मुसल्मानियत से ज़्यादा अपनी राजपूतानियत पर फ़ख्र करते। बिल्कुल जैसे खुद को शायर कहने में करते। जबकि तमाम ज़माने ने उन्हें एक नग्मानिगार/गीतकार के तौर पर जाना।
आज़ादी से पहले का दौर जब फिल्में (ज़रा बड़े स्तर की) नौटंकी समझी जाती, वो बम्बई के एक मुशायरे अपना कलाम सुना रहे थे। हाल धमक रहा था तालियों और वाह-वाही से। इसी में एक दाद थी फिल्म डायरेक्टर ए• आर• कारदार की।
जनाब को ख्वाहिश हुई, महफ़िल लूटने वाले शायर से धुन पर लफ्ज़ों को पिरोवाने की। शायर ने इस छिछ्ले काम से इन्कार कर दिया। कारदार साहब ने उसी मुशायरे में मौजूद जिगर मुरादाबादी से सोर्स लगवाया। अबकि शायर मना ना कर सका।
फिल्म थी शाहजहाँ। गाना जो उस वक़्त हर ग्रामोफोन पर बजा- जब दिल ही टूट गया। हम जी के क्या करेंगें।
इश्क़ में ठुकराए, मुरझाए, धकियाए, धोखा खाए आशिक़ों के लिये यह गीत एक पेनकिलर था और डॉक्टर थे••• मजरूह सुल्तानपुरी।
नौशाद के सुरों से सजा ‘शाहजहाँ’ का यह लार्जर दैन लाइफ गाना के•एल•सहगल की आवाज़ में गाया और उन्हीं पर फिल्माया गया खुद सहगल को इस क़दर पसंद था कि वसीयत कर गये, उनके जनाज़े से शमशान तक यही गीत बजाया जाए।
मजरूह बम्बई में रूपहले पर्दे की दुनिया में तेज़ी से चमके ऐसे सितारे थे, जिसे टिमटिमा के मंद नहीं पड़ना था। उन्हें होना था सूरज। आने वाले वक़्त में जिसकी ज़रूरत फिल्मी दुनिया के लगभग सारे म्यूज़िक डायरेक्टर्स को पड़ी।
1अक्टूबर 1911 को आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश के निज़ामाबाद क़स्बे में पैदा हुए असरार उल हसन खाँ (मजरूह सुल्तानपुरी का असल नाम) के अब्बा ब्रिटिश महकमे में हेड कांस्टेबल थे। परिवार में तालीम को लेकर कोई खास तवज्जोह ना थी। फिर भी अन्ग्रेज़ी से चिढ़ने वाले सुल्तानपुर मूल के पिता ने अरबी, उर्दू, फारसी की तालीम दिलाकर चाहा कि बेटा हकीम हो जाए। फ़र्माबरदार बेटे की तरह उन्होनें लखनऊ के तिब्बिया कालेज से हिकमत पढ़ी। प्रैक्टिस करने लगे।
उन्हीं दिनों ज़िंदगी में किसी नाज़नीं की आमद हुई। अब महबूबा के अब्बा को शिकायत ठहरी। असरार ने शहर छोड़ दिया। सबका इलाज करने वाला जब मर्ज़ ए इश्क़ में मुब्तिला हुआ तो कोई चारागर (डॉक्टर) ना मिला।
शायरी जारी रही। बम्बई आये। गाना लिखा और अपने पेन नेम मजरूह सुल्तानपुरी से छा गये।
मजरूह ने अरबी, उर्दू, फारसी के साथ लेनिन और मार्क्स को भी पढ़ रखा था। कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित मजरूह प्रोग्रेससिव राइटर एसोसिएशन के मेम्बर थे। संगठन ने उन्हें एक बार बम्बई में हुई मजदूर हड़ताल के हक़ में सादी ज़बाँ में कुछ पढ़ने को कहा। मजरूह ने अपने बेखौफ़ लहजे और इन्क़लाबिया तेवर में डूबकर जो नज़्म कही कि मजदूर जोश में आ गये। निहत्थी गरीब जनता से सत्ता घबराने लगी। इतना कि तत्कालीन महाराष्ट्र गवर्नर ने उन्हें आर्थर रोड जेल पहुंचा दिया। नज़्म का एक उप्लब्ध हिस्सा देखिये-
मन में ज़हर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा.
