हिन्दी ग़ज़ल कोश – संपादक हरेराम समीप, (2024), प्रकाशक – Anybook, Mob: 9971698930, Email: contactanybook@gmail.com पृष्ठ संख्या – 590, मूल्य – रु.680/- मात्र…

इस संकलन में  तीन सौ से अधिक ग़ज़लकारों की ग़ज़लें संकलित की गई हैं। 

हिन्दी ग़ज़ल एक ऐसी सांस्कृतिक परम्परा का निर्माण और निर्वहन करती है जो इसे सामाजिक यथार्थ की ओर उन्मुख करती है। यह सामाजिक यथार्थ जनवादी चिन्तन को स्थान देता है। उल्लेखनीय यह भी है कि किसी भी काव्य परम्परा का मूल्यांकन केवल उसके साहित्यिक पक्षों और सर्जनात्मक आधारों को लेकर नहीं होता। कोई भी साहित्यिक परम्परा अपनी एक लंबी विकासयात्रा समय के साथ तय करती है। इसका एक निश्चित और सुस्थापित क्रम होता है जो एक निश्चित कालखण्ड के गुजर जाने के पश्चात् अपने निर्धारित स्वरूप में सामने आता है।
इस विकासयात्रा में वह साहित्यिक परम्परा अपनी विधागत विशिष्टताओं को मूर्त रूप प्रदान करते हुए विभिन्न प्रकार के सर्जनात्मक, समीक्षात्मक और पाठकीय आयामों की स्थापना करती चलती है। अपनी पूर्ववर्ती परम्पराओं के साथ-साथ चलते हुए ही यह धीरे-धीरे अपना एक अलग स्वरूप निर्धारित कर लेती है। सामाजिक आयाम, साहित्यिक आयाम, सांस्कृतिक आयाम– इन स्वरूपों के निर्धारण में अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। इन स्वरूपों का विश्लेषण किसी भी काव्य परम्परा की प्रगतिशीलता और प्रयोगवादी अध्ययन की दृष्टि से सामान्यतया उपयोगी होता है। हिन्दी ग़ज़ल की काव्य परम्परा का अध्ययन-विश्लेषण करने के पिछले वर्षों में कुछ ऐसे प्रयास हुए हैं जिसमें हिन्दी ग़ज़ल का ऐतिहासिक स्वरूप भी उसकी संरचनात्मकता के साथ-साथ सामने आया है।
सर्जनात्मकता तो समय के सापेक्ष अपने स्वरूप और शैली में परिवर्तन करती ही रहती है, परन्तु हिन्दी ग़ज़ल के विकास का क्रमबद्ध अध्ययन इस परिप्रेक्ष्य में आवश्यक भी है और उपयोगी भी। हरेराम समीप हिन्दी ग़ज़ल के सृजन में तो अनवरत रूप से रत हैं ही, साथ ही साथ हिन्दी ग़ज़ल की समालोचना में भी सहज-भाव से संलग्न रहे हैं। हिन्दी ग़ज़ल पर उनका बृहत् महत्त्वपूर्ण समीक्षात्मक चिन्तन ‘समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन’ चार खण्डों में भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित है। इसी क्रम में ‘हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा’ और ‘हिन्दी ग़ज़ल की पहचान’ जैसी उनकी कृतियाँ भी हिन्दी ग़ज़ल को गहराई से जानने-समझने में सहायक हैं। इसके अतिरिक्त भी अपने विभिन्न आलेखों और संपादन कार्यों के माध्यम से हरेराम समीप हिन्दी ग़ज़ल सम्बन्धी शोधपरक चिन्तन से जुड़े हुए हैं।
