जल्दी-जल्दी सीढ़ियां पार करते जैसे-तैसे शोभा हिंदी डिपार्टमेंट के ऑफिस पहुँच ही जाती है। कहते हैं जब कोई बहुत ज़रूरी काम हो तो घर से समय से पहले निकलना चाहिए। वे तो घर से दो घंटे पहले ही निकली है। असिस्टेंट प्रोफेसर के इंटरव्यू के लिए। रस्ते का जाम, बस मिलने में देरी ने उसके दो घंटे का वक़्त अजगर के समान निगल लिया। सोचा था समय से पहले पहुँच कर किसी पेड़ के नीचे गरम कॉफ़ी पीयेगी। शांत मन से फिर इंटरव्यू देगी। जैसे सोचा था उसके विपरीत उसे चेहरे का पसीना पोंछने का समय भी नही मिला। इंटरव्यू शुरू हो चुका था। जाते ही उसका नाम पुकारा गया। धूल और धुएं से मलिन चेहरे के साथ वे रूम में दाखिल हुई। थकान से शिथिल चेहरे पर हल्की मुस्कान लिए। हाथ जोड़ सब का अभिवादन करते उसके होंठ कांप रहे थे।
विभागाध्यक्ष ने शोभा को सामने की कुर्सी पर बैठने का संकेत किया। एक दृष्टि उस पर डाली। दूसरी सरसरी-सी उसके डॉक्यूमेंट पर। फिर बोलीं-“अच्छा- अच्छा मिस शोभा! आपने उपन्यासों पर काम किया है। ज़रा रांगेय राघव के किसी आंचलिक उपन्यास का नाम तो बताइए।”
शोभा खामोश रही। दिमाग़ को कुछ खंगालती-सी। कुछ ही क्षण बीते होंगे तभी चौबे जी ने दूसरा सवाल दागा।
“ज़रा प्रताप सहगल जी के उस उपन्यास का नाम बताइए जो उनके जीवन पर आधारित है।”
शोभा-“…….”
“कृष्णा सोबती के स्त्री विमर्श संबंधित उपन्यास का नाम बताइए।” विभागाध्यक्ष लता ज्ञानेश्वरी ने एक अन्य प्रश्न उसकी ओर उछाला।
“जी मैडम मुझे पता है। ज़रा रुकिए।” दिमाग पर ज़ोर देती है। भयंकर उथल पुथल-सी मची है उसके दिमाग़ में। जवाब उसकी नसों के जाल में उलझ-सा गया है। किसी बेबस मछली की मानिंद। वे तो अभी पहले ही सवाल का जवाब ढूंढ रही थी। कुछ पल सब मौन रहता है। बेबस मछली सा जवाब मस्तिष्क के जाल से होता ज़ुबान पर आने के लिए जैसे ही फड़फड़ाता है।
“ठीक है आप जाइये। धन्यवाद” उसे बाहर जाने का संकेत कर दिया जाता है। वे भारी और थके मन से बाहर आती है। दिमाग मे अब भी बहुत कुछ कौंध रहा है।
बाहर आते ही अपनी बारी की प्रतीक्षा करती सविता के पूछने पर कि इंटरव्यू कैसा रहा। वह बोली- “कुछ बोल ही नही पाई।”
मलिन चेहरे पर पसीने की लकीरें सर्प राशि-सी बह चली हैं। गला सूख रहा था। शोभा ने ऑफिस में रखे वाटर कूलर से पानी का गिलास भरा। हल्के-हल्के घूंट पानी अंदर गया। उसकी तरावट ने एकाएक दिमाग की नसें सुलझती-सी प्रतीत हुई।
रांगेय राघव का आँचलिक उपन्यास- कब तक पुकारूँ।। प्रताप सहगल का उपन्यास- अनहदनाद।
कृष्ण सोबती का स्त्री पर आधारित उपन्यास- मित्रो मरजानी और दिलो दानिश।
“अरे! तुम्हे तो सब पता था। फिर अंदर क्यों नही बोल पाई सब। सविता को अचरज हुआ।
“मुझे भूसे से सुई निकालना नही आता। वो भी कुछ क्षण में। ये इंटरव्यू असल में भूसे से सुई निकालना है।” उसने फिर पानी का दूसरा गिलास भरा। मुंह से लगा गटागट गले से नीचे उतार लिया। लगा जो जवाब अब उसकी ज़ुबान पर आए उन्हें वापस अंदर धकेल रही हो।
एकाएक ऑफिस की घँटी बजी। सविता को अंदर बुलाया गया। अब वे भूसे से सुई निकाल रही थी।