अधिवक्ता एवं कानूनविद, उ. प्र विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और मंत्री- पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भाजपा के वरिष्ठ नेता पंडित केशरी नाथ त्रिपाठी नहीं रहे। पंडित जी का कार्य क्षेत्र हमेशा न्याय, राजनीति, साहित्य, समाजसेवा, संस्कृति तथा शिक्षा रहा। वे सामासिक संस्कृति की साकार प्रतिमा थे। पंडित केशरी नाथ त्रिपाठी का जन्म 10 नवम्बर 1934 को इलाहाबाद में हुआ। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए., एल.एल.बी. की डिग्रियां हासिल कीं। बाद में डी.लिट. की मानद उपाधि उन्हें चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से मिली। उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत 1956 से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत से की। छात्र जीवन में कश्मीर आंदोलन में जेल जा चुके पंडित जी हाई-कोर्ट बार एसोसिएशन के संयुक्त सचिव (पुस्तकालय और वर्ष 1987-1988 तथा 1988-1989 के बीच इलाहाबाद बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे। हिंदी में “मनोनुकृति” के नाम से इनका पहला काव्य संकलन प्रकाशित होते ही कविता के संसार में जैसे तहलका मच गया। इस संग्रह की तुलना लोगों ने टैगोर की गीतांजलि से भी की। वे स्वभाव से सहज, सरल और मृदुभाषी थे। वे एक ऐसे अजातशत्रु रचनाकार थे जिनकी कथनी और करनी में कोई भेद नही रहा। केशरी नाथ त्रिपाठी अनेक पुरस्कारों जैसे – भारत गौरव सम्मान, विश्व भारती सम्मान, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान, अभिषेक श्री, हिंदी गरिमा सम्मान, साहित्य वाचस्पति, बागीश्वरी सम्मान, चाणक्य सम्मान (कनाडा में) तथा काव्य कौस्तुभ सम्मान आदि से सम्मानित हुए। भारतीय उच्चायोग, आई.सी.सी.आर., एवं ब्रिटेन की बहुत सी संस्थाओं द्वारा आयोजित कवि सम्मेलनों में अध्यक्ष व मुख्य अतिथि के रुप में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। ऐसे स्वनाम धन्य पंडित केशरीनाथ त्रिपाठी से सन 2014 में एक संक्षिप्त मुलाकात में उड़ान पत्रिका के प्रतिनिधि ने उनसे कुछ सवाल किये। पेश है उसी वार्ता के कुछ अंश:
उड़ान पत्रिका –“शुरुआत बचपन से करते हैं।”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “ जी मेरा बचपन वैसे ही बीता जैसे किसी सामान्य मध्यम वर्ग के परिवार के बच्चों का बचपन बीतता है। बहुत तेज़ विद्यार्थी भी नहीं था, सामान्य विद्यार्थी था और पढ़ने–लिखने में न बहुत अच्छा कह सकते हैं और न बहुत कमज़ोर। औसत दर्जे का विद्यार्थी था लेकिन कभी-कभार कॉलेज की प्रतियोगिताओं में भाग ले लेता था। उसी से साहित्य के प्रति थोड़ा-सा जुड़ाव हुआ लेकिन साहित्य के प्रति जुड़ाव मुख्य रूप से कुछ कविताओं के कारण हुआ। बच्चन जी की ‘मधुशाला’ पढ़ी लोकप्रिय थी छात्रों में तो उसके कुछ छंद हमने याद कर लिए थे। जब विद्यालयों में अंताक्षरी प्रतियोगिता होती थी तो उस समय अपने कॉलेज की टीम में मैं भी शामिल होता था।
उड़ान पत्रिका– “ कौन से स्कूल में पढ़ते थे सर, कहाँ पढ़ते थे? पढ़ाई कहाँ-कहाँ से की आपने?”
