जब कभी मेरी नींद की तेज पहाड़ी नदी पर, मेरी आँखों की पुतलियों की कश्तियाँ डोलती हैं, हिचकोले खाती हैं. तब भी मुझे इस रैपिड आई मूवमेंट के दौरान सपने में भी कोई राजकुमार नहीं दिखता. तब भी नींद की धारा में मुझे साड़ियों की लहरें ही दिखती हैं. जो कभी बांधनी, कभी लहरियों, कभी बूटियों के ठन्डे छींटे मुझ पर डाल, मेरी नींद की पहाड़ी नदी को, मंथर मैदानी नदी में बदल देतीं हैं. डॉ. ऐ.पी.जे. अब्दुल कलाम जी ने कहा है कि सपने वे नहीं होते जो नींद में आते हैं, सपने तो वे होते हैं, जो नींद उड़ा देते हैं. ऐसा ही एक सपना मेरा भी था.
मैं बचपन से ही यह सपना देखती आई थी. मैं बचपन में अक्सर मम्मी की साड़ियों की आलमारी में घुस जाती, और उन साड़ियों में मम्मी की खुशबू का, साड़ियों के अलग-अलग स्पर्श का, उनके इन्द्रधनुषीय रंगों का, उनमे उकेरे डिजाइनों का आनंद लेती. इसके लिए अक्सर डांट भी खाती. जिस दिन मैं अधिक उत्साह में आकर मम्मी की साड़ी पहनने की कोशिश में आ जाती, उस दिन तो मुझे और भी कस कर डांट पड़ती. साड़ियों के इन्द्रधनुषी रंग जल्दी ही डांट भुला देते, वे मुझे बुलाते, और मैं फिर से किसी तितली की तरह इन साड़ियों के फूलों के पास मंडराने लगती. 
मम्मी के पास ढेरों साड़ियाँ थी. देश के अलग-अलग कोनों की साड़ियाँ- लखनऊ की लखनवी साड़ियाँ, बनारस की बनारसी साड़ियाँ, कांचीपुरम साड़ियाँ, बंगाली काथा की साड़ियाँ, छत्तीसगढ़ी कोसे की साड़ियाँ, भागलपुर के रेशम की साड़ियाँ. जाने कितने सफ़हे भर जायेंगे, यदि मैं मम्मी के साड़ी-संग्रह की साड़ियों के नाम गिनाती रहूँ. मम्मी को शौक था कि उनके पास देश के हर कोने की हथकरघा कला के नमूने साड़ी के रूप में सहेजे हों.
मम्मी से डांट खा कर भी मैं समय पाते ही अलमारी में उन साड़ियों के बीच बैठ कर सपना देखती थी कि एक दिन मैं ऐसी ही साड़ियों की दुकान खोलूंगी. मुझे जो मन करेगा वो साड़ी पहन लूंगी. कितना मजा आयेगा. एक दिन काथा की साड़ी तो अगले दिन चिकन की, उसके अगले दिन पटोला की, या लहरिया साड़ी. मेरी दुकान होगी तो कोई मुझे मना भी नहीं कर सकेगा. मुझे यह आइडिया आया था डब्बू से. डब्बू हमारे पड़ोस में रहता था. उसकी जेब अक्सर टॉफियों से भरी होती थी. उनकी टॉफी-चोकलेट्स की दुकान थी. वह अपनी चोकलेट की दुकान से जब चाहे, जो चाहे वो चोकलेट निकाल लाता था.
जब बड़ी हुई तो भी मेरे बचपन का सपना तो वही रहा, लेकिन अब उद्देश्य बदल गया. पहले मैं दुकान खोलना चाहती थी बेरोक-टोक खुद साड़ी पहनने के लिए, लेकिन अब मैं शहर की हर महिला को उनकी सपनों की साड़ियों से मिलाना चाहती हूँ, ताकि मुझे अपनी सपनों की साड़ियों के करीब रहने का मौका मिलता रहे. पहले मैं यह काम घर से ही करती थी लेकिन घर से मेरे सपनों के आस्मां का क्षितिज बहुत पास नजर आता था, इसलिए मैंने शहर के व्यावसायिक इलाके में एक दुकान किराये पर ली. अब मेरा एक पैर इस दुकान में होता है और एक पैर देशभर से पारंपरिक साड़ियाँ इकट्ठी करने के लिये अलग-अलग राज्यों में.
मेरे सपने को सोच के आसमान से यथार्थ के धरातल पर उतार लाने में सबसे बड़ा योगदान रहा आदित का. शादी की बाद उनके सहयोग से ही मैंने यह अपने सपनों की यह दुकान खोलने की हिम्मत की, लेकिन इसके खुलने से पहले ही आदित का रायपुर से स्थानांतरण हो गया. वे अब बस सप्ताहांत में ही रायपुर आते हैं. मैं उनसे अलग रहने से दुखी होती हूँ, लेकिन ‘अपनी दुकान’ के सपने को साकार रूप में देख सब दुःख परेशानी भूल जाती हूँ. मैंने अपने सपनों की दुकान को खुद ही सजाया संवारा है. आदित भी सप्ताहांत में आकर इसे देख जाते हैं. 
धीरे-धीरे मेरी यह दुकान शहर में ही नहीं आसपास के शहरों में भी अपनी विशिष्टता के कारण पहचान बनाने लगी, लेकिन एक दिन…मुझे अच्छे से याद है वो शनिवार की शाम थी. जब आदित स्टेशन से सीधे दुकान चले आये थे. उस वक्त दूकान में कोई ग्राहक नहीं था, हम दोनों दुकान बंद होने के समय का इंतजार करते हुए, यूँ ही बातें करते बैठे थे, कि अचानक आदित ने दुकान के दरवाजे की ओर देखते हुए कहा,
“मीनल! दरवाजे के ऊपर क्या लगा है?’ 
मेरी नज़र भी दरवाजे की ओर उठीं. मैंने देखा कि दरवाजे के ऊपर धातु का एक छोटा सा आयताकार टुकड़ा दीवार पर जड़ा हुआ है. इस टुकड़े को मैंने पहले देखा ही नहीं था. 
“नहीं पता आदित!… ये क्या है? मैंने तो इसे देखा ही नहीं था.”
आदित नजदीक जाकर उसे देखने लगे. मैं भी उनके पीछे जा खड़ी हुई. धातु के उस आयताकार टुकड़े पर अरबी में कुछ शब्द खुदे हुए थे. 
“हमारी दुकान से पहले यहाँ खालिद की दुकान थी. उसी ने लगाया होगा इसे. लग रहा है कि इस पर कुछ आयतें लिखी हुई हैं. तुमने इसे निकलवा क्यों नहीं दिया? जाने क्या लिखा है इसमें.” आदित ने संदेह करते हुए कहा था.
संदेह संक्रामक होता है. यह संदेह मेरे मन में भी कंप्यूटर सिस्टम में वाइरस की तरह घुस गया. लेकिन एक घातक वाइरस की तरह नहीं. रात हो गई थी हमने इसे निकलवाने का काम कल के लिए छोड़ दिया. हम घर आ गए. 
उस पल से पहले तक सब अच्छा था, उस पल से ही मानों दूकान में, हमारे मन में कोई बुरा साया लहराने लगा. रात सुहानी थी और चाँद पूरा. चन्द्रमा की चांदनी और हमारे आंगन में चांदनी दोनों ही भरपूर खिली हुई थी. लेकिन इस रात ये शोलों सी जलने लगी. जलती चांदनी का एक टुकड़ा बिस्तर में हमारे बिस्तर में हमारे साथ पसरा हुआ था.  
यूँ तो मेरे मन में बचपन से ही धर्मों को लेकर कोई दुराग्रह नहीं था. मेरे लिए मंदिर अपने भगवान का घर था तो मस्जिद या मजार मुसलमानों के और चर्च ईसाईयों के भगवान का घर. जैसे मंदिर के पास से निकलने पर मैं एक पल को अपनी आँखें बंद कर ईश्वर को प्रणाम करती, उसी तरह मस्जिद, मजार या चर्च के पास से निकलने पर भी करती. मैंने कभी नहीं सोचा कि ये दूसरे धर्म के भगवान हैं, तो मैं इन्हें प्रणाम नहीं करूं. मेरे लिए भगवान बस भगवान थे. चाहे उनका नाम ब्रम्हा, विष्णु, महेश हो या अल्लाह, खुदा या जीसस. अपनी दुकान में आयत लिखी देख, आदित की प्रतिक्रिया से मुझे यूँ अहसास हुआ, जैसे घर से बाहर गुजरते हुए दूसरे धर्मस्थलों को प्रणाम करना अलग बात है लेकिन अपने घर में दूसरे धर्म का कोई प्रतीक रखना…  
रात की जलन जब आँखों में उतरने लगी, तब इसे कल ही निकलवा ही देने का संकल्प लिया, तब ही बिस्तर में पसरे उस चांदनी के टुकड़े ने विदा ली, फिर धीरे से जलती रात भी बीत गयी. कल तो आया लेकिन रविवार बाजार बंद होता तो दुकान आना दिनचर्या में शामिल नहीं था, और एक पारिवारिक उत्सव में जाना पड़ा तो रविवार रेत की घड़ी से रेत सा फिसल गया. इस आयत खुदे आयताकार टुकड़े को निकलवाने की बात हमारे ध्यान से ही निकल गई. सोमवार आदित वापस बिलासपुर चले गए. आदित के जाने के बाद जब मैं दुकान आने लगी तो सब कुछ वही रहा. वही सूरज, वही दिनचर्या, वही रास्ते, दुकान के सामने वही लाल-लाल सुर्ख फूलों से लदने का इन्तजार करता हरा गुलमोहर का पेड़, वही दुकान. यदि कुछ बदल गया, तो वो था मेरा मन. मेरे मन में भी आदित की बातों ने एक खटका डाल दिया- 
“जाने क्या लिखा है इसमें?” 
इस खटके के बावजूद हफ्ता बीत गया. मैंने इस आयताकार टुकड़े को नहीं हटाया. क्यों नहीं हटाया? इसलिए कि मुझे लगा कि इसमें कोई दुआ ही लिखी होगी. जो मुझे कोई नुकसान तो करने से रही. यदि मैं यूँ ही इस टुकड़े को हटा दूंगी, तो नए रंगोरोगन वाली इस चमकती दीवार में अश्वत्थामा के माथे के घाव सा एक दाग लग जायेगा. जो जाने कब तक यूँ ही भद्दा दिखता रहेगा, इसलिए मैंने पहले इस काम के लिए कोई आदमी बुलाने का सोचा, जो इसे निकाल कर इसके हटने से बने गड्ढे पर पुट्टी लगाकर पेंट भी कर दे. 
