किर्र … क्रंच … चर्र … बुझती हुई शाम में दरवाज़ा खुलने की यह आवाज़ मेरे ठंडे वज़ूद को भी सिहरा देती है। इस आवाज़ से मेरी उंगलियाँ कुतरते हुए चूहे चिंचियाकर इधर-उधर भागते हैं। बल्ब की पीली, मरियल रोशनी का वृत्त मुझ पर गिरता है। छोटे-छोटे कीट पतंगे बल्ब के चारों तरफ तुरंत आकर भिनभिनाने लगते हैं। जिनकी चरचराहट इस घुटे हुए कमरे में आते-जाते शरीरों की सरसराहट से कही ज़्यादा भली लगती है। मेरे चारों तरफ की दीवारें जिनका जगह–जगह से पलास्तर उखड़ा हुआ है, हरे रंग की हैं । यहाँ टेबल पर पड़ी हुई मैं हूँ। कोई दूर से रोती हुई आवाज़ आती है, वह आवाज़ मेरे पास आकर सहम जाती है। एक खामोशी छा जाती है। एक बूढ़ा चेहरा और बदबूदार मुंह मेरे ऊपर तैरता है, लगातार बोलता हुआ। मेरे जिस्म से खून भरी चादर झटके से उतार देता है….मेरे गोपनीय अंग उघड़ जाते हैं। एक पहचानी-सी, धुंधली मादा आकृति जिसने मुंह ढांप रखा है – बेहाल होकर कर ‘ना’ में गरदन हिलाती है और झपाटे-से दरवाज़े से निकल जाती है। पहचान की एक सिसकी पीछे छूट जाती है। एक बूढ़ी नर आकृति भी सर हिलाती है और बूढ़ा अपनी दाढ़ी खुजाता हुआ मेरे जिस्म पर मुंह तक चादर ढक देता है। एक खाकी वर्दी डंडे से मेरी पगथलियों पर ठक-ठक करती है, बूढ़ा मुझ पर अपने तीखे – भीषण औज़ार रख कर जेब से शराब की बोतल निकालता है। मैं एक बार और मर जाती हूँ। बूढ़े की भद्दी आवाज़ मुझे परेशान करती है। 

“आप कहोगे ड्यूटी पर शराब ? पर यह ड्यूटी शराब पीकर ही हो सकती है, सबइंस्पेक्टर साब। देखा, साले साफ नट गए कि ये लाश उनके परिवार की नहीं। हो भी सकता है उनकी नहीं हो मगर साहब किसी की तो है…..जवान छोकरियों की लाशें भी बोझ। साले मा….क्रियाकरम का पैसा भी बचा लेते हैं।  इस बदबू ने अब मेरा दिमाग खोखला कर दिया है। इसे मरे हुए आज पांचवा दिन है, साला कोई शिनाख़्त के लिए नहीं आया। जबकि आस-पास के गांवों से चार छोकरियाँ गायब हैं। सर्दियाँ है वरना कीड़े पड़ गये होते। डॉक्टर साहब सात बजे तक आएंगे …तब तक पेट चीर कर खोल कर रखना होगा इसे। आप बता दो कुछ इधर-उधर करना हो। इसके अंदर रूई डाल कर, नाखून, बालों के नमूने नर्स और लेडी कॉंस्टेबल निकाल ले गए हैं। वही सबसे जरूरी हैं। डॉक्टर तो बाहरी – अंदरूनी चोट जांचेगा।“ 

सब इंस्पेक्टर मेरी तरफ देखे बिना बस कोने में थूक कर बाहर निकल गया है। मेरा नंबर है 756, वही जो मेरी एफ. आई. आर. का नंबर है। लाशों के नाम नहीं होते। अपनों के दिलों में जो बसती हैं, वह स्मृतियां होती हैं, लाशें नहीं।मेरा पत्थर से कुचला हुआ चेहरा, मेरे अपनों की यादों में अब दर्ज नहीं है।  मुड़ी हुई अकड़ी कमर, फूला पेट, कटे स्तन उनको वीभत्स लगते हैं। मेरी विकृत नंगी लाश से वे मुंह फिरा लेते हैं और शिनाख़्त नहीं करते। बाहर जाकर रोते हैं मेरी ज़िंदा याद में। उनकी यादों में मेरी तराशी देह, चिकनी सांवली त्वचा, बड़ी-बड़ी आंखें हैं। कानों में झूलते गिलट के झुमके और गोल नाक में डली चाँदी की बाली है। माँ कहा करती थी, “तेरा शरीर बहुत अच्छा है, तेरा पति तुझे बहुत प्यार करेगा, तेरी आंखों के आईने से झांकेगा तेरे चित्त में।“   

