इस बार जब मैं अपनी किताबें “इस ज़िंदगी के उस पार” और “कोठा नं. 64” के प्रचार-प्रसार और दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में अपने देश गया था तो अमन प्रकाशन के स्टॉल से उपन्यास मैं पायल लिया था। यूक्रेन वापस आ जाने पर कुछ लेखक मित्रों की किताबें पढ़ने के बाद इस उपन्यास की भी बारी आयी। इसी बीच पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था कोरोना वायरस के बढ़ते प्रकोप की वजह से लड़खड़ाने लगी। इससे मैं भी अछूता नहीं रहा। आर्थिक परेशानी की वजह से मन में एक अजीब सी उदासी रहती है। देश में लॉकडाउन की वजह से दिल्ली- एन. सी. आर. में लाखों देहाड़ी मज़दूरों की ज़िंदगी में आकस्मिक आफ़त आ गयी है। लोग पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर की तरफ़ निकल चुके हैं। इस मुश्किल घड़ी में हमें अपने देश के साथ खड़ा होने का समय है। अपने भविष्य और लेखनी को लेकर भी उदासी रहती है। अपनी पारिवारिक और लेखकीय व्यस्तता से समय चुराकर इस हफ़्ते उपन्यास “मैं पायल” पढ़ा। अमन प्रकाशन, कानपुर ने आकर्षक कवर के साथ 150 रूपये की मामूली क़ीमत पर 128 पेज का यह उपन्यास छापा है। 

“मैं पायल” लखनऊ की किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन-संघर्ष पर आधारित एक जीवनीपरक उपन्यास है, जिसे कहानीकार और उपन्यासकार महेंद्र भीष्म जी ने लिखा है। मैं इससे पहले भी कई बार इस उपन्यास के बारे में सुन चुका था, लेकिन इस बार ख़ुद से पढ़ने का ठान ही लिया। जब सुभाष अखिल सर से बात हुई थी तो उन्होंने कहा था कि किन्नर-विमर्श में “मैं पायल” एक बेहतरीन उपन्यास है। उस समय मैं सुभाष सर की बातों पर आधे-अधूरे मन से विश्वास किया था। उस समय मुझे लगा कि एक जीवनीपरक उपन्यास में क्या होगा, वही आम सी जीवन गाथा। हिंदी साहित्य में ऐसे पकाऊ किताबों की भरमार है। क्यों फ़ालतू का समय बर्बाद करूँ? एक किन्नर की मामूली सी जीवनी होगी, बिना लय और तारतम्य का। 

हाफ मैन उपन्यास पढ़ने के बाद “मैं पायल” उपन्यास पढ़ना शुरू किया। उपन्यास ने पहले पृष्ठ से ही मुझे अपनी शैली में क़ैद कर लिया। उसके बाद मैं दो बैठकी में पूरा उपन्यास पढ़ गया। ऐसा मेरे साथ पहली बार हुआ है कि मैं किसी उपन्यास को एक सुर-ताल के साथ दो बैठकी में पूरा किया। इससे पहले कई लेखक मित्रों की किताबें पढीं, जहाँ मुझे बीच के पृष्ठों को छोड़कर आगे बढ़ना पड़ा। इस उपन्यास में महेंद्र भीष्म की लेखन शैली बहुत प्रभावी है, जो पाठकों के मन-मस्तिष्क में ज़बरदस्त छाप छोड़ती है।

128 पेज के उपन्यास में हर पेज पाठक को देर तक बाँधकर रखता है और हर पेज पर कुछ पल के लिए रूकने को मज़बूर करता है। मेरे पढ़ने की गति बहुत तेज़ है, फिर भी उपन्यास का हर पेज मुझे इतना पसंद आया कि मैं कई बार पेज दोहराकर पढ़ा। चूँकि मैं उर्दू साहित्य की पृष्ठभूमि से हूँ, वहाँ मुझे मंटो और कृष्ण चंदर के अफ़साने इस तरह से बाँधते थे। फ़्रेंच कहानीकार मौपासा की कुछ कहानियाँ भी ऐसी हैं, जो आपको बार-बार दोहराकर पढ़ने को मज़बूर करेगा।

“मैं पायल” उपन्यास की एक सबसे बड़ी कैफ़ियत यह है कि एक जीवनीपरक उपन्यास होते हुए भी आपको एक काल्पनिक उपन्यास से भी कई गुना ज़्यादा मज़ा देगा। अगर लेखक के पास बेहतरीन शिल्प हो, लेखन में जादू हो, तभी इस तरह का बेहतरीन उपन्यास लिखा जा सकता है। जीवनीपरक उपन्यास होने के बावजूद जिस तरह से प्लाट (plot) और सबप्लाट (subplot) को आपस में बड़ी कुशलता के साथ जोड़ा गया है, यह भी एक बहुत बड़ी कलाकारी है। इस तरह का जीवनीपरक उपन्यास लिखना इतना आसान काम नहीं है।