शहरों में छुटपुट कामों के लिए जल्दी से कोई तैयार भी नहीं होता, फिर ये तो छुटपुट से भी छुटपुट काम था. एक कल बीत कर दूसरा कल आ गया. दूसरे के बाद तीसरा, तीसरे के बाद चौथा कल बीत गया. रात को बात करने पर आदित अक्सर पूछते कि उस टुकड़े को निकलवा दिया क्या? और मैं बता देती कि नहीं अभी तक कोई मिला नहीं है. वर्षांत नजदीक था तो उन्हें छुट्टियाँ ही नहीं मिल पा रही थी. दिन बीतते गए. हर रोज जिंदगी के एम् एस वर्ड में एक नयी फ़ाइल खुलती, और रात को नींद में जाते ही, दिमाग के शट डाउन का कमांड मिलते ही मेमोरी में सेव हो जाती. 
जब मैं दुकान के काम से खाली होती, तो अक्सर यह धातु का आयताकार टुकड़ा मेरे मन के करघे पर खट-खट कुछ बुनने लगता. बुनाई –दो ताना, एक बाना. एक बाना, दो ताना, विचारों का ताना-बाना. बस इस बुनाई से कोई रेशम, कोई सूत बाहर नहीं आ रहा है. जैसे कोई अदृश्य वस्त्र बुना जा रहा हो. एक आशा है कि शायद ये अदृश्य वस्त्र भविष्य में दिखने लगेगा, और सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् ही होगा. आदित की बेचैनी इसे न हटाने को लेकर बढ़ती जा रही थी. 
इस बेचैनी से बेचैन हो अक्सर मेरा मन कहने लगता कि इसे हटा दूँ, फिर कहता कि नहीं हटाऊँ, फिर कहता कि हटा ही देती हूँ, फिर कहता लेकिन इसे मैं क्यों हटा दूँ? क्या लिखा है इसमें? दुआ ही तो लिखी होगी! खालिद की लिखी हुई ही सही, लेकिन वह अपनी दुकान में अपने लिए दुआ ही तो लिख कर रखेगा. सिर्फ इसलिए कि यह अरबी में लिखी दुआ है, क्या यह मेरे लिए श्राप बन जाएगी? क्या दुआ का भी कोई धर्म हो सकता है. इसके बाद मेरी सोच की सुई उल्टी चलने लगती. आदित की बेचैनी मन से तिरोहित हो जाती. वैसे भी हटाने वाला कोई कारीगर अभी तक तो मिला भी नहीं था. मेरा मन मान जाता कि जब तक कोई मिल न जाये या मुझे इसमें मेरे लिए कुछ सही नहीं लिखा है पता चल जाये, तब तक इसे ऐसे ही रहने देना ठीक होगा. वैसे भी यह इतना छोटा है कि दिखता भी नहीं. यूँ भी यह मुझे कोई नुकसान तो पहुंचा नहीं रहा. कभी –कभी ये सब मैं आदित को कह भी देती जो उनको पसंद नहीं आता, बल्कि वे नाराज ही हो जाते. शायद मेरी अनिच्छा को आदित भांप गये थे, इसीलिए एक दिन उन्होंने मेरी परेशानी का बहाना ले कह ही दिया,
“तुम इसे निकलवाने के लिए परेशान मत हो मैं आऊंगा तो निकलवा दूंगा”  
वे इसे निकलवाते तो तब न जब उन्हें ऑफिस के काम से छुट्टी मिलती. छुट्टियों के इंतजार में दिन बीतते गये. एक दिन सुबह मैं दुकान खोल कर पूजा कर ही रही थी, कि दुकान में एक सुन्दर सा काला बुर्का पहने हुए दो महिलायें आई. मैंने जल्दी से अगरबत्ती स्टैंड में लगाई. उनमें से एक ने बुर्के को सिर से हटाते हुए कहा,
“ आपके पास मधुबनी की साड़ियाँ होंगी क्या?दिखाइए!”
मैंने जल्दी से भगवान के सामने हाथ जोड़े. प्रसाद की प्लेट से एक काजू निकाल कर खाया, सिर पर हाथ फेरा, और दूसरा काजू उठा उनकी ओर बढ़ा दिया. जैसे ही मैंने हाथ उनके सामने किया, वो हिचकिचाई, और मुझे भी एक झटका सा लगा, लेकिन हाथ तो मैंने बढ़ा ही दिया था. इसे वापस लेना शायद ठीक नहीं होता. क्या करूं? क्या न करूँ? की हिचक के बीच उन्होंने मेरे हाथों से प्रसाद ले लिया. मैं सेम्हल की रुई सी हल्की हो आई. मैंने अपने को अपनी संकीर्ण सोच के लिए एक झिड़की भी दी.  
“हां बिलकुल आइये! आपको मधुबनी की साड़ियाँ दिखाती हूँ.”
अपनी साड़ियों की ओर पलट कर मैं मधुबनी की साड़ियाँ निकालने लगी. वे अपने चेहरे से आसमान में बिजली सी झलकी हिचक मिटा आगे कहने लगीं, 
“मेरी बेटी की सास को हैंडलूम की साड़ियाँ बहुत पसंद हैं. उन्होंने आपके दुकान की मधुबनी पेंटिंग की साड़ी किसी को पहने देखा था. उन्होंने आपकी दुकान की बहुत तारीफ सुनी है. उनकी फरमाइश पर ही हम मधुबनी साड़ी लेने आये हैं.”
यह सब उन्होंने कुछ-कुछ सफाई देने के अंदाज में कहा. वैसे भी कोई बुर्का पहनी महिला मधुबनी साड़ी की मांग करे, ऐसा आमतौर पर होता नहीं है. यह सुनकर यूँ तो मेरे दिमाग में बहुत से प्रश्न आये, लेकिन जो दिमाग में अटका रह गया वह था कि उनकी बेटी की सास को मधुबनी साड़ी कैसे पसंद है? उसमें तो अक्सर धार्मिक कथाएं बुनी होती हैं. कभी रामायण की, तो कभी महाभारत की, तो कभी दुष्यंत-शकुंतला की. मेरे शंका से आकुल मन ने कहा कि ये तो उनके लिये बुतपरस्ती हो सकती है, फिर कैसे ये मधुबनी की साड़ी लेना चाह रही हैं?
लेकिन इन सारी बातों की कतरनों को मैंने दिमाग के एक कोने में बने कतरनों के टोकरे में डाल दिया. उस वक्त मैंने दिमाग से ये सारी बातें हटा दीं, लेकिन दिमाग का ये कतरनों का टोकरा कभी पूरी तरह से खाली नहीं होता. समय, परिस्थिति अनुसार इसमें डाली बातें वैसे ही उफन-उफन कर दिमाग में आती रहती हैं जैसे घरों से निकला कचरा, भारी बारिश में नालियों से, सड़क से होता हुआ निचले घरों में घुस आता है. एक शंका मेरे मन कुलबुलाती ही रही.
वह अब भी कह ही रही थी, “मेरी बिटिया भी आपके दुकान से बहुत सी साड़ियाँ ले जाती है. अपनी बड़ी मीटिंग्स और पार्टियों में वह भी यही सब पहनती है.”
उनकी आवाज में नापसंदगी और गर्व दोनों ही था. वैसे इन सब से मुझे क्या? पर लोगों के कहने के तरीके से उनके भाव तो समझ आ ही जाते हैं. मैंने ये समझ भी धीरे से दिमाग के उसी कतरनों के टोकरे में डाल दी.
मैंने टसरसिल्क की कोसे के रंग की दो-तीन साड़ी उनके पास फैला दी, जिसमें काली, कत्थई, हरी रेखाओं की ज्यामितीय आकृतियाँ थीं. इस पर उन्होंने हाथ फिराया, फिर कुछ रंग-बिरंगे डिजाईन दिखाने की मांग की. अब मैंने धानी रंग की क्रेप सिल्क की साड़ी निकाली, जिस पर सम्पूर्ण रामायण अंकित थी. गहरे नीले रंग की शिफॉन की साड़ी निकाली, जिस पर दुष्यंत-शकुंतला की कथा अंकित थी. एक गुलाब के गुलाबी रंग की जोर्जेट की साड़ी निकाली, जिस पर राधा-कृष्ण चित्रित थे. जब मैंने मधुबनी पेंटिंग की पांच-छः साड़ियाँ उनके आगे फैला दी, फिर भी उन्होंने एक भी साड़ी को हाथ नहीं लगाया, तो मेरा माथा ठनका, और जो बात मेरे अवचेतन में थी, वह अपनी पूरी स्पष्टता के साथ मेरी आँखों के सामने आ गई.  
“हम तो जरी-गोटे वाली साड़ी या सलवार-कुरता ही पसंद करते हैं. हमें ये सब पसंद नहीं आता, समझ भी नहीं आता. अब उनके लिए लेना था, तो आना पड़ा. आप ही मधुबनी की अच्छी साड़ी दिलवा दीजिये. आपकी दुकान के साथ आपकी पसंद की भी बहुत तारीफ सुनी है.”
असमंजस, मजबूरी और तारीफ भरी आवाज में, उन्होंने अपने साथ आई महिला की ओर देखते हुए मुझसे कहा. उनके साथ की महिला ने भी सहमति में अपना सिर हिला दिया. उनके बुर्के के नीचे से गहरे हरे रंग का जरी के काम वाला, चमकते साटन की सलवार का पांयाचा झांक रहा था.
मैं तारीफ और असमंजस का कारण तो समझ गई, लेकिन मजबूरी नहीं समझ पाई. मेरे दिमाग में कुलबुलाता प्रश्न फिर मेरे जीभ में खड़ा हो तांडव करने लगा, लेकिन मैंने मेरे प्यार, मेरी साड़ियों के कलेक्शन पर अपना हाथ फिरा उसे शांत किया और कहा, 
“जिनके लिए लेना है उनका कॉम्प्लेक्शन कैसा है.”
“वह तो संगमरमर सी साफ शफ्फाक हैं.” एक मोटी सी खनकती आवाज आई, जैसे तेज हवा के झोंके से शीशम की फलियाँ बज उठी हों.
“तब तो आप यह गहरे नीले रंग की साड़ी ले लीजिये. उन पर खूब खिलेगी.” मैंने मेरे संगमरमर के शिवलिंग में चढ़े अपराजिता के गाढ़े नीले फूलों के रंगों के मेल को याद करते हुए कहा.
