Friday, October 4, 2024
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कुलदीप मक्कड़ की कहानी – अदरक वाली चाय

सुबह सवेरे सारा घर छान मारा जमनी ने। घर क्या था बस यही कोई 10*12 की खपरैल की नीची छत वाली झुग्गी और उसके बाहर दूर तक फैली बंजर ज़मीन। कल यहीं कोने में तो रखा था वो चुंबक लगा बांस का पुराना सा डंडा। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कहां चला गया। कब से ढूंढ़-ढूंढ़ कर परेशान हो गई थी वह। देर से जाएगी तो कोई फायदा ही नहीं होगा इतनी दूर जाने का। जाने कितने ही लोग मुंह अंधेरे ही आ जाते हैं वहाँ।
ज़मीन पर बिछी फटी पुरानी सी दरियों पर लेटे बच्चे अभी गहरी नींद में थे। आकर उनके लिए खाना भी बनाना था उसने और काम पर भी जाना था। ज़रा सी देर हो जाए तो सुपरवाईजर काम से हटा देने की धमकी दे देता है।
तभी छुटकू ने करवट ली तो जमनी को चुंबक लगे डंडे का एक सिरा सा दिखाई दिया। “तो छुटकऊ छिपात रहे इ चुंबकवा’ वो बुदबुदाई और धीरे से डंडा उठा लिया। कल जब वह वापस आई तो बैठा रो रहा था। इसलिए वो नहीं चाहता था कि उसकी माँ सुबह-सुबह फिर चली जाए। पांच बरस का होने को है पर अभी भी सोकर उठने पर अगर माँ नज़र न आए तो आसमान सिर पर उठा लेता है। वैसे तो वो अब जाती नहीं थी पर क्या करे। मजबूरी में कल से फिर जाना शुरु किया है।
दबे कदमों से वो घर से बाहर निकल गई। “लगता है कल की तरह आज भी कुछ हाथ नहीं लगने वाला’ उसने सोचा और अपने कदम तेज़ कर दिए।
तीन बरस से ऊपर हो गए थे उसे इस शहर में आए हुए। जब से आई है बस सुबह से रात भाग ही रही है। ये चार-चार बच्चे न होते तो कब की मर खप गई होती वह। करना भी क्‍या था जी कर। दिन भर हल में जुते बैलों की तरह खटो और रात को झुग्गी के एक कोने में टांगे समेट कर पड़े रहो। पाँव पसारने भर को तो जगह नहीं मिल पाती है उसे। ऊपर से रात भर मच्छर काट-काट कर नींद हराम कर देते हैं।
पौ फटने को थी। परेशान हो उठी जमनी। जी.टी. रोड तक पहुँचने में अभी आधा घण्टा लग जाना था। तब तक सुबह हो जाएगी और उसके हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। बचे खुचे इक्का दुक्‍का ट्रक ही निकलेंगे बस वहाँ से। ‘क्या करूं। शायद मुझे वापिस लौट जाना चाहिए! उसने सोचा। पर फिर इस उम्मीद से कि शायद कुछ मिल ही जाए, वह आगे बढ़ती गई।
जी.टी. रोड बस सामने ही नज़र आने लगा था। और हाथों में चुंबक लगे डंडे पकड़े बहुत से लोग भी वापस लौटते नज़र आने लगे थे।
“लो भई! कोई फायदा नहीं हुआ इतनी दूर आने का। ऊपर से तेज़-तेज़ चलने से टांगे भी थक गई हैं। अभी तो पूरा दिन मज़दूरी भी करनी है!” वह बुदबुदाई और वहीं से घर जाने के लिए वापिस मुड़ गई। मन दुःखी सा हो गया उसका।