इतनी मेहनत में दो उपन्यास आराम से लिखे जा सकते हैं। इस उपन्यास में वाक्य और वाक्य-विन्यास नदी के धारे की तरह प्रवाहित होता रहता है, जिसमें आप बहते चले जायेंगे और पता भी नहीं चलेगा, उपन्यास खत्म हो जायेगा। यह भी इस उपन्यास की एक ख़ासियत है। लेखक ने इस बात का भी बहुत ध्यान रखा है कि उपन्यास में कोई वाक्य भद्दा और अश्लील नहीं लगे। ऐसी जगहों पर साँकेतिक वाक्य भी बहुत कुछ कह जाते हैं, और वे कहीं से भी अश्लील नहीं लगते हैं। जैसे- “वे पलंग पर उलटे लेटे पंडिताइन भौजी के स्तन पान कर रहे थे। मैं सोचने लगी दाऊ बाबा बहुत भूखे प्यासे हैं, जो ऐसा कर रहे हैं। दूध तो बैठकर, गोदी में या बगल में लेटकर पीना चाहिए, जैसे अम्मा मुझे पिलाती है।

यह इस तरह क्यों दूध पी रहे हैं, मैं सोचने लगी। अम्मा के दूध भी तो अच्छे और बड़े-बड़े हैं, फिर उनके दूध न पीकर यहाँ इतनी दूर दूध पीने क्यों आये।” पायल जी बचपन में यह दृश्य देखकर ऐसा सोच-विचार करती हैं। उदाहरण के लिए एक और वाक्य देखें- “दाऊ बाबा अपना लंगौट खोले पूरे नंग धडंग अपने शरीर के मालिश कर रहे थे। दो पैरों के बीच तीसरे पैर को लटकते देख मैं आश्चर्य में पड़ गयी।“ 

बहन ने बताया, “वह दाऊ बाबा का घोड़ा है। यह घोड़ा बहुत खतरनाक होता है। बहुत चोट करता है। इसी की चोट से माँ रोती है, क्योंकि पिताजी के पास भी घोड़ा है।“ 

 यह उपन्यास भारतीय समाज की नीच मानसिकता पर बहुत ज़ोरदार प्रहार करता है। मेरे जैसे पाठक जिसने गरीब भारतीय समाज में अपना बचपन गुज़ारा है, उसे “मैं पायल” जैसे किरदार से हमदर्दी हो जाती है। इस उपन्यास को सिर्फ़ किन्नर विमर्श के संदर्भ में न लें।

भारतीय नारी की भी कम दुर्दशा नहीं होती है। “मैं पायल” समाज के सभी दबे-कुचले तबक़े की मज़बूत आवाज़ बुलंद करता है। इस उपन्यास में पायल जी के ज़रिये भारतीय मानसिकता का जो बयान देखने को मिलता है, इससे कई बार पाठकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अगर पायल जी को बचपन में ही अच्छा समाज, अच्छे पिता, अच्छे भाई मिलते तो कितना अच्छा होता। अगर किसी का बचपन ही अधूरा रह जाता है, तो बाद में पैसे, धन-दौलत, कार, बंगले हासिल हो जाने पर भी दिल से बचपन की उदासी बाहर नहीं जाती है। ज़िंदगी में किसी न किसी बात का मलाल तो रह ही जाता है। किसी कारणवश मुझे भी अपने बचपन की उदासी कभी-कभी काली घटा की तरह मेरे आसपास मंडराने लगती है।

मैं पायल जी मानसिक और हार्दिक संवेदना से इत्तेफ़ाक रखता हूँ। पिता और भाई की तरफ़ से अनदेखी, प्रताड़ना, अमानवीय बर्ताव, पारिवारिक तिरस्कार, समाज का सौतेला व्यवहार, समाज में मर्दों के भेष में कामोत्तेजित भेड़िए पायल जी की ज़िंदगी को नरक में तब्दील कर देते हैं। ज़िंदगी की इस घड़ी में भी माँ कभी भी साथ नहीं छोड़ती है। माँ माँ होती है, जगत जननी है। एक माँ का दिल अपने हर बच्चे के लिए निर्मल होता है। अगर पायल जी को ज़िंदगी में करुणारूपी माँ नहीं मिलती तो बेचारी की संवेदना से भी दिल लगाने वाला कोई नहीं होता। उपन्यास में कई भावनात्मक मोड़ आती हैं, जो पाठकों के दिल झकझोर देती हैं। बचपन में वह पिताजी के अत्याचार और मार-पीट से अजीज़ होकर घर छोड़ देती है।

फिर बेचारी की ज़िंदगी एक भिखारी से भी बदतर हो जाती है। दर-दर की ठोकर खाती फिरती है। इस मुश्किल घड़ी में अच्छे-बुरे हर तरह के लोगों से उनका सामना होता है। किन्नर गुरु के भेष में ऐसे भी लोग होते हैं, जो अपनों से संवेदना नहीं रखते हैं। उनमें अच्छे लोग भी मिलते हैं। उपन्यास में ये भी देखने को मिलता है कि कैसे किन्नर लोग ख़ुद अंदर से खोखले हैं, मतलबी हैं। इस समाज से लड़ने की, जागरूकता फैलाने की उनमें हिम्मत नहीं है। पायल जी अपने संघर्ष और उपलब्धि से किन्नर समाज को इस क्रूर भारतीय समाज से लड़ने के लिए हिम्मत प्रदान करती हैं।

उपन्यास- मैं पायल  
लेखक- महेंद्र भीष्म  
प्रकाशक- अमन प्रकाशन, कानपुर 
समीक्षक- राकेश शंकर भारती, द्नेप्रोपेत्रोव्स्क, यूक्रेन 
पृष्ठ- 128
मूल्य- 150 रूपये 
कहानी, उपन्यास, यात्रा-वृत्तान्त आदि विधाओं पर लेखन। अबतक तीन किताबें प्रकाशित। संपर्क - rsbharti.jnu@gmail.com

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