मैंने वह अपराजिता के नीले फूलों के रंग की वह साड़ी, जिसम गुलाब के गुलाबी रंग से दुष्यंत-शकुंतला की कथा कढ़ी गई थी, पूरी लम्बाई में खोल कर उनके सामने लहराई. खुद से लगा कर दिखाई. उनके चेहरे पर थोड़ी पसंदगी, थोड़ा असमंजस दिखा. मैंने उनके असमंजस और मजबूरी को हामी में बदलने के लिए कहा,
“ले जाइये! पसंद नहीं आएगी तो बदल दीजियेगा, लेकिन आपको गारंटी देती हूँ कि यह उन्हें जरूर पसंद आयेगी.”  
यह कहते हुए मैंने उनके चेहरे को पढ़ लिया. उनसे कीमत की बात तय होने और पैसे मिलने के बाद यह साड़ी मैंने उन्हें पकड़ा दी. उन्होंने अब उस साड़ी पर अपनी एक उंगली फिराई. जिस पर मुझे हैरानी हुई. उंगली फिरा हाथ वापस ले जाते हुए मैंने उनका हाथ देखा, मेरा दिया प्रसाद उनकी हथेली में दबा हुआ था. दुकान से निकलते हुए, मैंने उनकी आपस की बात सुनी. 
“अजरा के अब्बू ने यदि उसकी शादी मेरे अशफाक से बचपन में ही करा दी होती, तो आपको आज ये बुतपरस्त मधुबनी की साड़ी खरीदने की परेशानी ही न होती. बेटी को इतना पढ़ाने का यही सिला मिला आपको.” 
मेरे दिमाग को अपने प्रश्न का एक सन्तुष्ट करने लायक उत्तर मिल गया. मन ने तत्काल एक कहानी गढ़ ली कि पक्का वह दूसरी महिला अपने बेटे की शादी इनकी लड़की से कराना चाहती रही होंगी, लेकिन लड़की के अब्बा प्रगतिशील रहे होंगे, उन्होंने बेटी को अच्छे-से पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़े किया होगा. लड़की ने अपने ही किसी परिचित हिन्दू लडके को, शायद अपने किसी सहकर्मी को ही पसंद कर लिया होगा. जाने उन्होंने अंतर्धार्मिक विवाह को रजामंदी दी होगी या नहीं लेकिन अंततः स्वीकार जरूर कर लिया होगा, क्योंकि इसीलिए लड़की की सास की पसंद मधुबनी की साड़ी लेने इन्हें आना पड़ा है. अब मैं उनकी मजबूरी भी समझ गई. 
बाहर हल्के बादल छाये हुए थे, जोर की बिजली कौंधी. जाने क्यों इस पल यह अशफाक मुझे मटन काटता और उनकी बेटी किसी एम.एन.सी. में मीटिंग लेती दिखी.
अब मेरे मन में प्रश्नों के रेशमी लच्छे फिसलने लगे. आगे-पीछे, इधर-उधर. उन्हें लड़की की गैर धर्म के लडके से शादी स्वीकार है, लेकिन एक साड़ी में बने उस धर्म के प्रतीक को स्पर्श भी करना स्वीकार नहीं, लेकिन अंत में उसे अपनी एक उंगली से तो छू ही लिया उन्होंने. यह उनके सहिष्णु होने की निशानी ही तो है, आखिर उन्होंने लड़की के ससुराल वालों को भी स्वीकार तो किया ही है. 
उनके जाने से खुले रह गए मेरे अपने आप ही बंद हो जाने वाले दरवाजे से, बारिश की खुनक लिए हवा का एक झोंका अन्दर आया. यूँ सोचते हुए मेरी नजर बादलों से, झूमते गुलमोहर से होते हुए उन दोनों के पीछे चली गई. वे दुकान के सामने की रोड पार कर भीख मांगते एक बच्चे से कुछ बात कर रही थी. इसने मुझे एक जोर का झटका दिया. आसमान में तेज बिजली कड़की. मेरा मन लम्बे अरसे से मोड़ी रखी चंदेरी साड़ी सा कट गया.
क्या उन्होंने मेरा दिया प्रसाद? नहीं! 
मेरे मन में शंका की एक महीन सुई चुभी, 
“मैं ईद में नाज के घर की सेवई खाती हूँ, बकरीद में मटन खाती हूँ. मुहर्रम में शरबत पीती हूँ. क्या नाज भी मेरी दी दिवाली की मिठाई खाती होगी, या अपनी किसी बाई को दे देती होगी. मैं उसके घर नॉनवेज खाते हुए, पल भर को भी नहीं सोचती, कि ये झटका है कि हलाल.”
बाहर हवा की गति बढ़ गयी थी. वह सड़क पर पड़े कचरों को उठा-पटक रही थी, गुलमोहर की शाखाओं को झकझोर रही थी. इस वक्त शिद्दत से पहली बार मुझे अहसास हुआ, कि नाज ने मेरे घर पर तो कभी भी नॉनवेज नहीं खाया है. इस वक्त मैंने याद नहीं किया, कि नाज मेरे दिए प्रसाद को प्रसाद मान बड़ी श्रध्दा से खा लेती थी.
मेरी नजर दुकान के दरवाजे पर टंगे धातु के उस आयताकार टुकडे पर ठहर गई. यह विधर्मी टुकड़ा… जाने क्यों मन में एक निश्चय सा हुआ कि मुझे इसे निकलवा ही देना है. जाने क्या लिखा है इसमें? 
उस रात भी ममेरे बिस्तर पर आदित की जगह वही जलाती चांदनी थी. उस चांदनी में झुलसते हुए, मैंने आदित को मोबाइल पर उन बुर्के वाली महिला की सारी बात बताई. कैसे उन्होंने साड़ी छुई ही नहीं, और कैसे मेरा दिया प्रसाद हाथ में दबाये रहीं, जाने उसे उस बच्चे को दिया या नहीं. 
आदित ने पहले तो सिर्फ इतना ही कहा, “तो इसमें कौन सी बड़ी बात है. ऐसा तो होता ही है”
लेकिन मैंने कहा, “फिर भी ये ठीक तो नहीं” ऐसा कह मानों मैंने खुद ही अपने सुन्दर सी ड्रेस की गलत कटिंग कर दी.
“फिर भी तुम उस आयत खुदे टुकड़े को सहेज कर रखे रहोगी. यह ठीक है ना.” आदित ने लोहा गर्म देख मुझ पर चोट की.
अब मैं कुछ न कह सकी. जैसे उन्हें मन का गुबार निकालने का मौका मिला था. उन्होंने आगे कहा
“ये तुम्हारी छद्म धर्मनिरपेक्षता ही है, जो इसे अब तक तुमने अपनी दुकान में जगह दी हुई है. तुम ही सोचकर बताओ… इसकी जगह कोई भगवान की फोटो छोड़कर चला गया होता, तो तुम उसे निकाल कर ठंडा कर देने में दो दिन का समय भी नहीं लगाती.”
आदित की बात एकदम सही ही थी, अभी जब हमने घर खरीदा था, तो हमसे पहले जो किराये पर रहते थे, उन लोगों की छोड़ी भगवान की एक-एक फोटो को मैंने तुरंत ही निकाल कर ठंडा कर दिया था. उसके लिए एक पल भी नहीं लगा था मुझे सोचने में. यहाँ तक कि ड्राइंग रूम की दीवार से चिपकी फोटो निकालने में दीवार ख़राब होगी ये मुझे पता था, फिर भी मैंने उसे निकाल कर वहां एक झरने का पोस्टर चिपका दिया था. 
मुझसे यह सब कहते हुए आदित की आवाज में सिन्दूर के जलते लाल रंग सा गुस्सा उभर आया था.
“तुम खुद ही सोचो कोई मुसलमान अपनी दुकान में किसी हिन्दू देवी-देवता की फोटो कभी भी लगे रहने देता?”
उनकी तीखी आवाज की छुअन से मैं लाजवंती की पत्तियों से सिमट आई थी. इसके बाद भी आदित नहीं रुके, जाने कितने तर्क देते रहे. मैं उनकी आवाज के उस जलते लाल रंग से घबरा गई. उन्हें शांत करने के लिए मुझे बस एक ही राह सूझी. मैंने कहा, 
“अब बस ना! मैं इसे कल निकलवा दूंगी.”
आदित कड़वी हंसी हंस पड़े. जो मुझे जहर बुझी कटारी सी चुभी. आधी रात में गुलमोहर से कोई उल्लू चिल्लाता हुआ उड़ा, सन्नाटे में पंखों की आवाज बहुत भयानक लगी.
“मैंने कहा न. कल मैं इसे पक्का निकलवा दूंगी.” मैंने तुरंत उनसे वादा कर दिया.
मेरे मन में एक कर्कश कागा चिल्लाने लगा,
“क्या सच में मैं इस धातु के आयताकार टुकड़े को इसलिए नहीं हटा पा रही हूँ क्योंकि ये दूसरे धर्म का है? क्या मुझे लगता है कि इसे हटाने से मैं संकीर्ण हो जाउंगी, असहिष्णु हो जाउंगी? क्या इसे हटाना मेरे धर्मनिरपेक्ष रवैये पे प्रश्नचिन्ह होगा?  लेकिन जब भगवान के फोटो हटाने ने मुझे संकीर्ण नहीं बनाया, तो इसे हटाना मुझे संकीर्ण क्यों बना देगा? 
मेरे दो भागों ने अपने-अपने शस्त्रास्त्र उठा लिये, लेकिन मामला अनिर्णीत रहा. मेरे मन ने मुझे उत्तर नहीं दिया कि भगवान के फोटो मैंने दूसरे के होने के कारण हटाये थे या मैं अपना घर अपने तरीके से जमाना चाहती थी इसलिए? जबकि मन को इसका उत्तर अच्छे से पता था कि मैं घर अपने ख्यालों के मुताबिक जमाना चाहती थी.
कल आया, लेकिन जैसे तेज तूफानी हवाएं बादलों से ढंके आसमान के बादलों को उड़ा ले जाती हैं, वैसे ही शादी के मौसम ने, मेरे मन के संसार में छाये हुए इस विधर्मी टुकड़े को निकलवा देने के कृत्रिम बादल से विचार को उड़ा दिया. मैं दुकान में बेतरह व्यस्त हो गई. इस कदर कि इसे भूल ही गई. मुझे इसे निकलवाने की तब याद आई, जब रात को आदित ने अपनी मजबूत और भारी फिर मुझसे पूछा, 
“तुमने उसे निकलवा दिया न”   
इससे पहली रात को आदित की जलती आवाज याद कर मैं कांप गई,
“मैं इसे निकलवाना कैसे भूल गई. अब आदित फिर नाराज होंगे. अब क्या करूँ?”