केशरी नाथ त्रिपाठी : कक्षा–8 तक की मेरी शिक्षा इलाहाबाद शहर के सरयूपारीण विद्यालय में हुई थी और 9 से 12 तक मैंने अग्रवाल इण्टर कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया और फिर वहीं से कानून की पढ़ाई की, एल.एल.बी. की बस। बच्चन जी की मधुशाला से थोड़ी रूचि बढ़ी और उसी की तर्ज पर मैंने विजयाशाला नाम से कुछ कविताएँ लिखीं थीं। 20 – 25 छंद उसमें बने थे। कॉपी न मालूम कहाँ खो गई। ”
उड़ान पत्रिका – “सर, बच्चन जी के अलावा उस समय के और कौन से हिन्दी के कवि हैं जिनके साहित्य को पढ़ने का मौक़ा मिला।”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “ मैंने बहुत अध्ययन नहीं किया कभी। हो सकता है कि आपको सुनकर आश्चर्य महसूस हो। क्योंकि मेरा मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर कुछ भावनाएँ , कुछ अनुभूतियाँ, कुछ प्रतिक्रिया ऐसी होती है, जो बहुदा हर व्यक्ति में पाई जाती हैं । संवेदनाएँ अधिकांश लोगों में होती है कुछ के पास शब्द होते हैं तो उनकी अभिव्यक्ति हो जाती है कुछ के पास शब्द होते हुए भी इच्छा नहीं होती और कुछ अपनी प्रतिक्रियाओं को महत्व नहीं देते जो उन प्रतिक्रियाओं को महत्व दे देते हैं संवेदनाओं को महत्व दे देते हैं या फिर अपने आप मन के अंदर उफान आता है तो कविता जन्म ले लेती है , साहित्य जन्म ले लेता है कहीं उपन्यास के रूप में, कहीं कहानी के रूप में, कहीं कविता के रूप में।”
उड़ान पत्रिका: “हिन्दी देश के करोड़ों लोगों की भाषा है और हमारे देश को स्वतंत्र हुए कितने वर्ष हो गए लेकिन ऐसा लगता है कि पुरानी सरकारों ने हिन्दी के विकास के लिए हिन्दी की समृद्धि के लिए इतना ज़ोर नहीं दिया, जितना अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा के लिए।”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “ देखिए! सही मायने में देखा जाए तो हिन्दी राजनीति का शिकार हुई है। जो स्थान उसे अब तक प्राप्त हो जाना चाहिए था, वह स्थान राजनीति के कारण ही नहीं मिला।
दक्षिण भारत के एक राज्य में उसका विरोध केवल राजनीतिक कारणों से हुआ और वह केंद्र में बैठे हुए हमारे नेतृत्व की कमजोरी से कुछ लोग अंग्रेजी को प्रगति का प्रतीक मान लेते हैं। यह धारणा ग़लत है और इसीलिए मैं प्रायः कहा करता हूँ कि अंग्रेज़ी तो उन देशों में प्रभावी हुई है, जहाँ अंग्रेजों का साम्राज्य था । दुनिया में अनेक देश ऐसे हैं, जहाँ अंग्रेजों का साम्राज्य नहीं था लेकिन वो लोग अपनी भाषा के बल पर आज विकसित देश कहे जाते हैं।उदाहरण के लिए – फ्रांस, जर्मनी, चीन, रूस, जापान आदि ऐसे देश हैं, जिन्होंने अपनी भाषा के आधार पर उन्नति की और विकसित हुए लेकिन हम चूंकि अंग्रेजों के ग़ुलाम थे तो ग़ुलामी वाली मानसिकता से है।
मध्यम वर्ग का आदमी आज भी जब गुस्सा होता है तो अंग्रेजी में बोलने लगता है । कुछ दिखावे के लिए होता है ।
हालांकि आप ट्रेन में चले जा रहे हैं, उच्च श्रेणी में उसमें बैठे हैं तो आप समझें या न समझें हाथ में अंग्रेजी की एक किताब ले लेते हैं ताकि दूसरे के ऊपर प्रभाव पड़े कि हाँ! हम अंग्रेजी जानते हैं! तो हिन्दी भाषा के प्रति जो लगाव होना चाहिए, वह इसलिए नहीं हुआ क्योंकि हिन्दी को हमने भारत के स्वाभिमान की भाषा नहीं माना। जब तक हिन्दी को हम राष्ट्रीय स्वाभिमान से नहीं जोड़ेंगे तब तक हिन्दी उतनी पुष्ट नहीं होगी जितना उसे होना चाहिए ।
यह हिन्दी का दुर्भाग्य कि आज हमारे बहुत से ऐसे राजनीतिक व्यक्तित्व हैं लोग हमारे मतलब हमारे देश में, जो आज भी समझते हैं कि अंग्रेजी अपरिहार्य है। मैं उनसे पूछता हूँ कि अपरिहार्य किसने बना दिया । प्रथम तो अपरिहार्य है नहीं लेकिन उसे अपरिहार्य बनाया किस ने ?
