Friday, October 11, 2024
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डॉ माया दुबे का लेख – साठोत्तर हिन्दी कविताओं में राजनीतिक चेतना

साहित्य एवं राजनितिक एक दुसरे के पूरक रहे हैं | साहित्य का प्रभाव राजनीति पर तथा राजनीति का प्रभाव साहित्य पर हमेशा देखा गया है | गुप्तकाल को साहित्य का स्वर्णकाल कहा गया है, जब समाज मे शांति होती है, साशन समस्या विहीन होता है तो साहित्य एवं कला भी उत्कर्ष को प्राप्त होती है | स्वतंत्रता से पूर्व की हिंदी कविता रानीति को विशेष रूप से समेटे हुए है, सवतंत्रता के पश्चात इसमे एक प्रकार का विस्तार हुआ | क्षण-क्षण बदलती राजनितिक परिवेश का हिंदी साहित्य एवं काव्य पर भी प्रभाव परिलक्षित होता है | अत: कविता में भी रानीतिक चेतना होना सामान्य बात है | काव्य समय के चाक पर तैयार होता है, कवि तत्कालीन चेतना से बहुत प्रभावित होता है | 1947 का समय स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई त्रासदी को देश ने झेला है, बंटवारे की पीड़ा है | राजनितिक उथल-पुथल है, भारत स्वतंत्र तो हो गया लेकिन कई समस्याओं से जनता जुह रही थी ये सब साठोत्तरी हिन्दी कविता में स्पष्ट झलकते हैं | 
अत: यह स्पष्ट है कि आदिकाल से अबतक भारत की राजनितिक चेतना ने जितने परिवर्तन देखे हैं, उतने विश्व के किसी अन्य देशों के राजनीति में नहीं सन 1857 से ओ संघर्ष शुरु हुआ उसका समापन 15 अगस्त 1947 को हुआ | स्वतंत्रता के बाद कई समस्याएँ सामने थी, ऐसे में प्रेम की कविता संभव नहीं | लोक की चेतना, संघर्ष, बेरोजगारी, बंटवारे की त्रासदी, स्त्रिअस्मिता का संघर्ष, शिक्षा, चिकित्सा सभी एक प्रश्न थे | साठोत्तरी काव्य में कवियों ने सैम पर लेखनी चलायी लेकिन सबसे अधिक राजनितिक उथल-पुथल को भी रेखांकित किया | दुष्यंत कुमार के शब्दों में –
‘एक चिंगारी कहीं से 
ढूंढ लाओं दोस्तों,
इस दिये मे तेल से 
भीगी हुई बाती तो है |’
सचमुच मानव परिस्थितियों का वास है, समाज की चेतना कवि को भी लिखने को मजबूर करती है | सुप्रसिद्ध समाज शास्त्री जे.एस. मेकेन्जी ने मानव की परिभाषा देते हुए लिखा है-
 “मनुष्य एक बुद्धिजीवी प्राणी है जो एक विचित्र एवं जटिल ढाँचा रखता है |”
यहीं प्रवृत्ति उसे सामाजिक चेतना से जोड़ती है | रानीतिक से समाज प्रभावित होता है, कवि भी समाज मे रहता है, अत: समाज की राजनितिक गतिविधियाँ उसकी कविता मे भी दिखती है | 1969 बिखराव का वक्त था, आपातकाल ने एक नयी राजनितिक हलचल उत्पन्न की | भारत मे स्थितियाँ 1973 से गंभीर होने लगी, 1975 तक तो राजनितिक हालात बिगड़ गये, कविता मे इसकी स्पष्ट छाप दिखती है | साहित्यकारों पर भी प्रतिबन्ध लग गये, दिल्ली महानगर परिषद् के एक सदस्य राजेश शर्मा ने साहू आयोग के समक्ष भावुक होकर कहा था-
 “किस-किस की जुंबा रोकने जाऊं 
तेरी खातिर 
किस-किस की तबाही मे तेरा हाथ 
नहीं है |”   1 
दिल्ली को सुन्दर बनाने की नाम पर जो विध्वंस हुआ, कवियों पर भी प्रतिबन्ध लगा | आपात काल के पूर्व ही रघुवीर सहाय की कविताएँ रानीतिक चेतना से ओत-प्रोत थी-
 “इस लज्जित और पराजित युग मे |
 कहीं से ले आओं वो दिमाग 
 जो खुशामद आदतन नहीं कराता,
कहीं से ले आओं निर्धनता 
ओ अपने बदले में कुछ नहीं मांगती |– 2 
शोषण के द्वारा निरंतर अधिक से अधिक धन संग्रह करने वाला शोषक सत्ताधारी वर्ग, दूसरी ओर शोषित जनता| रघवीर सहाय के शब्दों में –
“दिल्ली के बसंत का वह विशेष दिन था,
गर्मी थी और हवा थी,
जो धुप को उड़ाये लिये जाती थी 
सिमटे हुए लोग उसमें बैठे थे,
मृत्यु की खबर की प्रतीक्षा मे |” – 3 
इस तरह साठोत्तरी काव्य में रानीतिक उथल-पुथल का पूरा असर द्रष्टव्य होता है, श्री जाजू ने आपात काल की पीड़ा समझते हुए लिखा-
“अनुशासन कर भंग
शासन मे भर नया रंग 
कुछ पर कालिख पोतता हूँ 
कुछ को धो देता रंग 
अपने ही नाम का मैं
लिखता नया पता हूँ 
सोचता हूँ …….
किसको दबोचता हूँ,
मैं सर्वोदय नहीं | 
प्रजातंत्र हूँ |
समतल भूमि पर 
नये बिल खोदता हूँ |”  4 
बावा नागार्जुन ने अपनी कविताओं मे राजनितिक उथल-पुथल का सुन्दर चित्रण किया है-