उनकी नाराजगी से बचने की संकरी गली की ओर मैंने कदम बढ़ाया.,
“हां निकलवा दिया.”
उस वक्त मैंने मंजिल पा ली, आदित नाराज नहीं हुए. आश्वस्त हुए, अब उनकी यह आश्वस्ति मुझे बनाये रखनी थी.
दूसरे दिन मैंने सारा काम छोड़ युध्द स्तर पर खोज शुरू की. कुछ मजदूर मिले, वे आये, मेरा बताया काम ध्यान से सुना, देखा. लेकिन इतना छोटा काम देख सब कल आ कर करने का कह चले गए. वह कल इसमें से किसी का भी, कभी भी नहीं आया. एक ने इस पंद्रह मिनट के काम के एवज में पूरे दिन की मजदूरी चाही, जिसे देने मैं राजी नहीं हुई. अंततः यह धातु का विधर्मी टुकड़ा, जिसमे कोई आयत उकेरी हुई थी, मेरी दुकान के दरवाजे के ऊपर, अपनी जगह पर लगा रहा. हर पल अपनी नकारात्मक उपस्थिति जताते हुए, हर पल मुझे आदित के आने से पहले निकलवा देने के लिए डराते हुए. 
जाने इसमें क्या लिखा था, दुआ कि बद्दुआ, जाने यह मेरे दुकान पर क्या प्रभाव डाल रहा था? सुप्रभाव या कुप्रभाव या कि यह मुझे दूसरे धर्म की पाकर तटस्थ था. मुझे नहीं पता कि उसे क्या विश्वास था? अपने लगे रहने का या वह नोच कर फेंक दिए जाने की आशंका में तिल तिल जल रहा था. विभाजन के बाद जलते मनुष्यों सा. न वे मनुष्य कहाँ थे. वे तो उस वक्त देश का धर्म बदल जाने के बाद विरोधी धर्म के नुमाइंदे भर रह गए थे. जिन्हें देश के मालिक धर्म के लोगों ने नोच कर फेंक दिया था. अब इस दुकान का धर्म भी बदल चुका था, इस हिसाब से इसे भी नोंच देने का वक्त आ चुका था, पर क्या उस वक्त भी सारे विरोधी धर्म के लोग नोंच कर फेंके गए थे? मुझे नहीं पता लेकिन यह जरुर लगा कि जो फेंके गए उनके मन में नागफनी उग आये. जो अब नागफनी के जंगल में बदल चुके हैं, और उनके कांटे हर ओर फैले हुए हैं. मेरा मन बहुत भारी रहा.
कोई मजदूर मिले या न मिले, शनिवार को आदित के आने से पहले मुझे इसे निकलवा देना है, निकाल देना है. घडी की टिकटिक सी यह बात मेरे दिमाग में कौंध रही थी. गर्मी की दोपहर में जब बाहर सूरज गर्म किरणों के जाल फेंक रहा था. जब अन्दर ए.सी. चन्दन का लेप लगा रहा था. मेरे मन पर आदित ने अपनी औचक उपस्थिति का गर्म तेल फेंक दिया. उन्होंने यह सरप्राइज दिया था उनकी औचक उपस्थिति से मेरे चेहरे में उभर आई सलमा सितारे सी चमक देखने के लिये, लेकिन उनकी उपस्थिति से मेरे चेहरे के आसमान में बिजली की एक चमक सी आई फिर अमावस का घनघोर अंधियारा छा गया.
उन्हें सप्ताहांत से दो दिन पहले ही रायपुर आने का अवसर मिल गया क्योंकि उन्हें एक हफ्ते के दौरे पर बिहार जाना था. जिससे आदित बहुत खुश थे. पहली बार आदित के यूँ सरप्राइज देने पर मैं खुश नहीं हुई थी. मैं ईश्वर से मना रही थी कि आदित की नजर उस आयत खुदे विधर्मी टुकड़े पर ना जाये.
ए.सी. के चंदनलेप से आदित के तन की और मेरी उपस्थिति से उनके मन की जलन शांत हो गई, तब उन्होंने कहा, “मीनल! तुम्हें बावनबूटी की साड़ियाँ लेनी हैं न”
“हां”
“तो हम कल ही बिहार निकल रहे हैं. मुझे एक दौरे पर बिहार जाना है. हमारे काम भी हो जायेंगे और घूमना भी. वहां तुम्हें एक ख़ास जगह भी घुमाऊंगा.”
आदित की यह बात सुन मन में वह विधर्मी टुकड़ा न निकाल पाने का डर होते हुए भी, या शायद इसलिए ही, मैं कुछ अधिक ही किलक पड़ी. हमारी बिहार यात्रा की योजनायें बननी शुरू हो गई. हम कहाँ-कहाँ जायेंगे, क्या करेंगे. बातें तो उधड़ते स्वेटर से निकलती ऊन की डोर होती हैं जो जितना खीचते जाओ निकलती जाती है, निकलती जाती हैं. अचानक हमारी ऊन का निकलना रुक गया. शायद यहाँ से दूसरा रंग शुरू होना था. दूसरे रंग का सिरा पकड़ने में आदित को कुछ पल लगे.
“ये क्या है? तुमने इसे नहीं निकलवाया! क्यों?” 
आदित की नजरें ठीक दरवाजे के ऊपर, धातु के उस आयात लिखे विधर्मी टुकड़े पर टिकी हुई थी. मुझसे कुछ कहा नहीं जा रहा था. मेरा झूठ पकड़ा गया. मुझे लगा जैसे मैंने आदित का विश्वास तोड़ दिया. 
फिर जाने कैसे मेरे मुंह से एकदम कातर आवाज निकली थी. 
“कोई मिल ही नहीं रहा है इतने से काम के लिए. आजकल में निकलवा ही देती.” 
आदित की आवाज में सुई सी तीखी और कड़ी हो आई, जो मेरे मन के मलमल को सुई सी छेदती आवाज में वह कहने लगे, 
“तुम्हें कोई नहीं मिल रहा तो मुझसे कहती मैं भेज दे देता. इसे निकालने में कितना समय लगना है? लाओ पेंचिस दो! मैं ही निकाल देता हूँ.”
उनकी आवाज की जलन, गुस्से का लाल रंग बन उनकी आँखों में उतर आई. आवाज जैसे मनों भारी हो आई. बस कुछ शब्द उनके मुंह से निकले.
“लेकिन तुमने मुझसे झूठ कहा…इसके लिए…”
यही वह स्थिति थी जिससे मैं बचना चाहती थी. मैंने कहना चाहा कि मैंने झूठ इसे बचाने के लिए नहीं तुम्हारे गुस्से से बचने के लिए कहा था. मैं तो इसे निकलवाने ही वाली थी. पर कभी-कभी स्पष्टीकरण देना कितना निरर्थक सा लगने लगता है. मेरे मुंह से कुछ भी नहीं निकल पाया.
तभी वह बुर्काधारी महिला खुद ही दुकान में हाजिर हो गई जिनसे इस घटना का सूत्रपात हुआ था. आदित चुपचाप चले गए. इस बार उन महिला को अपने नाती के जन्मोत्सव में जाना था. वे लड़की के सारे रिश्तेदारों सास, ननद, खुद लड़की सब के लिए साड़ियाँ लेने आयीं थी. बहुत सी साड़ियाँ लेनी थी तो बहुत सा समय भी लेकर आयीं थी. साड़ियाँ लेने के बाद वे अपने वापस जाने के लिए किसी के लेने आने का इंतजार करने लगीं. इस वक्त को काटने में हमारी जबरदस्ती निकलती बातें सहारा देने लगीं. मैंने भी बातों के जबरदस्ती बुनते थान में से एक गज कपड़ा अपने लिए भी बुन लिया. 
“आंटी आप बुरा मत मानियेगा पर मेरी इस दुकान में पहले शायद आपके ही धर्म के किसी व्यक्ति की दुकान थी. उन्होंने अपनी दुकान में वो लगाया हुआ था.” मैंने उस टुकड़े की ओर इशारा करते हुए कह ही दिया.
मेरे इशारे के साथ आंटी की नजर भी उधर ही गई. 
“ये तो शायद आयतुल कुर्सी होगी.”
यह कहते हुए वे उठ कर ध्यान से उसे देखने लगीं.
“क्या आप बता सकती हैं कि इसमें क्या लिखा है?” 
धातु के टुकड़े के ऊपर एक बार रंग-रोगन हो चुका था. उसमे उकेरे अक्षरों में वह आयल पेंट भर जाने के कारण पढ़ने में दिक्कत होनी ही थी पर उन्होंने पढने की कोशिश की.
“बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम 0 अल्लाह ला इला ह इल्ला हबल हय्युल कय्यूम…
ये आयतुल कुर्सी ही हैं इसे हर बला से सुरक्षित रखने के लिए घर के दरवाजे के पास लगाया जाता है.”
अचानक जैसे वे किसी सोच के आने से चौंकते हुए बोली, 
“आप इसे निकलवा कर मुझे दे दीजियेगा, मैं इसे ठंडा करा दूंगी, खुदा की इबादत लिखी है, इसे ठंडा कर देना ही ठीक होगा.”
मेरे मन में टिड्डी दल सी गुस्से की घटा उमड़ आई. क्या ये सोचती हैं कि मैं इसे निकलवा कर फेंक दूंगी, इसलिए ये खुद को देने कह रही हैं. यदि मुझे फेंकना ही होता तो क्या मैं पहले ही फेंक नहीं सकती थी. भले दूसरे धर्म का ही सही, पर है तो पूजा की ही चीज. इसे मैंने इतने दिन तक नहीं निकाला, इसके लिए मैंने आदित से झूठ कह दिया लेकिन ये समझती हैं कि… 
इस गुस्से के कारण सावन की वह सुखद बयार नहीं चल सकी जो मुझे अच्छा महसूस कराती कि वह भी पूजा की चीजें ठंडा ही करतीं हैं हमारी ही तरह.
 रात जब आदित मुझे लेने दुकान आये. मैंने फिर उस आयत खुदे विधर्मी टुकड़े के लिए एक तरफ़ा बहस सुनी. देर रात जब मैं बिस्तर पर लेटी तो आदित की कही कई विरोधी बाते और कई सुनी सुनाई बातें जेहन पर दस्तक देने लगीं. हमें सुबह बिहार जाने के लिए ट्रेन पकड़नी थी, लेकिन रात के गुजरते जाने के साथ ये बातें मेरे जेहन में डीजे के शोर सी गूँजने लगीं. 
