Saturday, July 27, 2024
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डॉ. राज कुमार सिंह का शोध आलेख – तुलसीदास के मानस रोग वर्णन की विश्व साहित्य को देन

तुलसीदास जी का काव्य गंगा जल के सदृश पावन,शांतिप्रदायक व पाप-तापहारी है। गंगाजल शरीर को शीतल व पवित्र करके मन को शांति प्रदान करता है, लेकिन तुलसीदास जी के काव्य में निहित नीतियों का अनुगमन मन को निर्विकार, त्रिताप रहित,निर्मल,विमल,अमल एवं अनामय करके शरीर को स्वस्थ एवं परोपयोगी बनाने का कार्य करता है। ‌“सुरसरि सम सब कह हित होई”1जैसे अद्वितीय वैशिष्ट्य से अनुप्राणित होने के कारण तुलसीदास जी का काव्य लोकमंगल,लोकोपकार,लोकोपचार,लोकचिकित्सा एवं लोकमनोचिकित्सा के भाव से परिपूर्ण है। उनकी रामचरितमानस,विनय पत्रिका एवं वैराग्य संदीपनी मन की समस्याओं के निदान की कृति हैं। ये मूलरूप से मनोचिकित्सा के काव्य हैं। मनोविकारों, मन की समस्याओं,उसकी जटिलताओं और उनकी चिकित्सा का बहुत ही सुन्दर विवेचन मानस एवं विनय पत्रिका में मिलता है।
तुलसीदास के मानस रोग वर्णन का मनोविकारों के अध्ययन की दृष्टि से विश्व साहित्य में अग्रणी स्थान है। मानसिक आरोग्य की दृष्टि से यह सदैव विश्व साहित्य की अमूल्य निधि रहेगा। ऐसा इसलिए कि मनोवैज्ञानिकों ने “कोई भी सामान्य नहीं No One Is Normal”की जो वैचारिकी आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व दी थी,वही बात तुलसीदास ने रामचरितमानस के उत्तर काण्ड एवं विनय पत्रिका के अनेक पदों में आज से लगभग पांच सौ वर्ष पहले सविस्तार कही थी। तुलसीदास जी के अनुसार मनोविकारों का दायरा अत्यंत विशद एवं व्यापक है। सृष्टि का प्रत्येक जीव मनोविकारों से प्रभावित है। तुलसीदास जी ने “मानस रोग कछुक में गाए,हहिं सबकें लखि बिरलेन्ह पाए”2“जिनके बस सब जीव दुखारी”3“कहं लगि कहों कुरोग अनेका”4 “जिन्हते दुख पावहिं सब लोगा”5कहकर न केवल इनकी उपस्थिति और इनके प्रभाव को प्रकाश में लाने का प्रयास किया, अपितु इनकी शाश्वतता एवं प्रकृतिप्रदत्तता की ओर भी संकेत कर दिया था। वैसे भी सोचने समझने की शक्ति के विकास के समय से ही मानव मनोविकारों के प्रभाव में आ जाता है। तुलसीदास ने लिखा है कि हर्ष,शोक,भय, प्रीति और वियोग के भेद से संसार का प्रत्येक जीव मनोविकारों से ग्रस्त है,यथा
“एहिं विधि सकल जीव जग रोगी।हर्ष विषाद भय प्रीति वियोगी।”6
तुलसीदास ने सम्पूर्ण मानव समुदाय के साथ साथ जीव मात्र को इनकी सीमा में समेट लिया है। उनका मानना है कि एक मानस रोग से मुक्त होना ही अपने आप में कठिन है यदि एक से अधिक मानोविकार एक साथ व्यक्ति को सता रहे हों तो उसकी असीम पीड़ा का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। क्योंकि आज का युग संशय,कुंठा, प्रतिस्पर्धा, अवसरों की कमी, एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़, कतिपय बाहुबलियों द्वारा संसाधनों के भंडारण, प्राकृतिक सम्पदा के असीमित विदोहन, दूसरों के धन को झटकने, असुरक्षा,छद्म विज्ञापनों, एक दूसरे को धोखा देने एवं एवं भविष्य को संवारने की चिंता का युग है। इसलिए विश्व में मनोरोगियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। तनावप्रधान जीवन शैली ने मनोविकारों को तेजी से मानस रोगों में परिवर्तित करके उसके रोगियों की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि की है।