Saturday, July 27, 2024
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डॉ शशिकला त्रिपाठी का लेख – हरीचरन प्रकाश की कहानियाँ: तंत्रात्मक विकृतियों के उत्खनन का संदर्भ

रचनात्मक भाषा, रचनाकार की संवेदनात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत विशिष्ट भाषा होती है, जनसंवाद का माध्यम जैसी सपाट नहीं। प्रेमचन्द, सामाजिक बोध, गहरे जनसरोकार और गहन संवेदनात्मक लगाव की वजह से बेशक श्रेष्ठ रचनाकार कहलाए और उनकी गोदान जैसी रचना मील की पत्थर साबित हुई, परन्तु, इसका यह तात्पर्य नहीं कि ‘कला’ का महत्व नहीं होता। कलात्मक कौशल से ही  सर्जनात्मकता संभव हती है, प्रेमचन्द की कृतियाँ भी इसकी अपवाद नहीं। शैल्पिक सौन्दर्यदृष्टि और मनमोहक कथाविन्यास से ही कृति उत्कृष्ट होती है, इस कथन में औचित्य प्रतीत होता है। ‘उसने कहा था’ कहानी को आधुनिक कहानी का प्रस्थान-बिन्दु कहा जाता है। कहना न होगा कि वह कहानी अपने शैल्पिक विन्यास, नई प्रविधि और विषयानुरूप भाषा की गत्यात्मकता और प्रभावमयता के कारण ही बहुचर्चित हुई। सत्य यही है कि कथ्य और प्रस्तुति दोंनो के नयेपन और प्रभावशाली सुन्दर समन्वय से ही रचना चर्चित- सराहनीय होती है।
समकालीन कहानी लेखन में भाषा के प्रति अतिरिक्त सजगता दिखायी देती है। ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह और उदय प्रकाश, शिवमूर्ति, अखिलेश;   जिस तरह कहानी कला तथा भाषिक अन्दाज के नये कौशल से देशकाल के निरूपण में नवीन स्फूर्ति- ऊर्जा लाते हैंउसी परम्परा में कहानीकार हरीचरन प्रकाश भी खड़े दिखायी देते हैं। उनके चार कहानी संग्रह- ‘जीविका जीवन’ ‘उपकथा का अंत’, गृहस्थी का रजिस्टर, ‘सुख का कुआँ खोदते हुए: दिन-प्रतिदिन‘  और दो उपन्यास-एक गंधर्व का दुःस्वप्न तथा बस्तियों का कारवाँ‘ प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कथाकृतियाँ अपने कलात्मक गठन में गम्भीर पाठ की अपेक्षा करती हैं। सतर्क और संयमित शब्दमैत्री, वाक्यविन्यास का सर्जनात्मक प्रयग तथा व्यंजनात्मक शैली से उनकी भाषा सघन हुई है। कहीं-कहीं भाषा का खिलंदड़ापन भी लक्षित होता है जिससेः कहानियाँ अपने भाषिक रचाव मे मलिकता का आस्वाद देती हैं।
हरीचरन की कथामंगिमा की एक खासियत कथावस्तु का संग्रथन- गठन है। उनकी कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जो आदि, मध्य और अंत की कथा-बुनावट में एक तार में नही होतीं। प्रतीत होता है जैसे रचनाकार लिखते-लिखते तय करता हो कि कथानक के तन्तुओं को किस विषय रूप में आकार दें। आरम्भ और अंत के विधान में विस्तार कुछ भटकाव लिए भी होता है। ‘रमेशचन्द्र आर्य की कहानी‘ और ‘सावित्री भाभी की खरीदारी‘ जैसी कहानियाँ मुझे कुछ ऐसी ही लगीं। शिल्प विधान का एक दूसरा रूप भी है, जिसमें कहानी के प्रति पृष्ठ पर कथ्य की दिशा मुखरित होने लगती है। जैसे, ‘सपनों का पिछला दरवाजा‘ कहानी एकदम अंत में नहीं खुलती। पूरी रचना प्रक्रिया में कहानी-कथा के सूत्र बड़़ी खूबसूरती से विकसित किये गये