मुझे ठीक तरह से नहीं याद कि किस पल मैं लाश में बदली। यह याद है कि तकलीफ़ों की नदी से तैर कर ही मैं यहां तक पहुंची हूं। मैं बहुत धीरे – धीरे मरी हूं, पंद्रह घंटों की तकलीफ के बाद। मेरी आत्मा की आवाज़ सुनना चाहोगे तो उसमें केवल चीखें भरी हैं, क्योंकि मेरी आवाज़ को घोंट दिया था। मैं आपमें जुगुप्सा जगा रही हूं न? लेकिन यह अच्छा है कि अब मैं गर्रर गौं करके कराह नहीं रही, शांत हूं। यह मेरी घायल चेतना है जो मरकर भी नहीं मरी है, फंसी है यहीं-कहीं।

इस दर्द से पीछा छुड़ाकर सरपट भागने को आतुर आत्मा की कल्पना नहीं कर सकते आप लोग। आपके लिए मैं एक सड़ा हुआ गोश्त भर हूँ जिसे सरेआम नंगा किया गया और फफेड़ा गया था. यह कंपाउडंर जो मुझे उलट – पुलट कर गया है, निश्चित वह कल्पना कर सकता है क्योंकि उसने कई लाशों का पोस्टमार्टम किया है। हत्या, बलात्कार, एक्सीडेंट, ज़हर से मरे लोगों का मगर मुझे देख कर उसकी भी हल्की सी चीख निकल पड़ी थी और बुरी तरह बड़बड़ाया था  — उफ! यह तो हद ही कर दी! साले मादर…कर लेते जो करना था। कर-करा के फेंक देते नहर में….यह साला क्या कर दिया? नहीं मानती थी तो क्या साले हैवान बन जाओगे? पकड़े जाओगे हरामियों….पकड़े तो जाओगे ! आजकल ये आदिवासी छोकरियाँ पहले की तरह नहीं कि जंगल में पकड़ लो तो मजबूरी में चुपचाप….अब ये थाने जाती हैं….लेकिन दो अक्षर पढ़कर जगत की रीत बदलती है क्या? मैं खुद पढ़कर क्या कर रहा हूँ ऎसी भद्दी लाशों के बीच? ये सब देख-देख कर भूख मर चुकी है, पेट की भी और नीचे की भी। ऎसा चेहरा तो लकड़बग्घे भी चबा दें तो नहीं होता, सलीके से खाते हैं वो भी। जिंदा आदमज़ात बस लाशें खाते हैं, जिनको तुम मार कर छोड़ जाते…फिर डॉक्टर कागज में उसे जंगली जानवर का आक्रमण बना देता है। “  

पीले पड़ चुके बदबूदार एप्रन को पहनता हुआ, छोटे कद का मगर मोटा, खिचड़ी बढ़ी दाढ़ी बालों वाला कंपाउंडर मुंह में ज़र्दा लिए बड़बड़ा कर मुझे ही देख रहा था मेरी एक आंख फट कर बाहर आ गई थी, दूसरी सूजन से बंद की बंद रह गई थी। 

फिर वह मेरे गुनहगारों को गालियाँ देता हुआ कि उन्होंने उसका काम बढ़ा दिया है, मेरे निकट आया। मैं उसके हाथ के चाकू को छीन कर खुद को चीर-फाड़ डालना चाहती थी ताकि जो एक चेतना गुस्से की मुझमें बची है बाहर निकल जाए। मगर मेरे हाथ कटी टहनी से टेबल से लटके थे. बर्फ ने पिघल कर कमरे में कीच मचा रखी थी।कंपाउंडर ने दर्द से एकदम धनुष बन गए मेरे शरीर को दम लगा कर तीन-चार बार सीधा करने का प्रयास किया फिर उसने मेरी फटी छाती सिली, उसके बाद कोमलता से एक स्टील के चाकू से मेरी पसलियों के पास से नीचे नाभि तक चीमड़ हो चुकी खाल काटी और दो हिस्सों में मेरा शरीर खोल दिया। मेरी फैली जांघों को समेटा, खून के थक्कों को पौंछा, मेरे लटके हाथों को टेबल पर रख दिया। मुझ पर नई सफेद चादर डाल दी। कमरे में अगरबत्ती जलाई। जाने उसे क्या सूझा कि उसने मेरे माथे पर कोमलता से हाथ फेर कर कहा- करमजली! भाग जाती…मेरा मन किया कि उस बूढ़े के कन्धे पर सर रख कर आखिरी बार इंसानों की तरह बुक्का फाड़ कर रो लूँ। 

