वन्दना यादव

वरिष्ठ लेखिका वन्दना यादव से उनके लेखन, संपादन, संचालन सहित वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य को लेकर युवा लेखक पीयूष द्विवेदी की बातचीत

सवाल – नमस्कार वंदना जी, मेरा पहला सवाल है कि आपके उपन्यास कितने मोर्चे में आपका परिचय लिखा है – “लेखिका, कवयित्री, मोटिवेशनल स्पीकर, एंकर, समाज सेविका।” आप किस रूप में याद रखी जाना चाहेंगी?
वन्दना यादव – नमस्कार पीयूष जी।
जो रंग मेरे भीतर हैं वे अगर कम भी हो जाएं तब भी सब मुझमें और मैं सबमें थोड़ा-थोड़ा हमेशा रहूंगी। इन दिनों महसूस करती हूँ कि जिस तरह भविष्य की योजनाओं से जुड़ी हूँ, अन्य मुद्दों के लिए पहले जितना समय नहीं दे पाती। फिलहाल यही लगता है कि भविष्य में साहित्यकार के तौर पर पहचानी जाना चाहूंगी।
सवाल – आपकी प्रकाशित कृतियों में दो कविता संग्रह और बच्चों के लिये साहित्य भी शामिल है। मगर उससे आपको साहित्य जगत में कोई ख़ास मान्यता नहीं मिली। उपन्यास कितने मोर्चे के बाद जो अचानक आप लाइमलाइट में आईं तो कैसा महसूस करती हैं।
वन्दना यादव – हर कृति अपना स्थान निर्धारित करती है। पहले प्रकाशित क़िताबों ने मेरा उपन्यास तक का मार्ग सुनिश्चित किया।
‘कितने मोर्चे’ उपन्यास जिस जीवन को केन्द्र बना कर लिखा गया, वह अटेंशन माँगता था। यदि आप उसे मेरा लाइमलाइट में आना मानते हैं तो कहूँगी कि अब मुझे लगता है कि लेखन और शब्दों के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी ज्यादा बढ़ गई है।
सवाल – आप संपादक भी रही हैं – पत्रिका की भी और पुस्तक की भी। आप रचनाओं को स्वीकृत करते समय किन पहलुओं का ख़ास ख़्याल रखती हैं?
वन्दना यादव – इस सवाल के लिए धन्यवाद पीयूष।
मुझे दो अलग-अलग विधाओं के संपादन का मौक़ा मिला। पुस्तकों की संपादक के तौर पर मैने एक ऐसी लेखक के साहित्य को संपादित किया जिनका हिन्दी साहित्य के लिए योगदान बहुत अहम रहा। हिन्दी की पहली आत्मकथा से लेकर उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह, नाटक, फिल्म लेखन और यात्रा वृत्तांत यानी उन्होंने लगभग हर विधा में काम किया। इतने सारे काम से श्रेष्ठ चुनना बहुत मेहनत मांगता था। मैने दोनों पुस्तकों के लिए उनकी महत्वपूर्ण रचनाओं को चुना जिन्हें निरंतर बदलते समय में लेखक की साहित्यिक यात्रा के लिए याद किया जाए और जिसे पढ़ते हुए पाठक ख़ुद को टाईम मशीन से ट्रैवल करते हुए महसूस करेगा।
पत्रिका में पूरे भारत से रचनाओं की बाढ़ सी आ गई थी। मैं संपादक टीम का हिस्सा थी और हमने बेहतरीन रचनाओं के साथ अलग-अलग मुद्दों के प्रकाशन को चुना। मुझे यह बताते हए खुशी हो रही है कि पहले वर्ष में जब मैं टीम का हिस्सा बनी उस वक़्त तक गिनती के पृष्ठ हिन्दी भाषा के लिए दिए जाते थे। अगले वर्ष हमारे काम और कंटेंट से प्रभावित होकर पृष्ठों की संख्या तीन गुना तक बढ़ा दी गई। यहाँ बताती चलूं कि पत्रिका हिन्दी और अंग्रेजी दो भाषाओं में एक साथ प्रकाशित होती है और दोनों भाषाओं में संपादक की पसंद से अलग-अलग सामग्री प्रकाशित होती है। मैं हिन्दी भाषा की संपादन टीम से जुड़ी थी।
सवाल – आजकल फ़ेसबुक और व्हट्सएप साहित्य घटना घटते ही तुरत फुरत ही पोस्ट हो जाता है। आप ऐसे साहित्य के विषय में क्या सोचती हैं? क्या साहित्य त्वरित प्रतिक्रिया होना चाहिये ?
वन्दना यादव – हर दौर में हर तरह का साहित्य रचा गया पर ज़िंदा वही रहा जो कालजयी था इसीलिए कुछ भी लिखते समय यह याद रखा जाना ज़रूरी है कि हम पहले से रचे जा चुके साहित्य में नया क्या जोड़ने जा रहे हैं।
