देश 14 सितंबर, 2024 को संविधान सभा द्वारा हिंदी को राजभाषा स्वीकार करने के 75 वर्ष पूर्ण करने जा रहा है। आज जब देश की राजभाषा अंगीकृत हुए हिंदी को 75 वर्ष हो गए तो हमें यह अवश्य विचार करना चाहिए कि क्या देश ने राजभाषा हिंदी के साथ न्याय किया है? ऐसे में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के विचार दृष्टव्य हैं कि “हिंदी इसलिए महान् नहीं है कि हममें से कुछ लोग इस भाषा में कविता या कहानी लिख लेते हैं या सभा, मंचों पर व्याख्यान दे लेते हैं या दस-बारह करोड़ आदमी उसमें बातचीत कर लेते हैं। हिंदी को इतनी ही सीमा में आबद्ध समझना उसकी वास्तविक शक्ति को गलत कूतना है। हिंदी विराट् जनसंख्या के कारण बड़ी नहीं है। कोई भी भाषा महज इसलिए बड़ी नहीं हो जाती कि उसके बोलनेवालों की संख्या अधिक है। वह इसलिए बड़ी है कि करोड़-करोड़ जनता के हृदय और मस्तिष्क की भूख मिटाने का वह इस देश में सबसे जबरदस्त साधन है। वह इसलिए बड़ी है कि भारतवर्ष की हजारों वर्ष की अपरिमेय चिंताराशि को ठीक-ठीक सुरक्षित रख सकने का वह सुरक्षित पात्र है। वह इसलिए बड़ी है कि करोड़ों की तादाद में अकारण कुचली हुई गूँगी जनता तक आशा और उत्साह का संदेश इस जीवंत और समर्थ भाषा के द्वारा दिया जा सकता है। वह इसलिए बड़ी है कि उसके आँचल की छाया में ऐसे हजारों महापुरुषों के पनपने की संभावना है जो न केवल इस देश को बल्कि समूचे संसार को विनाश के मार्ग से बचाने की साधना करेंगे।”
हिंदी ने देशवासियों को आपस में जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय संपर्क, संवाद, भाव-विचार, परस्पर समन्वय में हिंदी की महत्वपूर्ण भूमिका सिद्ध है। ईसा पूर्व से ही पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, दक्खिनी, हिंदुस्तानी तथा राजभाषा हिंदी के रूप में भारत में परस्पर संचार, कारोबार, संवाद एवं अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में हिंदी रही है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान देश के सभी महान सेनानियों ने राष्ट्रभाषा हिंदी की भूमिका को समझा और प्रतिपादित किया। आधुनिक युग में भी हिंदी ने अर्थ, बाजार, कारोबार, संपर्क, कला, सिनेमा, साहित्य एवं मीडिया की भाषा के रूप में इसे भली-भांति रेखांकित किया है।
हिंदी ने यह शक्ति और स्वीकार्यता लोकसत्ता के बल पर लोकमानस में पाई है। देश के स्वाधीनता संग्राम में हिंदी के अतुलनीय योगदान को भला कौन भूल सकता है, पर यह भी विडंबना है कि सत्ता की ताकत इससे सदैव दूर रही। लोकसत्ता के प्रभाव से ही हिंदी को स्वतंत्र भारत की राजभाषा का दर्जा मिला पर वास्तविक सत्ता से हिंदी दूर रहीं। यही कारण है कि राजभाषा होने के बावजूद सत्ता वर्ग में इसे वह हक नहीं मिला जिसकी हिंदी अधिकारिणी है।
