जीवन की असली समस्याएं पेट भरने के बाद ही शुरू होती हैं….

  • संदीप नय्यर

यह शिकायत बहुत आम हो चली है कि आजकल के युवा साहित्यकार कल्पनाओं पर लिख रहे हैं, फंतासियों पर लिख रहे हैं, रोमांस और सेक्स पर लिख रहे हैं, मगर जीवन की कड़वी सच्चाइयों या तल्ख़ हक़ीक़त से परिचय कराता साहित्य कहाँ लिखा जा रहा है? क्यों आज का युवा साहित्यकार सामाजिक समस्याओं पर नहीं लिखता? भूख पर नहीं लिखता, ग़रीबी पर नहीं लिखता, अस्पृश्यता पर नहीं लिखता, साम्प्रदायिकता पर नहीं लिखता।

हालांकि मैंने अपने दोनों उपन्यासों में जीवन की तल्ख़ हक़ीक़त पर लिखने की कोशिश की है, मगर अंदाज़ रूमानी ही रखा है. मैं स्वयं बहुत गंभीर किस्म का व्यक्ति नहीं हूँ, इसलिए बहुत गंभीर साहित्य मुझसे लिखा भी नहीं जाता. जीवन के साथ मेरा सम्बन्ध रूमानी रहा है. मैं गहन अवसाद में भी कुछ रोचक या रोमांचक ढूँढ निकालने की कोशिश करता हूँ, इसलिए मेरा लेखन भी वैसा ही होता है. रोचकता और रोमांच का आयाम जोड़े बिना मुझसे लिखा नहीं जाता.

एक बात जो मुझे व्यथित करती है वह यह कि हिंदी साहित्य में पिछले कुछ दशकों के वामपंथी विचारों के प्रभुत्व के चलते सार्थक साहित्य उसे ही माना जाने लगा जो जीवन की भौतिक समस्याओं पर बात करे, सामजिक समस्याओं पर बात करे, मानो कि भौतिक और सामाजिक समस्याओं से इतर मनुष्य की सारी समस्याएँ गौण हैं. मगर क्या ऐसा है?

अमरीका और पश्चिमी यूरोप के समृद्ध और विकसित देशों पर नज़र डालें तो आपको एक अलग ही तस्वीर दिखाई देगी. इन देशों में हर चौथा इंसान अवसाद का शिकार है. इन देशों में सबसे अधिक प्रिस्क्राइब की जाने वाली दवाएँ मानसिक रोगों की दवाएँ हैं. जापान और स्कैंडेनवियन मुल्क जहाँ कि जीवन का भौतिक स्तर विश्व में सबसे अच्छा है वहाँ आत्महत्या की दर भी बहुत अधिक है.

प्रसिद्द हॉलीवुड अभिनेता जिम कैरी ने एक बार कहा था कि मैं चाहता हूँ कि हर किसी के पास उतनी ही समृद्धि, प्रतिष्ठा और सुख-सुविधा हो जितनी कि मेरे पास है, मगर दुर्भाग्यवश ये जीवन की समस्याओं के हल नहीं हैं. भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन समस्त जीवन अवसाद से इतने पीड़ित रहे कि उन्होंने कहा था – यदि नर्क से बदतर कोई जगह है तो मैं उसमें जी रहा हूँ.

मेरा बड़ा बेटा जब पंद्रह वर्ष का था तो बहुत परेशान रहता था, तनाव और अवसाद में रहता था. मैंने उससे पूछा कि आखिर तुम्हारी समस्या क्या है? सारी सुख-सुविधाएँ हैं. सारे शौक पूरे हो रहे हैं. फिर प्रॉब्लम क्या है? उसने कहा, “Life is my problem”.

उसके इस जवाब ने मुझे चौंका दिया. पंद्रह साल का बच्चा जिसे जीवन से भरपूर होना चाहिए, ऊर्जा से, सपनों से, उम्मीदों से लबरेज़ होना चाहिए, वह जीवन को समस्या कह रहा है. हम अपने बच्चों के साथ क्या कर रहे हैं? उनसे उनका जीवन छीन ले रहे हैं, उनकी उम्मीदें, उनके सपने छीन ले रहे हैं. आज पंद्रह सोलह साल के बच्चे अवसाद में जी रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं और हमें लगता है कि समस्याएँ सिर्फ उन बच्चों की हैं जो गरीब हैं, अभावों में हैं, जिन्हें शिक्षा नहीं मिल रही, जिन्हें बालश्रम करना पड़ रहा है. दरअसल उन बच्चों की समस्याएँ ज़्यादा हैं जिन्हें गलत शिक्षा दी जा रही है, जिन्हें वह पढ़ाया जा रहा है जो वे पढ़ना ही नहीं चाहते. जिनमें वे महत्वाकांक्षाएँ पैदा की जा रही हैं जो वे करना ही नहीं चाहते. वे अपनी कल्पनाओं के आकाश में उड़ना चाहते हैं, हम उन्हें H2SO4 और HCL का रिएक्शन पढ़ा रहे हैं. वे गाना चाहते हैं, नाचना चाहते हैं, कहानियाँ कहना चाहते हैं, रोमांस करना चाहते हैं, हम उन्हें डीफेरेंशिअल और इंटीग्रल कैलकुलस पढ़ाते हैं, वे गिटार और पियानो बजाना चाहते हैं, हम उनके हाथों में अमीटर और वॉल्टमीटर पकड़ा देते हैं. उनका बालश्रम अधिक पीड़ादायक है.

मुझे आश्चर्य होता है कि हम जीवन के इस पूरे आयाम को महत्वपूर्ण मानते ही नहीं. हम कल्पनाओं को, फंतासियों को, सपनों को, उम्मीदों को, रोमांच को, रोमांस को, सेक्स को अच्छे और सार्थक साहित्य का अंग मानने को तैयार नहीं हैं. मुझे आश्चर्य होता है कि जब सार्थक फिल्मों की बात चलती है तो रॉकस्टार और तमाशा जैसी फिल्मों को अर्धसत्य, स्पर्श और पार जैसी फिल्मों सा सम्मान नहीं मिलता. जब नारी समस्याओं की फिल्मों पर चर्चा होती है तो हम अर्थ, मंडी और बाज़ार जैसी फिल्मों पर ही अटके रहते हैं. माया मेमसाब जैसी फिल्म का कोई ज़िक्र तक नहीं करता. क्या माया की समस्या औरत की समस्या नहीं है? क्या सिर्फ इसलिए कि उसकी समस्या समाज या समाज के मर्दों द्वारा पैदा की हुई नहीं है, वह छोटी समस्या हो जाती है?

आप लिखें भूख पर, गरीबी पर दलितों पर, दहेज पर, मगर ये न मान लें कि रोमांस और सेक्स की समस्याएँ छोटी समस्याएँ हैं, पेट का न भरना, कल्पनाओं के पूरे न होने से अधिक कष्टकर है. दरअसल जीवन की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि मनुष्य की असली समस्याएँ उसका पेट भरने के बाद ही शुरु होती हैं.

Sandeep Nayyar lives in Birmingham, UK. and has written two novels in Hindi.  

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.