वह अपना काम खत्म कर डॉक्टर के इंतज़ार में बाहर चला गया। मुझे दुनिया और रोशनी से वंचित करते हुए दरवाज़ा फिर से बंद हो गया। अब मैं अकेली हूँ। अपने शरीर में फिर अपने खिलतेजलते घावों के बटनों को खोलती और मुक्त होने की कोशिश करती हुई। मेरा मांस विद्रोह करता है, लड़ो हमारे लिए। पलायन मत करो। लेकिन मुझे कौन सुनेगा? डॉक्टर नहीं आया, कंपाउंडर से फोन पर ही हाल सुनकर रिपोर्ट बना दी और मेरी लाश रात भर चिरी और खुली पड़ी रही। कमरे का सूखा अँधेरा मेरी लाश की रखवाली पर था। चूहे फिर आ गए थे और मेरी आंतों पर कूदते हुए मुझे गुदगुदा रहे थे। एक चूहे ने खेल खेल में मेरी छोटी आंत जो कि बहुत ही लंबी होती है बाहर खींच ली। वो मुझे कुतरते हुए खेलने लगे जब उनका जी भर गया तो वे बिलों में छुप कर सो गए। फिर झिंगुर उतर आए….जिनकी ताक में छिपकलियां दीवारों से मेरे पास चली आईं। मुझे डर क्यों नहीं लगा इनसे? इनकी गिलगिली भूरी त्वचा से? मैं डरना भूल चुकी हूं क्योंकि लाश हूँ न।  

माफ़ कीजिए। आपको मेरी घिनौनी तकलीफ़ों में क्या रुचि होगी? आप तो मेरी कहानी जानना चाहते होंगे। मेरी कहानी उस दिन शुरु हुई जिस दिन से धरती की माटी में नमक घुल गया और जंगल तक सड़क पहुंची। मैं तो अब क्या हूँ लेकिन पिघलती बर्फ पर पड़ी इस मेरी लाश का फर्ज़ है कि यह अपनी टीस आप तक पहुंचाए। मैं आपको नहीं अपने समाज को सावधान भर करने लिए नुमाईश में हूं ! मेरे बालों में ये  कांटे, गोखरू, खरोंचें, चाकू के गोदे हुए गहरे ही घाव नहीं हैं, मेरी लाश में मेरी ज़िंदा रहने की इच्छा और इस संसार में पैर फैलाता विनाश भी धंसा हुआ है 

मेरे शब्द तो छाया भर है… इनके पीछे का सच कहीं ज़्यादा क्रूर, कहीं ज़्यादा बर्फीला है। आपको विश्वास नहीं होता न….आंखों में तिनका मोड़ कर फंसा लीजिए और बिना पलक झपकाए अपने चारों तरफ देखिए. बहुत लाशें मिलेंगी जंगल में जिन्हें जानवर ने कम आदमजात ने ज़्यादा नोचा है। मैं नहीं जानती आपकी दुनिया के ढब हमारी दुनिया तक कैसे पहुंचे….जिस्मों पर ज़बरदस्ती की हमारे यहाँ ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी. मन से मन मिलते थे तो जिस्मों के लिहाज़ कितने गैरज़रूरी हो जाते थे. हमारी मेहमाननवाज़ी का ऎसा बेजा फायदा उठाया गया कि चाय के साथ खाए गए हमारे कुरकुरे – गुनगुने जिस्म। हमारे जंगलों की दुनिया कैसे टुकड़े – टुकड़े कर दी, अब ये कटे पेड़ों और नुची लाशों का जंगल भर है। यहाँ पंछी तक नहीं आते। सागौन, जंगल की उपज नहीं हैं, पंछी इन पर घोंसला नहीं बना पाते। हाँ जंगल का भरपूर ज्ञान है मुझे। मैं पक्की भीलणी हूँ। भील परिवार में पैदा हुई, दो भाइयों और एक बहन के बीच। कभी मेरा भी एक सुंदर नाम था — लीलण। अजीब नाम है न? हम भील लोग हैं ऐसे ही नाम रखते हैं। लीलण यानि नीले रंग की आभा । मैं अभी उन्नीस की होकर बीस में लगी ही थी, मेरे पिता भील किसान थे पर बिना जमीन के। वो कहते थे हम ज़मीन के मालिक कैसे हो सकते हैं? ज़मीन नहाती मालिक है। यह समूचा जंगल हमारा है। मेरी माँ कत्थे के पेड़ों से छाल उतारती और हर सप्ताह लगने वाली हाट में बेचती थी। हम चार भाई बहनें जिंदा बचे थे। मेरी बहन के दो ब्याह हुए थे… एक ब्याह, हाथ मांग कर हुआ। दूसरे वह जिसके साथ भागी थी। मेरे भाई छोटे थे। स्कूल का मुंह हमारे घर में केवल मैंने देखा। भाइयों का पढ़ने में जी नहीं लगा तो वो माँ के साथ कत्था-महुआ बीनने जाते थे। 

