सन् 1857 का विद्रोह,स्वतंत्रता संग्राम का आगाज़। बिहार में इसके प्रतिनिधित्व का श्रेय बाबू कुँवर सिंह को जाता है। लेकिन क्या सचमुच 1857 की क्रांति अनायास पारिस्थितिक उपज थी। तथ्य बताते हैं कि 1763 से 1856 ई॰ के बीच देश भर में अंग्रेजों के विरुद्ध चालीस बड़े विद्रोह हो चुके थे। ब्रिटिश सत्ता के विस्तार ने भारतीय समाज के हर तबके को कमोबेश आक्रोशित किया। चाहे वह नवाब हो या मामूली दस्तकार।
तत्कालीन समय में इस देश के (मूल निवासी) आदिवासी स्वयं को इस समाज से अलग मानते थे।अंग्रेजों ने न केवल उनका आर्थिक शोषण किया, वरन् उनकी आदिम सभ्यता–संस्कृति पर भी कुठाराघात किया। अपनी स्वायत्ता बचाने के लिए वे बगावत पर उतर आए। स्थानीय परिस्थितियों में उत्पन्न इनकी क्रांति के पैर अंग्रेज़ी चालों और हथियारों के आगे उखड़ते रहे, किंतु बार–बार पराजित होने की पीड़ा झेलते हुए जब–तब वे संगठित हुए और जुझारू संघर्ष किया। अंग्रेजों ने उनपर पाशविक अत्याचार किए। अंग्रेजों द्वारा पोषित भ्रष्टाचार व अत्याचारी कृत्य की प्रतिक्रिया में ये आदिवासी आक्रोशित हो उठे, जिसकी परिणति आंदोलनों के रूप में हुई।
अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ने आदिवासी क़बीलों के सरदारों को ज़मींदारों का दर्ज़ा दिया और लगान की नई प्रणाली लागू की। जिन्होंने स्वीकारा, वे हुकूमत के प्रिय पात्र बने, जिन्होंने इनकार किया, वे अंग्रेजों के वज्रपात के शिकार हुए। पी. सी. रॉय ने गैजेटियर में उल्लेख भी किया है :
“क्लीवलैंड की नीतियों और देय भत्तों को उत्तर के पहाड़िया सरदारों ने तो खुशी–खुशी स्वीकार कर लिया, लेकिन दक्षिण के सरदारों ने उस टुकड़े को बिलकुल ख़ारिज़ कर दिया।“
आदिवासी इलाकों में मिशनरियों की घुसपैठ को भी ब्रिटिश सरकार ने बढ़ावा दिया,जिसके विरुद्ध आक्रोश फूट पड़ा था। प्रसिद्ध इतिहासकार बिपिनचंद्र के अनुसार औपनिवेशिक घुसपैठ और व्यापारियों, महाजनों व लगान वसूलने वालों के तिहरे शासन ने आदिवासी समाज को बुरी तरह झकझोर दिया। यहाँ तक कि उनके कबीलाई सरदार और मुखिया भी शोषण से बच नहीं पाए। परिणामत: आम आदिवासियों के साथ ही उनके सरदार भी विद्रोह में शामिल हुए। और जातीय आधार एवं आदिवासी पहचान—- जैसे —पहाड़िया, संथाल, कोल, मुंडा, भील, खरबार, आदि के रूप में ख़ुद को संगठित किया। भागलपुर से राजमहल के बीच का ‘दामिन– इ– कोह’ नाम का चर्चित इलाका उस समय पूरी तरह उद्वेलित रहा, जो पहाड़िया जनजाति को अंग्रेज़ सरकार द्वारा ‘ज़मीन तुम्हारी तुम ही मालिक’ के रूप में बतौर तोहफा दिया गया, ताकि हुकूमत के खिलाफ़ विद्रोह कुंद पड़ जाय, एक सीमा तक यह हुआ भी, किंतु जो उग्र थे, उन्हें मार डाला गया। महेशपुर राजवंश की रानी सर्वेश्वरी एवं उनके समर्थक पहाड़िया सरदारों के लिए यही दमन–नीति अपनाई गई। प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के रूप में चर्चित तिलकामांझी उर्फ़ पहाड़िया सरदार जबरा क्रांतिकारियों के इसी वर्ग की नुमाइंदगी करता था।
