पुस्तक: हस्ती का गुम हुआ टुकड़ा, लेखक: मुश्ताक शोरो, साल: 2018, पन्ने : 270, मूल्य : रु 450.,
प्रकाशक: कीर्ति प्रकाशन, ४/32 विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली-110032
समीक्षक
देवी नागरानी
लेखन, सिर्फ़ लफ़्ज़ों की इमारत का निर्माण करना नहीं है, इंसान के दिल में भावनाओं का जो प्रवाह उमड़ता रहता है, उफनता रहता है, उसका मंथन व् उसके प्रतिफल की क्रिया को भी अभिव्यक्ति करना है. यहाँ विचारों, और शब्दों का संयोजन एक माधुर्य का स्त्रोत्र बन जाता है. मुझे हिमांशु जोशी का यह कथन याद आ रहा है:
“लेखन अपने आप में एक तपस्या है। अधूरे मन से लिखा साहित्य अधूरा ही रह जाता है, अपने आप को अभिव्यक्त किये बिना…”
लेखन की पहली शर्त यह है कि लेखक, पाठक को अपनी सोच के सिलसिलेवार प्रवाह में बहा ले जाय, और ऐसा ही एक सफल प्रयास मुश्ताक शोरो जी ने अपने इस 25 कहानियों के संग्रह “हस्ती का एक गुम हुआ टुकड़ा” में किया है.
इन कहानियों में लेखक ने जीवन के अलग-अलग पहलुओं को अपनी नज़रिए से बारीकी से निरीक्षण करते हुए पात्रों के माध्यम से बाहर और भीतर की दुनिया को जोड़ा है. उनके माध्यम से मन में मची हलचल, उनकी तन्हाई का आलम, बेदिली, बेबसी, लाचारी का इज़हार करते हुए बेबाकी से पाठक के सामने रखने की कामयाब कोशिश की है. पाठक के तौर मैंने कई कहानियों की पठनीयता के दौरान अपने भीतर तक पात्रों को तहलका मचाते हुए पाया और उनके साथ उन हालातों में खुद को धंसते हुए पाया. यह एक पैनी कलम की सफलता है, यही कहूँगी. इस संग्रह “हस्ती का गुम हुआ टुकड़ा’ में विशेष रूप से दो कहानियों ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा है. इस कहानी “जीवन का खालीपन” में लेखक ने लिखा है- “मैंने कभी नहीं समझा कि मृत्यु और जीवन है क्या? वास्तव में, ब्रह्मांड की छिपी हुई ताकतें इंसान को कभी नहीं समझा सकती हैं। यह केवल इंसानों के समझने के बात है. इसी कारण उनके वाद-विवाद, धिक्कार, गुस्से का रुख इंसान की ओर ही है. शायद जीवन की ट्रेजडी यही हो- रास्ते पर शोर, दम में घुटन भरता धुंआ, मिटटी, गर्मी से उत्पन होने वाली बेहाली है, जैसे यह एक सज़ा हो जो इंसान ने खुद अपने लिए पैदा की है. वैसे तो इंसान का जन्म भी एक अजीब कहानी है, पर उसका होना उससे भी अधिक इसरार के साथ भरा हुआ है. समस्त वजूद ही एक ट्रेजडी है.” सोच शब्दों का सुंदर संगम, लिखने पढ़ने में एक लय, जो दिमाग की हदों के फासले तय करते हुए दिल की गहराइयों में समा जाने की तौफीक भी रखती है.
सच तो यह है कि कहानी लिखना भी एक तीर्थयात्रा है, और उस यात्रा में लेखक के गढे हुए पात्रों के साथ, समाज की समस्याओं और समाधानों की राहों पर हमक़दम होकर किरदार इस यात्रा में शामिल रहते हैं. रेगिस्तान में भटकते मुसाफिर की तरह सहरा की प्यास लिए, आदम परिवार नाम की संस्था का निर्माण करता है, जो दो हस्तियों के परस्पर विश्वास पर अपनी पहचान पाती है. पर संघर्षों के तूफानों से गुजरते जब नौका बिखर जाए तो फिर उस बात की ज्यादा अहमियत नहीं रहती कि किनारे के हिस्से में क्या आया?
इस जीवन के चक्रव्यूह्ह में जिंदगी और मौत के बीच के फासले को तय करते, रिश्तों के बाजार में से गुजरना पड़ता है. यह हर आम आदमी के जीवन का सफ़र है जो उसे इन पगडंडियों पर चलते चलते राह में आई मुश्कालातों व् कड़वाहटों का स्वाद चखे बगैर आगे नहीं बढ़ सकता. तद पश्चात ही ये जज्बे तजुर्बात में तब्दील होते हैं. जब तक इंसान ठोकरें नहीं खाता तब तक यह जानना मुमकिन हो जाता है कि वह फौलाद से बना हुआ है या शीशे का.
आजकल के दौर में अक्सर यह देखा भी जाता है, शायद मशीनी दौर में सफर करते करते इंसान की सोच भी मशीन के पुर्जों की तरह काम करने में माहिरता हासिल कर रही है, बिना यह जाने कि उस जिंदगी के मैदान में दो पाटों के बीच में कौन आया, कौन जख्मी हुआ, किसकी कराहना अनसुनी रह गई. इस शोरगुल के दौर में कानों तक वह चीख पहुंच ही नहीं पाती. गूँगों की बस्ती में बहरों को सुनने और समझने वाली भाषा अभी विकास के दौर से गुज़र रही है. बस सोच की रफ्तार शब्दों से तालमेल नहीं रख पाती, शायद यही कारण है टाइम जोन में ‘जेनरेशन गैप’ अपनी पहचान दर्शा रहा है. ऐसी ही जिंदगी के लिए मेरा एक शेर:
जिंदगी को न मैं तो जी पाई
उसने ही मुझको है जिया जैसे-देवी
ऐसे दौर में कालचक्र बिना आहट, बिना आगाह किए, स्वार्थ-निस्वार्थ के दायरे के बाहर, दुख-सुख की परंपरा को चीरता हुआ वक़्त आगे बढ़ता रहता है, और चाहे अनचाहे आदमी भी.