उसका बस चले तो वो आधी रात को ही यहाँ आ जाए। पर क्‍या करे, डर ही बहुत लगता है। ज़माना कितना खराब हो गया है। शुरु-शुरु में जब वो यहाँ आई थी तो सुबह सुबह पौ फटने से पहले लोहा बीनने गई लड़की को ट्रक ड्राइवर उठा कर ही ले गया था। उसकी माँ चिल्लाती रही थी पर कोई भी मदद को नहीं आया था। और पुलिस वाला भी बस दो चार बार ब्यान लिख कर लौट गया था। आज तक कुछ पता नहीं चला उसका। उसकी माँ तो अब रो-रो कर पागल हो चुकी है। गरीबों की कौन सुनता है। न पुलिस न सरकार। “हमारी भी कहां किसी ने सुनी थी’ उसने एक ठंडी आह भरी और कदमों को तेज़ करना चाहा। पर व्यथित मन ने उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं दी। तेज़ चलती भी कैसे! स्मृतियों के नाग उसके मन मस्तिष्क पर कुंडली मार कर फुफकारने जो लगे थे। ‘ऐ जमनी! जा रहा हूँ मैं काम पर’ सुबह सवेरे गुड़ की चाय के साथ रात की बची बासी रोटी निगलने के बाद अपना गमछा और कुदाली ले कर निकलते हुए रामेसर ने आवाज़ दी थी उसे।
“अरे रुको न! दुई रोटी सेंक देती हूँ दोपहर के लिए” तेज़ी से कच्चे कमरे से बाहर आंगन की तरफ लपकी थी जमनी।
“अरे नाहीं। इतना मत भागो। तुम आराम करो। आखरी महीना चल रहा है। ठीक ठाक से तुम्हारी जचगी हो जाए, तो फिर बना दिया करना रोटी।” रामेसर बाहर निकल गया था।
“कितनी बार रोका है तुमको, जब कोई काम से बाहर जा रहा हो तो उसे पीछे से आवाज मत लगाया करो।” सास गुस्से से तुनक रही थी।
“कितना ख्याल रखता है वो मेरा’ जमनी मन ही मन मुस्कुरा रही थी।
घर में बेइंतहा गरीबी थी। पर बहुत खुश थे वे सब गाँव में।
जमनी के तीन बच्चे थे और चौथा आने वाला था। रामेसर के बाप को गुज़रे बरसों हो चुके थे। बहनों की शादियां हो चुकी थी। माँ उसी के साथ ही रहती थी। जैसे तैसे मेहनत मज़दूरी कर के रामेसर दो जून की रूखी-सूखी रोटी का जुगाड़ कर ही लेता था। वे बहुत गरीब थे पर फिर भी बहुत खुश थे। बच्चे दिन भर कंचों और ठीकरियों से खेला करते। तालाब के किनारे बैठ कर उसमें पत्थर फैंकते। किसका पत्थर सब से ज़्यादा लहरें बनाता है, इसका आनन्द लेते और पानी में घण्टों छपाक-छपाक करते तैरते रहते।
आम और अमरूद के बाग बहुत थे उनके गाँव की तरफ। बच्चे कहीं न कहीं से गिरा पड़ा कोई आम अमरूद ढूंढ ही लाते या कभी-कभी अन्य शरारती बच्चों के साथ मिल कर माली की आँख बचाकर एकाध फल तोड़ लाते।
गाँव में भले ही गरीबी थी पर गरीबी का अहसास नहीं था। सचमुच वाला बचपन था वहाँ। जो कुछ भी रूखा-सूखा था जमनी बच्चों को पेट भर कर खिलाती। और हर सुबह दिए की लौ से बना काला टीका लगाना नहीं भूलती उन्हें।
जमनी जब झुग्गी में वापिस लौटी तो दिन पूरी तरह से निकल आया था। छुटकू के रोने की आवाज़ उसे बाहर से ही सुनाई दे गई थी। वह जैसे ही अन्दर घुसी, छुटकूं उससे लिपट गया और ज़्यादा ज़ोर से रोने लगा। जमनी का दिल किया उसे अपनी गोदी में लिटा ले और थपथपा कर बहुत देर तक लोरी सुनाती रहे। पर सुपरवाईज़र के गुस्से को याद करके काँप उठी वह और उसे बस ज़रा सा पुचकार कर झुग्गी के बाहर रखी चार ईंटों से बनाए चूल्हे में कल रास्ते से बीन कर लाई गई लकड़ियाँ डाल कर आग जलाने लगी। आटे में तेज़ी से उंगलियाँ चलाते उसके हाथों को उसकी आँखों से बहते आँसुओं को पोंछने की फुर्सत नहीं थी। जमनी ने कोशिश तो बहुत की कि छ: रोटियाँ बना ले पर आटा ही था इलास्टिक तो था नहीं कि खींच कर बड़ा कर ले। अतः पांच ही रोटियाँ बन पाई। चार बच्चों और सास के हिस्से की एक-एक रोटी रख कर वह खुद बस पानी पी कर काम पर जाने को तैयार थी।
“अम्मा हम जात रहे।” उसने एक नज़र सब पर डाली और बची-खुची हिम्मत जुटा कर बाहर निकलने लगी।