सत्ता व व्यापार की ताकत जिस भाषा के साथ रहती है वही भाषा समृद्ध होती है। आज की हिंदी के ऊपर भी यह बात लागू होती है। दिन-प्रतिदिन मजबूत होती भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ आज दुनिया के अधिकांश देश अपना संबंध बेहतर करना चाहते हैं और भारत को बेहतर तरीके से जानने–समझने के लिए भारत की राजभाषा, संपर्क भाषा, कला–संस्कृति, कारोबार एवं मनोरंजन की भाषा हिंदी को जानना-समझना आवश्यक मानते हैं। वर्तमान सरकार की स्पष्ट भाषा-नीति, सूचना-क्रांति एवं हिंदी के चार्तुदिक महत्व ने इसकी अपार क्षमता को सशक्त किया है। अब यह कहा जा सकता है कि ‘वक्त बदल गया है।’ देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी विश्व के हर मंच पर हिंदी में अपनी बात कहना गर्व की बात समझते हैं। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है राजभाषा हिंदी ही इस देश की प्रमुख भाषा है। राजभाषा हिंदी ही विश्व मंच पर भारत एवं भारतीयता की पहचान है।
हिंदी को देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक विकास का इंजन माना जाता है। हिंदी उत्तर, पूर्वी, दक्षिणी व पश्चिमी भारत के अधिकांश प्रांतों में बोली व समझी जाती है। दक्षिण व पूर्व के कुछेक प्रांतों में हिंदी के साथ क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि हिंदी में अभिव्यक्ति से व्यक्ति, समाज या संगठन का विस्तार राष्ट्रीय फलक को पाता है। इस भाषा के प्रयोग से व्यवसाय के नए-नए आयाम स्वत: प्रशस्त हो जाते हैं। भारतीय जन की अभिव्यक्ति यदि हिंदी में हो तो यह देश की सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक विस्तार को सकारात्मक स्वरूप प्रदान करती है।
आज जब देश हिंदी के राजभाषा स्वीकार करने के 75 वर्ष पूर्ण करने जा रहा है तो हिंदी को उसका मूल अधिकार देना ही होगा। हिंदी की स्थिति पर विचार करते हुए भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ डॉ. विद्यानिवास मिश्र कहते हैं – झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने कहा था, ‘मेरी झांसी मुझे वापस चाहिए।’ मैं भी हिन्दी के लेखक की हैसियत से यही मांगता हूँ कि मेरा तो कोई प्रदेश नहीं, कोई वर्ग नहीं, मज़हब नहीं, सिर्फ़ एक देश है, उसे वापस लाओ। बंद करो यह ढोंग कि हिन्दी संपर्क भाषा है। सारा राज-काज अँग्रेजी में, फारसी में या लैटिन में चलाओ! हिन्दी के विकास के मालिकों, हिन्दी को जीनो दो, छूछे सम्मान का जहर न दो, हिन्दी को, देश को वापस बुलाने का अवसर दो।” (अस्मिता के लिए – से साभार)
हिंदी की क्षमता को देश ने राष्ट्रीय एकता, सम्पर्क, कारोबार, कला, संस्कृति की भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है। बदलते परिदृश्य में अंग्रेजी के आधिपत्य को हटाने और हिंदी की भूमिका की संवृद्धि के लिए यह ज़रूरी है कि भारत में इसे ज्ञान-विज्ञान में शिक्षण और संप्रेषण के रूप में विकसित होने वाली भाषा के रूप में मजबूती के साथ स्थापित किया जाए। विविध विधाओं में यह अनुसंधान की भाषा के रूप में उभरे। इस हेतु सरकारों को अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है। हिंदी ज्ञान-विज्ञान की भाषा है इसे प्रतिपादित करना होगा।