अभी हाल ही में एनी बुक (Anybook) प्रकाशन से उनके द्वारा संपादित ‘हिन्दी ग़ज़ल कोश’ आया है जो हिन्दी ग़ज़ल का स्वाभाविक रूप से संकलन तो है ही परन्तु मात्र संकलन न होकर यह उसका क्रमबद्ध कालक्रमानुसार अध्ययन भी प्रस्तुत करता है। अन्य काव्य विधाओं की भाँति ही हिन्दी ग़ज़ल की अपनी एक निश्चित विकास यात्रा है। हिन्दी ग़ज़ल ने जितनी साहित्यिक यात्रा तय की है, उतनी ही एक सांस्कृतिक यात्रा भी तय की है। हिन्दी ग़ज़ल एक प्रगतिशील परम्परा को स्वयं में समाहित किए हुए है। हरेराम समीप इसी प्रगतिशील परम्परा की पहचान को निर्धारित करते हुए हिन्दी ग़ज़ल की आधारभूमि, हिन्दी ग़ज़ल की आधारशिलाएँ, हिन्दी ग़ज़ल का नवोन्मेष, हिन्दी ग़ज़ल का समकाल, हिन्दी ग़ज़ल का नवकाल, हिन्दी प्रवासी ग़ज़लकार जैसे उपखण्डों के अंतर्गत हिन्दी ग़ज़ल की विकास-यात्रा का अभिलेखन अपने ‘हिन्दी ग़ज़ल कोश’ में करते हैं।
अपनी आलोचना पुस्तक ‘समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार: एक अध्ययन’ के प्रथम खण्ड की भूमिका में हरेराम समीप लिखते हैं,“हिन्दी ग़ज़ल आधुनिक हिन्दी कविता की उस समय-समृद्ध परम्परा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें उसकी अपनी भी एक लम्बी परम्परा है, जो समय के साथ अपनी अभिव्यक्ति के नए तेवर विकसित करती रही है। यह विकास आज के हिन्दी ग़ज़लकारों में भी आसानी से तलाशा जा सकता है। आज हिन्दी ग़ज़ल एक छोर पर आम आदमी के जीवन की संवेदना भूमि पर अवस्थित है तो दूसरे छोर पर समाज, संस्कृति और राजनीति की अमानवीय शक्तियों के विरुद्ध डटकर प्रतिरोध भी कर रही है।” अपने इन्हीं शब्दों को हरेराम समीप ‘हिन्दी ग़ज़ल कोश’ की आधारशिला निर्धारित करते हुए कोश की भूमिका ‘हिन्दी ग़ज़ल गाथा’ में भी लिखते हैं,“यद्यपि हिन्दी ग़ज़ल ने अपना शिल्पगत अनुशासन फ़ारसी से लिया है, जहाँ से उर्दू ने भी लिया है, लेकिन संवेदना और तथ्य के स्तर पर हिंदी ग़ज़ल में उसका अपना अलग स्वर इसके आरंभ से ही सुनाई देता है।” जनधर्मिता और जनपक्षधरता आज की हिन्दी ग़ज़ल की सबसे मुख्य विशेषता है। शोषित, दलित और पीड़ित वर्ग में आशा, विश्वास और उल्लास के भावों का संचार समकालीन हिन्दी ग़ज़ल ने किया है। हिन्दी ग़ज़ल ने सर्वहारा वर्ग की उपेक्षा और शोषण पर पैनी नज़र रखी है,इसे मुखरित किया है। इसीलिए हिन्दी ग़ज़ल आम जनता की प्रवक्ता बनकर समाज से अपनी निकटता स्थापित कर पाने में सफल हुई। 
हिन्दी ग़ज़ल समाज की ग़ज़ल है। सामाजिक चेतना और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समाज की बात करने वाली, समाज के लोगों की बात को स्वर देने वाली और समाज को नवीन चिन्तन-दिशा देने वाली हिन्दी ग़ज़ल सामाजिक प्रतिरोध का ताना-बाना भी अपनाकर अपने विकास का मार्ग प्रशस्त करती रही है। भारत का बहुसांस्कृतिक समाज किसी भी विचारधारा को आत्मसात् करने की विशेषता रखता है। हिन्दी कविता का स्वर रीतिकालीन कविता के पश्चात् भारतेन्दुयुगीन कविता में सामाजिक चेतना और समाज परिष्कार कर रहा है। हिन्दी कविता ने इस विकासक्रम में जिस भी विधा के माध्यम से अपनी बात जनसामान्य तक पहुँचाई, उसमें सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति का परिपोषण मुख्य रूप से रहा।