है। लेकिन, कथा-पल्लवन की उनकी एक विशिष्टता सभी कृतियों में घटित होती है; समय-समाज की जटिलता कपूरी द्वन्द्वात्मकता में उभरने की प्रयत्नशीलता। परिणामस्वरूप, कहानियाँ अधिक लम्बी हो  गयी हैं क्योंकि मुख्य कथा को (उद्देश्य को) बल देने के लिए रचनाकार कई-कई उपकथाओं का सृजन करता है। फिर भी, सुखद यह कि विविध प्रसंगों और घटनाओं को समेट लेने का उसमें सामर्थ्य  है। कहानी के प्रारम्भ और अंत का सम्बन्ध येन-केन प्रकारेण रचनाकार बना लेता है लम्बे विस्तार के बावजूद भी।  प्रारम्भिक पृष्ठों में जिन घटनाओं का उल्लेख हुआ होता है, वे सब प्रासंगिक कथा सिद्ध होते हैं। जाहिर है, रचनाकार अपने लेखन में समाजिक परिवेश और परिस्थितियों के चक्रव्यूह में मनुष्य की विसंगतियों, विडम्बनाओं और राग-विराग को अधिकाधिक समेट लेना चाहता है। हालाँकि, विषय-विस्तार के कारण कहीं-कहीं पठनीयता बाधित होती है।
हरीचरन कहानी के सुपरिचित जमीन को  लाँघते हैं। वे उस व्यवस्था के अंतर्विरोध को  उजागर करते हैं जिसे उन्होंने बहुत नजदीक से देखा है। लूट-खसोट, हिंसामारकाट तथा भ्रष्टाचार का कीट किस तरह लोकतान्त्रिक व्यवस्था के विभिन्न अनुशासनों शासन- प्रशासन में प्रवेश किया हुआ है, अर्थात् प्रजातन्त्र का अब असली चेहरा क्या है तथा लक-प्रतिनिधि और लालफीताशाही के अन्तर्संबन्ध क्या हैं, इनकी सच्ची तस्वीर कैसी होइन प्रश्नोंो  कहानियों में अधिक प्राथमिकता मिली है। दूसरे शब्दों में, समाज और तन्त्र की विसंगतियाँ कहानियों के मूल में हैं। प्रशासन की धारहीन कार्यप्रणाली, समन्वयवादी नीति, भारतीय संस्कृति और परम्परा का बाजारीकरण तथा नव सामन्तवादी प्रवृत्तियों को  केन्द्रीय विषयवस्तु बनाते हुए कहानीकार ‘तस्वीर का तिलक’, ‘उपकथा अंत’ और ‘डेढ़ टाँग की सवारी’ लिखता है। कहना चाहा है, आजाद हिन्दुस्तान में वे आदर्शपरक मूल्य अपदस्थ हगये हैं जिनके सपने स्वन्त्रतानुरागी नेताओं और देशवासियों ने देखे  थें । 
लम्बी कहानी ‘उपकथा का अंत’ चरित्र प्रधान है। कहानीकार ने इस सच को  उजागर किया है कि शासन, प्रशासन और लकनिर्माण से जुड़े लग बड़ी मछली पकड़ने की फिराक में रहते हैं। भ्रष्टाचार में ऊपर से नीचे तक के लोगों की मिलीभगत और सहभागिता के कारण ही न प्रक्रिया में पारदर्शिता होती है और न न्यायपरक परिणाम आते हैं। कहानी में सहतू जैसा चरित्र शासन में घुस आए अपराधीकरण को संकेतित करता हैं। ऐसे लोग अपने पक्ष में सारी काररवाई करवाने में सक्षम होते है। इसीलिए, ऑनेस्ट मनी चाहने वाले  जे. डी. माफिया बिल्डर का शिकार हता है और उसकी हत्या हो जाती है। सुरक्षा और सूचना के अधुनातन साधन पेजर और रिवाल्वर कमर में लटके ही रह जाते हैं। धन व सत्ता की लिप्सा ने व्यक्ति को  निर्मम और निरंकुश बना दिया है। जे डी की यही कहानी उपकथा है और उसका अंत ‘उपकथा का अंत।’ उत्तमपुरुष में लिखी यह कहानी, व्यंजनात्मक भाषा में बहुत कुछ कह जाती है।