मनोचिकित्सकों की संख्या भी दिन प्रतिदिन बढ़ रही है, लेकिन समस्या का कोई ओर-छोर दिखाई नहीं दे रहा है। फलत: “मानस रोग चिकित्सा आज एक गम्भीर समस्या बन चुकी है।”7 मानसिक आरोग्य प्राप्ति की दृष्टि से एक लम्बे समय तक तुलसीदास के साहित्य का अध्ययन परम्परागत,शास्त्रात्मक, प्रवचनपरक,अनुष्ठानात्मक ,धर्म एवं आस्था तक ही अधिक सीमित रहा है। जन-सामान्य की मानसिक शांति के लिए रचा गया यह साहित्य इस मायने में सामान्य जीवन से दूर था कि हम “राम कृपा नाशहिं सब रोगा”8 जैसी अनेक पंक्तियों के उच्चारण,स्मरण या अखंड पाठ कराने मात्र से ही बिना श्रम किए अकर्मण्य रहकर संयोगी अथवा भाग्योचित रामकृपा द्वारा मानसिक आरोग्य प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इस विधि को अपनाने से किसी प्रकार का लाभ ही नहीं होता है। आंशिक लाभ अवश्य होता है। कुछ सीमा तक मन को संतुष्टि एवं शांति भी मिलती है। लेकिन सम्पूर्ण आरोग्य के लिए उनके साहित्य में अनुस्यूत आरोग्य प्रदायक सूत्रों, नीतियों, आदर्शों, मर्यादाओं, शिक्षाओं एवं जीवनमूल्यों को हमें ईमानदारी से अपने आचरण में उतारने की आज सबसे बड़ी आवश्यकता है। हमें उक्त पंक्ति के पश्चात् की अर्द्धालियों “जौं एहि भांति बने संयोगा, सद्गुरु वैद बचन विश्वासा,संयम यह न विषय कै आसा, रघुपति भगति सजीवन मूरी,अनूपान श्रद्धा मति पूरी,एहि विधि भलेहिं सो रोग नशाहीं,नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं”9पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करना होगा। जैसे कि “नासैं रोग हरें सब पीरा,संकट कटै मिटै सब पीरा”10 के जप,पाठ या सम्पुट लगाने के साथ साथ हमें “जपत निरंतर हनुमत बीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा”11 में उल्लिखित संदेश को शतप्रतिशत अपने आचरण में उतारकर श्री हनुमान जी का निरंतर जप एवं ध्यान करना होगा। तभी हम तुलसी- साहित्य के मूल संदेश “ब्यापहिं मानस रोग न भारी”12  का भली प्रकार से लाभ उठा सकते हैं।
      मनोविकारों का जितना सूक्ष्म एवं वैज्ञानिक विवेचन तुलसीदास ने किया है उतना कदाचित् ही साहित्य के क्षेत्र में किसी दूसरे कवि या साहित्यकार ने किया हो। तुलसीदास जी के अनुसार भवरोग (बार बार संसार में जन्म ग्रहण करना ) मनोविकारों की वैशाखियों पर आरूढ़ होकर ही विस्तार पाता है। सृष्टि का प्रत्येक जीव मनोविकारों एवं भवरोग का आखेट है। विरले तत्वदर्शी संत ही यह अनुभव कर पाते हैं कि वे मनोविकारों के प्रभाव में हैं। अधिकांश जन समुदाय को यह पता ही नहीं चल पाता है कि वह मनोविकारों से ग्रस्त है। हर व्यक्ति अपने को मानसिक रूप से स्वस्थ मानकर चलता है। इस कारण इनका निदान करना शारीरिक रोगों की तुलना में अपेक्षाकृत कठिन ही नहीं, अपितु बहुत कुछ सीमा तक नामुमकिन भी होता है। ऐसा इसलिए कि ये हमारे स्वभाव और क्रिया कलापों में अत्यंत सूक्ष्मता के साथ घुले मिले होते हैं। इनकी चिकित्सा इनके निदान से भी कहीं अधिक जटिल होती है।मन की समस्या एवं उसके अनारोग्य की चिकित्सा का मार्ग उस क्षण प्रारंभ होता है जब व्यक्ति अपने को मानसिक रूप से असामान्य या विकारयुक्त स्वीकार कर लेता है। “सुन मन मूढ सिखावन मेरो”13में तुलसीदास स्वयं के मन को विकारग्रस्त स्वीकार करते हैं। वे अपने मन को मूढ स्थिति को प्राप्त हुआ स्वीकार करते हैं। इस पद में आगे वे विस्तार सहित हरि विमुखता से मन में उत्पन्न होने वाली विभिन्न जटिलताओं का वर्णन करते हैं। “मोह मूढ़ मन बहुत बिगोयो”14में भी मन की विकृतिजन्य समस्याओं का उल्लेख एवं उनका समाधान प्रस्तुत किया गया है।