Wednesday, May 22, 2024
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प्रो. कन्हैया त्रिपाठी का लेख – गाँधी एवं हिंदी साहित्य

सारांश –
हिंदी का सांस्कृतिक स्वरूप हिंदी जगत के एकीकृत, सार्वभौमिक एवं मानवीय संवेदना का आधार है। भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी का हस्तक्षेप कितना सारगर्भित एवं सांस्कृतिक हो सका है यह विमर्श का विषय हो सकता है लेकिन हिंदी विश्व में अपनी एक अस्मिता एवं पहचान बनाने में सफल हुई है। भारत और दुनिया में हिंदी बोलने वाले लोगों की संख्या से केवल हिंदी विकसित नहीं हो सकी है बल्कि सच्चे मायने में देखा जाय तो हिंदी साहित्य लेखन के मूल्यबोध एवं समझ ने हिंदी के आकाश को विस्तृत किया है। सूचना प्रोद्योगिकी के दौर में हिंदी के सांस्कृतिक सन्दर्भ और समझ में ज्यादा बढ़ोतरी दर्ज़ किया जाना इस बात का द्योतक है कि लोग सिर्फ बाज़ार के दबाव में हिंदी को नहीं जानना चाहते अपितु हिंदी में मौलिक, सौम्य और विवेकशील साहित्य के सृजन ने हिंदी के जिस सौन्दर्यबोध को गढ़ा है, रचा-बुना है उसके कारण हिंदी से लोगों का तादात्म्य बढ़ रहा है। 
निःसंदेह, गाँधीवादी साहित्य का इस सौन्दर्यबोध की अभिवृद्धि में अहम् भूमिका है। इस सार-पत्र में इस सन्दर्भ की पड़ताल की गयी है कि कैसे गाँधी ने हिंदी साहित्य को प्रभावित किया? गाँधी अपने लेखन में स्वयं और अपने दर्शन से प्रभावित साहित्य में किस प्रकार सांस्कृतिक चेतना के साथ उपस्थित हैं। हिंदी का अहिंसक चेहरा भी कुछ हो सकता है क्या? साथ ही, गाँधी, गाँधीवादी साहित्य किस प्रकार के सौन्दर्यबोध गढ़ते हैं और इसका आधुनिक हिंदी साहित्य लेखन में भविष्य क्या हैं, इसको प्रकट किया गया है।
की-वर्ड्स : गाँधी, हिंदी, सौन्दर्यबोध, आधुनिकता, भूमंडलीकरण
हिंदी साहित्य के इतिहास में गाँधी को बहुत गंभीरता से नहीं देखा गया है। हाँ, गाँधी के प्रभाव की चर्चा मात्र की गयी। कदाचित, हिंदी साहित्य के इतिहास में गाँधी को एक सशक्त लेखक के तौर पर देखा गया होता तो गाँधी का औरा कुछ और दिखता तथा गाँधी खुद बतौर लेखक एक नए क्षितिज की रचना कर रहे होते। महात्मा गाँधी युगपुरुष थे, उन्हें सहस्राब्दी-पुरुष माना गया। उन्होंने अपने जीवन को प्रयोगों से जोड़ा। वे ज़िन्दगीभर प्रयोग करते रहे और अपने आप को परीक्षाओं की कसौटियों पर कसते रहे। वे एक गृहस्थ थे, एक संत थे, एक धार्मिक पुरुष थे और राजनीति के मार्ग पर चलने वाले, सत्य और अहिंसा जैसी ताकतों से सुसज्जित योद्धा थे। वे कुल मिलाकर ऐसे साधक थे, जो अपनी साधना को कलुषित नहीं कर सकते थे। साधन की पवित्रता के सामने वे अपने प्राणों को तुच्छ समझते थे। सबसे पहले यदि उनकी लेखकीय सामर्थ्य की चर्चा की जाए तो उनकी पुस्तक ‘सत्य के साथ प्रयोग’ का स्मरण बरबस आता है। यह पुस्तक गाँधी जी की आत्मकथा है जिसमें लेखक ने अपने जीवन के सच को प्रकट किया है। यदि देखा जाए तो यह पुस्तक केवल आत्मकथा ही नहीं मानी जा सकती बल्कि इसे सेल्फ-रिपोर्टिंग के एक मॉडल के रूप में भी देखा जा सकता है। गाँधी जी ने इस पुस्तक के जरिये लेखकीय मूल्यों को भी गरिमा प्रदान की है। गाँधी जी की दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक है-‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’। गाँधी जी ने इस पुस्तक में एक पत्रकार की संवेदना को प्रस्तुत किया है। अपनी जटिलताओं को किस प्रकार साहित्य आत्मसात करेगा उसको इस पुस्तक में गाँधी जी ने बहुत ही अच्छे से प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक में आन्दोलन और प्रतिरोध की सांस्कृतिक चेतना का आविर्भाव है। चेतना के स्तर पर गाँधी जी ने अहिंसक प्रतिरोध, वैयक्तिक और सामूहिक हित के विभेद, अडिग व्रत और सत्ता के सामर्थ्य के साथ सेवा-सुश्रुषा, करुणा, दया और प्रेम की भी बातें इस पुस्तक के जरिये रखने की कोशिश की। 