मुश्ताक जी की कहानियों के किरदारों की तरह सभी इस तीर्थ यात्रा के यात्री बने हुए हैं. कोई और नहीं है, तुम, मैं और हमारे चारों तरफ़ बसी हुई इन बस्तियों के इंसान हैं, जो अपने अपने हिस्से के सलीब अपने कांधों पर लेकर इस यात्रा में शामिल हैं, जिनका आगाज़ इन कहानियों का कारण बना है. एक कहानी पूरी होने के पहले दूसरी कहानी का आगाज़ शुरु हो जाता है, बस पात्र बदलते रहते हैं और कहानियों के उन्वान भी.
इस संग्रह की एक और कहानी जो मुझे मुतासिर कर गई वह है- “कायरता से भरा जीवन” जिसकी शुरुआत में कोई ऐसा चुम्बकीय असर रहा कि एक नवीन अनुभव से मेरी मुलाक़ात हुई. उसे जीवन से जुड़ी हुई हकीकत कहूँ, तो गलत न होगा. कहानियों में किरदारों के निबाह निर्वाह की रहनुमाई कुछ यूं हुई है कि कहानीकार की कला का प्रदर्शन उनके आगाज़ में अपनी पहचान बखूबी दिखा रहा है-“ जिंदगी का कोई खूबसूरत सुंदर रूप, कोई हसीन पहलू भी है क्या? हो सकता है कुछ के लिए हो भी, पर मैं जीवन में उस सौन्दर्य को कहां ढूंढू, जिसने जन्म से लेकर आज दिन तक मुझे सिर्फ और सिर्फ बदसूरत शिकस्तों का ही सामना करने ले लिए आमादा किया है. मेरे लिए तो जिंदगी, प्यार, सौंदर्य, खुशियां फ़क़त खोखले शब्द ही हैं, जिनका कोई मतलब, कोई मकसद कम से कम मेरी नज़रों में तो नहीं है. मैंने तो सिर्फ एक ही हकीकत को देखा है, जाना है और पाया है-जिंदगी की कडवाहट से भरी बदसूरती और प्यार तो ज़िन्दगी से भी ज्यादा बदसूरत व् धिक्कार के काबिल है…!”
“शायद…..
शायद नहीं, निश्चित ही… दिल को कोई गहरी चोट लगी है, जिसके एवज़ रिश्ते नाते सब पानी की तरह उंगलियों के बीच से बह जाते हैं….! आह..”
“आह… में… वाह…का सौन्दर्य समाया हुआ जान पड़ता है. जैसे कायनात में सौन्दर्य के निर्माण की नींव रखी गई हो…. वाह वाह…!
दरअसल कहानी हमारे वक़्त के दायरे में समाज का अक्स है, जिसमें वह सब कुछ होता है जो हमारे समाज में होता रहता है. मुश्ताक शोरो जी ने भी अपने आसपास के हालातों के गुज़रते दौर की विचारधाराओं को सोच के तानों बानों से बुना है.
एक और बात भी लाजमी है. समाज में रहते हुए लेखक भी उसीका हिस्सा ही है, जो आम इंसान की तरह उसके अंतर्मन में होती हुई हर हलचल का हिस्सा बनकर जीता है, भोगता है. आम इंसान की उन घटनाओं से वह किसी भी तरह अछूत व् अलग नहीं है. लिखने में कहीं न कहीं लेखक के जीवन में आए हुए और गुजरे हुए वारदातों का भी जिक्र होता है इसमें कोई शक नहीं.
हकीकत तो यह है कि जिंदगी रोज़ नया पन्ना इंसान के सामने खोलती है और जाने अनजाने कितने हो अनुभवों के दरवाज़े उसके सामने खुले छोड़ जाती है.
आज की नई कहानी पुरानी कहानियों की कड़ी है जो नए दौर के नए आगाज और नई संस्कृति में पनपती है. उन कहानियों की रोशनी में देखा जाता है परिवार के बंधनों की अहमियत, किरदार की पहचान, अपने पराए की परख, जीवन के उतार चढ़ाव, दुख-सुख के धुप छाँव से गुजर कर मुतमईन होकर लेखक अपने तजुर्बों को व्यक्त करता है, लिख पाता है. दुनिया में कोई भी किस्सा ऐसा नहीं है जो सुना हुआ या भोगा हुआ न हो. वक्त के चक्रव्यूह में हर कोई इस दौर से गुज़रकर अपनी अपनी यात्रा पूरी करता है.
देवी नागरानी जी की कलम से ‘मुश्ताक शोरों जी’ द्वारा रचित ‘हस्ती का गुम हुआ टुकड़ा’ कहानी संग्रह की समीक्षा पढ़ी।
समीक्षा के प्रारंभ लेखन की जो विशेषताएँ आपने बताईं उसने हमें समीक्षा से ज्यादा प्रभावित किया।
कहानियों का सामूहिक परिचय ही दिया।
आपकी भाषा- शैली काबिले तारीफ है।
आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।