डेढ़ टाँग की सवारी’ की चिन्तन भूमि बाजारतंत्र है। समकालीन राजनीति में परम्परा, संस्कृति और इतिहास का दहन किया जा रहा है। राजनीतिज्ञ, वैचारिकता की नई रशनी में भारतीयता को  माप रहे हैं और अपनी प्रतिबद्धता के अनुरूप वही देखते हैं, देखना चाहते हैं। संस्कृति व लकसंस्कृति के प्रेमी संस्कृति-सचिव ‘क’ उन स्थानों पर तबादला चाहते हैं जहाँ ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति हो सके। विघ्नविनाशक गणेश जी को म्यूजियम से घर लाकर स्थापित करते हैं ताकि उनके बुरे दिन कट सकें। लोकसंस्कृति को  ‘रासायनिक खाद’ की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। भले  ही लाल पार्टी के सदस्य योगेन सत्यकाम जैसे लग माथा पीटते रहें। वस्तुतः कहानी बाजारवाद के निरंकुश रूप को  व्यक्त करती है जहाँ इतिहास, संस्कृति को भी मुनाफाखोरी की दृष्टि से अपनाया जाता है। कहानीकार ने कहानी के यथार्थ में समाज की सच्ची घटनाओं कइस तरह पिरोया है कि कहानी समय, समाज की गतिविधियों पर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी प्रतीत होती है। 
सामन्ती प्रथा का विघटन और नकरशाही में पनपते नवसामन्तवाद कसंकेतित करती है कहानी ‘तस्वीर का तिलक।’ वर्तमान परिवेश में सामन्ती प्रवृत्तियाँ अधिक जटिल रूप में अपनी भूमिका निभाती हैं क्योंकि आज का आदमी उपभक्तवाद और बाजारवाद का दबाव अधिक महसूस करता है। भौतिकता की दौड़ में डिप्टी कलक्टर के पुत्र जे.पी.एन. सिंह अपने को  खानदानी रईस के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अपने पिता की तस्वीर को  राजाओं की विशिष्टताओं से अंकित करते हैं। ऐश्वर्य और वस्तु की पर्याय उनकी कठी उनकी संवेदनहीनता और अमानवीयता की ही परिचायक है। 
निम्नमध्यवर्गीय परिवार उपभोक्तावाद से अधिक जूझ रहा है। सेवानिवृत्त बैंक मैनेजर सुधार बाबू बेटी की शादी में तो गोधन के बराबर दहेज और गजधन के बराबर सम्मान अर्जित करते है। परन्तु, एकमात्र बेटी मुटल्ली गुडल्ली की शादी उनके लिए एक विकट समस्या हो  जाती है। धनाभाव में बेटी की उम्र दिन दिन बढ़ती जाती है। ‘सभाग्यकांक्षिणी गुडल्ली और विनीत एस.एस. बाजपेयी’ का केन्द्रीय कथ्य दहेज और विवाह है। कहानी के लंबे शीर्षक से  कहानी का उद्देश्य भी स्पष्ट हजाता है। बेटी और माता-पिता की चिन्तओं की प्रखर अभिव्यक्ति के लिए कहानीकार नाटकीय-संवाद का आयोजन करता है। वैसे, इस कहानी में सामाजिक कुरीति दहेज की समस्या ही विषयवस्तु है, फिर भी कहानी  शिल्पगत प्रयगों के कारण प्रभावित करती है। दरअस्ल, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आदमी उपभक्तवाद की गिरफ्त में है। ‘सौभाग्यकांक्षिणी की गुडल्ली उपभक्तवाद से पनती स्पर्धा और हीनता में ही बड़ी होती है। सुधारक बाबू के आगमन पर पत्नी नया-नया आविष्कार ‘किचन’ और ‘कपड़े’ में करती है। बेटी अपने रहन-सहन से दस्तके समकक्ष लज्जित होती है। जाहिर है, पिता का दुःख पहाड़ जैसा दुर्लंघ्य होगा ही। दोनों  ही कहानियाँ बाजारीकरण की प्रक्रिया में लुप्त हती सामाजिकता कभी चिन्हित करती हैं।