आजकल इनमें अपनी अलग पहचान बताने की प्रवृत्ति आ गई है. पहले तो सब के बीच मिलजुल कर कर रहते थे ऐसे कि पहचान न आयें लेकिन अब पठानी सलवार, टोपी…
आप उनके यहाँ हलाल-वलाल सब खा लीजिये, वे आपके यहाँ ये सब कुछ छुएंगे भी नहीं.
और भी बहुत कुछ. 
यह सब सोचते हुए दिमाग में यह भी कौंधा कि पहले तो गणेश पूजा या दुर्गोत्सव भी इतने बड़े पैमाने पर नहीं मनाये जाते थे, लेकिन अनजाने ही यह दिमाग के कतरनों के टोकरे में दाल दिया गया. बड़ी मुश्किल से पड़ती नींद की खुमारी में मुझे दिखा – एक हाथ फैलाये खड़ा छोटा सा लड़का और हाथ पीछे खींचती छोटी सी एक लड़की जो कह रही थी,
“तुमको प्रसाद क्यों दें? तुम तो हमारा प्रसाद नहीं खाओगे.”
समय की धुंध भरी यादों में ये लड़की शायद मैं थी, लड़का कौन था नहीं पता. मन के इस अंतर्द्वंद्व से थक हार कर बड़ी मुश्किल से पकड़ाई आती नींद के आगोश में खोने से पहले मैंने खुद को यह कसम जरुर खिला दी, कि बिहार से आते ही मुझे वह आयत खुदा आयताकार टुकड़ा आदित के बिन कहे ही निकलवा देना है.
आदित के साथ मेरे बिहार जाने का कारण यह था कि पिछले कई दिनों से कई महिलाएं बावन बूटी साड़ी के बारे में पूछ कर गई थीं. जो मेरे कलेक्शन में टीब तक नहीं थी. मुझे वही लेने जाना था और आदित को अपने कार्यालय के काम से जाना था. एक पंथ दो काज.
रास्ते भर ट्रेन की पटरियों दिलोदिमाग की नसों में विचारों की गड़गड़ाती ट्रेन चलती रही. ट्रेन और पटरियों में घर्षण निरंतर होता है, लेकिन दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं. दोनों एक-दूसरे के लिये सहज स्वीकार्य क्यों नहीं हो जाते. खैर- 
हम बासवानबीघा पहुंचे. यहाँ की हवाओं में करघों की वैसी ही लयबद्ध खट-खट गूँज रही थी. जैसी चंद्रपुर में या चांपा में कोसा बुनने वालों के बीच गूंजती है. एक बावनबूटी साड़ी बुनकर का पता लेकर हम आये हैं. वहां गए तो देखा वे बहुत सीधे सरल लोग हैं. उन्होंने हमें हुलस कर बहुत सी साड़ियाँ दिखाई. हमसे पूछा,
“कहवां से आइल बानी?”
“छत्तीसगढ़ से”
“अतना दूर से आइल बानी..बैठीं… बैठीं…”
उसने अपनी घरवाली को आवाज दी, “ए तनी चाय-पानी ले अई हो.”
वह हमें एक के बाद एक साड़ी दिखाते गए. एक डिजाईन दिखाते हुए उनके चेहरे पर कोहिनूर की चमक उभर आई और आवाज में उसके तराशने वाले का गर्व,
“हई देखी, ई रास्ट्रपति डिजेन सारी.”
मुझे नाम सुन हंसी आ गई.
“राष्ट्रपति डिजाईन”
“हं मैडम! एही डिजेन के पर्दा रास्ट्रपति भवन में लागल रहे, हमार बाउजी बनईले रहनी ई परदा. हमार राजिंदर बाबू खुदे बनवईले रहनी.
मुझे यह देख बहुत दुःख हुआ कि आज वह कला जिसने यह उत्कर्ष देखा था, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है. खैर आशा थी कि भविष्य तो उज्ज्वल ही होना है क्योंकि कुछ देर से ही सही लेकिन हैण्डलूम की अहमियत लोग समझने लगे हैं. वहां हमने कुछ बुनकरों से उनका मोबाइल नंबर लिया और अपने लिए दस साड़ियों का ऑर्डर भी दिया. 
इसके बाद हम अगले पड़ाव के लिये निकल गए. जहाँ आदित को अपने दोस्त अमित से मिलना था. मेरे लिए राहत की बात यह थी कि मेरे झूठ से विचलित आदित का मूड भी अब तक कुछ ठीक हो गया था.
रास्ते में आदित ने कहा, “पता है हम कहाँ जा रहे हैं. ये सरप्राइज है तुम्हारे लिये. वहां जाकर तो तुम ख़ुशी से बौरा ही जाओगी.”
“अच्छा! ऐसे कहाँ जा रहे हैं हम? अमित जहाँ काम करते हैं उसी इंस्टिट्यूट में ही न. वैसे क्या नाम है उसका?” 
आदित की आवाज में अनमनापन नहीं उत्साह पाकर यह पूछते हुए मेरे मन में उस रात के बाद से पहली राहत की साँस आई. उनके गुस्से से मेरे यूँ हमेशा शंकित रहने से वे नाराज होते हैं लेकिन उनकी आवाज का अनमनापन ही मुझे शंकित रखता है इसका अहसास उन्हें नहीं होता. 
“परिवर्तन” आदित की आवाज में बसंत आने सा उत्साह था.
“परिवर्तन! नाम तो अच्छा है वैसे ये क्या परिवर्तन ला रहा है?” मैं उनकी आवाज का यह उत्साह और जीना चाहती थी.
“जाकर ही देखना वैसे यहाँ ग्रामीण युवाओं के कौशल विकास का काम होता है, बच्चों के सर्वांगीण विकास का कार्य होता है, किसानों को खेती के वैज्ञानिक तरीके सिखाये जाते है, नुक्कड़ नाटकों के जरिये जन चेतना का विकास होता है और भी बहुत कुछ. अरे कह तो रहा हूँ कि परिवर्तन देख तुम बौरा जाओगी.”
मैं परिवर्तन को लेकर वाकई उत्सुक हो आई. मैंने पूछा,
“वहां अमित क्या करते हैं?”
“वो वहां ग्रामीण महिलाओं के कौशल विकास के लिए काम करते हैं. उन्हें सिलाई सिखाते हैं और उनके लिए काम ढूंढते हैं. वे फैशन वर्ल्ड के काम को गाँव तक और गाँव के काम को फैशन वर्ल्ड तक पहुँचाना चाहते हैं.” आदित की आवाज में ऐसा उत्साह था जैसे यह नेक काम वो खुद ही कर रहे हों.
“अच्छा तब तो दुकान के लिये भी कुछ और चीजें देख सकते हैं हम. क्यों न बावन बूटी के परदे भी हम यहीं से बनवा लें.” 
अर्जुन की नजर चिड़िया की आँख पर. मैंने भी अपने मतलब की बात ही सोची. मैं अपनी दुकान को हथकरघा की साड़ियों और रेडीमेड ड्रेसेस के साथ इंटीरियर्स डेकोरेशन के आइटम्स आदि के लिए भी खोल देना चाहती थी. ये भी एक पंथ दो काज वाला मौका लगा मुझे. 
परिवर्तन के मुख्यद्वार से अन्दर घुसते ही एक सकारात्मक उर्जा का अहसास हुआ. मैं गेट से अन्दर घुसते ही बाई ओर पाम के पौधों का घना झुरमुट था. सामने करीने से कटी बाड़ राह बना रही थी. इसी राह से सामने अमित आते दिखे. फूलों सी निश्छल मुस्कान वाले अमित के चेहरे में भी यही सकारात्मक उर्जा मिली. 
“बहुत देर हो गई आप लोग को आने में?” 
“हां! बासवानबीघा से तो जल्दी ही निकल गए थे. फिर भी.”
उनकी बातों के बीच मेरी नजर ऊपर चली गई. ऐसा तारों भरा चमकता आसमान शहरों में नसीब नहीं होता. आसमान में षष्ठी का चाँद अपनी मुस्कान बिखेरता मिला. रात ने अपनी तारों जड़ी चुनरी लहरा मेरे बदन में थकान और आँखों में नींद भर दी. 
“बहुत थक गए होंगे आप दोनों. रामू साहब का सामान कमरे में ले जाओ. आप दोनों हाथ-मुंह धो आइये. खाना तैयार है. उसके बाद ही आराम कीजिये.” 
खाने का समय निकलने को था. हम जल्दी ही तैयार हो कर निकले. गेस्ट हॉउस के सामने ही अमित इंतजार करते मिले. हम टहलते हुए परिवर्तन के परिसर का सोलर लैम्प्स की दूधिया रौशनी में अनुमान लगाते हुए भोजनकक्ष तक पहुँच गए. टहलते हुए हमने बाहर से ही ओपन हॉल देखा, बच्चों का कक्ष देखा, कृषि कक्ष देखा. खाना खाते हुए अमित ने आदित से पूछा,
“आगे का क्या प्लान है?”
“बस कल दोपहर तक सिवान चले जायेंगे. कल वहां काम है फिर परसों छपरा. उसी दिन शाम को ट्रेन से वापसी.” आदित ने रूट चार्ट सामने रख दिया.
अमित ने हँसते हुए कहा, “ इतनी जल्दी…?अभी तो आपसे सिलाई का एक बड़ा आर्डर भी लेना है मुझे.” 
हम हंस पड़े. फिर मेरी ओर मुखातिब होकर अमित ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा,  “आप लोग कल शाम को सिवान मत जाइये. यहाँ कल रात फाग का आयोजन है. उसे जरूर देखिये, बल्कि मैं तो कहता हूँ कि आदित तुम परसों यहीं से सिवान होकर छपरा चले जाना.” 
आदित को भी ये प्लान पसंद आ गया. बाहर की बासंती बयार भी खुश हो कर हमसे लिपटने अन्दर भोजन कक्ष में चली आई.  
फिर बातों की राह आदित और अमित की कॉलेज की यादों की ओर मुड़ गयीं. थकान के बावजूद हमनें खाने में बातों, यादों, सरसों तेल की तीखी खुशबू और घी के स्वाद से सराबोर लिट्टी-चोखा का जमकर आनंद लिया.