“माई! आज तो आम लाओगी न” छुटका रोते हुए रिरियाया।
छुटकू आम के लिए दिन रात ज़िद करता। जमनी का कलेजा मुंह को आता। तीन साल से वह उसे एक आम भी नहीं दिलवा पाई थी। उसे अपने माँ होने पर ग्लानि होती। पर वह करती भी क्‍या। तभी कल से उसने थोड़े ज़्यादा पैसे कमाने के लिए जी.टी. रोड पर जाना शुरु किया था। पर कुछ हाथ नहीं लगा था।
काम की साईट भी उसकी इस झुग्गी से ज़्यादा करीब नहीं थी। पहले यह सारा बंजर मैदान पार करना पड़ता था। और फिर जी.टी. रोड पार करने में तो बहुत ज़्यादा ही परेशानी होती थी। ढेरों तेज़ भागती-दौड़ती गाड़ियों से भरी इस सड़क को पार करने में कभी-कभी तो बहुत ही ज़्यादा वक्‍त लग जाता था। कई बार वह गाड़ियों के नीचे आती-आती बची थी। अगर ड्राईवर ने तेज़ी से ब्रेक न लगाई होती तो उसका राम-नाम सत हो गया होता कब का।
कभी-कभी बहुत डर लगता है जमनी को। अगर किसी दिन ऐसे ही वह किसी गाड़ी के नीचे कुचली गई तो उसके बच्चों को पता ही नहीं चलेगा। वे कई दिन तक उसके इंतज़ार में भूखे प्यासे रोते रहेंगे। फिर कौन कमाएगा उनके लिए। क्‍या करेंगे वे। बूढ़ी सास तो वैसे ही हड्डियों का ढांचा हो गई है। दिन भर बिस्तर पर पड़ी खाँसा करती हैं।
जमनी को बड़ी दया आती है अपनी सास पर। बेचारी की खांसी ठीक ही नहीं होती। अब डॉक्टर और दवा दारु के लिए तो भला पैसे कहाँ से लाए वो। कितनी बार वह जमनी से गुड़ और अदरक की चाय बनाने को कह चुकी है। जब से गाँव से आए है तो कभी चाय का स्वाद नहीं चखा। क्‍या करे वो। यहाँ तो कोई भी चीज़ खुली नहीं बिकती। न पत्ती, न गुड़, न दूध। अब पूरे-पूरे पैकेट के लिए तो बहुत पैसे चाहिए। गाँव होता तो एक बार की चाय के लिए भी खुला सामान मिल जाता। अचानक ही गाँव उसकी आँखों के समक्ष किसी चलचित्र की भाँति घूमने लगा।
उस दिन रामेसर काम से घर लौट रहा था। खेतों के किनारे बनी कच्ची सड़क पर चलते-चलते उसे चने के झाड़ की एक टहनी पड़ी दिखाई दी। “आज जमनी को कहूंगा कि सिल बट्टे पर पीस कर इसकी चटनी बना देगी। बहुत दिन से रोटी के साथ कुछ खाया नहीं है” उसने सोचा और सड़क पर पड़ी उस टहनी को उठा लिया। जैसे ही वह ऊपर उठा, किनारे खेत के ज़मींदार ने उसे ललकारा कि उसने उसके खेत से यह टहनी तोड़ी है। उसने बहुत कोशिश की यह बताने की कि उसने यह टहनी सड़क से पड़ी उठाई है पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। ज़मींदार के लड़के लट्ठ ले कर उसकी तरफ दौडे और उसे इतना मारा कि उसकी हालत बिगड़ गई। राह चलते जिन लोगों ने उसे सड़क से टहनी उठाते देखा था वे भी चुप्पी साध गए। कोई भी ज़मींदारों से दुश्मनी नहीं लेना चाहता था। वे उसे वहीं छोड़ कर आगे बढ़ गए।
जमनी इंतज़ार करती-करती थक गई। चिन्ता के मारे उसे प्रसव पीड़ा भी शुरु हो गई। पर रामेसर अभी भी नहीं आया। उसकी सास आधी रात को गाँव की पुरानी दाई को बुला लाई। पौ फटते-फटते जमनी ने एक और बेटे को जन्म दे दिया था और कच्ची सड़क पर रामेसर की अकड़ी लाश की खबर पूरे गाँव में फैल गई थी।
अचानक ऐसा तूफान आया कि उनकी सुखी ज़िन्दगी का तिनका-तिनका उड़ा कर ले गया। वे भले ही गरीब थे पर रामेसर के रहते बहुत सुखी थे, बेहद सुखी।