मुझे आंगनबाड़ी की दीदी के कहने से, पंचायत के स्कूल में डाला था। मैं खेलकूद में काफी होशियार थी। लॉन्ग जम्प की जुनियर जिला चैम्पियन भी रही। मैंने आठवीं पास कर ली मगर नवीं के आगे नहीं पढ़ सकी। मुझे नहीं मालूम मैं सुंदर थी कि नहीं मगर मेरे काले चेहरे पर जब सूरज पड़ता तो वह कांसे के लोटे सा चमकता था। मेरी बड़ी काली आँखे सपने देखती थीं । मैं जंगली हिरणी – सी चपल थी और ताज़ा दूब की तरह मेरा शरीर महकता था। मैं स्कूल किताबों में पढ़ी अपने गाँव से बाहर की दुनिया देखना चाहती थी । तब जंगल कितने अपने थे….जंगली जानवरों का ही डर दिखाती थी हर माँ, मर्दों का नहीं। अब तो तीन साल की लड़की को भी दिसा मैदान के लिए घर के पिछवाड़े भी अकेले नहीं बैठाते। मैं जब माँ के साथ कत्थे की छाल लेने जाती, जंगल के दूसरी तरफ के इलाकों के बारे में पूछती। वह बताती पास का शहर कैसा है। जब बाबा की पीठ पर फोड़ा हुआ था तब वो दोनों शहर गए थे चीरा लगवाने।  मैं जड़ी बूटियों लाने के बहाने जंगली घाटी तक चली जाती थी, जहाँ से शहर जाने वाली सड़क एक कोस दूर थी। वहाँ घास खाती बकरियाँ मिमियातीं और नदी किनारे के मैदान में लापरवाह से बैठे जवान चरवाहे मुझसे बात करने का बहाना ढूंढते। मैं उनको देख कर शर्माती हुयी फिसलती हुई सी वहाँ से निकल जाती।  

तरुणाई मुझ पर जल्दी आ गई थी। सब मुझे डांटते और टोकते – लीलण तो सपनों की दुनिया में डोलती है । मेरा मन कुछ खोजता था, मेरे मन में एक चेहरा था। दूब का तिनका चबाते उस जवान चरवाहे का जिसने मुझे कभी कोई लालच नहीं दिया था। जिसके कान में नीली मुरकियाँ थीं और मोटरसायकिल से बकरियाँ घेरता-चराता था। मेरा मन करता था इस मोटरसायकल पर बैठ कर शहर जाऊं। 

वह सीटी बजाता और बकरियों का झुण्ड उसकी गाड़ी के पीछे चल पड़ता। यही वनराज था। जिससे मैं सर्दियों में मिली थी और अगले फागण में ‘भगौरिया’ में उसके साथ भाग गई थी। वनराज के पास ब्याह में बापू को चुकाने और शादी का खर्चा निपटाने के पैसे नहीं थे सो बात पक्की कर दी मां-बाप ने. मैं अपने घर आ गई। वनराज ने वादा किया था कार्तिक में वह चार दुधारू बकरियाँ पशुमेले में बेच पैसा बना लेगा। हम जंगल में मिलते, नदी के किनारे बातें करते। हम दोनों को जंगल से काफी लगाव था। एक रोज़ हम चोरी से शहर गए, सिनेमा के नीले अंधेरे में हाथ पकड़े बैठे रहे। लौटते हुए शाम ढल गई। 

“ लीली, कमर से पकड़ ले मुझे।“

“ क्यों तुम फिल्म के हीरो हो?“ वनराज ने जानकर ब्रेक लगाया और हम दोनों ज़ोर से हँसने लगे थे। जंगल का कच्चा रास्ता था, मोटरसायकल ऊबड़-खाबड़ पर उचक कर चल रही थी। मुझे याद है हम जंगल वाले रास्ते से अभी कुछ ही दूर पहुंचे था कि अचानक दो मोटरसाइकिलों पर सवार पांच लड़के हमारी मोटरसायकिल के आगे पीछे चलने लगे. कुछ देर परेशान करने के बाद उन्होंने हमारी गाड़ी के आगे अपनी गाड़ियाँ लगाकर हमें रोक लिया। जंगल में पथरीले बड़े-बड़े टीले थे. जिनके अंदर क्या हो रहा है, यह सड़क से बिलकुल भी नज़र नहीं आता था। वो हमें टीलों के बीच लाकर ही माने, वनराज ने उन्हें पहचान लिया वो बगल के गांव के लोग थे, वो भी वनराज को जानते थे। 

