• शिवानी गौड़

सर्दियों की कुनमुनी धूप में जब उदय इत्मीनान से छत पर लेटा चेहरे पर किसी ख्वाब की मूरत का पल्लू डाले गुनगुना रहा होता -तुम मेरे पास रहो, मेरे कातिल मेरे दिलदार मेरे पास रहो…..वो धप-धप करती चली आती. पता नहीं उसकी शख्सियत में क्या था कि हवा की गुनगुनाहट शोर करने लगती.

“चुप क्यूँ हो गए? अच्छा लगता है तुम्हारी आवाज़ सुनना, तुम्हारी आवाज़ में सुनना.

उदय आँखें मीचे उसे देखता रहता, उसके हाथों में किताबें होती. वो तीन घर छोड़ उस परले घर वालों की लड़की थी जो अक्सर उससे पढने चली आती. उसके यूँ चले आने से उदय को कभी कोफ़्त नहीं हुई , कोफ़्त होती थी उसके हाथ में किताबों के साथ कासनी रंग के उस अधबुने स्वेटर की ऊन और सलाइयाँ देख कर. हद्द उदास रंग था, जाने उसने यही रंग क्यूँ चुना था. देखने में वो ठीक ही थी, उसके चेहरे का साँवला रंग ऐसा था मानो किसी ने सुरमई फूल से रंग ले चेहरे पर फेर दिया हो, आँखे हलकी सुनहरी दमक लिए हुए ,कमर तक के गहरे काले बाल थोड़ी खुलती हुई सी चोटी में गुंथे रहते, उसके  थोड़े से खुले होंठों को देख के हमेशा ही ये लगता की वो कुछ कहने वाली है लेकिन सोच में गुम है. पढ़ाते हुए अक्सर उदय उसकी हथेली पर छड़ी से मारा करता. उसके कंधे थोड़े से उचकते, आँखें झुकती लेकिन मुंह से एक आह तक न निकलती. उसकी आह सुनने के लिए अगली बार वह ज़रा ज्यादा जोर से उस प्लास्टिक की पतली लचीली स्टिक को आजमाता. उसकी निगाह ऊपर उठती पल भर को , पता नहीं क्या था उन आँखों में की वो चुप हो जाता, अन्दर-बाहर से एकदम चुप. लगता जैसे अभी-अभी धरती आसमान पर कोई अपने गीले पैरों के निशान छोड़ गया हो. उदय अपनी इस अवाक चुप्पी पर खिसिया जाता और वो होंठों के कोनो से “बचपना कब जायेगा तुम्हारा” कहती हुई ऊन सुलझाने लगती.

किसी ऐसे दिन जब उदय जंगले में से धूप को विदा कर होता तब वह आती तो वो उसे वहीँ कमरे में बैठने को कहता. उतरती शाम में हल्की पीली रौशनी में उसे पढना अच्छा लगता.”फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों,

फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों, अफ़साने हों”

धीमी गहरी आवाज़ उसकी जब रूकती तो वह पलंग के अपने लिए तय किये हुए कोने पर बैठते हुए पूछती -” आवाज़ से किसे छूना चाहते हो”, उसका पूछना भी उसका कहना लगता.जैसे उसे जवाब की कोई दरकार ही न हो.

उदय आवाज़ को थोड़ा तेज़ कर कहता “पढाई में ध्यान लगाना है तो इधर कुर्सी पर बैठो”

इतना सुनते ही वो मुस्कुराते हुए पैर ऊपर कर मोड़ कर बैठ जाती. पलंग पर पड़ी उसकी रजाई खींचती और उसे अपने घुटनों पर डाल लेती. उदय के तकिये को सीधा कर उससे कमर टेक देती..

“बडकी भौजी देख रही हो, ऐसे होती है क्या पढाई”

भाभी को कमरे में आया देख वो रजाई से पैर निकाल पलंग से नीचे लटका लेती और अपने अधूरे स्वेटर की सलाइयाँ उठा लेती.भाभी चुप उसके झुके सर को गहरी नज़रों से खड़ी देखती.

“और इसका ये स्वेटर भी ले जाओ , जाने इस जनम में पूरा होगा भी या नहीं”

‘उम्मीद है एक दिन हो ही जायेगा पूरा” भाभी गहरी सांस के साथ जवाब देती.