समकालीन विमर्श-दलित प्रश्न और आधी आबादी से संबंधित कुछेक महत्वपूर्ण कहानियों का उल्लेख करना यहाँ आवश्यक है जो वर्तमान परिदृश्य और परिस्थिति विशेष में आये जीवन- बदलावों को चिह्नित करती हैं। कहना न होगा कि ये मुद्दे समाज के समक्ष आज भी चुनौती सदृश हैं। रचनाकार इन्हे केन्द्रीयता देकर विषयवस्तु की परिधि को विस्तार ही नही देता, यथार्थ का आइना भी दिखाता है। साक्षात्कार-1992 में प्रकाशित ‘रमेशचन्द्र आर्य की कहानी‘ एक दलित किशोर की मानसिक संरचना के बहाने वर्ण और वर्गगत विभेद के प्रति आक्रोश, प्रतिक्रियावादी सोच का उभार तथा नवब्राह्मणवाद की सुदृढ़ प्रशाखा पर इठलाने की आतुर आकांक्षा से ओतप्रोत गझिन और महत्वाकांक्षी कहानी है। अपने गुरु प्रदत्त नामकरण रमेश बौद्धायन को स्वीकृति न देकर कथानायक जलनिगम में नौकरी के निमित्त अपना नाम रमेशचन्द्र आर्य गजट करवाया। हालाँकि गुरु की नियमित कक्षा से उसकी सोच में बदलाव होने लगे थे। बौद्धधर्मावलम्बी गुरु कहता है ‘‘एस. सी. लिखकर सरकारी बड़ी मिशनरियों में जाना है और सामथ्र्य अर्जित कर मनुस्मृति को उलटकर रख देंगे। आपादमस्तक। क्या समझे?‘‘ किन्तु रमेंशचन्द्र की आकांक्षा उससे बड़ी लकीर खींचती है। उसे प्रारम्भ से यह चुभन होती थी कि वह ‘‘सहज सुंदर साँवरो क्यों नहीं? वह रूखा और सूखा क्यों है? इसी जातीय कुंठा के कारण वह विजातीय सुंदर युवती से विवाह करता है ताकि उसकी संतानें ‘‘कर्पूरगौर और कामदेव के सौन्दर्य को लज्जित करने वाली हों। वह ‘आर्य‘ कहलाएं। ‘डेढ़ टाँग की सवारी‘ कहानी में भूमिहीन खेतिहर की राजनीति करने वाले  वीरन नामक दलित का राजा वीरन हना और जाति गरव राजा सुहेलदेव को  स्थापित किये जाने का उसका प्रयत्न दलित-राजनीति के मुखौटे कही चिह्नित करना है।
सपनों का पिछला दरवाजा‘ में दो कामकाजी युवतियों के ज़रिए नगरीय-महानगरीय जीवन जीने वाली स्त्रियों की बदलती सोच और जीवन शैली को केन्द्र में रखा गया है। स्त्री-पुरुष समानता की दौड़ और स्वावलम्बन के पहिए से स्त्रियों की गति बेशक तीव्र हुई है, किन्तु सामाजिक, पारिवारिक मूल्य और नैतिकता के बंधन भी ढीले हुए हैं। उनके निर्बाध जीवन प्रवाह में यौनिकता का आनन्द लेना अकल्पनीय नहीं रहा। पश्चिमी देशों की भाँति सहचर के साथ रहने पर भी उन्हें कोई सामाजिक नैतिकता का दबाव नहीं झेलना पड़ता। घर से दूर वे स्वतंत्र महसूस करने लगी हैं। बकौल रचनाकार, स्त्रियों में भी ऐयाशी की भावना विकसित हो रही है। दरअस्ल, पितृसत्तात्मक मान्यताओं को उसने स्वयं आभ्यन्तरित  किया है। पुरुषों जैसी दृष्टि के कारण उन्हें नुक़सान उठाना पड़ रहा है, मगर वे उससे अनभिज्ञ हैं। कृतिका ऐसी ही स्त्री है जिसके सिर पर अंकुश रखने वाला कोई नहीं रहा क्योंकि उसकी ‘माँ मर चुकी है और पिता ने दूसरी शादी कर ली। लेकिन, चित्रा जैसी पारिवारिक युवतियाँ भी इसी समाज में हैं जिनका नैतिक बल बना हुआ है और वे यौनशुचिता की क़ायल हैं। उसके ऊपर पारिवारिक मुख्यतः माँ की छत्रछाया है जो उसका घर बसाने के लिए चिन्ताग्रस्त होती हैं। 