पहाड़िया जाति को छिन्न–भिन्न करने के लिए संतालों के रूप में एक अन्य जनजाति को ‘दामिन–इ–कोह’ इलाके में बसाने की कोशिश शुरू हुई, ताकि उसे संरक्षित कर पहाड़िया को काबू किया जा सके। किंतु अंग्रेज़ों की यह बिसात भी उलटी पड़ी। कुछ समय के बाद ही संताल हुकूमत की क्रूरता के खिलाफ बगावत पर उतर आए। पहाड़िया के बाद संताल जिन सामाजिक–आर्थिक कारणों से विद्रोही बने, उसका वर्णन ‘कलकत्ता रिव्यू ’ में प्रकाशित इन पंक्तियों में मिलता है :
“जमींदार, पुलिस, राजस्व विभाग, और अदालतों ने संतालों पर बेइंतिहा ज़ुल्म ढाए। उनकी ज़मीन –ज़ायदाद छीन ली। हर क़दम पर संतालों को अपमानित किया जाता था। उन्हें मारा–पीटा जाता था। संतालों को कर्ज़ देकर पचास से पाँच सौ फ़ीसदी की दर से ब्याज वसूला जाता था। धनी और ताकतवर लोग जब मन में आता था, मेहनतकश संतालों को उजाड़ देते थे। उनकी खड़ी फसलों पर हाथी दौड़ाए जाते थे। यह अत्याचार आम बात हो गई थी। दिकू(ग़ैर आदिवासी) और सरकारी कर्मचारी भी संतालों की निगाह में अत्याचारी थे। ये लोग संताल से बेगार कराते थे। चोरी करना, झूठ बोलना और शराब पीना उनकी आदत–सी बन गई थी।“
1854 आते–आते संतालों के द्वारा खुले विद्रोह की तैयारी शुरू हो गई। 30 जून 1855 को भगनाडीह में चार सौ संताल आदिवासी गाँव के क़रीब छह हज़ार प्रतिनिधि इकट्ठा हुए। समवेत स्वर में विदेशी राज का खात्मा कर न्याय–धर्म का अपना राज स्थापित करने के लिए खुले विद्रोह का फैसला लिया। इसका प्रतिनिधित्व सिदो–कान्हू नामक दो सगे भाइयों ने किया। ‘संताल–हूल’ के नाम से चर्चित उस आंदोलन में लगभग 15 हज़ार संताल मृत्यु को प्राप्त हुए। सिदो–कान्हू को मौत के घाट उतार दिया गया। पौराणिक काल से अवस्थित राजमहल की पहाड़ियाँ रक्त–रंजित हो उठीं। एस. एस.एस.ओ. मूले ने संतालों के उस विद्रोह को ‘मुठभेड़’ की संज्ञा दी। वीरता और कुर्बानी की इस मिसाल को कार्ल मार्क्स ने ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम जनक्रांति’ कहा है। तत्कालीन समय में इन विद्रोहों की विराटता को अभिलेखों में दबाने की पूरी कोशिश की गई। इतिहासकार ‘हूल’ का नाम देकर शांत हो गए, किंतु इससे उनके कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। क्योंकि इतिहास महज घटनाओं और तारीखों को अंकित करने का विषय नहीं, इसका जन्म भावनाओं और विचारों से होता है। यह अलग विषय है कि कभी–कभी इतिहास अपने पन्ने पर भारतीय समाज की अटल सच्चाई को अंकित करना भूल गया या कि उन संवेदनशील घटनाओं के प्रति भी भावहीन रह गया।