रात जब बिस्तर पर लेटी, तो चाँद खिड़की में गुलमोहर की हरी पत्तियों के बीच से झांक रहा था. हवा के झोंकों से हिलती पत्तियां मुझे थपकियाँ देने लगीं. मैं अपनी नींद की नदी में बहने लगी. शायद थकान का असर था, सुबह देर से नींद खुली. तुरंत ही अमित का सन्देश मिला- जल्दी ही भोजनकक्ष में पहुँचने का.
सुबह की सुनहरी रोशनी में परिवर्तन का परिसर अपने हरे-भरे रूप में सामने दिखा. सूरज ने परिवर्तन के नाट्य मंच से अँधेरे का पर्दा हटा दिया था. हमने नाश्ते में दही-चूड़ा खाया. फिर परिसर घूमने निकल गए.
परिसर में कतार से कुछ बड़े-बड़े कक्ष बने हुए हैं. हम एक के बाद एक कक्ष घूमने लगे. हमने देखा कि कहीं हॉउस कीपिंग का प्रशिक्षण चल रहा है तो कहीं फ़ूड एंड ब्रेवरेजेस का, एक हॉल में महिला सहायता समूह की महिलायें मानसिक और आर्थिक शक्ति अर्जित करने तैयार होती दिखीं. कहीं किसान खेती के आधुनिक तकनीकों से लैस होते दिखे तो एक जगह बच्चों का कविता पाठ कुछ देर हमने रुक कर सुना. एक हॉल में बहुत से छोटे-छोटे बच्चे खेलते दिखे. एक पुस्तकालय देखा, जहाँ गाँव का कोई भी आ कर पढ़ सकता है. एक हॉल में कंप्यूटर सीखते बच्चे दिखे. बड़े से परिसर के एक कोने में बच्चों के खेलने के फिसलपट्टी, झूले आदि तरह तरह के साधन रखे दिखे. पता चला कि परिवर्तन का यह कोना शाम को गाँव भर के बच्चों से गुलजार होता है. एक ओर नुक्कड़ नाटक का अभ्यास चलता दिखा. पात्र अभिनीत करते बच्चों के चेहरे आत्मविश्वास से दमक रहें थे. इस मंजे अभिनय के आत्मविश्वास की दमक में हम वहां कुछ देर ठिठक गए. कुल मिला कर परिवर्तन का परिसर घूम, वहां हो रहे काम देखकर मन का हैंडलूम, पॉवरलूम की गति से खुशियाँ बुनने लगा.
हम परिसर घूम कर सिलाई प्रशिक्षण केंद्र में गए. वहां लगभग पच्चीस औरतें वहां एक हॉल में लगी मशीनों में बैठी बुनाई का काम कर रही थीं. उनके काम की सफाई देख मैंने बासवान बीघा में देखे राष्ट्रपति डिजाईन कपड़े के पांच अलग-अलग पैटर्न के पचास परदे सिलने का आर्डर दे दिया. सिलाई करती महिलाओं में से दो-तीन महिलायें बुर्का पहने बैठी थी. यह बुर्का मुझे फिर हमारे बीच कलह का कारण बने उस आयत खुदे टुकड़े के पास ले गया. मैंने उसे निकलवा देने का संकल्प एक बार फिर से मन ही मन दोहरा लिया. 
ढलती दोपहर में खाने का आनंद उठाने के बाद, हम वहां रंगमंच में नुक्कड़ नाटक की तैयारी कर रहे बच्चों को देखने लगे. ये बच्चे भिखारी ठाकुर की कहानी पर बेटी बेचवा नाटक की तैयारी कर रहे थे. जितना सहज उनका अभिनय था उतनी ही सहजता से उन्होंने हमारी उपस्थिति भी स्वीकार ली. कुछ ही देर में उनसे दोस्ती हो गई. मुझे ये बच्चे बड़े प्यारे और कुछ कर गुजरने के उत्साह से भरपूर लगे. नाटक का अभ्यास ख़त्म होने के बाद जब वे जाने लगे, आदित ने उनसे पूछा,
“अपना गाँव घुमाओगे हमें.” उनकी आंखों के जुगनू चमक उठे. हम उनके साथ गाँव घूमने निकल पड़े. 
“दीदी चलिए पहले मेरे गाँव.” एक बच्चे ने कहा
मेरी नजरें आदित की ओर उठीं फिर हमने मुस्कान के साथ सहमति दे दी. सड़क पर पैदल चलते यूँ लगा कि सरसों की पीली चुनरी ओढ़े वसुंधरा के काली चांदी के मांग टीके पर हम तितलियों से उड़ते फिर रहे हैं.
“क्या नाम है तुम्हारे गाँव का?” मैंने यूँ ही पूछा
“बाबु भटकल” मेरे लिए ये नाम कुछ अजीब सा था मैंने पूछा 
“इसका मतलब”
“बाबुओं का गाँव.” मेरे चेहरे में अब भी असमंजस था जिसे पढ़ उसने स्पष्ट किया.
“दीदी यहाँ ठाकुरों को बाबू कहते हैं.”
अच्छा तो ये क्षत्रियों का गाँव है दूसरी जाति के लोग यहाँ रहते हैं या नहीं?.” 
“ना सिर्फ बाबू लोग. एक-दो ही दूसरी जाति के लोग हैं.”
अब तक हम सड़क को छोड़ कर गाँव की पगडंडी में उतर चुके हैं. संकरी सी पगडंडी में हाथ बढ़ा कर सरसों को सहलाते हम आगे बढ़ते गए. आगे एक गाँव मिला.
एक बच्चे ने कहा, “ये नरेन्द्रपुर है.”
कुछ और आगे गए तो वसुंधरा ने अपनी पीली चुनरी समेट ली. वसुंधरा के वसन अपर उभर आई- घरों की ज्यामितीय आकृतियाँ. सामने एक दीवारों से घिरा हरे आयल पेंट से चमकता हरा अहाता दिखा. 
मैंने पूछा, “ये क्या है?”
“ये शेख बूढ़न की मजार है. माने हुए पीर थे.” 
एक ने श्रध्दा से जवाब दिया. सब ने वहां से गुजरते हुए अपनी ऑंखें बंद कर हाथ जोड़ लिए. 
अहाते के अन्दर एक मजार बनी हुई दिखी. शेख बूढ़न की मजार पर लाल चादर चढ़ी है. कुछ ताजे फूल रखे हैं. अगरबत्ती और लोभान से निकलते धुंए की खुशबू आशीर्वाद के रूप में गाँव में छा रही थी. एक हिन्दू गाँव में शेख बूढ़न की मजार. वो भी इतनी मानी हुई. अगरबत्ती और लोभान की खुशबू का अहसास अंतर्मन में उतरने लगा. मन में कुछ राहत का अहसास हुआ. लेकिन ये अहसास गूंगे के गुड़ सरीखा अहसास था. मेरी चोर नज़रों ने जाने क्यों एक बार आदित को ताका. उनकी आँखों में भी श्रध्दा ही तो थी पर जाने क्यों चेहरा मुझे बेहद कठोर सा लगा. जाने ये मेरे मन का वहम है या…
हम बाबू भटकल की ओर आगे बढ़े. बच्चों के उत्साह का कोई ठिकाना नहीं था… मेरे भी… वे गाँव की हर एक चीज से हमारा परिचय करा देना चाहते थे. मैं भी अपनी रूचि की चीजों का परिचय पा लेना चाहती थी. मैंने सरसों के खेतों के किनारे लगे भांग के पौधे देखे, पाकड़ का पेड़ देखा, सरसों के साथ सेल्फी ली. घरों के बाहर बांस की बनी अनाज रखने की झोंपड़ीनुमा व्यवस्था देखी. जिसके सामने एक हीरामन की बैलगाड़ी के सामान बैलगाड़ी खड़ी हुई थी. इस दृश्य को कोसे की साड़ी में उकेरने का सोच एक स्केच भी बना लिया. अब वापसी का सफर था. बच्चों की बातें भी अब ख़त्म होने लगीं थीं. 
मैं उनसे उनकी पढाई, घर-परिवार के बारे में पूछने लगी. मैंने सब बच्चों का नाम दोहराये. सारे नाम सही-सही याद हैं मुझे. गाँव में बहुत से बड़े-बड़े घर थे लेकिन बंद पड़े हुए, कुछ घर खँडहर हो रहे थे. 
“अधिकांश घर बंद क्यों हैं?” मेरे मन के प्रश्न का मेंढक फुदक कर बाहर आ गया.
“दीदी ये सब बाहर कमाने बाहर गए हुए हैं…सउदिया भी ” 
“यहाँ से सऊदी अरब?” मुझे आश्चर्य हुआ. “कभी आते हैं?”
“हां कभी-कभी.”
एक एकदम जर्जर घर दिखा जिसकी छत पर खरपतवारों का जंगल सा था. दीवारों पर उगे दो-एक बरगद-पीपल के पेड़ों की जड़ें छत से जमीन छूने लगी थीं. मन में अनायास आया कि जिनके ये घर थे उनके नौनिहालों को पता भी होगा कि उनकी जड़ें कहाँ जमी हुई हैं? मुझे अचानक बचपन में बनाये वंशवृक्ष की याद आ गई. मैंने भारी होते मन को हल्का करने सुमित से यूँ ही पूछा,
तुम्हारे पिता का नाम क्या है?
‘श्री भगवान सिंह”
“तुम्हारे दादा का नाम पता है” 
“श्री गणेश शंकर सिंह”
फिर मैंने सबको संबोधित करते हुए कहा “अच्छा ये बताओ कि आप सब को अपने सबसे बुजुर्ग में किसका नाम पता है?” 
मेरे विचार से मैंने उन्हें परदादा या उससे भी पहले की पीढ़ी का नाम बताने का कठिन काम दिया था. लेकिन जवाब में कोई असहजता नहीं आई. सब ने एक-एक नाम गिना दिए. एक गाँव के बच्चों से एक ही नाम आया. मैं चौंक गई कि क्या ये सभी एक ही परिवार के वंशज हैं लेकिन उससे भी अधिक चौंकी सुमित और दो अन्य बच्चों के जवाब पर. उन्होंने कहा,
“श्री फारुख शेख” 
 ‘सुमित’ के बुजुर्ग ‘फारुख’? मैं अपनी उत्सुकता रोक न सकी मैंने तत्काल पूछ लिया. अच्छा तो फारुख जी तुम्हारे कौन हैं? परदादा या…?
“नहीं वे मेरे परदादा नहीं वे तो गाँव के सबसे बुजुर्ग हैं.” सुमित का सीधा सरल सा जवाब आया. जिसने मुझको घुमा दिया. 