नए-नए क़लमकार जब त्वरित रचना गढ़ते हैं तब लगता है कि  ‘नया नया जोश और विषय पर सबसे पहले छपने’ की जल्दबाजी रही होगी परन्तु जब तक घटना आपके भीतर पैठ ना जाए, ना लिखें।
मैं गाँव से हूँ इसीलिए अपने तरीक़े से बात कहूंगी। जब हम नया कूंआ खोदते हैं, उससे निकले पानी का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि उस पानी में मिट्टी और गाद होती है। बाल्टी भर कर कुछ समय छोड़ दें। गाद नीचे बैठ जाएगी, मिट्टी के कण तलहटी में जमा हो जाएंगे। ऐसा होने पर निथरा पानी उपर रह जाएगा। साहित्य रचने की यही प्रक्रिया है। पहले घटना के गवाह बनें फिर उससे दूरी बनाएं, तटस्थ रह कर सभी पक्षों को देखें उसके बाद घटना की विवेचना करें तब साहित्य रचने की बारी आती है। मेरे हिसाब से साहित्य, समय ले कर रचे जाने की प्रक्रिया है।
सवाल – आपकी एक मोटिवेशनल पुस्तक भी हाल ही में यश पब्लिकेशन्स द्वारा प्रकाशित हुई है। जो लेखक राइटर्स ब्लॉक से जूझ रहे हों, उनके लिये आप क्या सुझाव देना चाहेंगी ताकि वे उससे बाहर आ पाएं?
वन्दना यादव – जो लेखक राईटर्स ब्लॉक से जूझ रहे हैं उन्हें कहना चाहती हूँ कि जब आप नहीं लिख रहे हैं तब भी समय की कद्र करें। इस समय रचनात्मक बने रहें। यही रचनात्मकता आपकी ऊर्जा लौटाने में मददगार होगी। जब कुछ ना लिख रहे हों तब ख़ूब पढ़ें या अपनी छूट गई रूचियों को पुनर्जीवित करें। पेंटिंग, स्केचिंग, नृत्य-संगीत, घुमक्कड़ी या जो आपको कभी बहुत पसंद रहा था, वो करें। इससे नई उर्जा मिलेगी जो आपको और आपके लेखन को नया जीवन देएगी।
सवाल – कुछ लोग लगातार पुस्तकें संपादित करते रहते हैं जबकि उनका अपना कोई कविता संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास आदि प्रकाशित नहीं हुआ होता। क्या आप ऐसी पुस्तकों का समर्थन करती हैं ?
वन्दना यादव – साहित्य की बहुत सारी विधाएं हैं उनमें से कौन, क्या है चुनता है यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है। मुझे लगता है कि पुस्तकों का संपादन गहन प्रक्रिया है। रचनाएं मंगवाना, उन्हें श्रेष्ठता के आधार पर संपादित करना फिर प्रकाशक और लेखक के बीच पुल का काम करना, यह सब बहुत मेहनत का काम है। एक विषय पर अलग-अलग लेखकों को पढ़ पाने का सुख ऐसी क़िताबें ही देती हैं।
सवाल – आप कविता, कहानी या उपन्यास – किस विधा में अधिक सहज महसूस करती हैं ?
वन्दना यादव – कविता अपने आप आती है। मेरे लिए कविता एक बार में एक साथ बैठ कर लिखी जाने वाली अभिव्यक्ति है जबकि कहानी और उपन्यास लंबे समय और निरंतर लिखते रहने की प्रक्रिया है।
कविता मेरे लिए भावनाओं की अभिव्यक्ति है जबकि उपन्यास लेखन, घटना पर घटना के पीछे के घटकों, पात्रों की मानसिकता, भावनाओं, मुद्दों और उससे समाज पर होने वाले असर का कारक है। मैं ख़ुद को उपन्यास लेखन में सहज महसूस करती हूँ।
सवाल – आपके पहले उपन्यास कितने मोर्चे पर आपको कैसी प्रतिक्रियाएं मिलीं? उसके लोकार्पण पर बहुत से बड़े नाम भी शामिल हुए थे। आपके कुछ टीवी इंटरव्यू भी हुए… कुल मिला कर कैसी प्रतिक्रियाएं रहीं?
वन्दना यादव – ‘कितने मोर्चे’ पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं थीं। साहित्यकारों और आलोचकों ने इसे साहित्यिक कृति के तौर पर देखा और उपन्यास में मैने  जो मुद्दे उठाए, उन पर सबने बात की। साहित्यकारों का एक वर्ग ऐसा भी रहा जिनके लिए सैनिकों की पत्नियों के जीवन संघर्षों को जानना-समझना बिल्कुल नया अनुभव था। ‘कितने मोर्चे’ को कुछ ख़ालिस पाठक भी मिले। उनकी प्रतिक्रियाएं बिल्कुल अलग थीं।
कुल मिला कर कहूंगी कि इस उपन्यास ने मेरे लिए साहित्यकारों का एक वर्ग जो अपनी कसौटी पर हर नई कृति को तौलता है, वह दिया इसके अतिरिक्त मेरे लिखे को पढ़ने के लिए मेरा एक मौलिक पाठक वर्ग खड़ा किया है।