स्व–अस्तित्व की रक्षा हेतु किया जानेवाला विद्रोह सच्ची क्रांति है। यदि भारत के मूल निवासी पहाड़िया जाति के अस्तित्व की बात की जाय तो उमाशंकर की पुस्तक में दिए गए संकेतों से ज़ाहिर होता है कि पहाड़िया समुदाय ने अंगराज कर्ण के शासनकाल में भी विद्रोह की आवाज़ बुलंद की थी। डब्ल्यू. जी. ओल्डहम ने सौरिया पहाड़िया को ‘शबर’ नाम दिया। समय के हाथों पहाड़िया राजा से प्रजा और प्रजा से लुटेरे बन गए। समय की काया में अनेक परिवर्तनों के बावजूद विद्रोह उनकी नियति बना रहा। मेगास्थनीज ने इन्हें ‘मल्लि’ संबोधित किया था। तथ्यों के अनुसार, प्रतापी राजा हर्षवर्धन का शत्रु शशांक जब भागकर पहाड़िया की शरण में आया तो पहाड़िया ने विरोध भुलाकर उसका हर्षवर्धन के खिलाफ़ साथ दिया। प्राचीन और मध्यकाल में पहाड़िया समुदाय राजपूतों एवं मुगलों के प्रति संघर्षरत रहा। मुगलकाल में हंडवा, गिद्धौर ,सकरुगढ़ ,पाकुड़, महेशपुर राज आदि जमींदारियाँ एक–एक कर हाथ से निकल जाने पर भी उन्होंने साहस नहीं खोया। अठारहवीं सदी में अंग्रेजों के खिलाफ़ मोर्चा संभालनेवाले अनेक सरदार, जैसे – रमना आहड़ी, चेंगरु साँवरिया ,सूरजा पहाड़िया प्रभृत सेनानियों की उपलब्धियाँ कुहरे में है। इन पहाड़िया वीरों ने मालंचा पहाड़ की तराई में मुगलों और अंग्रेज़ों से भीषण युद्ध किया था।
उधवा नाला भी अंग्रेज़ों के साथ हुए इनके भीषण संग्राम का गवाह है। किंतु इसके बावज़ूद भी इनके संघर्ष की न दशा बदली, न दिशा। 1833 ई. में अंग्रेजी हुकूमत ने नई कूटनीति के तहत संताल परगना के 1338 वर्गमील क्षेत्र,(भागलपुर से राजमहल तक का वन-क्षेत्र) जहाँ पहाड़िया आबादी सबसे अधिक थी, को ‘दामिन–इ–कोह’ घोषित कर पहाड़िया तथा कालांतर मेंसंताल जनजाति को प्रत्यक्षत: उपकृत करने और परोक्षत: दो जनजातियों में परस्पर फूट डालने और संतालों को अपनी ओर मिलाए रखने का प्रयास किया, किंतु यह कूटनीति आंशिक रूप में ही सफल हो पाई। अंग्रेज़ों के प्रति पहाड़िया विद्रोह रुका नहीं। अपनी स्वतंत्रता और अस्मिता की रक्षा के लिए विद्रोह करना पहाड़िया आदिवासियों का इतिहास रहा है। जब भी किसी विदेशी शक्ति ने उनपर हमला किया, उन्होंने खुलकर विद्रोह किया। अकबर के शासनकाल में भी पहाड़िया विद्रोह उग्र रूप में उभरा और गुरिल्ला–युद्ध पद्धति अपनाकर शाही सेना को परास्त भी कर दिया। सेनापति टोडरमल की सूझ–बूझ ने उन्हें शांति–संदेश में उलझाकर पराजित करा दिया दिया, फिर भी उन्होंने पराधीनता आंशिक रूप में स्वीकारी।
राजा मानसिंह जब बिहार आए तो राजमहल में अपनी राजधानी बनाई और पहाड़िया विद्रोह को दबाने से पहले बंगाल, उड़ीसा और छोटा नागपुर के उन समर्थकों का दमन किया, जो पहाड़िया को समर्थन दे रहे थे। मुग़ल सल्तनत पहाड़िया आदिवासियों को कभी पूरी तरह बाँध न सकी। पहाड़िया के कई संघर्ष खेतौरी सरदारों से भी हुए, जो मुग़लों की मदद कर रहे थे। पहाड़िया अतीत से जुड़े अनेक ऐसे स्थल हैं, जहाँ आज भी ऐतिहासिक साक्ष्य बिखरे पड़े हैं। उधवा नाला, लकड़ागढ़, गांदोराज, सुल्तानबाद बनाम महेशपुर राज और भागलपुर का तिलकामांझी चौक —- ऐसे स्थल हैं, जो पहाड़िया अतीत के जीवंत साक्ष्य हैं। 23 जून 1757 ई॰ में दगाबाज़ सेनापति मीर जाफ़र की वजह से बंगाल का नवाब सिराजुद्दौला अंग्रेज़ों से पलासी युद्ध हार गया और ब्रिटिश सत्ता की स्थापना की शुरुआत हुई, किंतु पहाड़िया विद्रोह होते रहे।