उदय अचरज से भर जाता, समझ न पाता की इसमें इतनी उदासी वाली क्या बात है

*******

मनु के लिए रिश्ता देख रहे हैं उसके घरवाले, भाभी ने उसके पास बैठ उसके बालों में हाथ फिराते हुए कहा,उदय को लगा इस खबर के साथ आये धक्के से बचाने को भाभी ने हाथ बढ़ाया हो। वो मुस्कुरा दिया

अच्छी बात है

मनु की माँ कह रही कि दो- चार दिन में रिश्ता शायद पक्का हो जाये, लड़का डॉक्टर है।

उदय चुपचाप आसमान तकता रहा।

तुम्हे कुछ कहना नही है?

सब कुछ कहा ही जाए ये जरूरी तो नही न भाभी

उदय की आवाज़ किसी अनजान मोड़ पे मुड़ गई।

देर सबेर तुम्हे भी अच्छी नौकरी मिल ही जाएगी, पढ़े लिखे हो और ऐसा तो है नही कि कमा नही रहे।

भाभी देर सबेर अच्छी नौकरी मिल जाएगी डॉक्टर तो नही हो जाऊँगा ना?  और बात सिर्फ नौकरी की तो नही है ना भाभी, मनु ख़ुश रहेगी वहाँ

ना चाहते हुए भी उदय का स्वर कसैला हो उठा।

तुम कहो तो चाची से बात करुँ?

नही भौजी रहने दो, भारद्वाज ब्राह्मण होने का खम माँ की गर्दन में देखा नही क्या, उनका ब्राह्मणत्व चला गया तो बचेगा क्या उनके पास जिस पर वो गर्व कर सके। खिलखिला उठा उदय

बिना मन के मिले शादी भी तो शादी नही , दोनों की ज़िंदगी बर्बाद हो जाएगी

तुम्हे कैसे पता मनु का मन वहाँ नही मिलेगा

मुझे सब पता है भाभी का स्वर दृढ़ था।

छोड़ो न भाभी वैसे भी हमारे देश मे 90% लड़कियाँ शादी के बाद ही प्रेम करती है अपने पति से और उन्हें हो भी जाता है प्रेम।

मनु फिर से नही कर पायेगी प्रेम किसी से,खोई हुई सी  धीमी आवाज़ में भाभी ने कहा।

चौंक कर उठ बैठा उदय लेकिन भाभी से निगाह मिलाने से कतरा कर पैरों में चप्पल डाल उठ खड़ा हुआ।

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अक्सर घर मे उदय को मनु दिख जाती, किसी के साथ बातें करती, किसी के काम मे हाथ बटाती, कभी बच्चो के साथ कुछ करती, लेकिन अब कभी मनु पढ़ाई के बारे में कुछ नही कहती न ही उदय ने कभी उसे स्वेटर बुनते देखा। एक दो बार उसने मनु को अपने कमरे से निकलते देखा तो सोचा कि आवाज़ दे कर रोक ले लेकिन कहेगा क्या मनु से , उसने बहुत टटोला लेकिन उसे मनु से कहने के लिए एक शब्द भी नही मिला और बगल से निकलती मनु को उदय कभी आवाज़ दे कर रोक नही पाया और मनु तो जैसे उदय को पहचानती ही नही थी।उसके जाने के बाद उदय अपने कमरे की हर चीज़ को बारीकी से देखता, उसे कोई भी चीज़ अपनी जगह से हिली हुई नही लगती , फिर करती क्या थी मनु उसके कमरे में।

शाम के धुंधलके में कमरे से निकलती मनु दरवाज़े पे उदय को देख ठिठक गई, उदय भी चुप खड़ा रह गया, मनु ने हाथ आगे बढ़ाया और वही स्टिक उदय को पकड़ा अपनी हथेली फैला दी, उदय दो पल मनु की फैली हथेली देखता रहा फिर उसने वो स्टिक तोड़ कर वही कोने में फेंक दी लेकिन मनु ने अपनी हथेली नही सिकोड़ी। जाने क्या चाहिए था उसे उदय से। उदय ने मनु को खामोशी से रोते हुए देखा, हज़ार करवटें लीं उदय के मन ने लेकिन न कोई आहट उसकी आँखों मे आई और न ही उसके होंठ हिले। मनु के आँसू गिरते रहे , हथेली फैली रही और उदय चुप खड़ा देखता रहा।

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मनु की शादी को ज्यादा दिन नही बचे ।

हुंकार भर उदय अपनी किताब में खोया रहा।

उदय !!!