आई थी पुलिस उनके घर दो चार बार। वह बस खाना पूर्ति थी। गरीबों की भला कौन सुनता है। ज़मींदार ने उनकी मुद्ठी गर्म कर दी थी और मामला रफ़ा दफ़ा हो गया था। दिन भर रोया करते थे वे सब। बूढ़ी माँ हड्डियों का ढांचा हो गई थी। ज़मींदार के लड़के गाँव भर में दनदनाते फिरा करते थे। बड़ी तकलीफ होती थी उन्हें ऐसे देख-देख कर।
“देख जमनी। मैं किसी दिन इनका सिर फोड़ दूंगी ईंट मार कर। मुझसे नहीं देखा जाता कि मेरे बेटे के कातिल ऐसे बैखौफ़ हमारे सामने से गुज़रा करते हैं।” रामेसर की माँ अकसर कुढ़ती रहती थी और रोया करती थी। फिर एक दिन जब यह सब बर्दाश्त से बाहर हो गया तो ये लोग किसी रिश्तेदार की मदद से अपना गाँव छोड़ कर यहाँ इस शहर में चले आए थे।
“आज फिर लेट आई है तू। बीस रुपये कटेंगे तेरी दिहाड़ी से” सुपरवाईज़र दहाड़ा था। ‘पर अभी सब मेरे से थोड़ा ही आगे आ रहे थे! वह कहना चाहती थी, पर कहीं उसका काम ही न छूट जाए, बस चुप्पी साध गई जमनी।
जगह जगह से फट चुकी साड़ी के पल्‍लू को उसने एक बार फिर से ठीक किया और रोड़ी कूटनी शुरु कर दी। सुबह से कुछ खाया नहीं था। पेट की आग थोड़ी देर तक धधकती रही और फिर स्वत: ही शान्त हो गई। शायद रोज़-रोज़ की आदत से पेट भी समझ चुका था कि अब रात तक कुछ नहीं जाने वाला उसके भीतर। बस मन इस बात पर उथल-पुथल मचा रहा था कि अगर बीस रुपये कट गए तो वह खाने का जुगाड़ कैसे करेगी आज रात को। कहाँ तो वो सुबह सवेरे जी.टी. रोड पर गई थी ताकि कुछ ज़्यादा पैसे कमा सके, और कहाँ अब ये सब। 
उसका मन खिन्‍न सा हो गया। उसका जी किया कि वह खूब रोए। जी भर के रोए। चिल्ला-चिल्ला कर रोए। इतना कि आँसुओं की बाढ़ सी आ जाए। और उस बाढ़ में उसके सारे दर्द, सारी तकलीफें, सारी गरीबी, सारा अंधकार बह कर कहीं दूर, बहुत दूर निकल जाए। या फिर खूब ज़ोर-ज़ोर से हंसे। इतना कि हँस-हँस कर पागल हो जाए और पागलपन में सब भूल जाए। यह भी कि पिछले तीन साल से उसकी सास अदरक और गुड़ वाली एक कप चाय के लिए तरस रही है और यह भी कि पिछले तीन साल से उसके बच्चे एक आम के लिए रोज़ शाम उसकी तरफ बड़ी उम्मीद से देखते है| छुटकऊ तो आम के लिए दिन रात रोया भी करता है। और ये जो छोटा रामेसरा है तीन बरस का हो गया है, पर इसने तो आम का स्वाद भी नहीं चखा है आज तक। आम क्या, किसी भी फल का स्वाद नहीं चखा उसने।
हालांकि छुटकूं से छोटा एक और है जो बाप के मरने वाले दिन इस दुनिया में आया था। पर दादी ने उसको छुटकू कहने की बजाय रामेसरा कह कर बुलाना शुरु कर दिया था। उसे लगता था कि उसका रामेसर लौट आया है।
इस शहर में आए लगभग तीन साल हो गए है उसे। गजोधर लाया था उन्हें यहाँ इस शहर में। वह रामेसर का दूर के रिश्ते में मौसेरा भाई लगता था। रामेसर की माँ की बुरी हालत देख कर वो इन्हें यहाँ अपने साथ ले आया था। उसी ने ही कहीं से जुगाड़ तुगाड़ कर के एक चुंबक वाला लट्ठ दिलवा दिया था उसे तथा इधर शहर के बाहर बन रहे एक बहुत बड़े मॉल के आसपास पड़ी बंजर खाली जगह में रहने को एक झुग्गी भी डलवा दी थी। वहीं उसी के जानने वालों की दो चार झुग्गियाँ और भी थीं।