उड़ान पत्रिका – “सर हिन्दी प्रदेशों से बहुत से हमारे देश में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति मिले हैं और हिन्दी–भाषी पट्टी से तो आपको कहीं लगता है कि उन नेताओं में कहीं दृढ़ इच्छा–शक्ति का अभाव था?”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “मैंने बताया न कि हीनता की भावना थी। इच्छा होती है मन में लेकिन सोचते हैं कि हिन्दी में बोलेंगे तो जाने क्या होगा। देखिए इसमें विवशता अलग चीज़ है, विवशता के करण आपको अंग्रेजी बोलना पड़ जाए, बात अलग है, लेकिन हीनता की भावना से आप अपने को अंग्रेजी में बोलकर श्रेष्ठ स्थापित करना चाहते हो तो गलत है।”
उड़ान पत्रिका– “अटल जी ने इस मिथक को तोड़ा और अब नरेंद्र मोदी भी हिन्दी को बढ़ावा दे रहे हैं।”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “मैं भी गया था, अटल जी के साथ डेलीगेशन में अमेरिका, कॉमनवेल्थ पार्लियामेंट्री राष्ट्र मण्डल सम्मेलन में गया था मैं । राष्ट्र मण्डल संसदीय संघ का एक सम्मेलन था ‘नसाउ’ में। ‘नसाउ’ अमेरिका के नीचे बहामा द्वीप समूह में उसकी राजधानी है तो वहाँ मैंने अपना भाषण हिन्दी में दिया। अटल जी थे वहाँ मौजूद, वो दूसरे कक्ष में दूसरी बैठक में थे, हम दूसरी बैठक में थे। हम हिन्दी में बोल रहे थे, उन्हें पता चला तो उन्होंने शाबाशी दी हमें। हिन्दी का विस्तार फिल्मों के माध्यम से भी हुआ है।”
उड़ान पत्रिका – “जी यह तो सच है – बहुत हुआ है, दक्षिण भारत के लोग हिन्दी को फिल्मों के माध्यम से ही जानते हैं।”
केशरी नाथ त्रिपाठी – लेकिन दुर्भाग्य यह है कि उसमें उर्दू शब्दों का बाहुल्य हो गया है और इसलिए मैं लोगों से कहता हूँ। दोनों भाषाओं के व्याकरण अलग हैं, दोनों भाषाओं की प्रामाणिकताएँ अलग हैं, दोनों भाषाओं के शब्दों का प्रभाव अलग–अलग है इसलिए हिन्दी को हिन्दी रहने दो, उर्दू को उर्दू रहने दो। एक – दूसरे से जब मिलाएँगे तो यह भाषाई प्रदूषणन उस भाषा के काम आएगा, न इस भाषा के। बहुत से अब प्रचलित शब्द हैं उर्दू भाषा के जो अब हिन्दी भाषा के हो गए हैं। उर्दू के बहुत से शब्द जो हिन्दी भाषा में आ गए हैं, उन्हें तो स्वीकार करना पड़ेगा। नए शब्दों का सृजन करना पड़ेगा ।”
उड़ान पत्रिका– “ जब आजाद हुए हम तो भी अंग्रेजी ही छाई हुई थी। लेकिन आजकल के बच्चों को, नवयुवकों को अंग्रेजी शिक्षा अंग्रेजी की ज्यादा जरूरत पड़ गई । ”
केशरी नाथ त्रिपाठी – “ फ़ैशन… इसका एक ही कारण समझ में आता है कि बेटा अब अंग्रेज़ी बोलेगा तो लगेगा कि वो श्रेष्ठ है दूसरों से। जिसको कहते हैं छद्म ‘सुपीरियरिटीकॉम्प्लेक्स।”
उड़ान पत्रिका– “जी, हम लोगों ने पढ़ाई हिन्दीमीडियम स्कूलों से ही की है। ”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “हमने तो टाट के बोरे पर बैठकर पढ़ा है। ”