तभी हरेराम समीप लिखते हैं,“हिन्दी ग़ज़ल से यहाँ आश्रय हिन्दी कवियों द्वारा लिखी जा रही उन ग़ज़लों से है, जो सुदीर्घ हिन्दी कविता परंपरा के अंतर्निहित संस्कारों से संस्कारित हैं। इस ग़ज़ल के साथ हिन्दी शब्द लगाने की आवश्यकता यह भी है कि यह ग़ज़ल अपनी भाषिक संस्कृति में अन्य भाषाओं की ग़ज़ल से भिन्न है। यह भिन्नता भाषा के स्तर पर तो है ही; कथ्य, लहज़े और आस्वाद के स्तर पर भी है।” इसी कारण हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल अपने कथ्य और डिक्शन के माध्यम से अलग-अलग पहचानी जा सकती हैं। उर्दू ग़ज़ल रूमानी कल्पनाओं के साथ चलती है तो हिन्दी ग़ज़ल जीवन की यथार्थमूलक चेतना और वैचारिक सम्वेदना से सम्पन्न है। कोई भी नई काव्यप्रवृत्ति अपनी पूर्व परम्परा में चली आ रही काव्य-प्रवृत्तियों से अपने साथ बहुत कुछ लेकर आती है। कथ्य, शैली, प्रभाव के स्तर पर नयी काव्यप्रवृत्ति अपनी पूर्ववर्ती प्रवृत्तियों से प्रभावित रहती है। समय के साथ देशकाल और वातावरण की परिस्थितियाँ और सामाजिक सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रभावों के कारण नवीन काव्यप्रवृत्तियों का स्वरूप परिवर्तित होता जाता है। हिन्दी ग़ज़ल जब अपनी विकासमान अवस्था में थी, तब देश की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियांँ धीरे-धीरे बदल रही थीं।
हिन्दी ग़ज़ल भी समय और समाज के सापेक्ष सृजनोन्मुख हुई। हिन्दी ग़ज़ल से भी पहले ग़ज़ल का स्वरूप मिलता है। अरबी, फ़ारसी,उर्दू की समृद्ध परम्परा को पार कर ग़ज़ल ने हिन्दी ग़ज़ल का स्वरूप प्राप्त किया। हिन्दी ग़ज़ल का आरम्भिक स्वरूप अब तक ज्ञात तथ्यों के अनुसार अमीर ख़ुसरो से निर्धारित किया जाता है। फ़ारसी और हिन्दी का भाषायी साझापन अमीर ख़ुसरो के यहाँ सर्वप्रथम मिलता है। अमीर ख़ुसरो का जन्म तेरहवीं शताब्दी में हुआ था। हिन्दी ग़ज़ल कोश का आरम्भ हरेराम समीप सूफ़ी संत कवि अमीर ख़ुसरो (सन् 1253 ई.) से करते हैं। जिनकी प्रसिद्ध हिन्दी ग़ज़ल ’जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिंता उतर’ है। यह हिन्दी ग़ज़ल की लगभग सात सौ वर्षों से चली आ रही लम्बी काव्यमयी यात्रा का प्रस्थान बिन्दु है। 
‘हिन्दी ग़ज़ल की आधारभूमि’ खण्ड में कुल बारह रचनाकारों को रखा गया है। जन्मतिथि के बढ़ते क्रम में ये रचनाकार सूची में स्थान पाते हैं। अमीर ख़ुसरो, कबीरदास, प्यारेलाल शोकी, संत मीराबाई, गोपालचंद्र ‘गिरिधरदास’, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पं. बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, पं. प्रतापनारायण मिश्र, श्रीधर पाठक, लाला भगवान