इसके साथ ही गाँधी जी की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है- हिन्द स्वराज। इस पुस्तक की गाँधी जी ने सन 1909 में रचना की। इस पुस्तक की शताब्दी मनाई जा चुकी है। इस अवसर पर गाँधी जी के हिन्द स्वराज पर वृहद् विमर्श सम्पूर्ण देश और विदेश में किए गए। यद्यपि, गाँधी जी की सम्पूर्ण पुस्तकें दुनिया भर में पढ़ी गयीं हैं। लेकिन एक सौ वर्ष बाद कोई पुस्तक यदि इतनी लोकप्रिय और विमर्श के केंद्र में हो तो उसके मायने होते हैं। यह पुस्तक सौ वर्ष बाद भी अपने तमाम उन उठाये गए मुद्दों पर न केवल विमर्श चाहती है अपितु भारत में सतत विकास-सस्टनेबल डेवलपमेंट के लिए बेबाक राय भी रखती है जिसका शायद अनुप्रयोग किया जाए तो भारत की बहुत सी चुनौतियों का शमन अपने आप हो जाए। प्रतिरोध की संस्कृति के साथ पशुबल के समक्ष आत्मबल को खड़ा करने, शैक्षिक नवाचार, साधन और साध्य की समझ भी विकसित करने में यह पुस्तक अपना सामर्थ्य रखती है। 
गाँधी जी ने और भी कुछ छोटी-छोटी किन्तु गंभीर पुस्तिकाएँ लिखीं जिसका उल्लेख साहित्यजगत में न के बराबर है जबकि उनकी यरवदा जेल में लिखी ‘मंगलप्रभात’ पुस्तक काफी गंभीर सामाग्री हमें प्रस्तुत करती है। गाँधी जी ने इसके अतिरिक्त ‘हरिजन’, ‘इंडियन ओपिनियन’ और अन्य पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित की. जिसकी किसी भी मीडिया हाऊस के आज के पत्रकार धर्म से तुलना की जाय तो ज्यादा सशक्त प्रतीत होगा। इस प्रकार, गाँधी जी का समाज के छोटे-छोटे विषयों को अखबार के जरिए उठाना और उन पर एक सकारात्मक बहस का अवसर प्रस्तुत करना गाँधी जी की अपनी शैली मानी जा सकती है। यदि साहित्यजगत उनके लेखन को साहित्य का दर्ज़ा न दे तो यह उसकी अपनी समस्या है। दुर्भाग्यवश गाँधी जी को तो दुनियाभर में अहिंसा और शांति के प्रचार-प्रसार के लिए नोबल जूरी ने कभी नोबल पुरस्कार के लिए भी नहीं चुना। हालाँकि इसका यह मतलब नहीं होता कि वह उसके योग्य नहीं थे।
सन् 1915 में भारत लौटने के बाद गांधीजी ने राष्ट्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर अपना प्रभाव डालने की जगह पूरे देश का परिभ्रमण करके देश को पहले जानने की कोशिश की। उसके बाद जब वे स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय हुए तो फिर कभी उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने भारत की आज़ादी को नई दिशा दी। गाँधी द्वारा किया गया समस्त प्रयास हमारे इतिहास में दर्ज़ है। उनका प्रयास चाहे साहित्य द्वारा देखा जा रहा था या इतिहास के जरिए, लेकिन उसको पूरी तरह से अंकित किया गया है। 
हिंदी कविता पर और हिंदी उपन्यास पर गाँधीजी का गहरा प्रभाव पड़ा। गाँधीजी के विचारों एवं जीवन-दृष्टि के आधार पर उपन्यास के चरित्रों को गढ़ा गया, गाँधीजी के जीवन की घटनाओं को प्रतिबिंबत किया गया, गाँधीजी के सिद्धांतों की मीमांसा करने के लिए कथाओं का सृजन हुआ। उनके द्वारा किए जा रहे हृदय-परिवर्तन, अहिंसक प्रतिरोध, सत्य का स्वरूप-विवेचन, न्यासिता के भाव की अभिव्यक्ति, औद्योगिक विकास के दौरान बढ़ने वाली अनैतिकता, दलित-पीड़ित व शोषित समाज के प्रति सहानुभूति आदि पर इस बीच लेखकों, कवियों, समाजसुधारकों, इतिहासकारों और पत्रकारों विचार किया गया, समझा गया। कहीं-कहीं गाँधीवाद को शेष मान कर उसकी परीक्षा के प्रयास हुए। गाँधीजी की ब्रह्मचर्य की कल्पना व गाँधीजी के जीवन-दर्शन को अव्यावहारिक चीजों की जो अस्वाभाविकता महसूस की गयी उसकी खिल्लियाँ भी उड़ायी गईं। जीवन की जटिलता के समक्ष सादगी, सरलता और पवित्रता को अपर्याप्त मानकर व्यंग्य किए गए। इसमें कोई संदेह नहीं कि गाँधीजी ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से विचारों और शील स्वभाव से साहित्यकारों को पर्याप्त मुद्दे और अवसर प्रदान किए। 