“ और वनराज भाई किधर को सवारी?” यह पड़ोसी गांव के पंचायत प्रधान का छोरा था। उसने वनराज को रोक लिया था। 

“ बस भाई जी, गांव पहुँचाने जा रहा था इसे।“ 

“हमारे सात सौ रुपए तो लौटा दो, एक महीने के तीन महीने हो गए।“ कहकर उसने मोटरसायकल का हैंडल पकड़ लिया था। 

“एक बकरी ब्याहने वाली है, भाईजी, जल्दी लौटा दूंगा। अभी जाने दें रात हो रही उस पर जंगल का रास्ता।“

“अच्छा जाने दो रुपया, बैठो आओ महुआ पियो हमारे साथ। इनको हम सब मिलकर छोड़ देंगे।“ इस बात पर वनराज उखड़ गया। 

“भाई जी, जाने दें। देरी हो रही, महुआ मैं पीता नहीं।“ कह कर उसने मोटरसायकिल दुबारा झटके से चलाना चाही। मगर वो सारे मिलकर वनराज पर टूट पड़े थे। हम दोनों मोटरसायकिल से गिर गए थे। उसके बाद की कहानी तो हर उस कहानी की तरह है जो आजकल टीवी, अखबार हर जगह सुनाई देती हैं। 

वनराज बेहोशी में कराह रहा था। मैं उसके पास बैठी रो रही थी। मैंने लाल से काले होते आकाश को देखा। पास ही से उन सब के अश्लील उन्मादी ठहाके सुनाई देते रहे। उसके बाद सब एक पागलपन से भर गए। किसी ने मेरा कुर्ता फाड़ दिया. मैं उठ कर भागी थी मगर जंगल के कांटों और चट्टानों ने मेरा रास्ता रोक दिया। मैं बुरी तरह करील की झाड़ियों में जा गिरी थी, और ….दुबले, मरियल हुहुआते, लार चुआते, नपुंसक महक वाले पसीनों से लथपथ लकड़बग्घों की शक्ल वाले इंसान मेरी तरफ़ आते थे जिन्हें मन से तो शायद ही कोई स्त्री चुनती। मैंने भी घिन से भर कर उन्हें अपनी देह से दूर पटका था, दांतों से काटा था। बस वो संख्या में ज़्यादा थे और उनके पास हथियार था। जब मैंने आत्मरक्षा में उनको नोचा, काटा वे गुस्से में भर गए उन्होंने हथेलियों से मेरा मुंह कुचल दिया। जांघ के बीचों-बीच लातें मारीं।

जब मेरी पहली चीख उठी आकाश और जंगल के कायर देवताओं ने अपने लोहे के दरवाज़े बंद कर लिए थे। हाँ, दर्जन भर चमगादड़ें ज़रूर फड़फड़ा कर चक्कर काट रहीं थी मानो मेरे ऊपर से इन दरिंदों को छिटका कर अलग करना चाहती हों। कुछ गिद्ध नज़दीक के टीलों पर बेचैनी से उनकी हरकतें देख रहे थे। वे नज़दीक के टीले पर लपके……लड़के एक पल को उन गिद्धों से डर गए। एक ने उन्हें चिल्लाकर भगाने की कोशिश की। उसकी आवाज़ घाटी में गूँजी। 

जिस्म की सबल-सहज भूख में प्रकृति साथ होती है। यह क्रूरतम संभोग तो दांतों और नाखूनों, चाकुओं, लातों से हो रहा था। यह मानो कोई बदला था हमारी बची हुई पवित्र आदिमता से, जिसे एक बेबस गोश्त में धंस कर लिया जा रहा था। मुझ पर छाए मरियल जिस्मों ने मेरी आत्मा खंसोट दी थी गालियों और मेरी छातियों को दांतों से काट कर। ये ऐसे राक्षस थे जिनको बहुत दिनों से कुछ खाने को नहीं मिला था, इनकी भूख शांत ही नहीं होती थी। एक हद के बाद मुझमें विरोध की शक्ति चुक गई। अब मैं बस पीड़ा से पकी जांघ थी, मेरी चिर चुकी योनि थी और उसमें अनगिनत बार धँसते जाते उन गीदड़ों के अंग थे। कुछ घंटो में मेरा जिस्म एक मांस और मज्जा का खून बहाता लौंदा भर रह गया था। मेरा खून देख कर वो सब भाग गए थे, मगर प्रधान का लड़का लौट कर आया। मेरी लाश की याद में वो बेल और लताएं हैं जिनसे उसने मेरा गला दबाया, मेरी आंखों के गोलक बाहर को निकल आए मगर मैं मरी नहीं। चाँद पेंडुलम सा मेरे आगे डोलता रहा मगर मैं मरी नहीं। उसने एक चपटा पत्थर मेरे मुंह पर पटक दिया था। 