पनीली पुकार सुन अजाने संसार से लौट पड़ा उदय,  उनके घुटने से सर टिका सिसक पड़ा

मेरे एक दूर के भाई रहते हैं हैदराबाद में , तुम दोनों वहाँ चले जाओ किसी को कुछ पता नही चलेगा, यहां सब संभाल लूँगी मैं।

मनु ने कुछ कहा आपसे? जाने क्या सुन ने की आस लिए पूछा उदय ने

सब कुछ कहना जरूरी तो नही होता न, वो मेरी बात फेरेगी नही।

नही भाभी अपने मन की चाह के लिए मैं माँ को इतना बड़ा दुख नही दे सकता।

और मनु? उस से क्या कहोगे?

मैंने मनु को कभी कोई वादा नही दिया, एक टूटते तारे को निगाह से बाँधे उदय ने कहा।

मन की क्या कोई भाषा नही होती? क्या मनु के आँखें कभी नही पढ़ी तुमने? याचना कर उठी भाभी उदय से।

मनु समझदार है समझ जाएगी कहते हुए उदय दरवाज़े की तरफ मुड़ गया।

तो फिर वो स्केच उठा कर फेंक क्यों नहीं देते जो इतना संभाल कर रक्खा है।

भाभी की आवाज़ सुन उदय ने पलट कर भाभी को देख लेकिन कहा कुछ नही।

चेहरा अधूरा है लेकिन वो मनु का है ये जानती हूँ मै।

उदय ! गिड़गिड़ा उठी भाभी -मन का साथी किसी किसी को ही मिलता है । तुम्हे मिला है उसे इस तरह जाने ना दो।

सब कुछ अपने बस में नही होता भाभी, इस से ज्यादा कुछ था ही नही उदय के पास कहने को।

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कुरते की बाँह मोड़ते हुए उदय सीढ़ियों से उतर रहा था जब उसने बडकी भौजी के साथ पिछले दरवाज़े के पास उसे खड़े देखा. पता नहीं क्या खुसुरफुसुर हो रही थी दोनों में जो उसे देख कर बंद हो गई.

“तुम सुबह सुबह यहाँ क्या कर रही हो? आज तो ब्याह है न तुम्हारा?

ह्म्म्म ! उसने बिना उदय की तरफ देखे बस इतना कहा.

अरे! गर्मियां शुरू होने को आई और तुम्हारा ये स्वेटर हुआ की नहीं पूरा ? हँसते हुए उदय ने भाभी के हाथ से स्वेटर लेते हुए कहा.

अभी तक अधूरा है? हैरत से उदय ने मनु की तरफ देखा . ना बाहें सिली हो न बगल में ही सिलाई की हो, अब भाभी  करेंगी क्या इसे पूरा. अपनी आवाज़ की इस तल्खी पर उदय खुद ही हैरान था.

“हाँ! अब तो भौजी ही करेंगी पूरा, भौजी कर दोगी न इसे पूरा, उसकी आवाज़ में काई जमी थी , उदय का मन किया आवाज़ को उठा नीचे झाँक ले बस एक बार.

” इतनी गर्मी में तुम्हारा मनमीत ही पहन सकता है स्वेटर वो भी ऐसे वाहियात रंग का”,  उदय कीआवाज़ की आदतन हँसी उदास हो गई थी.  कार्ड पर लिखे नाम उसके  ज़हन में तैर रहे थे.

“जानती हूँ, मेरा मनमीत ही पहनेगा इसे”, इतनी देर में वो पहली बार उदय की  आँखों को अपनी निगाहों से बाँध मुस्कुराई, लगा तेज़ आँधी चली , आती हुई शाम दप्प से बुझी, एक ज़लज़ला आया और एक बार फिर कच्चा घड़ा फूट गया.