स्वयं को अन्य सभी से उत्तम या श्रेष्ठ समझना अपने आप में एक मनोविकार है। इस मनोविकार का आधार रूप-रंग-आकृति की श्रेष्ठता,विद्वता, शारीरिक बल, स्वस्थता,धन बाहुल्य, जातिगत उच्चत्व की ग्रंथि,पद प्रतिष्ठा एवं किसी भी प्रकार का मद हो सकता है। आत्म प्रसंशा इसी मनोविकार की सगी बहन है। अहंकार इसका बड़ा भाई है।मानस का नारद मोह प्रसंग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। काम पर विजय के उपरांत नारद जी जोकि विष्णु भक्त एवं ज्ञानी भी हैं स्वयं को क्षेष्ठ समझने, आत्मप्रशंसा एवं तत्जन्य अहंकार जैसे मनोविकारों के प्रभाव में आ जाते हैं। प्रभु द्वारा माया से मुक्त कर दिए जाने के उपरांत यद्यपि वे बहुत कुछ सीमा तक सामान्य हो जाते हैं तथापि श्री राम के अवतार ग्रहण तक उनके मन में यत्किंचित् संदेह बना रहता है। सीता हरण के उपरान्त विरही राम से वे यह पूछ ही लेते हैं कि “तब विवाह मैं चाहहुं कीन्हा, प्रभु केहि कारन करहिं न दीन्हा”15 श्री राम “मोरे प्रौढ़ तनय सम ज्ञानी,बालक सुत सम दास अमानी,जनहिं मोर बल निज बल ताही,दुहु कहं काम क्रोध रिपु आही,अस बिचारि पंडित मोहि भजहीं, पाएहु ज्ञान भगति नहिं तजहीं”16 जैसे अनेक तर्कों द्वारा सुदीर्घ समय से उनके मन में निवसित संदेह को निर्मूल करने का प्रयास करते हैं। अहंकार अनेक मनोविकारों को जन्म देने के कारण चिकित्सा की दृष्टि से दु:साध्य होता है, यथा“संसृति मूल सूलप्रद नाना,सकल सोक दायक अभिमाना।”17
तुलसीदास जी संत एवं सद् गुरुओं द्वारा प्रदत्त शांति की शिक्षा को अपनाने पर बल देकर अंहकार की चिकित्सा का मार्ग प्रशस्त करते हैं-
“तुलसी सुखद शांति को सागर।संतन गायो करन उजागर।
तामें तन मन रहै समोई।अहं अगिनि नहिं दाहै कोई।
अहंकार की अगिनि में,दहत सकल संसार।तुलसी बांचें संतजन, केवल शांति आधार।”18
तुलसीदास द्वारा प्रतिपादित दास्य भाव की भक्ति से आत्मप्रशंसा, अहंकार एवं मद से उत्पन्न सभी प्रकार के मनोविकारों  की पूर्ण चिकित्सा संभव है। इसी भक्ति का आश्रय ग्रहण करके तुलसीदास जी ने अनेक स्थलों पर अपने को लघु से लघु, तुच्छ से तुच्छ एवं दुर्गुण युक्त स्वीकार किया है, यथा
“तुम सो बडौ है कौन, मोसो कौन छोटो।तुम सो खरो है कोन मोसों कौन खोटो।”19
“सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमंत।मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।”20
“अस अभिमान जाइ जनि भोंरे,मैं सेवक रघुपति पति मोरे।”21
तुलसीदास जी की सबरी भी भक्ति मार्ग में प्रचलित इसी परम्परा के अनुरूप अपनी लघुता के वर्णन द्वारा जन सामान्य के लिए अहंकार नामक मनोविकार से बचने का मार्ग सुझाती हैं
“अधम ते अधम अधम अति नारी।तेहिं पर मैं मतिमंद अघारी।”22
काम नामक मनोविकार दुर्निर्वार अथवा दुर्दमनीय विकारों में गणनीय है। मनोवैज्ञानिकों के पास भी इसकी कोई उचित चिकित्सा नहीं है। तुलसीदास जी ने इस विकार की चिकित्सा का सर्वांगीण समाधान प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार संतानोत्पत्ति के लिए स्वपत्नी के साथ संयत काम व्यवहार के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार का अतिरेक इस मनोविकार का प्रमुख कारण है। तुलसीदास जी श्री राम की भक्ति द्वारा इस मनोविकार के शमन का मार्ग प्रशस्त करते हैं,यथा-“राम भजन बिनु मिटहि कि कामा।”23, “जिमि हरिजन हिय उपज न कामा।”24