दीन, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, पं. नारायणप्रसाद ‘बेताब’ जैसे रचनाकार हिन्दी ग़ज़ल की आधारभूमि की स्थापना की मज़बूत नींव हैं। इसी क्रम में आज़ादी के आन्दोलन में गांधी जी के प्रभाव में लिखी गई ग़ज़लों के रचनाकारों को भी रखा गया है जिन्हें उन दिनों ब्रिटिश शासनकाल में प्रतिबंधित कर दिया गया था। इनमें बहुत से कवि अब तक अनाम रह गए थे जिन्हें इस कोश में रखने से कोश की परिपूर्णता को एक विशिष्ट पहचान प्राप्त हुई है।
अमीर ख़ुसरो की ’हिन्दवी’, कबीर की ‘भाखा’ से सृजन की वाणी पाकर हिन्दी ग़ज़ल आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की सृजन चन्द्रिका से आभामयी हो गई। समीप के शब्दों में,“आधुनिक काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रयासों का ही परिणाम था कि हमें हिन्दी ग़ज़ल की सुव्यवस्थित परम्परा दिखाई पड़ने लगी। अपने युग का प्रतिनिधित्व करने वाले भारतेन्दु ने सर्वप्रथम हिन्दी खड़ी बोली (जो उर्दू के बहुत करीब थी) में ग़ज़ल की संभावनाओं को खोजा।” हिन्दी ग़ज़ल की आधारशिला में कुल बीस रचनाकारों को रखा गया है। गयाप्रसाद शुक्ल ’सनेही’, मैथिलीशरण गुप्त, राधेश्याम कथावाचक, बिन्दु जी, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, शमशेर बहादुर सिंह, गोपालसिंह नेपाली, रुद्र काशिकेय, बलवीर सिंह ‘रंग’, जानकीवल्लभ शास्त्री, शंभूनाथ सिंह, त्रिलोचन जैसे रचनाकार इस खण्ड में सम्मिलित हैं। उल्लेखनीय है कि प्रसाद की लंबी बहर की ग़ज़लें प्रकृति चित्रण और उदात्त प्रेम का निरूपण करती हैं तो ’निराला’ में प्रेम, श्रृंगार के साथ ही सामाजिक विसंगतियांँ भी दृष्टि में हैं। इसके पश्चात् उत्तर छायावादी रचनाकारों में रामेश्वर शुक्ल अंचल, हरिकृष्ण प्रेमी, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, बलवीर सिंह ‘रंग’, रामस्वरूप सिंदूर आदि ने हिन्दी ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने का काम किया। हरेराम समीप लिखते हैं,“अंचल जी की ग़ज़लों का स्वर प्रेम के साथ-साथ सामाजिक दिशा का भी है जबकि हरिकृष्ण प्रेमी की ग़ज़लों में प्रेम, श्रृंगार एवं सुरासुंदरी के दर्शन होते हैं, साथ ही शिल्प की दृष्टि से भी इनकी ग़ज़लें कुछ कमजोर प्रतीत होती हैं।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की ग़ज़लें छायावादोत्तर युग की साहित्यिक विशेषताओं से परिपूर्ण हैं। उनकी ग़ज़लों में प्रेम के विविध स्वरूपों का चित्रण मिलता है। शास्त्री जी की ग़ज़लों में भावभूमि व्यापक है और वहाँ प्रेम की आंतरिक वेदना से लेकर सामाजिक चेतना तक सब कुछ है। शास्त्री जी ने विशुद्ध हिन्दी में ग़ज़लें लिखी हैं। कालांतर में यही परम्परा रूद्र काशिकेय, लाला भगवान दीन, बलवीर सिंह रंग, शमशेर बहादुर सिंह के रचना संसार तक आती है। शमशेर की ग़ज़लों में अनुभूति की प्रधानता है तथा यथार्थवादी सामाजिक परिवेश का चित्रण हुआ है। इन ग़ज़लों में शमशेर ने अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्ति दी है। उनकी ग़ज़लों से हिन्दी में ग़ज़लें के प्रति अभिरुचि और बढ़ी है। शमशेर की ग़ज़लों में उर्दू का प्रभाव है किन्तु उनमें विचारों की नवीनता एवं तीव्रता अपनी संपूर्णता को उद्घाटित करती है।”