जी.टी. रोड पर रात को बहुत से ट्रक गुज़रा करते थे। शायद दिन में उनका प्रवेश वहाँ मना था। कहीं आगे ही लोहे की कोई मण्डी या फैक्ट्री थी जहाँ लोहा आया करता था और ढला जाता था। इस लोहे के ‘स्क्रैप’ से लदे ट्रकों में से अकसर छोटे कील, पेच पुर्जे आदि सड़क पर गिर जाया करते थे। चुंबक वाला लट्ठ जमीन पर टिका कर चलने से चुंबक लोहे को पकड़ लेता था। तथा लोहा बीनने वाले लोग उसे अपने कंधे पर लटकाए थैले में डालते जाते थे। और फिर उस लोहे को कबाड़ी वाले को बेच कर कुछ पैसे कमा लेते थे।
जमनी भी शुरु के कुछ दिन रोज़ सुबह वहीं जाया करती थी। पर वहाँ इतने ज़्यादा लोग लोहा बीनने आते थे कि कुछ खास हाथ नहीं लगता था। वह मुश्किल से बीस तीस रुपये ही बना पाती थी। इतनी मंहगाई में वह इतने कम पैसों में अपने चार बच्चों और सास का पेट नहीं भर सकती थी।
उसके साथ लोहा बीनने वाली एक महिला ने बताया था कि अगर किसी कोठी में बर्तन सफाई वगैरा का काम मिल जाए तो वह अच्छे पैसे कमा लेगी। और ऊपर से वे लोग पुराने उतरे कपड़े भी दे देते हैं तथा बचा-खुचा खाना भी दे देते हैं। पर जमनी को यहाँ कोई किराया नहीं देना पड़ता। पर यहाँ आसपास कोई भी कॉलोनी नहीं है। और अगर किसी कॉलोनी के साथ लगते इलाके में जा कर रहती है तो उसको वहाँ झुग्गी डालने भर की जगह के लिए भी किराया देना पड़ता।
वैसे भी एक बार उसी औरत के साथ पता करने गई थी वो एक कोठी में। कोठी की मालकिन ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और टाल गई। उसका रहन सहन और पहनावा अभी तक ठेठ गांव वाला ही था, मानो प्रेमचन्द ने अपने मस्तिष्क में उसी की कल्पना कर के अपने गोदान में धनिया का चरित्र रचा हो। अतः उसे अंदाज़ा हो गया था कि शायद ही कोई मेमसाहब उसे अपने घर में काम दे।
वहीं पास वाली झुग्गी में रहता किसनवा कहीं बहुत बड़ी बन रही इमारत में मज़दूरी करता था। उसी की मदद से जमनी को भी यह रोड़ी तोड़ने वाला काम मिल गया था। तब से उसने लोहा बीनने का काम छोड़ दिया था।
“मुझे दुई सौ रुपया रोज़ की मज़दूरी मिलती है।” सुनते ही उसकी आँखों में चमक आ गई थी। उसे ख्यालों में अदरक और गुड़ वाली चाय पीती सास और आम खाते बच्चे अभी से नज़र आने लगे थे। पर जब सुपरवाईज़र ने उसे सौ रुपये दिहाड़ी देने की बात की तो वह चौंक गई थी।
“औरतें कहाँ इतना काम कर पाती हैं। उनकी मज़दूरी कम ही होती है।” उसने तर्क दिया थ।
“पर साब जी। अगर मैं बराबर काम कर दूं तो क्या…”
“देख काम करना है तो करो। नहीं तो तुम्हारी मर्ज़ी। दिहाड़ी सौ रुपया ही मिलेगी।” उसकी बात पूरी होने से पहले ही बोल उठा था वो।
और कोई चारा न देख यह काम पकड़ लिया था जमनी ने। तब से वह बस हाथों में हथौड़ी लिए सुबह से शाम तक जुटी रहती है। मर्दों के ही बराबर ढेर होता है उसकी तोड़ी रोड़ी का। सुपरवाईज़र देख कर भी अनदेखा कर जाता है। उसे बस सौ रुपये ही मिलते है। कभी-कभी सुपरवाईज़र छुट्टी पर चला जाता है तो उनकी भी छुट्टी हो जाती है उस दिन। फिर बस उस दिन बचे-खुचे आटे या चावल से काम चलाना पड़ता है उसे। 
