Saturday, July 27, 2024
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आशीष मिश्रा की कहानी – जा अपने ठिकाने पर…!

न जाने क्यों नींद नहीं आ रही… बस करवटें बदल रहा हूँ। एक बार अपना चार-पाँच इंच पैर भी अटपटे-से कम्बल से बाहर निकाल चुका हूँ। कान पर एक पतंगा अपनी धुन सुना रहा है… हाथ मार कर उसे एक बार फ़िर हटाया है। शायद यह वही है जो पिछले कुछ घंटों में कई बार अपना हक़ जता चुका है।
खैर इतनी सारी सुगबगाहटों के रहते सोया कैसे जा सकता था। 
आँखें खुलते-खुलते खुलने लगी हैं। तभी मेरा हाथ कहीं टकराया औ सिरहाने रखी पानी की पतली लेकिन लम्बी-सी बोतल गिर गई। यही अंतिम सम्भावित था… अब तो उठना ही होगा…
रोशनी अपनी दिशा ले रही है… यानी कि वो मेरे बदन को बुहाड़ना शुरू कर चुकी है। अब मैंने पलकों को एक बार थोड़ा भींचा और हाथों को ऊपर खींचा। आँखें क़रीबन पैंतालीस डिग्री का कोण बनाते हुए अलसाई-सी खुलने लगी।
ऐसा लगता है सूरज महाराज आप मुझसे थोड़ा ही पहले जागे हो क्योंकि आपकी थाली में लाली काफ़ी दिखाई दे रही है।
थाली से याद आया मेरे कटोरे में दो सिक्के पड़े थे और किसी की मेहरबानी के दस रुपये।  
खड़ा होते ही पता चल गया की बाएँ पैर की सूजन कुछ कम है लेकिन दाएँ की कल से कुछ ज़्यादा। यह तो तब जब कल पानी के हाथ से थोड़ा सहलाया था। किसी तरह से जूतों को फँसाया अपने बाँस जैसे पैरों में। 
मेरे पास ले दे के एक बड़ा थैला है और एक छोटा। बड़े में कम्बल, एक पाजामा, उधड़ी बुशर्ट, और छोटी-बड़ी जुराब रहती हैं… और हाँ मेरा कोट भी जिसे पहनकर मैं आज इस हालत में भी स्वयं को लाटसाब समझने लग जाता हूँ। 
बड़े थैले को दाएँ कंधे पे डाला और छोटे की लटकन पकड़ कर चल दिया। चलना ही जीवन है मेरा… कब से बस चलता जा रहा हूँ। दिन दीन-सा दिखता है और हर शाम किसी बोझ में दबती आदत-सी।  
दो दिनों से छोटे थैले में एक बिस्कुट का पैकेट कुड़बुड़ा रहा था… खोला तो साबुत कुछ नहीं था… बस टुकड़े… जीवन भी तो टुकड़े टुकड़े ही जी रहा हूं… खा तो लिया लेकिन कुछ महसूस नहीं हुआ। शायद मेरा पेट रसातल होता जा रहा है… ऐसा सोच कर मन को समझाया और कदम आगे घिसटने लगे।
दरअसल, पिछले कुछ दिनों की कहानी कुछ और ही है… सड़कों पर या तो मैं दिखाई देता हूँ या मेरी परछाइयाँ या फ़िर बड़बड़ाते कुत्ते।
वैसे हम बेघरों को कुछ देने का ज़िम्मा घरद्वार वालों का ही होता है। लेकिन वो तो नदारत हैं। जाने कहाँ गए वे सब! पता नहीं कहाँ गया शहर का शोर! आवाज़ें कहीं खो गयी हैं… अब तो शहर में सन्नाटा ही पसरा रहता है।
ये चौराहा भी चुप है, चाय वाले की दुकान तक बंद है। पता नहीं कहाँ गया मोहनलाल – बेचारा देखते ही मुझ बेचारे को एक प्याली दे देता था। सब्ज़ी की दुकान के बाहर केवल दो सड़े आलू पड़े हैं। और ये बड़ी दुकान लम्बी-सी गाड़ी वाले साहब की है जो अपनी जेब से हफ़्ते में कई बार दो-चार रुपये मेरी तरफ़ भी फेंक देते थे।
तभी कहीं से किसी ने पीछे से आवाज़ लगाई – “ओ मंगू!”
मेरे पैर काँपने लगे। भला इस बियाबान में कौन हो सकता है। देखा तो पुलिस का सिपाही खड़ा था…
मैंने सिकुड़ते हुए जवाब दिया – “जी बाऊ जी”
“अबे तू कहाँ चले जा रहा है, दीखता नहीं कर्फ़्यू है कर्फ़्यू!” – सिपाही ने ज़मीन पर डंडा पीटते हुए कहा।
“जा भाग अपने ठिकाने पर, शहर में महामारी फैली है। देखता नहीं सब लोग अपने-अपने घरों में हैं।” – सिपाही बोलकर आगे बढ़ गया।
“महामारी” मैंने तो आजतक हैजा या जरैया बुखार ही सुना था। ये वाली भी ज़रूर ख़तरनाक ही होगी तभी इस बालकों के विद्यालय के दरवाज़ों पर भी बस कबूतरों की कतार दिखाई दे रही है… बच्चों की न तो शक्ल दिखाई दे रही न आवाज़ें सुनाई दे रही हैं। 
कुछ कदम आगे को बढ़ाए फ़िर सोचने लगा… – मैं जाऊँ कहां, मेरा तो कोई ठिकाना तक नहीं। मेरे पास कोई चारदिवारी नहीं, कोई परिवार नहीं। किसको बचाऊँ, कैसे बचाऊँ। बचाने की सोचूँ या खाना ढूँढने की। ना तो बड़ी गाड़ी वाले साहब हैं, ना मोहनलाल चाय वाला और ना ही आते जाते दुआ लेने के लिये लोग। 
सिपाही कुछ महामारी की बात कर रहा था। उसका क्या करूँ? कैसे ख़ुद को बचाना है? मेरा ना घर और ना ही कोई ठिकाना है, ना परिवार और ना ही समाज में कोई भागीदारी।
सुना है लोग अपने घरों में अपने परिवार वालों के साथ हैं। – खुशनसीब होंगे वे…पर मेरा क्या… आज तो छोटे थैले में वो कुड़बुड़ाता बिस्कुट भी नहीं बचा….
सोचते सोचते चला जा रहा हूँ बस। आज शहर में केवल दो ही जन बचे हैं जिन्हें कोई काम का डर नहीं है, जिसे केवल एक दूसरे के साथ ही रहना है… एक मैं और एक मेरी भूख। 
तभी एक कोने पर पीपल के पेड़ के नीचे एक केला पड़ा दिखाई दिया। शायद ऊपर वाले ने यही संजो रखा था आज के लिए।  
भटकते-भटकते शाम हो गई। सोता शहर जैसे दोबारा सोने को है। मैंने भी फ़िर एक गली के नुक्कड़ का एक कोना ढूँढ लिया। फ़िर अपना बड़ा थैला नीचे गेरा और पसर गया। 
सिपाही की बात अब भी दिमाग़ में गूंज रही है – “जा अपने ठिकाने पर”!
काश मेरा भी कोई घर होता, बच्चे होते, परिवार होता। मेरी भी कोई ज़िम्मेदारियाँ होती। फ़िर सहेजता अपने आप को, अपनों को सम्भालता और सो जाता… इस दहश्त भरे माहौल में… अपने घर की चारदीवारियों के बीच… अपनों के बीच…
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