“धरी न काहू धीर, सबके मन मनसिज हरे।जे राखे रघुबीर,ते उबरे एहि काल महुं।”25
तुलसीदास जी ने संतोष नामक वृत्ति को काम सहित अनेक मनोविकारों की चिकित्सा के लिए निरापद औषधि माना है,यथा-“बिन संतोष न काम नशाहीं,कामअछत सुख सपनेहु नाहीं।”26
तुलसीदास जी काम नामक मनोविकार से सतत् सचेष्ट रहने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार भले लोगों के संग, संतों के साथ सत्संग,सत्साहित्य के पठन-पाठन, बड़ों के सकारात्मक मार्गदर्शन, माता-पिता-गुरु व समाज की रचनात्मक एवं मंगलमयी निगरानी से हमारी मानसिकता विकृत होने से बच सकती है। वे विचारों के परिमार्जन,  सकारात्मक सोच, कामविकृतियों के परिष्कार, भावनाओं के सुचीकरण, दृष्टि के बदलाव एवं मूल्यों के अनुपालन द्वारा काम नामक मनोविकार का उपचार किए जाने के पक्षधर हैं। तुलसीदास जी पत्नी को छोड़कर संसार की सभी नारियों में मातृ भाव रखने के द्वारा काम विकृतियों का परिष्करण करने का संदेश देते हैं,यथा-“जननी सम जानहि पर नारी।”27, “पर त्रिया मात समान।”28
तुलसीदास जी स्वपत्नी के साथ भावप्रवणता अथवा कामावेग के क्षणों में भी मर्यादित,नीति सम्मत,परदायुक्त, एकांतिक काम-व्यवहार के पक्षधर हैं,यथा-
“नीति प्रीति यश अयश गति,सब कहं सुभ पहचान।बस्ती हस्ती हस्तिनी देत न पति रति दान।”29काम-नियमन के संदर्भ में तुलसीदास जी की इस वैचारिकी का विश्व साहित्य में अद्वितीय स्थान है। ऐसा इसलिए कि पश्चिम के फ्रायड एवं युंग जैसे मनोविश्लेषकों के सदृश काम-सेवन की खुली छूट देकर अनियंत्रित कामनाओं को स्वप्न में भी नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। तुलसीदास जी राग की अधोगामिता के पक्षधर नहीं हैं। उनकी दृष्टि में काम का शास्त्र एवं धर्मसम्मत मर्यादित सेवन ही सृष्टि के लिए मंगलकारी होता है। कामापूर्ति में किसी भी प्रकार का अवरोध क्रोध नामक मनोविकार को जन्म देता है। इस प्रकार व्यक्ति एक साथ दो विकारों से ग्रसित हो जाता है। क्रोध का शमन भी संतोष नामक वृत्ति से ही संभव है,यथा-
“नहिं संतोष तो पुनि कछु कहहू।”30
विश्व के अनेक लोग आज अवसाद नामक मनोविकार से ग्रस्त हैं। आज का नवयुवक भी प्रतिस्पर्धी जीवन शैली के चलते स्वयं के भविष्य की अनिश्चितता के कारण न्यूनाधिक रूप से धीरे धीरे अवसाद की सीमा में प्रवेश करता जा रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में मनोचिकित्सकों का यह मानना है कि जिस कारण से अवसाद उत्पन्न होता है यदि उस कारण या जटिलता का निराकरण कर दिया जाए तो इस रोग से ग्रस्त मनोरोगी धीरे धीरे ठीक हो जाता है। रामचरितमानस में श्री राम वन गमन के उपरांत अयोध्या के अधिकांश लोग अवसादग्रस्त हो जाते हैं।भरतजी ने भारद्वाज मुनि से स्वयं इस रोग की भयावहता की चर्चा की थी,यथा-
“एहि कुरोग कर औषधि नाहीं,सोधेहु सकल विश्व मन माहीं।”31
भारद्वाज जी ने अवसाद के मूल कारण का ठीक से निदान करके निम्नलिखित औषधि से रोग दूर होने की बात कही थी, यथा-“मिटहि कुजोग राम फिर आए।”32