हिन्दी ग़ज़ल की आधारशिला में दुष्यन्त कुमार अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। वास्तव में दुष्यन्त कुमार से ही हिन्दी ग़ज़ल अपना एक नया तेवर और स्वरूप ग्रहण करती दिखाई देती है। हरेराम समीप का विचार सटीक है,“हिन्दी ग़ज़ल की इस विकासमान परंपरा में एक क्रान्तिकारी मोड़ हिन्दी कवि-गीतकार दुष्यन्त कुमार तथा उनके कुछ समकालीन तथा परवर्ती रचनाकारों में देखने को मिलता है। दुष्यन्त की ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में नए युग का सूत्रपात माना जाता है। दुष्यन्त की ग़ज़ल नए तेवर लेकर आई जिसमें कहीं आक्रोश था तो कहीं व्यंग्य। ये ग़ज़लें आम आदमी की पीड़ा को मुखरित करती हैं। वे ग़ज़ल के शिल्प को भी बहुत अधिक महत्त्व देते थे। उनकी ग़ज़लें बदलाव के ख्वाब देखने को प्रेरित करती हैं।”
1950 के दशक के बाद जहाँ नयी कविता ने अपना स्थान ग्रहण किया, वहीं हिन्दी ग़ज़ल भी समानांतर रूप से धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही। नयी कविता और हिन्दी ग़ज़ल– दोनों ने ही जनसामान्य के जीवन और उसकी समस्याओं को बौद्धिक दृष्टि से देखने-समझने की कोशिश की है। नयी कविता के बारे में गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ लिखते हैं,“नयी कविता की बद्धमूल धारणा यह थी कि छायावाद जीवन के प्रश्नों को भावुकताप्रधान, कल्पनामूलक, आदर्शवादी दृष्टि से देखता है। इस प्रतिक्रिया का फल यह हुआ कि नयी कविता जीवन की समस्याओं को बौद्धिक दृष्टि से देखने और मिटाने के लिए छटपटाने लगी और उसकी चित्रण पद्धति बौद्धिक हो उठी।” जनसामान्य के जीवन और उसकी समस्याओं को बौद्धिक दृष्टि से देखने की बिल्कुल ऐसी ही कोशिश हिन्दी ग़ज़ल में भी पूरी गहराई से दिखाई देती है। ध्यानपूर्वक देखा जाए तो मुक्तिबोध के ये शब्द हिन्दी ग़ज़ल की प्रवृत्तियों पर भी पूरी तरह से उपयुक्त लगते हैं।
‘हिन्दी ग़ज़ल का नवोन्मेष’ उपखण्ड में हरेराम समीप लिखते हैं,“समकालीन गीतिकाव्य के दौर में जब ग़ज़ल की प्रभावोत्पादकता ने हिन्दी गीतकारों को आकर्षित किया तो हिन्दी गीतकारों की लगभग पूरी जमात ने ग़ज़ल रचना प्रारम्भ कर दिया।” इस खण्ड में कुल अठारह रचनाकारों की ग़ज़लें रखी गई है। यह कालखण्ड सन् 1919 से 1933-40 तक के बीच का समय है। इनमें निरंकारदेव सेवक, स्वामी श्यामानंद सरस्वती ‘रौशन’, श्री आर.पी. शर्मा ‘महरिष’, गोपालदास नीरज, डॉ. रामदरश मिश्र, रामावतार त्यागी, डॉ. उदयभानु हंस, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ओमप्रकाश चतुर्वेदी ‘पराग’ और दुष्यन्त कुमार मुख्य रूप से सम्मिलित हैं।