उड़ान पत्रिका: “गुरु जी के विद्यालय से की और आज हम अपने बच्चों को बोलते हैं।”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “बच्चों से बोलते हैं, अरे!… आप अपनी बहू से कहो कि अपने नाती पोता को हम हिन्दी स्कूल में पढ़ाएंगे तो घर में विद्रोह हो जाएगा। वो कहेंगे कि अंग्रेजी स्कूल में क्यों नहीं पढ़ाओगे? ये जो सामाजिक परिवेश बना है, ये सामाजिक परिवेश इसलिए बदला कि हमने बताया कि भाषा को स्वाभिमान से नहीं जोड़ा।जिस दिन हिन्दी को हम राष्ट्रीय स्वाभिमान से जोड़ लेंगे तो वातावरण केवल पाँच साल के अंदर बदल जाएगा।”
उड़ान पत्रिका– “अंग्रेजी की महत्ता की कीमत संस्कृत को भी चुकानी पड़ी।क्या संस्कृत के विकास में सरकारों की तरफ से कोई पहल नहीं हुई। इस बात का संकट भी लगता है कि संस्कृत पढ़ने वाले जो लोग हैं उनके सामने भविष्य में कोई रोज़गार के क्षेत्र नहीं होंगे।”
केशरी नाथ त्रिपाठी – “ इसमें देखिए दो पहलू हैं। हो सकता है कि हम से भिन्न राय किसी की हो, संस्कृत भाषा ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है लेकिन ये भी मानना पड़ेगा कि हिन्दी की तुलना में वो थोड़ी – सी जटिल है, क्लिष्ट है, व्याकरण भी जटिल है। लिपि देवनागरी है लेकिन उसकी संधि, उसका व्याकरण उसके कारण ये सामान्यजन की भाषा नहीं बन पाई । अपवाद है कि आंध्र प्रदेश में कुछ गाँवों में सब लोग संस्कृत ही बोलते हैं।”
संस्कृत भाषा की श्रेष्ठता अगर हम स्थापित करना चाहते हैं तो संस्कृत भाषा के ग्रंथों के भाव की श्रेष्ठता स्थापित करें। जब भाव श्रेष्ठ होंगे और स्वीकार्य होंगे तो भाषा की श्रेष्ठता स्वीकार अपने आप हो जाएगी क्योंकि उस भाव को ग्रहण करने के लिए उस भाषा की जानकारी आवश्यक होगी और संस्कृत को तो अनेक भाषाओं की जननी माना जाता है। यहाँ बंगाल में मैं देखता हूँ कि बहुत अच्छी संस्कृत का प्रयोग होता है । ”
उड़ान पत्रिका : यदि आपसे पूछा जाए कि भाषा कितने प्रकार की होती है…
केशरी नाथ त्रिपाठी– भाषा दो प्रकार की होती है – एक बोलचाल की भाषा, एक साहित्यिक भाषा। भाषा का मूल्यांकन बोलचाल की भाषा से नहीं होता। साहित्यिक भाषा के स्तर से इसका मूल्यांकन होता है। इंग्लैण्ड में अंग्रेजी भी दो तरह की थी। बोलचाल की अंग्रेजी और दूसरी साहित्य की अंग्रेजी तो जो भी साहित्य अंग्रेजी भाषा के श्रेष्ठ माने गए हैं वो बोलचाल की अंग्रेजी से नहीं माने गए हैं। क्योंकि उस समय स्पर्धा थी कि क्या फ्रेंच साहित्य श्रेष्ठ है या अंग्रेजी का साहित्य श्रेष्ठ है तो उस श्रेष्ठता की स्पर्धा में अच्छा लेखन हुआ। लेकिन आज भी आप तुलना करिए तो उन ग्रंथों को जिसको अंग्रेजी में महाकाव्य कहा जाता है। उन सब को एक साथ रख लीजिए और तुलसी दास का रामचरितमानस एक साथ रख लीजिए। ये कहीं श्रेष्ठ ग्रंथ है पर हमने इसकी श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए प्रयास नहीं किया। जीवन के हर पहलू को छूने वाला रामचरितमानस । ये कह सकते हैं कि उसकी जो दिशा है वो दूसरी दिशा है । आप महाकवि निराला को ले लीजिए, महादेवी जी को ले लीजिए, पंत जी को ले लीजिए । क्या इनकी कविताएँ शेक्सपीयर की रचनाओं से श्रेष्ठ नहीं हैं ? शेक्सपीयर हों, टेनीसन हों, वर्ड्सवर्थ हों तमाम से कहीं श्रेष्ठ हैं लेकिन उनकी भाषा के अपने भाव हैं , हमारी भाषा के अपने भाव हैं इसलिए तुलनात्मक दृष्टि से अगर यह कहा जाए तो हम यह नहीं कह सकते कि वह श्रेष्ठ नहीं है, यह श्रेष्ठ है। भाव वहीं हैं , अभिव्यक्ति का माध्यम अलग–अलग भाषा में होने के कारण जो भाषा सुगम होती है, उसे हम स्वीकार कर लेते हैं। अंग्रेजी हमारे लिए आज भी सुगम भाषा नहीं है।”
उड़ान पत्रिका– “ आप अब तो बहुत व्यस्त रहते हैं राजनीति में पर साहित्य के प्रति आपका रूझान तो रहता है । पुरानी पीढ़ी के लोगों को आपने पढ़ा है । ”
श्री केशरी नाथ त्रिपाठी– “ हमने पढ़ा ही नहीं । मैं आपसे बता रहा हूँ , मैंने इण्टरमीडिएट के बाद हिन्दी नहीं पढ़ी । अब आप समझ सकते हैं कि इण्टरमीडिएट स्तर की हिन्दी कैसी होती है । सामान्य होती है , बोलचाल की होती है । ”
उड़ान पत्रिका– “ नई पीढ़ी के रचनाकारों को पढ़ने-सुनने का मौका मिला होगा ? ”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “ नई पीढ़ी में देखिए… हिन्दी में जब से पाश्चात्य साहित्य का अनुवाद करने की प्रथा पड़ गई तब से हमारी भाषा धीरे–धीरे प्रदूषित हो गई है, भाव के नाते। हमारी भाषा का जो भाव था, रचनाओं का भाव था, वो प्रदूषित हो गया, उसकी दिशा बदल गई। राजनीतिक कारणों से रूस ने इस देश के अंदर अपना साहित्य बहुत सस्ते दर पर भेज दिया, कहीं मुफ्त भेज दिया। उसका कारण ये हुआ कि उस विचारधारा से जुड़े हुए लोगों ने हिन्दी और अंग्रेजी के माध्यम से उनके साहित्य का प्रचार करना शुरू कर दिया, तो हिन्दी में अनुवाद की प्रथा आ गई। पहले भी अनुवाद होता था हिन्दी में छंद हीन अनुवाद। उसमें न तो भाषा का माधुर्य है , न भाव का ठीक से संप्रेषण है तो वो समस्या प्रधान रचनाएँ हो गईं । उसी से नई कविता का जन्म हो गया । अब आज नई कविता सुनें तो क्या है , एक मेज़ है तीन टाँग पर खड़ी हुई। अजीब तरह से ये रचनाएँ हैं, हाईकू जापान से आ गया, लेकिन उनमें माधुर्य नहीं है। हिन्दी की रचनाओं में समस्या भी होती थी , भाव भी होता था , लय भी होती थी , गति भी होती थी। हम दोहा, चौपाई, सोरठा आदि–आदि विशेष प्रकार के छंद गाते थे। उनमें आप पढ़िए तो हृदय में कहीं न कहीं से संतोष का भाव पाता था और माधुर्य तो था ही। ये अनुवाद के कारण उसमें हुआ। यह ठीक है कि हमारी रचनाओं का दूसरी भाषा में अनुवाद हो तो हमारी भाषा समृद्ध होगी । दूसरे देशों के साहित्य का हमारी भाषा में अनुवाद हो तो हमें भाव भी मिलेंगे , हमारी भाषा में कुछ योगदान होगा लेकिन जो साहित्य का मूल भाव है; जिसको न्यूक्लियस कहते हैं, प्राण- साहित्य का प्राण हमेशा देश की संस्कृति से जुड़ा होता है। हम दूसरे देश की संस्कृति वाले साहित्य को अपने देश में थोप नहीं सकते।”