“कितना महंगा है यह शहर!” वह दिन भर बस यही सोचा करती है। तीस रुपये किलो तो आटा मिलता है यहाँ। और एक किलो में छः जन तीन वक्‍त में नहीं भुगतते। कम से कम डेढ़ किलो आटा तो चाहिए ही। दिन भर भागने कूदने वाले बढ़ते बच्चे हैं। और कुछ है भी तो नहीं। जब भी भूख लगे, बस एकाध रोटी नमक और पानी के साथ गठक लेते हैं। बचे रुपयो में आखिर क्या-क्या लाए वो। तेल, साबुन, लकड़ी, नमक, मिर्च, माचिस। हर चीज़ तो यहाँ पैकेट में मिलती है। पूरा पैकेट ही लेना पड़ता है। दाल सब्ज़ी तो मुश्किल से पन्द्रह बीस दिन में एकाथ बार ही बना पाती है वो। आड़े वक्‍त के लिए थोड़ा चावल या आटा बचा कर भी रखना होता है उसे।
कभी-कभी तो उसके बच्चे आग जलाने के लिए खाली मैदानों से थोड़ी बहुत लकडियाँ बीन लाते हैं। अगर सारी लकड़ी खरीदनी पड़े तो! सोचकर ही कांप उठती है वह।
बड़का नौ बरस का होने को है। कभी-कभी सोचती है जमनी कि उस को कहीं चाय-वाय की दुकान पर लगवा दे। थोड़ा तो घर का सहारा हो जाएगा। पर फिर डर जाती है। सुना है छोटे बच्चों को काम पर रखने से उन्हें पुलिस पकड़ कर ले जाती है। ये भी सुना है कि मालिक जानवरों की तरह बच्चों से काम लेते हैं। खाना भी भरपेट नहीं देते और कभी-कभी उनसे मारपीट भी करते हैं।
रामेसर जब दुनिया से गया था तो जमनी ने उसकी पूरी दुनिया सहेज ली थी। उसकी माँ, उसके बच्चे। पर शायद जमनी को सहेजने वाला कोई नहीं था। उसे खुद ही टूटना था, खुद ही बिखरना था और खुद ही सहेजना था खुद को।
“तेज़ हाथ चला री। जान नहीं कया हाथों में।” सुपरवाईज़र की दहाड़ती आवाज से पुन; कांप उठी थी वह। दिन रात हथौड़ा चलाते चलाते उसके हाथ दर्द करने लगे थे। दर्द की तो भला क्या बात करती वह। दर्द तो उसकी ज़िन्दगी में ही कुण्डली मार कर बेठ गया था।
अवसाद भरे इस जीवन की इस दौड़ धूप में वह बस एक बार, सिर्फ एक बार सब कुछ भूल कर, कहीं एकान्त में बैठ कर सुस्‍ताना चाहती थी। बस कुछ पल को। पर ऐसा सम्भव नहीं था। कन्धों पर जुता जिम्मेवारियों का हल उसे इसकी तनिक भी इजाज़त नहीं देता था।
आजकल बहुत ज़्यादा परेशान रहने लगी थी जमनी। सास हर वक्‍त बीमार रहती थी। उसने स्टोर से दवाई की शीशी ला कर दी भी थी उसे, पर कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था।
“एक बार मुझे गुड़ अदरक की चाय बना देती तो शायद आराम लगता कुछ।” परसों रात वो मिन्‍नत सी करती बोली थी जमनी को। जमनी जानती थी कि वो कब से चाय के लिए तड़प रही है। कहीं नज़दीक कोई चाय की दुकान भी नहीं है कि उस के लिए एक कप चाय खरीद दे। गाँव में वे सब हर रोज़ चाय पिया करते थे। पर जब से यहाँ आए हैं वो बेचारी एक कप चाय को ही तरस गई है। पर कया करे जमनी भी। दुकान से दूध का पूरा पैकेट खरीदना पड़ता है। गुड़ और पत्ती भी पैकेट से ही मिलती है। सुना है कालोनियों में खुला दूध बेचने वाले आते हैं। पर वे भी आधा किलो से कम नहीं बेचते। उसे कुछ समझ नहीं आता कि वह कैसे अपनी सास को चाय पिलाए। गाँव में आम अमरूद के कई बाग थे तो सस्ते में फल सब्ज़ी मिल जाया करती थी। रामेसर कभी-कभी आम भी लाया करता था। और बच्चे उन्हीं के साथ मज़े ले लेकर रोटी खा लिया करते थे। पर यहाँ तो ये सब सम्भव नहीं था।