ताराचंद ने इस विद्रोह का उल्लेख इसप्रकार किया है : “ पलासी की लड़ाई के बाद ब्रिटिश कंपनी के विरुद्ध सन् 1764 में पहला विद्रोह खड़ा करनेवाला व्यक्ति बिहार–बंगाल का नवाब मीर क़ासिम था, जो अपनी मुहिम में असफल रहा। इसके बाद बंगाल (तब बिहार–बंगाल एक ही था) की पहाड़ी जाति एवं चुआर के विद्रोह हुए। यह आंदोलन लगभग तीस वर्षों तक चलता रहा। इसका क्षेत्र मेदिनीपुर (बंगाल),बिहार के पठारी इलाके एवं राजमहल की पहाड़ियों में संगठित था। किंतु यह विद्रोह भी असफल रहा।“
ये विद्रोह भले असफल हो गए हों, किंतु पलासी युद्ध के बाद भी अंग्रेज़ पहाड़िया की ओर से सशंकित हो उठे थे। 1763 ई॰ में उधवा नाला के युद्ध में अंग्रेज़ों ने जीत हासिल कर उधवा नाला पर कब्ज़ा भी कर लिया, किंतु उन्हें मन से गुलाम नहीं बना पाए और न ही उनकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगा पाए। लॉर्ड क्लाइव ने 30 सितंबर 1765 को कंपनी के डायरेक्टर के नाम लिखे गए पत्र में स्वीकारा कि
“निर्दयता और अत्याचारों का जो सिलसिला कंपनी के कर्मचारियों और उनकी आड़ में यूरोपीय एजेंटों तथा भारतीय उप एजेंटों ने शुरू किया है,वह इस देश में अंग्रेज़ों के नाम पर स्थायी कलंक रहेगा।“
सन् 1770 ई॰ में बंगाल – बिहार भीषण अकाल की चपेट में आ गया, इसमें लगभग एक करोड़ लोग मौत के मुँह में चले गए। पहाड़िया की माली हालत पहले से खराब थी, इस दुर्भिक्ष ने उन्हें लुटेरा बना दिया। वे न केवल पशुओं, फसलों, सम्पत्ति को लूटते, बल्कि राजमहल और तेलियागढ़ी होकर जानेवाले डाक कर्मचारियों तक को लूटकर उन्हें मार डालते। 1722 में नियुक्त बिहार–बंगाल का गवर्नर जनरल बारेन हेस्टिंग्स ने आठ सौ सैनिकों का एक दल तैयार कर कैप्टन ब्रुक के नेतृत्व में जंगल तराई में भेजा। कैप्टन ने आत्म–समर्पण करवाने के लिए पहाड़िया पर तोप से गोले बरसाए। फलत: पहाड़िया विद्रोह अपेक्षाकृत अधिक उग्र होता गया। कैप्टन ब्रुक ने बाद में नीति में परिवर्तन कर हत्या की जगह गिरफ्तारी शुरू की। गिरफ्तार स्त्री–पुरुषों से भद्र व्यवहार कर कंपनी ने उन्हें अपने विश्वास में लिया और पहाड़ी से उतरकर नीचे समतल मे रहने के लिए उन्हें राज़ी कर लिया। इसके पीछे उनकी मंशा पहाड़िया को पहाड़ों से हटाना था, ताकि उनपर नियंत्रण रखना आसान हो जाए। पहाड़िया की मौन स्वीकृति पाकर उधवानाला और बारकोप के क्षेत्रों में दो वर्षों के अंदर दो सौ तिरासी गाँव बसाए गए। कैप्टन ब्रुक के बाद कैप्टन ब्राउन नियुक्त हुए और 1774 से 1778 ई॰ तक बने रहे। इनकी नीति भी कैप्टन ब्रुक–सी ही रही। भागलपुर राजमहल के पहले कलक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड ने भी ब्रुक की ही नीति अपनाई, जिनकी मृत्यु 29 वर्ष में हो गई और स्थलीय साक्ष्य के अनुसार, जिनकी मृत्यु पर पर्दा डाला गया, क्योंकि उनकी मृत्यु पहाड़िया सरदार तिलकामांझी उर्फ़ जबरा पहाड़िया के विष बुझे तीर से हुई मानी जाती है। ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध क्रांति की मशाल पहली बार जली, लेकिन हुकूमत ने इस घटना को पहले ही दफना दिया और क्रांति की पहली चिंगारी शोला न भड़का सकी। आज भी प्रथम स्वतंत्रता सेनानी तिलकामांझी के बलिदान की सत्यता धुंध में है।
इतने विद्रोही और क्रांतिकारी अतीत के बावजूद संताल परगना के इस मूल निवासी की राष्ट्रीय भूमिका का ना कोई मूल्यांकन किया गया, ना इतिहास की रचना। संताल परगना की चर्चा में संताल आंदोलन तो शामिल है, किंतु वहाँ के मूल निवासी पहाड़िया का हजारों वर्षों का संघर्ष उपेक्षित है। उपेक्षा करने की ऐसी कोशिशें ब्रिटिश हुकूमत के समय सबसे अधिक हुई जब इनके आंदोलन को शोषण के खिलाफ़ आक्रोश की अभिव्यक्ति–मात्र कहकर छोड़ दिया गया। लेखकीय उपेक्षाओं के कारण विद्रोह का जीवंत पर्याय होकर भी पहाड़िया सेनानियों की वीर गाथाएँ अतीत की क़ब्र में दफन होकर रह गई। पहाड़िया कारनामों से जुड़ी घटनाएँ तो अनेक हैं, मगर लिखित साक्ष्यों का अभाव उन्हें उजागर नहीं होने दे रहा। यों भी हम जिस इतिहास पर गर्व करते हैं, वह अंग्रेजों की देन है। 1855 के संताल विद्रोह को, जिसे कार्ल मार्क्स ने ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम जनक्रांति’ कहा है, के बाद गाँव –घरों में संत्रास फैल गए। अंग्रेज़ी फौज पहाड़िया नाम सनते ही गाँव पहुँच जाती और बेकसूर पहाड़िया को गोलियों से भून डालती। अंग्रेज़ी सेना की इस बर्बरता के बावजूद पहाड़िया विद्रोह दमित नहीं हुआ, हाँ उनके साहसिक कारनामें और शहादत पूरी ताक़त से दफना दिए गए।
सन् 1781-82 में पहाड़िया ने महेशपुर राज की रानी सर्वेश्वरी देवी तथा 1855 ई. के संताल हूल में संतालों की पूरी मदद की। 1855 ई॰ में ही कांग्रेस की स्थापना के बाद गवई घोघरा पहाड़िया के नेतृत्व में पहाड़िया जनजाति ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को सहयोग दिया। महामना गोखले और तिलक के आह्वान पर यह समुदाय आंदोलन में कूद पड़ा। 1920-21 ई. के बाद इन्होंने बापू, नेहरुजी ,राजेन्द्र प्रसाद तथा नेताजी के साथ आंदोलन में हिस्सा लिया। अतीत में ना जाते हुए भी यदि 1942 ई. के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की बात करें तो उस आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान देनेवाले पहाड़िया युवकों प्रामाणिक विवरण अनुपलब्ध हैं। बिहार राज्य अभिलेखागार, पटना में सुरक्षित संताल परगना और भागलपुर के तत्कालीन अधिकारियों की रिपोर्टों, दोनों ही जगहों के स्वतंत्रता सेनानियों की अप्रकाशित डायरियों, राष्ट्रीय आंदोलन के समय पहाड़िया के हितैषी बरपाली, प्रफुल्ल चंद्र पटनायक,श्रीकृष्ण प्रसाद साह ,श्री के. गोपालन ,जामा कुमार पहाड़िया तथा पहाड़िया उत्थान समिति के महासचिव स्व॰ शिवलाल मांझी के प्रकाशित–अप्रकाशित लिखित विवरणों से राष्ट्रीय आंदोलन में पहाड़िया समुदाय के योगदान का विस्तृत प्रमाण मिलता है।