पूरा गाँव इनके लिये परिवार है? हां शायद इसीलिए सुमित के बुजुर्ग फारुख हैं. गाँव के सबसे उम्रदराज आदमी. जैसे मई की गर्म-धूप भरी दोपहरी में प्यास के कांटे चुभते गले को आम पना की तरावट मिल गई. ठीक इसी वक्त मन में प्रश्नों की नागफनी के कांटे भी चुभे.
दूसरों में ये सद्भाव कितना अच्छा लग रहा है न? लेकिन खुद को ऐसा कुछ करने को कहा जाये तो? तुम मानोगी अपने पडोसी को अपना परिवार? रखोगी वह आयत खुदा आयताकार टुकड़ा? जिसे तुमने विधर्मी टुकड़ा नाम दे दिया है. बोलो… बोलो न. मन का पपीहा उत्तर पाने चीखने लगा… लगातार…बार-बार…
लौटते हुए मन का रेगिस्तान तप रहा था, जबकि अपना तपना छोड़ लाल-नारंगी सूरज आँखों को आराम देने लगा था. सड़क से दूर छिंद के कुछ पेड़ हवा में लहरा कर हमें बुलाते लगे. मैंने आदित से कहा. हम उधर ही बढ़ गए. सामने तालाब था. स्वच्छ दर्पण सा पानी जिसके किनारे ये छिंद के पेड़ खड़े थे. तालाब के दूसरे छोर में सूरज डुबकी लगाने की तैयारी में था. एक सम्मोहन सा फैला था उस वातावरण में. हम तालाब किनारे बनी पचरी पर बैठ गए. हवा हौले-हौले हमें सहलाने लगी. तालाब के शीतल जल की शीतलता पाकर मन को थोड़ी शांति मिली.
कितने देर बैठ सकते थे वहां, आखिर वापसी के लिए उठ गए. तालाब की पचरी से ऊपर चढ़े तो पाया कि बाजू में ही एक मंदिर है. मंदिर की दीवारों पर चेलियाँ बंधी हुई थी. मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा था. मजदूर अपना काम ख़त्म कर शायद हाथ मुंह धोने इधर तालाब की ओर ही चले आ रहे थे. हम मंदिर में घुसे तो पीछे से आवाज आई, 
“बबुआ मंदिर के गर्भगृह में नहीं जाना, आज ही फर्श बना है.”
हमने बाहर से ही दर्शन कर लिया, परिक्रमा की, मंदिर की दीवारों पर की गई पच्चीकारी देखी. वापसी के लिए निकले तो वे सब अपना सामान लेने मंदिर के अहाते में खड़े मिले. काम के कपड़े बदल कर घर जाने को तैयार. उनमें से कई के सिर पर सफ़ेद जालीदार टोपी लग चुकी थी. मेरे लिए तो ये एक बहुत बड़ा झटका था. शायद आदित के लिए भी तभी उन्होंने एक सफ़ेद टोपी वाले लड़के से बात शुरू कर दी.
“हम नरेन्द्रपुर घूमने आये हैं. आप किस गाँव के हैं?”
“मियां के भटकन” उसने आदित और मेरे मन की उथलपुथल से अनजान रहते हुए सहजता से जवाब दिया.
“यहाँ क्या हो रहा है? मंदिर का जीर्णोद्धार? कितना पुराना मंदिर है यह?” आदित ने कई प्रश्न एक साथ पूछ लिये.
“हां बाबू! मंदिर बहुत पुराना हो गया है तो टूट-फूट हो गई है. ये मंदिर करीब चार सौ साल पुराना होगा.”
“आपका नाम क्या है?” आदित के मन की बात अब जबान पर आ गई.
“सलीम …सलीम खान नाम है मेरा.”
यह सुन आदित ठगे से रह गए. मैं भी. शायद सुमित ने इस बात को समझ लिया. वो बोल उठा. “क्या भैया आप मंदिर में सलीम भैया को काम करते देख हैरान हैं क्या?”
आदित से कोई जवाब देते नहीं बना. सुमित ने आगे कहा,
“यहाँ का कोई मंदिर सलीम भैया के बिना नहीं बनता. भैया इतने सुन्दर डिजाइन बनाते हैं जैसा कोई नहीं बना सकता.”   
आदित ने खुद को सम्हालते हुए कहने की कोशिश की लेकिन सम्हाल नहीं सके. वह कह उठे , “हां थोडा अजीब लगता है न.”
सलीम और सुमित दोनों हंस पड़े. सलीम ने कहा, 
“बाबू हम राजगीर हैं. अब मंदिर बनाना हो या मस्जिद. हमको तो अपने रोजगार से मतलब है. पेट तो उसी से भरता है.” 
यह कहते हुए सलीम आगे बढ़ चुके अपने साथियों की ओर बढ़ गये. हम भी दूसरी दिशा में बढ़ गए. मेरे मन में विचारों की रेलमपेल भी बढ़ गई. उसने सच ही तो कहा. दुनिया का सबसे बड़ा सच भूख ही तो है. मैंने आदित की ओर फिर से चोर नजर से देखा. मन जानना चाहता था कि आदित के मन में क्या चल रहा है. मन भले उर्वर हो लेकिन लड़कों का चेहरा तो बंजर जमीन सा होता है जिसमे जल्दी से कोई भी भाव नहीं उग पाते. मुझे भी आदित के चेहरे में कुछ नहीं मिला.    
यहाँ से हम वापस परिवर्तन चले आये. शाम के नाश्ते में चूड़ा-मटर और धनिया मिर्च की इमली वाली चटनी का आनंद उठा पहुँच गए मुक्ताकाश मंच पर. जहाँ फाग की तैयारियां जारी थी. ऊपर चाँद अपनी चांदनी बिखेर रहा था. नीचे मंच पर दरी के ऊपर सफ़ेद साफ़ शफ्फाक चांदनी बिछी हुई थी. फाग गाने के लिए बारह-पंद्रह गाँव वाले एकत्र हुए थे. अधिकांश उम्रदराज लोग थे. कुछ परिवर्तन के रंगमंच समूह के बच्चे भी थे. अधिकांश बुजुर्ग लोगों ने मटमैला कुरता और धोती पहनी हुई थी. कुछ ने रंगीन कुरता और मटमैली धोती, कुछ ने मटमैले कुरते के साथ चारखाने वाली लुंगी पहनी हुई थी. सबके गले में एक गमछा जरुर था. बच्चों की पोशाक आधुनिक चलन के अनुसार थी. वे सब टी-शर्ट और लोअर पहने हुए थे.  
फाग गायन शुरू होने को था. सफ़ेद चांदनी के बीच में रखा गया एक ढोलक केंद्रबिंदु बन गया. हमारे बैठते ही उन सब ने भी अपनी जगह सम्हाल ली. ढोलक सम्हाली एक बुजुर्ग ने जो उम्र और पहनावे दोनों से ही बहुत जीर्ण लग रहे थे. कुछ बुजुर्गों ने ताली, झाल, खंडजा सम्हाल लिये बाकि बुजुर्गों और बच्चों के पास उनकी हाथ की हथेली का वाद्य यंत्र था ही. 
इसके पहले होली पर दूर कहीं से नगाड़ा की आवाजें और कुछ गाने की आवाजें सुनते आई थी लेकिन पास से मैं पहली बार ही फाग गायन सुनने वाली थी. फाग गायन शुरू हुआ. 
मिथिला में राम खेलथी होली… मिथिला में…
मिथिला में राम खेलथी होली… मिथिला में…  
फाग मेरे आसपास हरसिंगार के फूलों की तरह बिछ गया और मन किसी फूलचहकी चिड़िया सा फाग के रस का पान करने लगा. फाग के बोल फागुन की हवा में बसी खुनक की तरह मेरे अन्दर उतरने लगे. बच्चे-बूढ़े-युवा सभी फाग रस की चाशनी में पगे हुए से लग रहे थे. फाग गाते हुए वे आपस में एक-दूसरे को देख मुस्कुरा देते, कभी अपनी आवाज में जोश भर सामने वाले को भी जोश में भर जाने को उकसाते. ढोलक वाले के भाव अद्भुत थे. वह कभी एक के साथ जुगलबंदी करता लगता, तो कभी दूसरे के साथ. जैसे कोई फूलों भरे हरसिंगार के पेड़ को एक बार कस के हिलाये, दो सेकंड रुक के फिर एक बार हिलाये और फिर बिना रुके लगातार तेजी से हिलाने लगे. वैसे ही अचानक वे और अधिक जोश में भर कर अपने शरीर को रुक-रुक कर झटके देते हुए तेजी से गाने लगे… 
मिथिला में हो… मिथिला में हो… मिथिला में हो… मिथिला में हो हो हो…     
मिथिला में राम खेलथी होली मिथिला में…
उनके हाथ की ताली, झाल, खंडजा, ढोलक सब तीव्र गति से बजने लगे. गाने के गति तेज हो गई जैसे कोई मंथर मैदानी नदी, अचानक चंचल पहाड़ी नदी में बदल जाये जैसे उन्हें फ़ास्ट फारवर्ड कर दिया हो. जैसे मंजिल के करीब पहुँचने के उत्साह में चाल में तेजी आ गई हो. फाग के उमंग उत्साह में वे उठ-उठ जाते. अपने सर को लयबद्ध झटके पे झटका देते. हर आरोह के बाद एक दूसरे को देख गाते-गाते मुस्कुरा उठते जैसे किसी कठिन चढ़ाई को सफलता पूर्वक पार कर लिया हो. ऐसे कई आरोह पार कर उन्होंने फाग का वह प्रथम पद गायन पूर्ण कर लिया. इसके अंत में जोशोखरोश भरी आवाज में सबने जोर से कहा-
“सियावर रामचंद्र की जय.”
तब हम सब भी खुद को उनके साथ ‘सियावर रामचंद्र की जय’ कहने से नहीं रोक सके. पद ख़त्म होते ही मैंने आसपास नजरें फिराई. फाग गायन के शुरुवात में ही हम सब के चारों ओर फाग की उमंग, उत्साह, मस्ती, खुमारी का समुद्र हिलोरें लेने लगा था. मैंने कनखियों से आदित की ओर देखा. आदित भी इसी समंदर में डुबकियाँ लगा रहे थे. 