‘हिन्दी ग़ज़ल का समकाल’ खण्ड पिछले लगभग साठ-सत्तर वर्षों का कालखण्ड हमारे समक्ष रखता है। इस उपखण्ड में कुल 204 रचनाकार सम्मिलित हैं। हिन्दी ग़ज़ल ने सामाजिक परिवर्तनों और यथार्थपरकता को अपने कथ्य में स्थान दिया है। हिन्दी ग़ज़ल द्वारा निर्धारित विचार और मूल्य किसी निश्चित समय अथवा एक निश्चित व्यक्ति के द्वारा निर्मित नहीं किए गए हैं। इसने संघर्षों का एक लंबा दौर देखा है। स्वतंत्रता प्राप्ति  के पश्चात् जनमानस के समक्ष संघर्षों का एक नया दौर आया। जीवन जीने के नए तरीके आए, रहन-सहन के नए दृष्टिकोण विकसित हुए और बदलते समय में जीवन शैली पर वैज्ञानिक अन्वेषण और पाश्चात्य विचारधारा का भी प्रभाव पड़ने लगा।
यहाँ से हिन्दी ग़ज़ल व्यक्ति स्वतंत्रता, सांस्कृतिक चिन्तन, वैज्ञानिक चेतना की ओर धीरे-धीरे बढ़ती दिखाई देती है। यहाँ से हिन्दी ग़ज़ल मनुष्य, जीवन, साहित्य, समाज और संस्कृति के प्रति प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाती दिखती है। हिन्दी ग़ज़ल इस मोड़ पर आकर अनुभूत सत्य की बात करती है। इस दौर में अनगिनत हिन्दी ग़ज़लकारों ने हिन्दी ग़ज़ल को समृद्धि प्रदान की। कल्पनाशीलता, रोमांस, प्रेमभावना जैसे तत्त्व तो हिन्दी ग़ज़ल के कथ्य में समाहित रहे ही, साथ ही हिन्दी ग़ज़ल आमजन की ग़ज़ल बनकर उभरी। हिन्दी ग़ज़ल ने अब जनसामान्य के जीवन-मूल्यों और जीवन-आदर्शो को प्रतिबिम्बित करना आरम्भ कर दिया। यह सब हालाँकि दुष्यन्त कुमार के समय से ही हिन्दी ग़ज़ल में स्थान पता रहा था, परन्तु अब यह हिन्दी ग़ज़ल की एक विशिष्ट पहचान बनकर सामने आया। देश, समाज, व्यक्ति की पक्षधरता अर्थात् जनपक्षधरता हिन्दी ग़ज़ल का मुख्य स्वर बन गये।
‘हिन्दी ग़ज़ल का नवकाल’ खण्ड पिछले बीस-पच्चीस वर्षों का कालखण्ड प्रस्तुत करता है जिसमें तेईस रचनाकारों की रचनाएँ सम्मिलित की गई हैं। नयी पीढ़ी के रचनाकार अपनी नयी सोच, नयी दृष्टि से नवीन सृजनात्मकता का सृजन-संधान करते दिखाई देते हैं। हिन्दी ग़ज़ल में उत्तरआधुनिकता जैसा सम्प्रत्यय अभी बहुत अधिक गुंजाइश रखता है। जिसकी एक आशाभरी बानगी इस कालखण्ड के रचनाकारों में महसूस की जा सकती है। वैज्ञानिक चेतना, बदलते चिन्तन मूल्य, भूमण्डलीकरण के प्रभाव आदि जैसे तथ्य नवकाल खण्ड के रचनाकारों में स्पष्टता से देखे जा सकते हैं। ये दुष्यन्त कुमार की तीसरी पीढ़ी के रचनाकार हैं। विदेश में बसने वाले प्रवासी ग़ज़लकार भी हिन्दी ग़ज़ल की चेतना को अपने लेखनी से जीवंत कर रहे हैं। कुल चौदह रचनाकारों को यहाँ रखा गया है जिनमें गुलाब खण्डेलवाल, प्राण शर्मा, गौतम सचदेव, तेजेन्द्र शर्मा, रेखा राजवंशी, प्रगीत कुँवर, डॉ. भावना कुँवर, योगिता ‘ज़ीनत’, सी.ए. अजय गोयल आदि रचनाकार प्रमुख हैं। 