घड़ी भर के सन्नाटे के बाद उदय भाभी  को बोल घर से निकल गया , उसकी आवाज़ ने दौड़ते हुए आ कर कहा शाम को वक़्त पर आ जाना. उदय के क़दमों ने रुक कर उसे वक़्त पर आ जाने का आश्वासन देना चाहा लेकिन वो सुनी-अनसुनी कर बाहर सड़क पर आ गया. जेबों में हाथ डाल वो घूमता रहा, कई सारे नन्हे पत्थरों को ठोकर मारी, उसे वो सड़क नहीं मिल रही थी जिस पर उसे जाना था, उसने छोटे-छोटे खिलौने बेचते आदमी को देखा, मन किया की उससे हरे रंग का चश्मा खरीद ले. ट्रैफिक का शोर, पैदल चलते लोग उदय को हैरानी थी की सबको पता था की उन्हें कहाँ जाना है बस उसे ही कोई ठौर नहीं मिलता . पैरों को घसीटता हुआ उदय लाइब्रेरी में जा कर बैठ गया. वो पढ़ रहा था , बेख्याली में गुनगुना रहा था .

“फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी प्रीत हमारी हो

फ़र्ज़ करो इस प्रीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो” गुनगुनाते हुए उसकी निगाह घड़ी की तरफ उठी, उसने अपने माथे पर अक्षत महसूस किया, मंगल गीत की आवाज़ उसे भिगो गई और वहीँ सामने टेबल पर इंशा जी की गोद में सर रखे वो बुदबुदा उठा-” तुम्हे छूना चाहता हूँ”

* * *

अब वो नहीं आती, उदय को घर सूना सा लगता , उसे लगता घर की जान किसी एक इंसान में ही होती है, सारी चमक सारी रौनक किसी एक के हवाले से ही होती है, वो इस घर की नहीं थी लेकिन उदय को लगता ये घर उसी का है. उसकी दौड़ती आवाज़ रुकी रुकी सी मालूम होती. उदय के कमरे की उस खिड़की पर पता नहीं कितनी बार धूप पसरी कितनी बार सिमटी, कुछ ही दिनों में जाने कैसे तो और कितने तो मौसम आये और गुज़र गए, उसने गिनना छोड़ दिया था. छत को जाती सीढ़ियों पर पाँव के निशान बने अरसा गुज़र चला था. भाभी ने भी हल्दी की गांठों को पानी में भिगो कर सुखाना छोड़ दिया था. उसकी किताबों पर गर्द की मोटी परत बैठी रहती, लिखना-पढना अब उसका छूट चला था. काम से उसे फुर्सत नहीं मिलती जैसी तसल्लियाँ वो खुद को आये दिन देता रहता. कमरे से कुर्सी उसने बाहर कर दी थी. मेज़ को खींच कर उसने पलंग से लगा लिया था अब वो मेज़ पर झुक कर काम करते हुए पलंग पर बैठ पैर मोड़ लेता. इससे उसकी यादों को आराम मिलता.

******

उदय सुरमई चमक वाली एक ही जोड़ी आँखों का स्केच बार- बार बनाता. खूब-खूब सफ़ेद कागज़ पर बनाता जिससे आँखें खूब सफ़ेद और साफ़ उभर कर आयें. उदय को  कभी अफ़सोस नहीं हुआ की उसने उसके कहने से भी कभी उसका स्केच नहीं बनाया.

“आँखें कभी इतनी सफ़ेद नहीं हुआ करती” उदय ने चौंक कर देखा, वो चाय का कप मेज़ पर रख चुकी थी. उसकी शांत आवाज़ ने जाने किससे कही थी ये बात. उदय ने एक बार उसे देखा और एक बार अपने बनाये स्केच को. वही चेहरा था, वही रंगत, वही आँखें फिर भी उदय को उसे पहचानने में मुश्किल हो रही थी. उदय  ने ढेर सारा  सोचा कहने के लिए लेकिन कहा नहीं. वो जाने के लिए पलटी  तो लगा ओस की बूँद चटक कर टूट गई हो.

“सुनो… उदय की आवाज़ से ज्यादा हाथो ने पुकारा .

“इतनी सड़ी गर्मी में ये बिना सिला स्वेटर क्यूँ पहन रक्खा है, अब तो इस रंग की ऊन भी नहीं मिलेगी”, उसने बिना मुड़े ही कहा.

उदय  की धुँधली आँखें कुछ जवाब देती उससे पहले ही कासनी पाज़ेबों की आवाज़ सीढियां उतर रही थी.

संपर्क

R-8, D-130, 
srinagar colony, 
paharia
Varanasi-221007
U.P
shivgaur2803@gmail.com
फोन – 8004079526

 

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