आर्थिक आज़ादी का तात्पर्य यह क़तई नहीं कि स्त्रियों के हृदय-प्रदेश में सन्नाटा पसरा हो, मरुस्थल जैसी विरानगी हो। उन्हे, ऐसे पार्टनर की आवश्यकता है जो उन्हे समझे, उनके अस्तित्व का सम्मान करे और भविष्य की रूपरेखा मिलजुलकर गढ़े। भावनात्मक संबल उतना ही जरूरी है जितना जीवन के लिए अर्थतत्व होता है। इसीलिए दोनों युवतियाँ प्राचीन संदर्भो- पुरातत्व की अनुसंधित्सु कृतिका वनवासी द्वारा भोजपुरी की प्रसिद्ध लोकगाथा ‘लोरिकायन‘ के  लोरिक और चंदा के प्रेमकथा को सुनती स्वयं प्रेमानुभूतियों में डुबती है तथा चित्रा मुल्ला दाउद कृत ‘चंदायन‘ की पांडुलिपि-संरक्षण करती ‘जागते सपने जैसे प्रेम के रणक्षेत्र में विचरण करने लगती‘। कहना न होगा कि ‘सपनों का पिछला दरवाजा‘ शीर्षक बहुत सारगर्भित और सांकेतिक है। बड़ी खूबसूरती से कहानीकार ने अतीत और वर्तमान को एक सूत्र में पिरोने की कोशश की है।
भिक्षावृत्ति, सभ्य समाज के लिए एक अभिशाप है। मगर, ‘मंगता जोगी‘ कहानी का प्रमुख पात्र मल्हू को भीख मांगने में तनिक भी शर्मिन्दगी नहीं होती। वह कहता है-‘‘बहुत पुराने समय से भिक्षाटन की परम्परा रही है। मुस्टंडे भिक्षा ही तो मांगते थें। कहना न होगा कि वेदपाठी ब्राह्मणों की वृत्ति मुख्यतः अघ्ययन-अध्यापन और राजतंत्र को दिशानिर्देश देना था। वे चाहते तो सम्राट हो सकते थे क्योंकि सत्ता बनाने और गिराने में उनकी प्रमुख भूमिका होती थी। मगर, वे अपरिग्रही और उनकी वृत्ति त्याग की थी, अतः उन्हें धनार्जन का लोभ न था। भिक्षा माँगकर उन्होंन मात्र पेट भरने का प्रयास किया, धन- संचय नहीं। फिलहाल, कहानी में भिक्षावृत्ति के उन अँधेंरे कोनों पर प्रकाश डाला गया है जहाँ अपराध की काली छाया मँडराती है। भिखारियों के प्रति अमानवीकरण, बच्चों का अपहरण और उन्हें भिक्षावृत्ति में ढकेलना, उनके रैन बसेरा की वास्तविकता, पुलिस उत्पीड़न, देश की प्रतिष्ठा के लिए उन्हे दर-बदर किया जाना, उनके बनते बिगड़ते स्त्री-पुरुष संबंध जैसे अनेक गत्यात्मक स्थितियों को कहानी रेखांकित करती है। इन प्रकरणों की बुनावट साक्षात्कार की प्रक्रिया अर्थात् संवाद शैली में हुई है जिससे कहानी में आद्यन्त रोचकता बनी रहती है। धार्मिक स्थलों पर ‘दान और असीस’ की व्यावसायिक जुगलबंदी का रहस्योद्घाटन मनुष्य के हृदयगत भावनाओं के भाप बन उड़ जाने का संकेत भी है। 
मँगता जोगी’ का केन्द्रीय विषयवस्तु कोरोना महामारी नहीं, तथापि तत्कालीन भयावह स्थितियों के संकेत ‘घाट’ और ‘श्मशान’ के माध्यम से अभिव्यंजित हुए हैं। कहानी के परिवेशगत यथार्थ की प्रस्तुति में किसी नगर का नामोल्लेख तो नहीं है फिर भी कथ्य-सत्य किसी भी शहर की पीड़ादायी अनुभव हो सकता है। अपनों के बेगाने होने से मल्हू जैसे भिखारियों को कमाने का सुअवसर भी मिला। तेरही के लिए कर्मकाण्डी भिखारियों को न्योतते थे, उन्हें बढ़िया भोजन मिलता और वे संक्रमित भी नहीं हुए। जबकि, मध्यमवर्ग निज की प्राणरक्षा में सगे संबंधियों से मुँह मोड़ लिए। कहानी की बुनावट में एक सिरा कमजोर भी लगता है, वह यह कि शोधार्थी रेबती एकमात्र मल्हू से ही साक्षात्कार करती है। उचित होता कुछ और भिखारियों से इण्टरव्यू लिए जाते। मल्हू, घाट पर मंदिर के निकट बैठकर एक कठिन दौर के झरोखे से जीवन-मरण और पारिवारिक संबंधें की सच्चाई ऐसे उघाड़ता है जैसे वह भिखारी नहीं, कोई सिद्धपुरुष हो।