छः: बज चुके थे। सभी मज़दूर काम छोड़ कर मज़दूरी लेने के लिए लाईन में खड़े हो गए थे। जमनी अभी भी रोडी तोड़ रही थी। उसे लगा कि जब तक बाकी लोग अपने पैसे लेंगे वह सुबह के पांच सात मिनट देरी का फर्ज़ चुका देगी। सब के बाद वह भी अपनी मज़दूरी लेने के लिए बड़ी उम्मीद से आगे बढ़ी। पर सुपरवाईज़र ने उसके हाथ पर अस्सी रुपये ही रखे। बड़ी दयनीय नज़रों से उसने सुपरवाईज़र की तरफ देखा। पर वह अपना तामझाम समेटता हुआ वहां से चला गया।
घर लौटती हुई जमनी हिसाब लगा रही थी कि पचास रुपए का तो आटा ही आएगा। बचे तीस रुपयों से क्‍या क्‍या लाएगी वह। आज तो घर में नमक मिर्च भी खत्म है। दिए के लिए तेल भी लेना है और आज सुबह तो माचिस की भी आखिरी तीली ही थी घर में। सुबह अगर जी.टी. रोड की तरफ नहीं जाती तो कम से कम उसे यहाँ से तो पूरे पैसे मिल जाते। खुद को ही कोसने लग गई वह। वह तो बस इसलिए गई थी कि कुछ लोहा बीन लाएगी कुछ दिन, तो एक बार सास को चाय ही बना कर पिला देगी। बेचारी तीन साल से चाय के लिए तरस रही है। बच्चे भी कब से आम के लिए तरसा करते हैं। चलो आम न ला पाए न सही। कोई बात नहीं। अभी तो बच्चे हैं वे। बहुत ज़िन्दगी पड़ी है उनकी। कभी न कभी भगवान उनके करम से आमों का जुगाड़ कर ही देंगे। पर सास बेचारी तो बूढ़ी है, बीमार भी बहुत रहने लगी हैं। कौन जाने कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए। अगर ऐसा हो गया तो जमनी ज़िन्दगी भर इसी आग में जलती रहेगी कि वह अपनी सास की छोटी सी इच्छा पूरी नहीं कर पाई।
कोई बहुत बड़ा बाज़ार तो कभी पार नहीं करती थी जमनी। बस जहाँ से झुग्गी की तरफ मुड़ती थी वहीं से एक बाज़ार शुरु हो जाता था। और वह बस पहली दुकान के साथ ही दूसरी तरफ मुड़ जाया करती थी। और वो पहली कोने वाली दुकान फलों की थी। जाने कितनी ही तरह के रंग-बिरंगे चमचमाते फल थे वहाँ। ऐसे लगता मानों वे असली न हो कर प्लास्टिक के खिलौने हो। न कोई दाग न कहीं से कच्चे या ज़्यादा पक्के। न चाहते हुए भी उसकी नज़रें आमों के टोकरों पर अटक जाती। क्‍या बड़े बड़े पीले पके आम!
“क्या है?” शुरु-शुरु में जब वह यहाँ से गुज़री थी तो उसे खड़ी देख कर दुकान पर काम करने वाले लड़के ने घूरा था उसे।
“वो! अ…अ… आम चाहिए” सकपका गई थी वह। और फिर अपने पल्लू के कोने में बंधा दस रुपये का मुड़ा-तुड़ा पुराना सा नोट खोल कर उसकी तरफ बढ़ा दिया था।
दुकान वाला लड़का क्षण भर को उसे देखता रहा और फिर हँस पड़ा था। “पागल है क्या ! इतने में कोई आम आता है क्‍या। चल भाग यहाँ से । 
वह खिसियाई सी आगे बढ़ गई थी। बहुत देर तक वहाँ खड़े लोगों के ज़ोर-ज़ोर से हँसने की आवाज़ें उसका पीछा करती रही थी।
वह जब वहाँ से गुज़रती है तो अकसर कोई न कोई चमचमाती कार रुकती है उस दुकान के पास। कार का शीशा नीचे होते ही कोई न कोई लड़का भाग कर जाता है और किसी न किसी फल की टोकरी गाड़ी की पिछली तरफ रख देता है। दो दो हज़ार के नोट पकड़े कोई हाथ खिड़की से बाहर निकलता है और गाड़ी आगे बढ़ जाती है।
एक बार उसने दुकान वाले लड़के को कूड़ेदान में एक आम फेंकते देखा था। शायद दागी होगा या थोड़ा सा सड़॒ गया होगा। उसने चाहा कि वह आम निकाल ले और जा कर बच्चों को दे दे। वह ज़रा सा आगे बढ़ी पर उसे रामेसर की कच्ची सड़क पर से उठाई चने की झाड़ की बात याद आ गई। वह कांप उठी और कूड़ेदान से भी आम उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।
