतलब किसी ने आपका नाड़ा खींच लिया। अब खींचने वाला आसपास का कोई व्यक्ति ही होगा। खींचने वाला सोची-समझी साजिश के तहत नाड़ा खींचता। कभी आवश्यकता पड़ने पर, परंतु कई बार किसी को चिढ़ाने-खिजाने, मजे के लिए, तंग करने हेतु। हरेक का नाड़ा नहीं चुराया जा सकता था। निरीह-निर्बल का नाड़ा निकाल लिया जाता। किसी दबंग का नाड़ा लेने की बात स्वप्न में भी नहीं सोची जाती क्योंकि देर-सबेर भेद खुलता ही और फ़िर शामत आ सकती थी। कान खिंचाई, रैपटा या पिटाई होने का खतरा इससे जुड़े कार्यक्रम होते थे।
हमारे एक जीजाजी थे, जिनका नाड़ा सदा उनकी कमीज या शर्ट के बाहर लटकता रहता था। हम खी-खी करते हुए आपस में फ़ुसफ़ुसाते, ‘जीजाजी का इजारबंद लटक रहा है।’ मगर उनके रुआब से सहमे रहते, कभी उनसे कहने की हिम्मत न होती कि जीजाजी आपका नाड़ा बाहर लटक रहा है। उन दिनों ‘नाड़े में उरसे’ होना मुहावरा प्रचलित था। कुछ स्त्रियाँ अपने पति को नाड़े में उड़ेस कर रखती थीं। वैसे आप समझ सकते हैं यह उक्ति स्त्री को भुलावे में रखने के लिए गढ़ी गई है। हाँ कई पुरुषों का नाड़ा ढ़ीला होता है, यह बताना नहीं होगा, ऐसे लोग जग जाहिर होते हैं।
अक्सर नाड़ा नेफ़े की लंबाई के बराबर होता और नेफ़े में उसके गुम होने का खतरा बना रहता। ऐसी नाजुक स्थिति का भी उपाय था। नाड़े में ससरफ़ंद गाँठ लगाई जाती। अच्छा, आप नहीं जानते हैं कि यह ससरफ़ंद गाँठ क्या होती है। अगली बार जब आप मुझसे मिलेंगे, डिमॉन्स्ट्रेट कर के समझा दूँगी। अरे! इसी बहाने मिलिएगा।
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