देश के युवाओं को इस हेतु विश्वास दिलाने की आवश्यकता है। विश्वविद्यालयों को हिंदी में निर्वचन-विधि का विकास करना होगा। उदाहरण के लिए, विधि की शिक्षा विधि को जानने-समझने, इसके अर्थबोध की शिक्षा है। विधि का अर्थबोध एक निर्वचन की प्रणाली है, एक व्याख्या की प्रणाली है और इस हेतु भारतीय परंपराओं की शरण में जाना होगा। हिंदी मन का विधिशास्त्र विकसित करना होगा। वित्त एवं बैंकिंग क्षेत्र में भी यही बात लागू होती है। वास्तव में, हिंदी भारत में उच्च स्तर पर भारतीय वाक् के रूप में अल्पांश रूप में ही उपस्थित है। इसे बदलने हेतु हम सभी को समवेत होकर कार्य करना होगा। हालांकि नयी शिक्षा नीति से आशा की किरण जगी है; फिर भी हमें अभी मीलों आगे जाना है।
उच्च एवं तकनीकी शिक्षा में वर्तमान सरकार की पहलों से कुछ बदलाव दृष्टिगत हुए है। परंतु इसे प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर लाना होगा। हिंदी अब भारत सरकार की भाषा के रूप में विश्व मंच पर प्रतिष्ठित हुई है। पर मूल पक्ष है हिंदी को यथासंभव शीघ्र अंग्रेजी के स्थान पर प्रतिष्ठित करना और इस हेतु निष्ठापूर्वक निम्नांकित योजनाएँ कारगार हो सकती हैं-
-
देश के सभी विश्वविद्यालयों में हिंदी माध्यम या एक विषय के रूप हिंदी को पढ़ाने की व्यवस्था।
-
वैज्ञानिक अनुसंधान संबंधी विषय भी लेखकगण हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में पुस्तकों एवं शोध-पत्रों के रूप में उपलब्ध कराएँ।
-
त्रिभाषा सिद्धांत तत्काल सर्वत्र दृढतापूर्वक अनिवार्य बनाकर अमल में लाया जाए।
-
केंद्रीय शासन की सेवाओं के लिए हिंदी का पर्याप्त ज्ञान अनिवार्य बनाया जाए।
-
सबसे उत्तम उपाय सरकारी या निजी स्तर की राष्ट्रीय एवं एक से अधिक राज्यों की नौकरियों में हिंदी को महत्ता दी जाए।
-
देश की भाषाओं में शाब्दिक एकता को देखते हुए यह भी एक सार्थक पहल हो सकती है कि विनोबा भावे जी की महत्वपूर्ण पहल कि, “समस्त भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि ‘देवनागरी’ को अपनाया जाए।” देश की अधिकांश भाषाएँ संस्कृत से प्रभावित हैं और उनकी वर्णमाला भी एक है। अत: थोड़ी उदारता एवं त्याग से इस महत्वपूर्ण समस्या को हल कर सकते हैं। कृत्रिम मेधा के इस युग में भाषिणी जैसी भाषायी तकनीक आने के बाद और सहजता ही आएगी।
काफी अच्छा लेख है आपका साकेत जी! हम आपकी हर बात का समर्थन करते हैं और आपकी हर बात से सहमत भी हैं। हमारा बस चले तो हम तो पढ़ाई का माध्यम सिर्फ हिंदी का ही रखें ।अंग्रेजी माध्यम होना ही नहीं चाहिये। हिंदी मीडियम से पढ़कर भी हमारे स्कूल के बच्चे बड़ी-बड़ी पोस्ट पर अपना नाम रोशन कर रहे हैं। हिंदी मीडियम में पढ़ने वाले बच्चे दूसरी भाषा के तौर पर अंग्रेजी को सही तरीके से सीखते हैं लेकिन अंग्रेजी मीडियम में पढ़ाई जाने वाली हिंदी पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता। दसवीं के बाद तो हिंदी को खत्म कर दिया जाता है सीबीएसई स्कूलों में,जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। यहाँ पर हमारा जबरदस्त विरोध है की सीबीएसई स्कूलों में दसवीं के बाद हिंदी हटा दी जाती है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिये।हमने तो देखा कि कई मिशनरी स्कूलों में हिंदी दिवस का कोई कार्यक्रम भी नहीं किया जाता है।
यह सब काफी दुखद लगता है। काश लोगों का ध्यान इस ओर जाए।
बहुत-बहुत बधाई आपको इस लेख के लिए।
सार्थक टिप्पणी एवं उत्साहवर्धन के लिए आभार