रामेसर को याद करके उसकी आँखें भर आई थी। गाँव में थी तो कितना बतियाती थी वह। कभी रामेसर से कभी सास से कभी बच्चों से तो कभी पड़ोस वालों से। अब तो उसे किसी से बातचीत करे भी जाने कितने महीने हो गए है। बात करने को लोग तो थे घर में पर फुर्सत नहीं थी। काम पर भी उसके जैसी तीन चार औरतें हैं, पर आपस में बातचीत करने की इजाज़त सुपरवाईज़र ज़रा भी नहीं देता था। काश! किसी से बात कर पाती तो शायद थोड़ा मन ही हल्का हो जाता उसका।
जमनी आज बहुत जल्दी उठ गई थी। कुछ भी हो आज उसे लोहा बीन कर लाना ही होगा। चार छ: दिन भी अगर लोहा हाथ लग गया तो वह सास को चाय बना कर पिला सकेगी। उसने लट्ठ उठाया और जी.टी. रोड पर पहुँच गई। वहाँ अभी कोई भी नहीं था। “कहीं अभी आधी रात तो नहीं” वह बहुत ज़्यादा डर गई। “अब घड़ी तो है नहीं उन लोगों के पास। जाने क्‍या बजा हो।” उसने मन ही मन सोचा। तभी सामने से आते ट्रक की रफ़्तार धीमी हो गई। डर के मारे उसकी चीख निकल गई। उसने वापिस भागना चाहा पर उसके पैर वहीं सुन्न हो गए। घबरा कर उसने आँखें बन्द कर ली। ट्रक धीरे-धीरे आगे बढ़ गया तो उसने चैन की सांस ली।
थोड़ा सामान्य हुई तो अपने काम पर लग गई। घण्टा भर जी.टी. रोड पर चलती रही तो बहुत सा लोहा उसके हाथ लग गया। कोई भी और अभी तक आया नहीं था, शायद इसलिए। जल्दी ही उसका थैला भर गया। “पांच छः किलो तो होगा ही’ उसने अंदाज़ा लगाया। ‘थोड़ा लेट आती तो मुश्किल से एक-आध किलो ही उसके हिस्से आता। बीस रुपये किलो के हिसाब से सौ सवा सौ रुपये तो उसे मिल ही जाएंगे। आज शाम अम्मा को जी भर के चाय पिलाऊंगी’ वह खुश हो गई और घर की तरफ लौटने लगी।
घर लौटी जमनी तो बच्चे अभी तक सो रहे थे। सास भी शायद गहरी नींद में थी तभी उसके खांसने की आवाज़ नहीं आ रही थी।
अभी भी पौ नहीं फटा था। डर से कांप उठी जमनी। इसका मतलब कि वह आधी रात को ही वहाँ पहुँच गई थी। कोई ट्रक वाला उसे उठा कर ले जाता तो! उसके बच्चों और सास का क्‍या होता। नहीं नहीं! अब से वह कभी भी इतनी जल्दी नहीं जाएगी। भले ही कम लोहा बीन पाए वो। न सही बच्चों के भाग में आम, कम से कम रूखी-सूखी रोटी तो मिलती है उन्हें! वह उठी और रोटी बनाने के लिए चूल्हे में लकड़ियाँ डालने लगी।
उसकी खटर-पटर से छुटकूं उठ गया था और रोज़ की तरह “आम खाऊंगा” की रट लगा कर रोने लगा था। उसके रोने की आवाज़ से धीरे-धीरे सब उठने लगे थे। ‘एकाध दिन में अम्मा के लिए एक शीशी खांसी की दवाई और ले आऊंगी। खाँसी में आराम दिख रहा है कुछ। तभी आज कई दिनों बाद चैन से सो रही है।’ रोटी सेंकते-सेंकते सोच रही थी जमनी।
रोटी सेंक कर भीतर ले आई वह। आज बहुत दिनों बाद मन ही मन चहक रही थी। आज लोहा कबाड़ी वाले को बेचकर वह लौटते हुए चाय का सारा सामान लेती आएगी और सास को चाय पिलाएगी। आज तीन बरस बाद वे सब मिलकर चाय पीएंगे शाम को।
“माई! री माई! उठ जा अब। आज शाम मैं तुझे गुड़ और अदरक वाली चाय पिलाऊंगी। जितनी चाहो पी लेना” अम्मा की तरफ से कोई जवाब न पा कर उसे हिलाती हुई चहक कर बोली जमनी। तभी अम्मा की गर्दन एक ओर को लुढ़क गई।
जमनी की चीखें पूरी फ़िज़ां में गूंज उठी थीं… 
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