तभी दूसरा पद शुरू हुआ और मैं फिर उसी में डूब गई. तीन चार पद सुनने के बाद हम दर्शकों में से एक ने उनसे फरमाइश की कि वे बागबान फिल्म का मशहूर फाग वाला गाना सुनाएँ. यह गाना था- 
‘होली खेले रघुबीरा अवध में…होली खेले रघुबीरा…’
उन बुजुर्गों ने शायद गाना सुना नहीं था या सुना भी था तो उन्हें इसे गाने का अभ्यास नहीं था. वे समझ नहीं पा रहे थे. पहले मुझे आश्चर्य हुआ फिर लगा कि वैसे भी ये गाना अवध क्षेत्र का होगा इसलिए मिथिला क्षेत्र के बुजुर्गों के लिए इससे अनजान होना कोई बड़ी बात नहीं. बच्चों के चेहरे में गाने की पहचान उभरी हुई थी, लेकिन वे तो बस साथ दे रहे थे. बच्चे अपनी परंपरा छोड़ नहीं बैठे हैं यही बहुत था. 
तभी अमित ने उनमें से किसी को संबोधित करते हुए कहा, “असलम जी रउवा त गाइए लेब, बस खाली सुरु करीं.”
फाग गाने वालों में से एक ने कहा, “पूरा पद एक बेर बोलीं.” 
मतलब वे ही ‘असलम’ हैं.
मेरे मन की सिलाई मशीन की सुई मन को धड़-धड़ छेदने लगी. 
ये असलम हैं! ये असलम हैं!
जिन्होंने फरमाइश की थी, उन्होंने पद दोहराया,
“होली खेले रघुबीरा अवध में, होली खेले रघुबीरा…”
असलम जी ने अपने आसपास वालों को कुछ कहा, दूर वालों को कुछ इशारा किया, वे सब हिचक रहे थे. लेकिन बच्चे तो तैयार ही बैठे थे.. इस पद से अनजान असलम जी ने तुरंत ही एक धुन पकड़ कर गाना शुरू कर दिया. बाकि लोगों ने उस धुन को पकड़ लिया. 
होली खेले रघुबीरा, अवध में… होली खेले रघुबीरा….
अवध में हो…अवध में हो….अवध में हो…अवध में हो हो हो हो …
होली खेले रघुबीरा अवध में …
अब मैं फाग की उमंग, उत्साह, मस्ती में नहीं बह रही थी, मुझे फागुन की खुनक का अहसास भी नहीं हो रहा था, बोल मेरे अंदर उतर नहीं रहे थे. वे जड़ हो गए थे. बिलकुल किसी पत्थर की मूर्ति की तरह. एक लहर सी मन में उठी, जो बर्फ सी जम ही गई, जिसने मुझे जमा दिया. मुझे ताली, ढोलक, खंडजा की आवाजें नहीं आ रहीं थी. मुझे सिर्फ और सिर्फ असलम दिख रहे थे.
‘होली खेले रघुबीरा…’ गाते हुए.
‘सियावर रामचंद्र की जय’ कहते हुए
मैं उनमें और बाकि सब में अंतर ढूंढने लगी. मुझे कोई अंतर नहीं दिखा. मुझे याद आया, किसी फिल्म का दृश्य जिसमें नायक एक हिन्दू और एक मुस्लिम के खून को अपनी हथेली में मिलाने के बाद पूछता है कि बताओ कौन सा हिन्दू का खून है और कौन सा मुस्लिम का. यहाँ बैठे सब के चेहरे मुझे बस गांववालों के चेहरे दिख रहे हैं. वहीँ समय की धूप से तपे, मेहनत के पसीने से सीझे चेहरे. वही एक सा कुरता वही गमछा… मुझे एक अंतर समझ आया. असलम मियां ने चारखाने की तहमद पहनी थी एक और सज्जन ने भी, बाकि सब धोती वाले थे. मन ने कहा कि ये सज्जन भी जरूर मुस्लिम होंगे. 
मुझे धोती और तहमद का अंतर समझ आया, लेकिन पापा भी तो पहनते हैं लुंगी. ये तो अपनी-अपनी सुविधा और आदत की बात है. लेकिन देखो! मैं ही तहमद और लुंगी दो शब्दों का उपयोग करने लगी. अभी तो फाग शुरू होने के पहले सुना था कि अमित ने इस लोअर, टी-शर्ट पहने लड़के को अपने पापा को बुला लाने को कहा था और वह असलम मियां को बुला लाया था. मतलब यह लड़का भी…नई पीढ़ी में तो कपड़ों का अंतर  भी नहीं…
मेरी नजर उस लड़के और असलम मियां पर जम के रह गई. असलम मियां गा रहे थे … मेरी आँखें उन्हें देख रही थी… मेरा दिमाग उन्हें आवाज में बदल रहा था…तभी मेरे दिमाग ने दोहराया-
“सियावर रामचंद्र की जय.” 
ये मेरे दिमाग ने नहीं, असलम जी ने कहा था. बाकि सब के साथ, उसी जोश और जूनून के साथ, उसी उत्साह और उमंग के साथ. यहाँ तो खून निकाल कर दिखाने की भी जरुरत नहीं. ऐसे भी कोई नहीं बता सकता कि ये सब जो गा रहे हैं 
“होली खेले रघुबीरा अवध में …,”
अंत में जयकारा लगा रहे हैं “सियावर रामचंद्र जी की जय…’
इनमें से कौन हिन्दू है और कौन मुस्लिम. ये तो कोई भी नहीं बता सकता. कोई भी नहीं.
मेरे मन में कुछ अब तक सिर्फ पुस्तक में पढ़े शब्द गूंजने लगे- ‘भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति,’
मुझे महसूस हुआ कि ये सब नहीं जानते कि इनका धर्म क्या है? साझा संस्कृति क्या है? इन्हें अपनी साझा आवश्यकताओं से मतलब है. बस इन्हें पता है कि इनके जीवन जीने का तरीका थोडा अलग है. ये उस अलग तरीके का सम्मान करते हैं और जीने में एक-दूसरे का साथ देते हैं. ये मिलजुल कर खेती करते होंगे. ये सत्यनारायण कथा में शामिल होते होंगे और ईद में सेवईयां खाते होंगे, ताजिये में जाते होंगे. शायद ये सब सदियों से साथ हैं इसीलिए उनके मन में एक दूसरे को छाया देने वाले बरगद उगे हुए हैं. ये है असली सर्व धर्म समभाव. जो हमारी गंगा और जमुना के किनारे बसी सभ्यता में बसा हुआ है जहाँ नदियाँ भी हमारी साझा संस्कृति बन गई हैं. 
मेरे मन में छुपा एक चोर मुझसे पूछने लगा,
“क्या तुम उस आयत खुदे आयताकार टुकड़े को वापस जाकर निकलवा दोगी? कहाँ जायेगा फिर तुम्हारा यह गंगा जमुनी संस्कृति का सम्मान. तुम भी उसी कहावत को चरितार्थ करोगी-
“हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और” 
अब उस आयत खुदे आयताकार टुकड़े को निकलवाना मेरे लिये मेरे सोच के विरुद्ध जाना होने लगा. अब मैं इसे आज की याद, हमारी संस्कृति की, सहिष्णुता की याद के रूप में सहेज लेना चाहती हूँ. लेकिन मैं अब भी आदित के विरुद्ध नहीं जा सकती. 
इसके बाद के फाग गायन में क्या गाया गया, क्या सुनाया गया, मैंने कुछ नहीं सुना. मेरे मन में आदित की बातें, आदित की नाराजगी, उस छोटे से न दिखने वाले टुकड़े को निकालने का औचित्य घूमता रहा. इस सुरमई सांध्यबेला में मेरे कानों से मेरे मन में जो उतरा, वह था उनका अंतिम पद के गायन के बाद भरपूर उत्साह में कहा गया,
“सियावर रामचंद्र की जय.”
अब मैंने तय कर लिया कि मुझे उस आयताकार टुकड़े को इसलिये नहीं हटाना है कि वह दूसरे धर्म का है. चाहे कोई कुछ भी बोले, जब तक वह दुकान मेरी है वह टुकड़ा अपनी जगह पर ही रहेगा. शहरों में अपनी जगह खोती इस गंगा-जमुनी तहजीब के सम्मान में. मैंने आदित को देखा. आदित भी ताली बजा रहे हैं. मेरी चेतना जागने लगी, उनके तर्कों के खिलाफ अपने हथियार पैने करने लगी.
रात जब हम परिवर्तन के सुन्दर-सुसज्जित गेस्ट हाउस में लेटे. जब मेरी नींद की मंथर मैदानी नदी ने पहाड़ी नदी का रूप अख्तियार नहीं किया था. जब नींद में बावनबूटी साड़ियों की लहरें उठनी शुरू नहीं हुई थी. तब मंथर बहती नींद की नदी में बहते हुए मैंने आदित की आवाज सुनी,
“सुनो! तुम अपनी दुकान में लगे उस आयत खुदे आयताकार टुकड़े को ऐसे ही लगे रहने देना.”  
मैं नींद में ही मुस्कुराई और आदित की बाँहों के तकिये में कुनमुनाते हुए सरक आई. अपने हथियार मैंने बेहद ख़ुशी से नीचे डाल दिये. आज मैंने अरसे बाद साड़ियों के अलावा कोई दूसरा सपना देखा. मैंने देखा कि गंगा-जमुना के संगम के धीर-गंभीर प्रवाह में सैकड़ों कश्तियां डोल रही है. इनमें से एक कश्ती हमारे स्वर्ग, हमारे जन्नत, हमारे देश के विकास की ओर बढ़ रही है. यह सबसे मजबूत, सबसे अच्छी, सबसे सच्ची कश्ती है. इस कश्ती में बहुत से लोग सवार हैं. बहुत से पीछे छूट गए हैं. कश्ती आगे बढ़ी चली जा रही है. आदित और मैंने ये कश्ती छोड़ते-छोड़ते पकड़ ली है. उस पर मोती की तरह सुन्दर, मोती से चमकते केसरिया, सफ़ेद, हरे और नीले अक्षरों में नाम लिखा है- साझा संस्कृति. इस कश्ती में एक सम्मोहित कर देने वाली धुन बज रही है – 
अगर स्वर्ग है कहीं… तो यहीं है… यहीं है… यहीं है…

2 टिप्पणी

  1. बहुत ही बढ़िया कहानी है, बहुत कुछ कहता बहुत कुछ समझाता। सुंदर शब्द व भावपूर्ण रचना,

  2. सचाई को आईना दिखाती हुई बेहद ईमानदारी से लिखी श्रद्धा थवाईत की कहानी पढ़कर मन हल्का हो गया. आशा की किरण मन में चमकने लगी.

    सीमा जैन की मर्मस्पर्शी कहानी ने सच को सच कहने की हिम्मत के सुखद परिणाम दर्शाए.

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