जाने कितने घंटे मैं बेहोश रही। जब जब होश आया। मैं अपनी समूची देह को महसूस नहीं कर सकी। मेरे सूजा हुआ जिस्म ऐसा दिख रहा था मानो रबर का हो उसमें हवा भर दी हो। ज़िंदा थी तब तक मैं भी अपने खून से डरी, जिस तरह से वह मुझमें से बहता चला जा रहा था, सारी घास और मेरे नीचे की चट्टान पूरी लाल हो गई थी। मोम जैसे पिघल कर मोमबत्ती में से निकलता है। मैं दर्द से जल रही थी और खून रिस रहा था। मेरी जीभ कटी हुई डर कर तालू से चिपकी थी मगर मेरी आत्मा कराह रही थी……ईश्वर करे इनके खेत जल जाएं? इनकी औरतों की कोख से लड़कियाँ गायब हो जाएं, इनकी औरतें बस पत्थर जनें!   

जैसे ही मैं बेहोशी में डूबती, मुझे राहत मिलती। लेकिन मेरी धीमी नाड़ी चलती रही, मैं अपनी सारी चेतना लगा कर दिल की धड़कन सुनती। मेरी थिर आँख जांघ और चिरी हुई छाती और खोपड़ी से बहते लहू के गाढ़ेपन को लद – लद टपकते चुपचाप देखती रही। धूसर लहू जिसका रंग न दिखता। लाश को रंग नहीं दिखते। सब काला – सफेद या कि धूसर। मुझे थिर देख कर  कुछ मक्खियों ने दूसरी मक्खियों को इशारा किया था। पहले तो वे मुझे देख सन्न रह गईं। फिर वे अपना काम करने लगीं। सफाई और भूख। आपस में मेरी बातें भी कर रही थीं वे। मेरे इस गोश्त में धंसा क्रूरता का आतंक उनको स्वाद में महसूस हुआ होगा। वे मक्खियाँ बहुत न चूस सकीं मेरा जमा हुआ लहू, जल्दी ही उड़ गईं। 

मेरे आसपास की जमीन देसी शराब से जली हुई और खून के धब्बों से सनी थी। हाय! उन्हीं जंगली लताओं से मेरा गला दबाया था, जिनके महावरी फूल तोड़ कर मैं वेणी में गूँथा करती थी। मेरी नई धानी चूड़ियों के टुकड़े मेरे ही जिस्म में गड़ रहे थे। जंगल में जहाँ मेरी चप्पल गिरी थी वहाँ से सूंघता हुआ एक सियारों का झुण्ड आया था मेरे पास…तब मैं ज़िंदा थी। मुझे वो देर तक सूंघते रहे….फिर एक मुखिया मादा आई मुझे सूंघ कर चट्टान तक गई जहाँ मेरे साथ दरिंदगी हुई थी फिर वह आसमान की तरफ मुंह करके हू हू हुआ करने लगी और अचानक  सियारों का झुंड गरदन झुका कर चला गया. एक करैत सांप खामोशी से मुझ पर रेंग कर निकला और उस कुचली हुई घास में फुफकारने लगा. यकीन मानिये मुझे उन जंगल के वासियों से ज़रा डर नहीं लगा था. मकड़ियाँ मुझ पर जाला बुनने लगी थीं….पेड़ पानी टपका रहे थे। जहाँ मेरे नाखूनों से छाल छिली थी महुए के पेड़ की वहाँ से वह आंसू बहा रहा था। मेरा शरीर शिथिल हो रहा था और जंगल की हवा सांय सांय बैन कर रही थी जैसे मेरी कोई बिछड़ती सहेली हो। मैंने ज़िन्दा रहने के लिए सारी इंद्रियों का ज़ोर लगा लिया था। बेहोशी की काली छाया बढ़ रही थी, मेरे जिस्म से बाहर निकलते हुए खून आज़ाद महसूस कर रहा था। दर्द फीका पड़ रहा था….सांसे सीने के पिंजरे में बंद सुग्गों सी तीलियों से लड़ रही थीं। यह दिमाग़ था कि तब भी चल रहा था… 

वनराज कहाँ होगा?” 

पुलिस को लेकर आता होगा… अस्पताल…” 

मां बापू खोजते होंगे … चलूं उठ कर वह वहाँ पड़ी चप्पल पहन कर.” 