उड़ान पत्रिका – “ यह कारण आप बहुत अच्छा बता रहे हैं, एक चीज़ और भी आप देख सकते हैं कि अंग्रेजी की जो किताबें हैं, अंग्रेजी के जो लेखक हैं, स्वाभाविक तौर पर उन्हें एक बहुत बड़ा वैश्विक बाजार मिल जाता है जबकि हिन्दी के जो बहुत अच्छे–अच्छे लेखक भी हैं उनकी किताबें आज उतनी नहीं बिकतीं जितनी पहले बिकती थीं। इसका आप क्या कारण समझते हैं?”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “ इसका कारण यह है कि एक तो अंग्रेजी का प्रचार ज्यादा हुआ। अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलेगा, ऐसा लोगों ने प्रचार शुरु किया। यह एक दिन की बात नहीं है। वर्षों से यह भावना जब दृढ़ हो जाती है व्यक्तियों में या फिर समाज के अंदर, तब फिर एक भाषा की उपेक्षा और दूसरी की ग्राह्यता हो जाती है । अंग्रेजी को इसका लाभ मिला, भाषा की ग्राह्यता का । दूसरी भाषाओं की उपेक्षा हुई लेकिन आज भी बंगाल में आप चले जाइए वहाँ पुस्तक मेला लगता है और बंगाली भाषा का साहित्य खूब बिकता है, क्यों ? क्योंकि बंगाल के लोगों को बंगाली भाषा से लगाव है । यहाँ पढ़ने की प्रवृत्ति है , आज ये इंटरनेट वगैरह देखिए धीरे–धीरे किताबों को खत्म कर रही है। यह केवल नाम का लेखक अपनी संतुष्टि के लिए लिखेगा और इंटरनेट पर डाल देगा, कोई पढ़ेगा, नहीं पढ़ेगा। उसे अंदाज भी नहीं होगा, मूल्यांकन कितना होगा, कितना नहीं होगा उसे पता भी नहीं चलेगा।”
उड़ान पत्रिका– “ एक प्रश्न और, हिन्दी का नुकसान करने में जो हमारे देश के नेता हैं; उनका बहुत बड़ा हाथ है, ऐसा लगता है। अधिकतर नेता जो हिन्दी भाषी प्रदेशों से आए हैं या हिन्दी समाज के लोगों को लेकर के उनका पूरा जीवन , उनका कैरियर चला है। वे जब अपनी जीवनी लिखते हैं तो अंग्रेजी में लिखते हैं, जो अनुवाद होकर हिन्दी में आती है। ऐसी क्या विवशता है कि उन्होंने हिन्दी प्रदेशों के लिए काम किया , हिन्दी जगत को जिया और जीवनी अंग्रेजी में लिखते-लिखाते हैं । ”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “ दो कारण हो सकते हैं कुछ लोग तो इतने दिल से अंग्रेजी बोलते हैं कि उनको लगता है कि उनकी जो अभिव्यक्ति है अंग्रेजी में ज्यादा अच्छी हो पाएगी कुछ इसलिए और कुछ वायुमंडल का उन पर प्रभाव होता है।”
उड़ान पत्रिका– “ सोशल नेटवर्किंग में हिन्दी के बहुत सारे लोग जुड़े हैं और जो गूगल वगैरह ने भी हिन्दी के के लिए बहुत सारा काम किया है । सर्च-इंजिन वगैरह हैं, आप क्या समझते हैं कि सोशल नेटवर्किंग के मध्यम से भी हिन्दी का विकास सही दिशा में हो रहा है?”