सवाल – एक संचालक के तौर पर आप कैसी तैयारी करती हैं? क्या आप अपने आपको साहित्यिक कार्यक्रमों तक सीमित रखती हैं या आप प्रोफ़ेशनल संचालक हैं जो किसी भी तरह के कार्यक्रम के संचालन के लिये तैयार हो जाती हैं ?
वन्दना यादव – संचालन की शुरुआत साहित्यिक कार्यक्रमों से नहीं हुई थी बल्कि आज भी यह यदा-कदा ही होता है। मैं अधिकतर कला और संस्कृति से जुड़े कार्यक्रमों का संचालन करती हूँ इसके अतिरिक्त भी कुछ अलग तरह के कार्यक्रम मैने किए हैं। जहाँ तक तैयारी की बात है तो बताऊं कि बिना तैयारी के मैं कभी संचालन नहीं करती। विषय और मेहमानों की लिस्ट पर पहले ही काम कर लेती हूँ बाक़ी सब ऑन द स्पॉट होता है।
सवाल – क्या आपने किसी साहित्यकार से कभी कोई प्रेरणा या मार्गदर्शन लिया है या आपने अपनी यात्रा अकेले अपने बल पर पूरी की है?
वन्दना यादव – हम सामाजिक प्राणी हैं। बिना समाज के हमारा वर्चस्व है ही नहीं। यह कहना कि किस से प्रेरणा ली तब यह कठिन सवाल है। बचपन के पाठ्यक्रम की पुस्तकों से से लेकर बाद में पढ़ी साहित्यकारों की कहानियां-उपन्यास सभी ने अपना असर छोड़ा। आज भी अपने वरिष्ठ लेखकों के साथ युवा लेखकों को पढ़ती हूँ। हर एक के लेखन से कुछ ना कुछ ज़रूर नया गृहण करती हूँ। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।
मेरा पहला काव्य संग्रह वर्ष दो हजार सात में आया था तब से लेकर आज तक मैने धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाई। उस समय देश के अलग-अलग हिस्सों में रहते हुए लिखना-पढ़ना या साहित्यकारों से बमुश्किल परिचय हो पाता था अब एक तरह की निरंतरता है।
सवाल – आप आज के युवा लेखकों को कोई संदेश देना चाहेंगी कि उपन्यास जैसी कृति कैसे लिखी जाए… उसके लिये किस प्रकार के फ़ोकस की आवश्यकता है?
वन्दना यादव – संदेश तो नहीं परन्तु यह ज़रूर कहना चाहूंगी कि उपन्यास के लिए निरंतर लेखन और समय की प्रतिबद्धता ज़रूरी है। उपन्यास शुरू करने से पहले नोट्स बना लें, यह भी एक तरीक़ा है। जिस मुद्दे पर लिख रहे हैं उसके विषय, काल खंड, भाषा और संस्कृति पर आपकी पूरी पकड़ होनी चाहिए। सबसे अहम बात कि आप लिख कर समाज या साहित्य में क्या योगदान देने जा रहे हैं, इस पर ज़रूर विचार करें।
सवाल – आप आजकल क्या लिख रही हैं ? क्या साझा करना चाहेंगी ?
वन्दना यादव – इस समय उपन्यास पर काम कर रही हूँ।
पीयूष – हमसे बातचीत करने के लिए आपका धन्यवाद।
वन्दना यादव – धन्यवाद।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

12 टिप्पणी

  1. साहित्य सर्जन की बेहतरीन कृति “कितने मोर्चे” उपन्यास लेखन के लिए आपको घणी घणी शुभकामनाएं आपके द्वारा दिया गया यह इंटरव्यू नवोदित साहित्यकारों के लिए प्रेरणा का काम करेगा साहित्य की विधा में जीवन को आगे बढ़ाने के लिए स्थिरता के साथ सर्जन की आत्मा को समझते हुए विषय की गहराई के साथ अपनी बात रखने की प्रक्रिया में एक नई सोच के साथ संवाद का एक बेहतरीन प्लेटफार्म आपने उपलब्ध करवाया है आपके आगामी उपन्यास की अग्रिम शुभकामनाओं के साथ।
    जगदीश अहीर 9414540015

  2. बहुत सार्थक साक्षात्कार वंदना जी। आपको बधाई। पुरवाई को शुभकामनाएं

  3. आपके विषय में अनेक जानकारियां प्राप्त हुईं । एक अच्छे साक्षात्कार के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

  4. साक्षात्कार के लिए पीयूष जी का धन्यवाद ,यह भी रचना कर्म
    का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है ।

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