पहचानती हूँ चेहरे इंस्पेक्टर साब….वो जोगसर गांव के नरसिंग,मुन्ना, रफीक़ और मेरे ही गाँव का हरामी जैसंकर था जो सबसे आखिर में मेरे ऊपर आया था और मेरी आंखें फट गई थीं, उसको भाई जी कहती थी मैं।“

मैं रात भर वहां बियाबान में पड़ी रही कोई नहीं लौटा। दूसरे दिन भी  मुझ पर किसी की निगाह नहीं गई। तीसरे दिन दोपहर में जब वहाँ चीलें मँडराने लगी तो एक नंगी लाश के घाटी में पड़े होने की खबर आस-पास के इलाकों में फैल गई। दिन भर एक दूरी पर लड़कों-मर्दों की एक भीड़ आती-जाती रही। मोबाइल फ़ोनों से वे मेरी नंगी लाश के फोटो लेते। औरतों को साहस न हुआ निकट आने का वे दूर घूँघटों में – कच्च -कच्च की ध्वनि निकालती रहीं। उस रात भी पुलिस नहीं आई। मेरी लाश जंगल की निग़हबानी में पड़ी रही। किसी बूढ़े ने एक मटमैला साफ़ा मुझे ओढ़ा दिया था। जाने मुझे क्यों लगा था कि उस आती–जाती भीड़ में एक चेहरा वनराज का भी था! 

पुलिस थाने में भी एक काले पॉलीथीन में बंद रही दो दिन मेरी लाश। लोगों को खबर दी कि पहचान कर लें। कोई नहीं आया, एक सनकी बूढ़ी दो बार आकर मुझे पहचानने की कोशिश कर गई। वह हाथ में गोदना खोजती थी ‘सुमन’ नाम का मगर मैं तो ‘लीलण’ थी। मुझे अपने घरवालों के आने तक काले पॉलीथीन में बंद रहना था। उसके बाद मैं पोस्टमार्टम घर में पहुंचा दी गई। वहां भी मेरी लाश ने दो दिन डॉक्टर और घरवालों का इंतज़ार किया। 

उस सुरंगनुमा अंधेरे कमरे की पीली रोशनी में मैं उन आकृतियों को पहचान गई थी। घूंघट में मां थी और बाबा ही थे जो देख न सके थे बेटी का चेहरा। मां तुम कैसे कह सकी कि नहीं यह लाश तुम्हारी बेटी नहीं। नाराज़ हो कि मैं कह कर नहीं गई, वनराज के साथ शहर जाने की बात। मुझे क्या पता था वरना तुमसे कह कर जाती कि शाम ढलने तक न लौटूं तो जंगल में खोजने आ जाना। माना सब विकृत हो गया था, मुंह पत्थर से कुचल दिया था। छ: दिनों में मुझको फफूंद की एक परत ने ढक दिया था। मेरे दाँत टूट गए थे और होंठ भीतर धंस गए थे. नाक तो बची ही नहीं थी। एक हाथ की उंगलियां काट दी थीं। मगर दाहिने बाजू पर बना मोर का गोदना तो सुरक्षित था। वह तुम्हें नहीं दिखा? गोदने के ऊपर तुम्हारे अपने हाथों का बाँधा ताबीज़ भी नहीं दिखा? जो तुमने ‘बलाओं’ को मुझसे दूर रखने को बांधा था। और वह अंगूठे वाली चप्पल जो मैं तुम्हारी ही पहन कर चली गई थी? वह तो बहुत दिन वहां जंगल मॆं मेरी लाश के पास पड़ी रही थी। मेरे यहाँ आने से पहले रोज़ एक भीड़ मुझे देखने आती थी और हर कोई फुसफुसाता था – लीलण है ! धापू की बेटी। 

और मां? तुम सचमुच मुझे नहीं पहचानी? ठीक ही तो है, लाश किसी की बेटी नहीं होती, उसके ‘बेटी – प्राण’ तो फड़फड़ा कर उड़ जाते हैं। मिट्टी के लौंदे-सी बिगड़ गई देह किसकी बेटी?  मैं समझ सकती हूं तुम भी तो भीतर लाश ही होगई थी जब तुम मना कर रही थीं, पहचानने से। जानती हो तुमने ना में गरदन हिलाई तो डर और दर्द से काली पड़ी मेरी यह लाश चिंहुक गई थी। कोटर में धंसी आँख उचक कर बाहर आने को हुई थीं। भुजा के ताबीज़ के नीचे मोर ने पंख फड़फड़ाए थे, माँ…..रुको तो! मगर तुम बापू का हाथ पकड़ एक सिसकारी भर पलट गईं। 

और बाबा तुम? तुम जिनके खेतों की बँटाई करते थे, उस मालिक के लड़के ‘जैशंकर’ के उन पाँच लड़कों में शामिल होने की बात तुमको किसने बताई? बाहर ले जाकर पुलिस वाला तुमसे क्यों कहता था एफ.आई.आर. में उसका नाम नहीं आना चाहिए…. ले-देकर मामला सुलटाना होगा? क्या तुमने मुझे न पहचान कर मामला ही सुलटा दिया क्या? 

