डॉ. एम. फ़ीरोज़ अहमद के संपादन में विगत कई वर्षों से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका वाङ्गमय वर्तमान समय में एक विशुद्ध साहित्यिक और प्रतिष्ठित पत्रिका है। इस पत्रिका ने अपने अनूठे विषयों से साहित्य-मनीषियों के हृदय में एक विशिष्ट स्थान बनाया है।
संपादक डॉ. एम. फ़ीरोज़ अहमद ने पत्रिका वाङ्गमय में इस बात का सदैव ध्यान रखा है कि इसका प्रत्येक अंक संग्रहणीय एवं पठनीय बने। इसीलिए इसके प्रायः सभी अंक महत्त्वपूर्ण हैं। वाङ्गमय पत्रिका इसलिए भी पाठकों का ध्यान खींचती है कि इसमें ऐसे अनूठे विमर्शों पर सामग्री होती है जो शोधार्थियों के लिए भी अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए आदिवासी विमर्श, दलित विमर्श, किन्नर विमर्श, समलैंगिकता विमर्श, वेश्यावृत्ति विमर्श आदि-आदि। अभी पत्रिका ने एक अत्यन्त उपेक्षित किन्तु महत्त्वपूर्ण विमर्श की ओर साहित्य के अध्येताओं का ध्यान आकर्षित किया है और वह है वृद्ध विमर्श।
कोरोना महामारी के चलते जहाँ जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था वहाँ ‘वाङ्गमय’ पत्रिका के इस अंक (अक्टूबर 2021 – मार्च 2022) का विलम्ब से आना स्वाभाविक है लेकिन इस अंक ने यह कहावत चरितार्थ कर दी कि ‘देर आयद दुरुस्त आयद’। पत्रिका अत्यन्त आकर्षक कलेवर में अपने अनूठे विमर्श के साथ बहुत महत्त्वपूर्ण बन पड़ी है।
संपादक डॉ. फीरोज़ ने इस अंक को वृद्ध विमर्श पर केन्द्रित करके साहित्य के क्षेत्र में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विमर्श की ओर शानदार कदम बढ़ाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज का दौर विषय केन्द्रित होता जा रहा है। पाठक प्रायः अपने मनपसन्द विषयों को ही पढ़ना और देखना पसन्द करता है। अपनी पसंद से इतर विषयों की ओर वह कम ही ध्यान देता है। ऐसे में विमर्शों पर केन्द्रित पत्रिका का आना पाठकों के साथ-साथ शोधार्थियों के लिए एक सुखद अऩुभूति प्रदान करता है।
पिछले कई दशकों से साहित्य में विमर्शों का दौर चल रहा है। एक प्रकार से यह शुभ सूचक नहीं भी है क्योंकि विमर्शों ने साहित्य और उसके पाठकों को कई हिस्सों में बाँट दिया है। उधर पाठक भी अपने प्रिय लेखक से यह आशा करते हैं कि वह उनके पसन्द के विषयों पर लिखे। इसका परिणाम यह हुआ है कि प्रायः सभी ख्यातिलब्ध साहित्यकारों ने विमर्शो को केन्द्र में रखकर अपनी कलम चलानी शुरू कर दी है। ‘वाङ्गमय’ पत्रिका ने ऐसे ही अनेक विमर्शों पर केन्द्रित अपने अंक प्रकाशित किए जिनकी साहित्य जगत में काफी चर्चा हुई। पत्रिका के वर्तमान अंक को दो खण्डों में विभाजित किया गया है। प्रथम खंड में वृद्ध विमर्श केन्द्रित कहानियों पर आलोचनात्मक आलेख हैं तथा दूसरे खंड विविध में अन्य विषयों पर केन्द्रित आलेख हैं।
प्रथम खंड जिसे वृद्ध विमर्श पर केन्द्रित किया गया है, में बाइस विद्वानों के आलेख हैं जिन्होंने प्रख्यात साहित्यकारों जैसे प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, अमृतलाल नागर, यशपाल, मृदुला गर्ग, सुधा ओम ढींगरा, बी.एल. गौड़ आदि की वृद्धावस्था या वृद्ध विमर्श केन्द्रित कहानियों पर अपनी आलोचनात्मक प्रस्तुति दी है।
इन आलेखों में वृद्धावस्था के दंश के साथ-साथ उनकी उपेक्षित जीवन संध्या पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। वहीं कुछ कहानियों में वृद्धावस्था को अभिशाप न मानने के उद्देश्य को भी कई विद्वानों ने अपने आलेखों का विषय बनाया है। सभी आलेख वृद्धावस्था पर केन्द्रित कहानियों के विभिन्न पहलुओं को पाठकों के सामने रखने में सक्षम हैं तथा शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं।