असहयोग आंदोलन हो या नमक सत्याग्रह या फिर व्यक्तिगत रूप में ब्रिटिश–विद्रोह– पहाड़िया ने जमकर शिरकत की। साहेबगंज के द्वारिका प्र. मिश्र ने राष्ट्र की मुख्य धारा में पहाड़ियादल को जोड़ा, उन्हें राजनैतिक रूप में संगठित किया। राष्ट्रीय जागरण की पृष्ठभूमि में पहाड़िया राष्ट्रवाद की मुख्यधारा से एकीकृत हो गए और अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं महात्मा गाँधी के आह्वान पर ‘भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गए। प्रफुल्ल पटनायक, कृष्ण प्र. साह और के. गोपालन के नेतृत्व में पहाड़िया समुदाय ने 1942 के आंदोलन को प्रखर किया। मैसा ,जामा, डोमन माल पहाड़िया आदि नेताओं के नेतृत्व में पहाड़िया युवकों के ग्यारह जत्थे बनाए गए आर उन्हें पाँच टुकड़ियों में रखा गया। इन टुकड़ियों ने शराब की भट्ठियों और बंगलों को तोड़ा–जलाया। पुलिस–मुठभेड़ में भी इन्होंने अदम्य साहस का परिचय दिया। पुलिस के द्वारा गिरफ्तारी की प्रक्रिया ने क्रांति की चिंगारी को हवा दी। स्टीफन फ्यूकस के विचारानुसार, आदिवासी बिहार और बंगाल के क्रांतिकारियों से प्रभावित हुए थे। क्रांति की लपटों में आदिवासियों ने सरकारी भवन, पुलिस थाने, डाकघर, पुल, सड़क, रेल लाइन आदि फूँक दिए। क्रांति के दौरान संताल परगना में 76 शहीदों में 25 संताल सफाहोड़ थे। अविभाजित संताल परगना ज़िला कांग्रेस समिति के एक पत्र के अनुसार अठारह संताल और पहाड़िया शहीद हुए; राजमहल जेल में तेरह संताल–पहाड़िया की मृत्यु हुई; दुमका जेल में बीस संताल–पहाड़िया मौत के मुँह में गए, जबकि चार संताल–पहाड़िया की मृत्यु गोड्डा जेल में हुई; पटना, भागलपुर आदि कैंप जेलों में चौबीस संताल–पहाड़िया पर ज़ुल्म का क़हर टूटा। स्व. मोतीलाल केजरीवाल ने पहड़िया स्वतंत्रता सेनानियों का उल्लेख करते हुए, श्याम टुड्डू, बाबूलाल मड़ैया,कार्तिक गृही, बड़ा चंद्र पहाड़िया, डोमनालाल प्रभृत जांबाज़ों को श्रद्धांजलि अर्पित की है। 1942 की क्रांति में 42 स्वतंत्रता सेनानियों के नाम शामिल हैं, किंतु गुमनामी में जीते हुए ऐसे कितने सपूत काल–कवलित होते चले गए, जो आज़ादी के बाद जीवित थे,किंतु उनकी कभी किसी ने कोई ख़बर नहीं ली। जो बचे, वे आज भी परिचय के मोहताज हैं। उनकी जुबानी अतीत की सच्चाई को सुननेवाला कोई नहीं, फिर तो भविष्य में प्रामाणिकता की कसौटी पर इन बलिदानियों की सत्यता मिथ बनकर रह जाएगी।