और वनराज तुम कहाँ गए? तुम क्यों नहीं आए शिनाख्त को? मेले – ठेलों में मुझे देखने वाले तक को देख मूंछ पर ताव दिखाने वाले  मेरे गबरू! तुम तो कहते थे –  लीलण! सही नाम रखा था तेरे मां बाप ने। तेरी लीला ही निराली है ! अब पैसा क्या जान देकर भी तेरे बाप को रकम चुकाकर लगन करूंगा! 

जब वो शैतानों के जने मुझ पर टूट-टूट कर गिर रहे थे, मेरी सारी इंद्रियां तुम्हारी तरफ थीं। मोटरसायकिल की आवाज़ आई तो मैंने सोचा तुम आते हो मुझे बचाने। मगर वह धीरे – धीरे दूर चली गई। मैंने दर्द से लड़ना नहीं छोड़ा था, मगर इस दुख ने मुझे निढाल कर दिया। 

जबकि असल लड़ाई तुम्हारी थी उन छोरों से।  मैं तो लड़ाई का मैदान बन गई और तुम पीठ मोड़ कर चले गए। 

धीरे – धीरे मेरा धड़कता दिल पत्थर में बदल गया। अगली रात मैंने जिस पल आखिरी सांस ली, उस पल मुझे किसी की नहीं बस मेरे हाथ से ही रोटी खाने वाले पालतू कुत्ते लालूकी आई। वह होता तो वह मुझे हर हाल में बचा लेता। उस की याद में मेरे आंसू ढुलक गए और मेरी आत्मा चीखती हुई मेरे जिस्म से भागी थी। जैसे किसी आग लगे जंगल से कोई बनबिलाव भागे। आत्मा हांफती हुई जिस ऊंचे पेड़ पर रपटी उसकी डालियों से हजारों पक्षी चीखते हुए जाग कर उड़े। आसमान की सैर के बाद चाँद लौट रहा था। 

अब तो मेरी भगौड़ी आत्मा भी मेरी अपनी शिनाख़्त के लिए यहाँ नहीं है, उसने दर्द के सात दरिया पार कर लिए हैं, मुझे नहीं लगता वह अब कभी लौटेगी इस पार।  

मुझे कोई लेने नहीं आया। मेरे चिथड़ों को पुलिस ने रख लिया। बाल, खून, नाखून, मेरी जांघ में लिथड़ी चिपचिपाहट जिसे रुई में लपेट कर ले गई थी पुलिस। वह बाद में पोस्टमार्टम के इसी कमरे में कचरे के डिब्बे में पड़ी थी, जिसे गंदे-खजरेले कुत्ते ने बिखेर दिया था। कभी मुझे कोई बताएगा कि उन हरामियों का क्या हुआ? 

अब मैं मैडिकल कॉलेज के पहले साल के बच्चों की टेबल पर हूं। इनमें से किसी को मेरी कहानी नहीं जाननी। ये मेरी धनुष जैसी हो चुकी पीठ पर हंस रहे हैं। मेरी कटी छाती इनके लिए कौतुक। इनमें से उस शैतान से लड़के ने मेरे बांए हाथ की कई जगह से टूटी हड्डी वाले हाथ का मेरी कमर पर लगा दिया है। ऐसा लग रहा है मैं नाच रही होऊं। क्या मैं ने आपको बताया कि मैं मांदल पर सहेलियों के साथ ‘टिमली’ नाचती थी। सारे लड़के – लड़कियां हंस रहे हैं। मैं भी ठहाका मार हँसना चाहती हूं। मगर मेरे खोखले हो चुके पिंजर में से कोई आवाज़ नहीं निकलती। बस एक लड़की उन सब पर गुस्सा होती है।

मेरे डॉक्टर पापा कहते हैं, लाश का अपमान नहीं करना चाहिए।” 

अपमान!” मेरे पिंजर में कहीं दुबकी हंसी निकल आती है। मेरी लाश हंस रही है। एक हल्की हवा के साथ दांत खुल गए हैं।

राजस्थान में जन्मी मनीषा कुलश्रेष्ठ हिंदी कथा साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर हैं। पांच उपन्यास और सात कहानी संग्रह प्रकाशित और अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित हो चुकी हैं। संपर्क - manishakuls@gmail.com

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