केशरी नाथ त्रिपाठी – “ देखिए , हिन्दी के विकास को तो आप रोक नहीं सकते। हिन्दी को तो विकसित होना है। उसका बहुत सीधा सा आधार है , आधार है हमारी जनसंख्या। अब जितनी तेजी से हमारी जनसंख्या में वृद्धि हो रही है और उस जनसंख्या में हिन्दी भाषी लोगों का बाहुल्य है लेकिन हिन्दी के साहित्यकार और हिन्दी के भाषा विज्ञानी उन्होंने इधर जो नए–नए शब्दों के सृजन का प्रयास किया है, वह लाभप्रद होगा और मैं समझता हूँ कि हालांकि डॉ. रणवीर का जो भाषा-कोश था, जिसका लोगों ने मजाक उड़ाया। बात भी कि यह तो बड़ा क्लिष्ट है। लोगों ने उसके भाव को ठीक से समझा नहीं चूंकि वह कि वो थोड़ा – सा संस्कृत पर आधारित था लेकिन वह पहला शब्दकोश था। अब धीरे–धीरे शब्दकोश का भी रूप बदल गया है।
उड़ान पत्रिका – “पश्चिम बंगाल में हिन्दी को बढ़ाने के लिए जितना काम करना चाहिए था, वह नहीं किया गया। हिन्दी अकादमी यहाँ पर है लेकिन सक्रिय नहीं है… आपकी तरफ़ से कोई प्रयास… ? ”
केशरी नाथ त्रिपाठी– “मैंने मुख्यमंत्री जी से अनुरोध किया है कि विष्णुकांत शास्त्री जी हिन्दी के बहुत बड़े विद्वान थे और उनके अनुयायी, उनके प्रशंसक बहुत बड़ी संख्या में पश्चिमी बंगाल में हैं। अत: एक ऐसी संस्था स्थापित करिए, एक संस्थान स्थापित करिए जो शास्त्री जी के नाम पर हो।उन्होंने कहा कि कर सकते हैं। अंग्रेजी में मैंने नाम दिया। मैंने कहा कि आप कर सकती हैं विष्णुकांत शास्त्री इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डियन लैंग्वेजेज, विष्णुकांत शास्त्री भारतीय भाषा संस्थान । उनका दृष्टिकोण सकारात्मक था । स्वयं उन्होने कहा कि मैं विष्णुकांत शास्त्री जी को व्यक्तिगत रूप से जानती थी और मैं बहुत सम्मान करती हूँ । आपने अच्छा सुझाव दिया है ।”
उड़ान पत्रिका– एक प्रश्न और करना चाहूँगा कि धर्म हमारे संस्कारों की जड़ है और धर्म के प्रति बचपन से ही हम पढ़ते हैं , सारी चीजों की शिक्षा दी जाती है । नई पीढ़ी के लोगों में क्या आपको लगता है कि कुछ रूझान कम हो रहा है क्योंकि भाषा और संवेदना की बात हम लोग करते हैं , संवेदना कहीं न कहीं धर्म ग्रन्थों से आती है और आज तो साधन बढ़ गए हैं। आज हमारे पास इतने चैनल हैं कि अच्छे-अच्छे संतों के प्रवचन हम सुन सकते हैं, किताबें नहीं पढ़ी जाती हैं। इंटरनेट को यदि हम लोग सर्च करें तो धार्मिक सामग्रियां भी हमारे पास बहुत श्रेष्ठता से उपलब्ध है। लेकिन क्या लगता है कि नई पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित है।
केशरी नाथ त्रिपाठी– “ देखिए , इसका कारण है…न हमने बच्चों को और न अपने बड़ों को धर्म का सही अर्थ समझाया है। धर्म एक प्रकार से सामाजिक कर्तव्यों एवं दायित्वों की संहिता है। हमको उस शक्ति से जिसको हम ईश्वर कहते हैं ;सत्कर्म करने के लिए प्रेरणा मिलती है। जब तक हम पराशक्ति की स्थिति को या उसकी मौजूदगी को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक धर्म निष्प्रभावी रहेगा। नैतिकता , कर्तव्य , दायित्व की बात करके जोड़ें और समझाएँ तो धर्म की स्वीकृति होगी लेकिन धर्म को अगर हम केवल पूजा-पाठ, कथा, चढ़ावा से जोड़ेंगे तो बहुत से लोग इसको पाखंड कह देंगे। हम और आप रोज मंदिर नहीं जाते, मुसलमान पाँच वक्त रोज नमाज पढ़ता है। वह पाँच वक्त न पढ़ें तो एक वक्त पढ़ लेता है, ट्रेन में पढ़ लेता है। हिन्दू स्वयं को धार्मिक कहते हैं और मुसलमान अपने को धार्मिक कहता है। ये रीति–रिवाज, ये कर्मकाण्ड ऊपरी कर्म हैं लेकिन सब का मूल स्वरूप वही उस पराशक्ति की आराधना। पराशक्ति एक है और ये जो पूजन की पद्धति है या उस पराशक्ति के आवाहन की; यह अलग-अलग है।पूजा पद्धति में जो भिन्नता है और इसके कारण ही तो लड़ाई होती है। सत्कार्य करो तो पहुँचोगे ईश्वर के पास।यह ईश्वर है क्या, ईश्वर चाहता क्या है – कर्मकांड यह नहीं बताते।”