15 अप्रैल 1989 ई. तक जीवित गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी बड़ा चंद्र पहाड़िया (उर्फ़ बड़कू पहाड़िया, उम्र 90 के क़रीब) देश की स्वतंत्रता के साथ ही ब्रिटिश हुकूमत की बर्बरता के भी साक्षी रहे(उनके बारे में कई वर्षों से कोई जानकारी नहीं मिल पाई)।गाँधीजी के आह्वान पर, जान हथेली पर लिए ये युवकों के दल समेत पहाड़ से नीचे आते और अंग्रेजों की नींद हराम कर, फिर पहाड़ की गोद में छिप जाते ,यह क्रम दिन में कई बार चलता। उस समय तीस–बत्तीस वर्ष के वय में गाँधी के इस सेनानी के पास हथियार के नाम पर कुछ था तो बस देश के लिए बलिदान होने का अटूट संकल्प। इसी के सहारे कई मील लंबा और ऊबड़–खाबड़ पहाड़ी रास्ता तय किया जाता रहा। उनके ही शब्दों में —“हम गंडी (गाँधी) को कभी नहीं देखा पर इतना जानता था कि वो अंग्रेजों को भगाना चाहता है। बस इसी एक बात पर हम भी कूद पड़ा।“
14-15 अगस्त 1947 को जब देश आज़ाद हवा में साँस लेते हुए तिरंगे को सलामी दे रहा था, यह गुमनाम सेनानी इस महोत्सव की एक झलक पाने को तरसता रह गया। आज़ादी के दशकों बाद भी अपनी सूखी कमजोर हड्डियों को पहाड़ पर घिसटते हुए धुंध में खो जानेवाले इस शख्स या इन जैसे औरों के प्रति लापरवाही या तिरस्कारपूर्ण व्यवहार क्या कृतघ्नता नहीं? इस देश के लेखकों व इतिहासकारों ने भी इस ओर से आँखें मूँद लीं। पहाड़िया समाज के खोजी लेखक शिवलाल मांझी की असामयिक मृत्यु ने उनकी डायरी को पुस्तकाकार लेने नहीं दिया, जिसमें उन्होंने वर्षों पहाड़ों की खाक छानने के बाद बयालिस स्वतंत्रता सेनानियों की खोज कर उनका विवरण दिया था। यह भी कम दुखद नहीं कि मांझीजी की अप्रकाशित पुस्तक में रमना आहड़ी, चंगरू साँवरिया , पांचगे डोम्बा जैसे अठारहवीं–उन्नीसवीं सदी के पहाड़िया क्रांतिकारियों का भी उल्लेख है, जिन्हें आजतक इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिली।
माना, पहाड़िया जाति का अपना कोई लिखित इतिहास नहीं है, इसलिए देश के लिए की गई उनकी कुर्बानी कोहरे में खोती जा रही है। सूबे बिहार के मुख्यमंत्री डॉ. श्री कृष्ण द्वारा 1954 ई॰ में शुरू की गई ‘विशेष पहाड़िया कल्याण योजना’ पहाड़िया समुदाय के लिए कुछ कर पाई है, इस विषय पर कहीं कोई जानकारी नहीं मिलती| जिस जाति का स्वतंत्रता के लिए लड़ने का हज़ारों साल पुराना अतीत रहा हो, वह आज स्वतंत्र तो है,किंतु कितनी बदहाल,मायूस और परिस्थिति के हाथों विवश! अब तो इनकी आबादी भी निरंतर ह्रासोन्मुख है। क्या इतिहास और वर्तमान के बीच पिसते इन लोगों का अस्तित्व अंधेरे का हिस्सा–मात्र रह जाएगा?
संदर्भ सूची
-
1. पी. सी. रॉय चौधरी : डिस्ट. गैजेटियर ऑफ संताल परगना, पृ॰ 66
-
2. कार्ल मार्क्स : नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री
-
3. उमाशंकर : संताल समाज की रूपरेखा
-
4. डब्ल्यू. जी. ओल्डहम : एथेनिकल आस्पेक्ट्स ऑफ बर्धमान डिस्ट्रिक्ट
-
5. उमाशंकर : संताल की रूपरेखा
-
6. ताराचंद : भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास
अद्भुत लेखन है आपका आरती स्मित जी !