नि:संदेह कोई भी कोश अपने कलेवर में पूर्णता की कसौटी का कोई दावा कभी नहीं कर सकता। समय की धारा के साथ कुछ न कुछ गुंजाइश उसमें जुड़ने की रहती ही है और रहनी भी चाहिए। फिर भी कुल 311 हिन्दी ग़ज़लकारों की बहुसंख्य मात्रा में प्रस्तुत हिन्दी ग़ज़लें इस कोश की परिकल्पना को प्रामाणिक, प्रकृष्ट, पुष्ट और पठनीय बनाती ही हैं। यह ‘हिन्दी ग़ज़ल कोश’ हिन्दी ग़ज़ल के आरम्भ, इसकी क्रमबद्ध गत्यात्मक परम्परा और इसकी प्रभावगत पठनीयता के साथ-साथ हिन्दी ग़ज़ल की कथ्यात्मक, शिल्पगत और प्रस्तुतिगत उत्तरोत्तर प्रगति को भी लिपिबद्ध करता है। हिन्दी ग़ज़ल के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पक्ष भी यहाँ महसूस किए जा सकते हैं। यहाँ यह भी दर्शनीय है कि किस प्रकार जनवादी चेतना पुराने काव्यगत आधारों के मध्य से अपना मार्ग निर्धारित करती हुई हिन्दी ग़ज़ल में अपना स्थान और प्रभुत्व धीरे-धीरे स्थापित करती गई। पूरे कोश को क्रमबद्ध रूप से पलटे जाने पर हिन्दी ग़ज़ल के अभिव्यक्तिगत,  भाषागत, शिल्पगत मूल्यों की उत्तरोत्तर विकास परम्परा को भलीभाँति समझा जा सकता है।
वास्तव में यह ‘हिन्दी ग़ज़ल कोश’ कालक्रम से रचनाकारों की दो-दो या चार-चार हिन्दी ग़ज़लों का संकलन मात्र ही नहीं है, अपितु हिन्दी ग़ज़ल की विकासशील परम्परा और उसकी प्रयोगशीलता का क्रमबद्ध शब्दांकन भी है। ‘हिन्दी ग़ज़ल कोश’ के अध्ययन से हिन्दी ग़ज़ल का इतिहास भी निरूपित होता है। इस प्रयोजन में यह एक उपयोगी सन्दर्भ-ग्रंथ का भी काम करता है। कोश का प्रस्तुतीकरण हिन्दी ग़ज़ल जैसी विधा को साहित्यिक मानकता भी प्रदान करता है। ख़ुसरो की हिन्दवी, कबीरदास की भाखा से परिपोषित होकर अपनी राह बनाते हुए आज हिन्दी ग़ज़ल ने जो विरासत प्राप्त की है, उसके मानक रूप की सृजनपरक ऐतिहासिक विकासयात्रा यह ‘हिन्दी ग़ज़लकोश’ प्रस्तुत करता है।
डॉ. नितिन सेठी
सी-231, शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005)
मो. 9027422306
डॉ. नितिन सेठी सी 231,शाहदाना कॉलोनी बरेली (243005) मो. 9027422306 drnitinsethi24@gmail.com

2 टिप्पणी

  1. नितिन जी! गजल के बारे में आपने काफी विस्तार से लिखा है सच कहें तो हम तो ग़ज़ल की बारीकियाँ नहीं जानते ।लेकिन हाँ! इतना जरुर जानते हैं की गजल दिल से लिखी जाती है इसलिए दिल से निकाल कर सीधे दिल तक पहुँचती है ।बेहद संवेदनशील होती है।
    300 से अधिक गजलकारों का संग्रह बड़ी बात है।
    गजल का पूरा इतिहास आपने बता दिया। हमने पूरा‌ नही पर बहुत कुछ पढ़ा।
    बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको।

  2. इंद्र कुमार दीक्षित,पूर्व मंत्री ,नागरी प्रचारिणी सभा देवरिया

    हिंदी गज़ल पर बहुत समृद्ध आलेख! नीतिन सेठी जी को हार्दिक शुभकामनाएं।

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