अर्थात् राम के पुनः आने से यह अवसाद नामक कुरोग समाप्त हो जाएगा। अवसाद के संदर्भ में प्राचीन समय से ही भारत को इस रोग के निदान की विधि का ज्ञान था। इसे भारत की विश्व को देन के रूप में मूल्यांकित किया जा सकता है। चिंता इस मनोविकार के साथ आवश्यक रूप से घुली मिली रहती है। तुलसीदास जी ने चिंता को भी विश्वव्यापी माना है, यथा-“चिंता सांपिन को नहिं खाया,को जग जाहि न व्यापी माया।”33
तुलसीदास के अनुसार श्री राम की भक्ति से समस्त चिंताएं समाप्त हो जाती हैं, यथा-
“राम भगति चिंतामनि सुंदर।”34, “तात भगति अनुपम सुख मूला।”35
“तुलसी चित-चिंता न मिटै, बिनु चिंतामनि पहिचाने।”36
“राम भगति मनि बस उर जाके।दुख लवलेश न सपनेहु जाके।”37
“तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।”38, “श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं।
रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।”39
लोभ एक असाध्य मनोविकार है। अधिकांश लोग कभी न कभी इसके प्रभाव में आ जाते हैं, यथा-“केहि के लोभ बिडम्बना कीन्ह न ये संसार।”40
 एक के बाद एक लाभ होने पर यह रोग और अधिक वृद्धि को प्राप्त होता रहता है, यथा–
“जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।”41
तुलसीदास जी के अनुसार लोभ के मूल में अर्थ होता है, यथा-“लोभी के प्रिय दाम।”42
इस मनोविकार की जड़ पर प्रहार करते हुए तुलसीदास जी ने अर्थार्जन की शुचिता के उपाय को अपनाने का संदेश देकर इसका समुचित उपचार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, यथा-
“पर धन कूं मिट्टी गिनै।”43, “धन पराव विष ते विष भारी।”44
“कंचन काचहिं सम गिने।”45, “कंचन कूं मृतिका कर मानत।”46
तुलसीदास जी संतोष नामक वृत्ति को अपनाने की बात कहकर लोभ नामक मनोविकार के उपचार का मार्ग प्रशस्त करते हैं, यथा-“जिमि लोभहिं सोसहि संतोषा।”47
तुलसीदास जी के अनुसार मोह (अज्ञान/विपरीत ज्ञान) सभी प्रकार के मनोविकारों का हेतु है, यथा-“मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।तेहि ते पुनि उपजहिं बहु सूला।”48
तुलसीदास ने मोह को असाध्य मनोविकारों की श्रेणी में रखा है, यथा-
“मोह जनित मल लाग विविध विधि कोटिहुजतन न जाई।”49
मोह (विपरीत ज्ञान) देह में अहंता और संबंधियों में ममता स्थापित करके भेद दृष्टि उत्पन्न करता है। इससे मैं और मेरा, तुम और तुम्हारा का भाव बलीभूत होता है। तत्पश्चात् यह राग, द्वेष, ईर्ष्या जैसे अनेक मनोविकारों के उत्पन्न होने में कारण बनता है, यथा-
“ममता तरुन तमी अंधियारी।राग द्वेष उलूक सुखकारी।”50
ममता दाद के सदृश दुखदाई होती है, यथा-“ममता दाद कंडु इरषाई।”51
 तुलसीदास के श्री राम के अनुसार सभी प्रकार की मामता रूपी  धागे को  यदि प्रभु के चरणों में बांध दिया जाए तो इससे छुटकारा मिल सकता है, यथा-
“जननी जनक बंधु सुत दारा।तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।
सबके ममता ताग बटोरी।मम पद मनहिं बांधि बर डोरी।”52
उनके अनुसार ज्ञानी पुरुष ममता से मुक्त हो जाते हैं,यथा-
“ममता त्याग करहि जिमि ज्ञानी।”53
ज्ञान और वैराग्य के अभाव में मोह उत्पन्न होता है, यथा-
“सुनि मुनि मोह होइ मन ताके, ज्ञान विराग हृदय नहिं जाके।”54
निर्मल ज्ञानी (बुध पुरुष) ज्ञान के द्वारा मोह का त्याग करने में सक्षम होते हैं,यथा 
“जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।”55
एक अन्य उपाय के अंतर्गत तुलसीदास जी सत्संग के द्वारा मोह के उन्मूलन की बात कहते हैं, यथा- “बिनु सत्संग न हरि कथा तेहिं बिन मोह न भाग।
मोह गए बिन राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।”56
कुल मिलाकर ‘मानस रोग’या मनोविकार मन में होने वाले सूक्ष्म रोग होते हैं। ये न तो शीघ्र दिखाई देते हैं और न ही ठीक से समझ में आते हैं। ऐसा इसलिए कि कोई भी मनोरोगी अपने को विकारग्रस्त मानने को तैयार नहीं होता है। विश्व के अधिकांश लोग इन विकारों की चपेट में हैं। मनोचिकित्सकों की भी अपनी एक सीमा है। मनोचिकित्सक विभिन्न दवाओं के द्वारा मनोरोगी के लक्षणों की चिकित्सा करते हैं। इन दवाओं के आनुषंगिक एवं इतर प्रभाव भी होते हैं। इससे रोगी और परेशानी में पड़ जाता है। तुलसीदास जी ने योग, नियमित दिनचर्या, सहज उपलब्धता में संतोष, धैर्य,क्षमा,दया,परहित संलग्नता, समरसता,आदर्श जीवन शैली, संयमित जीवन,भले लोगों के संग, निर्मल ज्ञानियों के साथ, बड़ों के मार्गदर्शन में रहने, जीवन मूल्यों के अनुपालन एवं प्रभु की भक्ति के द्वारा मन के विकाररहित होने की बात कहकर इन रोगों की चिकित्सा का निःशुल्क,निरापद और सर्वांगीण उपाय प्रस्तुत किया है। तुलसीदास ने उस काल खंड में भी मानसिक और भावनात्मक परेशानियों से गुजर रहे लोगों को संयम,धैर्य,साहस, निडरता, संतोष, आत्मविश्वास एवं आचरण की शुद्धता की शिक्षा देकर क्लीनिकल साइकोलाजी एवं काउंसलिंग विभागों जैसा कार्य करके, दिशा परिवर्तन द्वारा रोगियों का मनोबल बनाए रखकर उनकी दशा में सुधार लाने का प्रयास किया था। ऐसा करके हम मानसिक रोगों की खर्चीली चिकित्सा की गुलामी से मुक्ति पाकर अपनी प्राचीन सम्पदा के गौरव को पुनः स्थापित कर सकने की ओर कुछ कदम बढ़ा सकते हैं। तुलसीदास के मानस रोग वर्णन की यह विश्व साहित्य के लिए अनुपम देन कही जा सकती है। मेरा ऐसा मानना है कि मन की चिकित्सा उक्त उपायों से बहुत कुछ सीमा तक हो सकती है।
डॉ. राज कुमार सिंह
प्राध्यापक-हिंदी
शास एम. एल. बी. महाविद्यालय
ग्वालियर (म.प्र.)
——000——
//संदर्भ सूची//
1.तुलसीदास,रामचरितमानस-1,13,9 2.वही-7,121,2 3.वही-7,119,8
4.वही-7,120,37 5.वही-7,120,28 6.वही-7,121, ख1
7.डॉ.राजकुमार सिंह, तुलसीदास की ज्ञान विज्ञान सम्पदा, पृष्ठ-133
8.मानस-7,121, ख-5 9.वही-7,121ख-6से8
10.हनुमान चालीसा 11.हनुमान चालीसा
12.मानस-7,119, ख-8 13.विनय पत्रिका 14.वही
15.मानस-3,42,3 16.वही-3,42,8 से 10 17.वही-7,73,6
18.तुलसीदास, वैराग्य संदीपनी-51,53 19.तुलसीदास, विनय पत्रिका 20.मानस-4,3
21.वही-3,10,21 22.वही-3,34,3 23.वही-7,89,2
24.वही-4,14,10 25.वही-1,85,0 26.वही-7,89,1
27.वही-2,129,6 28.तुलसी सतसई 29.वही 
30.मानस-1,273,7 31.वही-2,211,2 32.वही-2,211,6
33.वही-7,70,4 34.वही-7,119,2 35.वही-3,15,4
36.विनय पत्रिका-235,4 37.मानस-7,119,9 38.वही-7,119,7
39.वही-7,121,14 40.वही-7,70, क 41.वही-6,179,2
42.वही-7,130, ख 43.तुलसी सतसई 44.मानस-2,129,6
45.वैराग्य संदीपनी-27 46.वही-28 47.मानस-4,15,3
48.वही-7,120,29 49.विनय पत्रिका-82,1 50.मानस-5,46,3
51.वही-7,120,33 52.वही-5,47,4 53.वही-4,15,5
54.वही-1,128,1 55.वही-4,14,8 56.वही-7,61
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