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए.
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए.
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए.
नेहरू सरकार ने चाहा वे माफ़ी मांग लें। मजरूह ने 2 साल की क़ैदी ज़िंदगी को बेहतर समझा बनिस्बत समझौता करने के।
जेल जाते ही उनकी गृहस्थी मुफलिसी के दलदल में धंसने लगी। राजकपूर को इस बात की भनक लगी। जेल से ही मजरूह से एक गीत लिखवाया और हज़ार रूपए उनके घर पहुंचा दिये।
‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल’ बहोत बाद में आयी फिल्म ‘धरम-करम’ में इस्तेमाल हुआ।
दोस्ती फिल्म के ‘चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे’ के लिये उन्हें पहला और आखिरी फ़िल्मफेयर आवर्ड मिला। मजरूह बॉलीवुड के ऐसे पहले नग्मानिगार भी हैं जिन्हें फिल्म इंडस्ट्री का सबसे बड़ा ईनाम ‘दादा साहेब फाल्के अवार्ड’ मिला।
के• एल• सहगल से लेकर राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, शाहरुख, आमिर तक की अदाकारी वो अपने नग्मों से सँवारते रहे। एस• डी• बर्मन, आर•डी• बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, आनंद-मिलिन्द, जतिन-ललित यहाँ तक की ए•आर• रहमान की धुन पर लफ्ज़ों को साधते रहे।
‘बाहों में चले आओ’ से लेकर ‘बाहों के दर्मियां’ (खामोशी- द म्यूज़िकल), ‘ले के पहला पहला प्यार'(सी•आई•डी) से लेकर ‘पहला नशा पहला खुमार’ (जो जीता वही सिकंदर), ‘इक लड़की भीगी-भागी सी'(चलती का नाम गाड़ी) से लेकर ‘सावन बरसे तरसे दिल'(दहक) तक, ‘पिया तू अब तो आ जा’ (कारवां) से ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’ (क़यामत से क़यामत तक) 1945-2000 की रेंज का अन्दाजा लगाईये।
जितने गमज़दा होकर वो लिखते हैं, बड़ी सूनी सूनी है ज़िंदगी यह ज़िंदगी (मिली) उतने ही खिलन्दड़पन से कहते हैं ‘c a t कैट माने बिल्ली r a t रैट माने चूहा'(चलती का नाम गाड़ी)
साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, कैफ़ी आज़मी, शकील बदायुंनी जैसे दिग्गज कम्पीटीटर होने के बावजूद मजरूह एक नग्मानिगार के तौर पर अव्वल इसलिये हो जाते हैं क्यूंकि उनमें वक़्त की नब्ज़ पकड़ने की सलाहियत है।
मुझे नहीं लगता पिछ्ले पचास सालों में किसी हिन्दी भाषी ने मजरूह का एक भी गाना नहीं सुना होगा। वो आपको प्लेनेट एम/ म्यूज़िक स्टेशन के लगभग हर सेक्शन में मिलते हैं।
हँसते हुए सुनो तो मजरूह लंगोटिया यार बन जाते हैं। रोते हुए किसी अज़ीज़ का कंधा। बिलखते हुए मां की गोद सा सुकून देते है। महफ़िल लग जाए तो साक़ी हो जाते हैं। मुहब्बत में हो तो उनके नग्में जानम की नर्म हथेलियां और दिलबर का कुशादा सीना बन जाते हैं। मजरूह को सुनकर कई बार आप depression में जाते जाते बच जाते हैं।
दिल, दिमाग और रूह की पुरसुकूनियत के लिये मजरूह को सुना जाते रहना चाहिये।
उम्र की आखिरी दहलीज पर खड़े होकर भी ज़िंदगी को पुर उम्मीद चश्में से देखने वाले एक नग्मानिगार और शायर को हमारी तरफ से टोपी उतार के हैट्स ऑफ़।