“लूट-पाट की काले धन की 
करती है रखवाली 
पता नहीं दिल्ली की देवी 
गोरी है या काली |
x           x            x                 x 
महंगाई का तुझे पता क्या 
जाने क्या तू पीर-पराई 
इर्द-गिर्द बस तीस हजारी 
साहबान की मुस्की छाई |”  –   5 
इतना ही नहीं कवि एसी शासिका को सुरसा मानते है, यथा  – 
“सौ कंसो की खीझ भरी है,
इस सुरसा के दिल के अन्दर 
कंधों पर बैठे है इसके 
धन पिशाच के मस्त कलंदर |” – 6 
इस प्रकार साठोत्तरी काव्य में रानीतिक चेतना सर्वत्र दृष्ठि गोचर होती है, कवि समाज की आँखे होता है , यथा-
“न्यायमूर्ति कठमुल्ले होगे
न्यायपालिका शीष धुनेगी 
संविधान की पंक्ति पंक्ति अब 
दण्डनीय का जाल बुनेगी |” – 7 
कवि केवल मन के कोमल तत्वो का शाब्दिक जाल नहीं बुनता वह समाज के चेतना पर भी प्रहार करता है –
“हम जिन आदर्शों की वास्ते लड़े 
भीतर से निकले वे खोखले बड़े 
सत्य और मिथ्या 
सब लगे अंत मे 
कर पाये भेद कहा 
ललाट मे सत मे |
सबके सब मन के काले निकले |” – 8
इस तरह देखा जाये तो साठोत्तरी कविता मे राजनितिक सेहतना व्याप्त हो | तत्कालीन कवि बंधनों के बाद भी बेबाकी से मन की बात कहता है | एक कविता दृष्टव्य है—
“पुलिस और फ़ौज 
सचिवालय और न्यायलय 
कर्फ्यू और गोली 
प्रजा और तंत्र के सम्बन्धो की 
संवैधानिक व्यख्याये है |” —- 9 
रघुवीर सहाय की कविताएँ बेबाकी से रानीतिक संदर्भो को उधेड़ती है –
“निर्धन जनता का शोषण है 
कह कर आप हंसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है 
कह कर आप हंसे 
सबके सन है भ्रष्टाचारी 
कहकर आप हंसे 
चारो और बड़ी लाचारी 
कह कर आप हंसे 
कितने आप सुरक्षित होगे 
मैं सोचने लगा 
सहसा मुहे अकेलापाकर 
फिर से आप हंसे |”-   10 
राजनितिक व्यंग करने मे सहाय इ पीछे नहीं हटते, कवि के लिए साहस का काम है, समा मे विपरीत परिस्थितियो मे जब राजनीतिक संदर्भ की पुष्ट करता है |साठोत्तरी कविताओं मे यह सर्वत्र दृष्टिगत है |राजनीति के कागजी आश्वासन पर देखिये ——
“इतने आश्वासन दिये तुझे 
पर तेरा पेट नहीं भरता 
इतना कागजी रोटियां दी 
फिर भी तू भूखा ही मरता |” 
नेता का प्राण कुर्सी मे बसा है, जनता बेहाल है –
“अरमान बसे है कुर्सी मे ,
मन-प्राण बसे है कुर्सी मे ,
सब धर्म-कर्म कुर्सी उनके 
भगवान बसे है कुर्सी मे 
वे करसी को छोड़ न सकते,
लाचारों को आवाज न डॉ |” – 11 
इस प्रकार यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि साठोत्तरी कविता में राजनितिक चेतना समायी हुई है | कवि बार-बार उन की ओर ध्यान आकर्षित करता है | राजनितिक उथल-पुथल को दिखता है | समाज को चेताता है कि उठो, तुम्ही इस राष्ट्र के कर्णधार हो क्यों तुम तटस्थ हो, नागार्जुन, रघुवीर सहाय सभी तत्कालीन कवियों के काव्य मे यह चेतना दिखाई देती है |
संदर्भ सूचि-
  1. साठोत्तर हिंदी काव्य मे राजनितिक चेतना, डॉ . एस गंभीर, प्रकाशक विधा विहार ,कानपूर , पृ. 146 |
  2. राघुविर सहाय, हँसो-हँसो जल्दी हँसो, पृ. 10 
  3. राघुविर सहाय, आत्म हत्या के विरुद्ध, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृ.17
  4. चट्टान के फूल, रामनिवास जाजू, प्रकशन, रपल एण्ड साँस. पृ.39 
  5. नागार्जुन, पुराणी जूतियों का कोरस, वाणी प्रकशन दिल्ली, पृ 132 
  6. वही ……………………………………………….. पृ. 12 
  7. उद्घृत, साठोत्तर हिंदी काव्य मे राजनितिक चेतना, पृ. 220 
  8. देवेद्र शर्मा, पंख कटी महरावे पृ.28 
  9. उदयप्रकाश, अबूतर-कबूतर, पृ.64 
  10. रघुवीर सहाय, हँसो हँसो जल्दी हँसो पृ.16 
  11. चंद्रसेन विराट, भीतर की नागफनी, पृ.15 
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1 टिप्पणी

  1. डॉ माया दुबे ने अपने शीर्षक से पाठक को बांधे रखा है । सचमुच देश-काल की स्थितियों का प्रभाव लेखक की कलम से छलकता है ।
    कविताओं को लेखक के नाम और पुस्तको के संदर्भ सहित लेखबद्ध किया गया है।
    डॉ माया दुबे को इस शोध आलेख हेतु बधाई ।
    धन्यवाद पुरवाई पत्रिका ।
    Dr Prabha mishra

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