अपने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संपादकीय में डॉ. फ़ीरोज़ ने पत्रिका के इस अंक के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “विमर्शों की भीड़ में यदि अभी तक कुछ छूटा है या उपेक्षित है तो वह है वृद्धावस्था विमर्श। इस विषय को ठीक उसी तरह हाशिए पर रख दिया गया गया है जिस तरह घर के बुजुर्गों को अनुपयोगी समझकर एक कोने में डाल दिया जाता है।…कई ऐसी बाते हैं जिन्हें ये बुजुर्ग अपने जीवन के अन्तिम दिनों में अपने बच्चों से साझा करके अपनी जीवनसंध्या को शान्ति से काटना चाहते हैं लेकिन आज के भागदौड़ वाले जीवन में बच्चों के पास इतना समय ही नहीं है कि वे अपने बूढ़े माता-पिता के पास घड़ी-दो-घड़ी बैठकर उनके मन को टटोलें। ऐसे में वृद्ध विमर्श महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक विमर्श है।”
संपादक फ़ीरोज़ अहमद ने सच ही लिखा है क्योंकि हमारे समाज में अधिकांश परिवारों में वृद्धों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। उन्हें न केवल परिवार पर बोझ समझा जाता है बल्कि कहीं-कहीं तो उन्हें हेय समझकर वृद्धाश्रम में भी डाल दिया जाता है। बेचारे वृद्ध जिन्होंने जीवनभर अपने बच्चों के लिए संघर्ष किया, उनके जीवन को चमकाने के लिए स्वयं तलवे घिसे उनसे ऐसा व्यवहार उन्हें अन्दर से तोड़ देता है।
यह तो सर्वविदित है कि साहित्य में वह गुण है जो समाज की सोच और दिशा को बदल कर रख देता है। इसलिए ऐसे विमर्श के सामने आने से साहित्यरसिकों के साथ-साथ समाज के अन्य जिम्मेदार लोगों, स्वयंसेवी संस्थाओं, सरकारी और गैर सरकारी संगठनों का ध्यान भी परिवारों में उपेक्षित जीवन जी रहे वृद्धों की ओर जाएगा और उनके प्रति समाज का उपेक्षित व्यवहार भी बदलेगा। इस दृष्टि से भी वाङ्गमय पत्रिका का यह अंक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
पत्रिका के दूसरे खंड विविध में विभिन्न विषयों पर केन्द्रित आठ आलेख हैं जिसमें अलग-अलग पुस्तकों पर विद्वानों के आलेख हैं। सभी आलेख अत्यन्त शोधपूर्ण और पठनीय हैं। प्रमुख रूप से हजारीप्रसाद द्विवेदी के कथा संसार पर केन्द्रित आलेख ‘उपन्यास के भारतीय शिल्प की तलाश’, रमेश पोखरियाल निशंक के कविता संग्रह मातृभूमि के लिए पर केन्द्रित आलेख देशभक्ति की भावना, और डॉ. राममनोहर लोहिया के जीवन और कार्यों पर केन्द्रित आलेख डॉ. राममनोहर लोहिया एक समाजवादी विचारक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
पत्रिका में चयनित सभी आलेखों को देखकर लगता है कि इनका संयोजन तथा चयन संपादक डॉ. फ़ीरोज़ ने अत्यन्त परिश्रम और गंभीरता से किया है। इसी का परिणाम है कि अपने अन्य पूर्व अंकों की भाँति यह अंक भी वृहदाकार है तथा दो सौ चालीस पृष्ठों में अत्यन्त आकर्षक व संग्रहणीय बना है।
डॉ लवलेश दत्त जी ने वांग्मय विमर्श पत्रिका के संदर्भ में उचित कहा।सम्पादक फ़िरोज जी अनछुए विषयों पर विशेष अंक प्रकाशित करते हैं ।
बेहतरीन समीक्षा प्रकाशन हेतु पुरवई का शुक्रिया
Dr prabha mishra
डॉ लवलेश दत्त जी ने वांग्मय विमर्श पत्रिका के संदर्भ में उचित कहा।सम्पादक फ़िरोज जी अनछुए विषयों पर विशेष अंक प्रकाशित करते हैं ।
बेहतरीन समीक्षा प्रकाशन हेतु पुरवई का शुक्रिया
Dr prabha mishra
धन्यवाद प्रभा जी।
पत्रिका की समीक्षा छापने के लिए। थैंक्स