कहानीकार, अपने कथा- दायरे में खेल-जगत को भी समेटता है। उसकी टिप्पणी से समस्त भारतीय इत्तफाक़ रखेंगें कि भारत में क्रिकेट की क्रेज ज्यादा है। वह अमीरी लाता है, अमीरों का खेल है इसीलिय फिल्मी अभिनेत्रियाँ क्रिकेटरों से विवाह रचाती हैं। अतएव, ‘रमेशचन्द्र आर्य की कहानी‘ का रमेशचन्द्र फुटबाल की दुनिया में पला-बढ़ा होने पर भी क्रिकेट की ओर मुड़ जाता है क्योंकि उस जमाने में लड़कियों के सपने में क्रिकेटर आने लगे थे। ‘नन्दू जिज्जी’ कहानी में भी खेल प्रसंग को विस्तार मिलता है। वैसे, ‘नन्दू जिज्जी का कथ्यार्थ जुदा है- भिन्न रुचियों वाले व्यक्तियों का साथ कभी सुखदायी नही होता। वैवाहिक संबंधों में यह बात और अहं हो जाती है, उस स्थिति में जब पत्नी घरेलू हो। भले ही पति-पत्नी एक दूसरे के उत्पीड़क न हों। उनका जीवन यंत्रवत होकर नीरस- बोझिल हो जाता है। नन्दू जीज्जी विवाह पूर्व सपने में ऐसे पति की कल्पना करती थी जो शौकीनमिजाज का खाने खिलाने वाला हो, मगर आयुर्वेद के डॉक्टर से विवाह होने पर उसका जीवनरस सूख जाता है और निस्सानता की स्थिति में ही अंत हो जाता है।
कहना न होगा कि कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं। यथार्थ का गहन साक्षात्कार, समाज का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक विवेचन, मानव-मन की बारीक पकड़ और प्रखर सामाजिक बोध के कारण कहानियाँ पाठक को उद्वेलित करती हैं। कहानीकार ने कहानी के सभी पहलुओं पर अपने श्रम, संलग्नता और सद्देश्यता का परिचय दिया है। परम्परा, प्रत्यभिज्ञा और प्रयग की मलिकता के कारण भाषिक संरचना निस्संदेह विशिष्ट है। बिम्बों का नवीन प्रयग आकर्षित करता हैं। ‘बेहया के पेड़े की तरह लहलहाते हुए वह बह रहा था।’ (उपकथा का अंत-पृ.सं. 159)। ‘क’ साहब का उत्साह नाले की तरह भरभराकर बह रहा था ( उपकथा का अंत पृ. 163), ‘महाझले के भार से तिरछी हती हुई वह धूप की धार में तिरती सी चली आ रही थी।’ ( उपकथा का अंत पृ. 126)। वाक्क्रीड़ा करते शब्द विन्यास से भी भाषा में ताजगी महसूस हती है। लेकिन, कुछ शब्द प्रयग खटकते भी हैं। जैसे-अचानकता ( उपकथा का अंत, पृ. 17) ) कुछ  कहानियों में खूबसूरत मुहावरे और सूक्तियों के प्रयोग आकर्षित भी करते है। उदाहरणस्वरूप-‘‘नदी में लोगों का तन स्नान करता है और श्मशान में आत्मा नहाती है। (मंगता जोगी‘), ‘माँ दूसरी तो बाप तीसरा’ अथवा ‘पहलकदमी के बाद चहलकदमी होने ही लगती है।’ (सपनों का पिछला दरवाजा)
डॉ.शशिकला त्रिपाठी
वरिष्ठ आलोचक, कवि, कहानीकार, चिन्तक एवं शिक्षाविद
आवासः
सृजन, बी, 31/41, ए-एस, भोगाबीर,
संकटमोचन, लंका, वाराणसी-221005,
उत्तर प्रदेश, भारत
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