यदि यह कहा जाय कि साहित्य में गाँधी की उपस्थिति उनके लेखन के अतिरिक्त देखी जाए तो उनके जीवन भर के कार्यक्रमों और आन्दोलनों से साहित्य प्रभावित हुए बिना नहीं रहा, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। उन्होंने न केवल समय की धारा को समझा बल्कि समय को भी अपनी धारा के अनुरूप होने का एक उदहारण प्रस्तुत किया। महात्मा गाँधी विश्ववंधुत्व के लिए अनुकरणीय हुए। विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में वे समादृत हुए।  आज उनकी जीवनी और उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर विपुल साहित्य भारत की सभी भाषाओं में उपलब्ध है। उन्होंने अपनी आत्मकथा अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखी थी और उसका नाम रखा “सत्य के प्रयोग अथवा- आत्मकथा”। यह पुस्तक विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं तथा भारत की सभी भाषाओं में अनूदित हुई। भारत सरकार के प्रकाशन-विभाग ने सौ खण्डों में अंग्रेज़ी और हिंदी में ‘गाँधी वाङ्मय’ प्रकाशित किया। गाँधीजी के 18 रचनात्मक कार्यक्रमों में से हिंदी का प्रचार, एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम रहा है। गाँधीजी के द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में घोषित करना, स्वतंत्रता-संग्राम में राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार की भूमिका तथा गाँधीजी की राष्ट्रभाषा-नीति को लेकर बहुत कुछ हमारी बहुत भाषाओं में लिखा गया। इतने व्यापक, वैविध्यपूर्ण कार्यक्रम, जिनका वे अंतिम साँस तक निर्वाह करते रहे, उन सबको समाहित करने में साहित्य की विपुलता बढ़ी है, यह भी सत्य है। 
गाँधी जी को लेकर साहित्यकारों में अनिक्षा और उनके प्रति मोहभंग भी रहा। गाँधीजी जैसे ऐतिहासिक पुरुष पर हिन्दी साहित्य में सिर्फ़ एक नाटक है। ललित सहगल लिखित ‘हत्या एक आकार की’ को अगर छोड़ दिया जाय, तो हिंदी नाटक साहित्य में गाँधी की कमी खलती है। कहते हैं कि ‘हत्या एक आकार की’ नाटक भी एक परियोजना के तहत लिखवाया गया था। इसका अर्थ यह हुआ कि अपने से नाटक लिखने की प्रेरणा किसी में नहीं बनी। उपन्यासों में गिरिराज किशोर के ‘पहला गिरमिटिया’ लिखे जाने तक कोई गाँधी पर पुख्ता उपन्यास भी नहीं मिलता। ऐसे व्यक्तित्व पर रचनात्मकता के इस अकाल की वजहों, कारणों का मूल्यांकन व विश्लेषण जरूरी लगता है। कबीर पर तो आधे दर्जन नाटक लिखे गए। नाटक का मंचन भी हुआ, तो गाँधीजी को लेकर ऐसा क्यों है? क्या गाँधीजी का व्यक्तित्व कबीर के मुकाबले इतना कमजोर था ? यहाँ प्रश्न यह भी उठता है कि साहित्य में उपन्यास और कहानी के एक सफल नायक की भांति गाँधी क्यों विलुप्त से हैं। अगर हिंदी उपन्यास पर गाँधीवादी प्रभाव के सकारात्मक पक्ष को देखें तो ‘रंगभूमि’ के सूर के नैतिक विचार, उसका संयम, शत्रु के प्रति भी निर्दोष आत्मीयता, प्रबल आशावाद, ईश्वर में प्रगाढ़ श्रद्धा, मृत्यु के प्रति निर्भयता, दान के प्रति उसका अपना स्वभाव, बड़े-से-बड़े अधिकारी के सामने निर्भय होकर बात करने के हौसले, सशक्त आत्मविश्वास आदि गुणों को प्रेमचंद ने साकार रूप दिया है। इसमें लगता है कि प्रेमचंद का यह सूर महात्मा गाँधी का ही प्रतिरूप है, परंतु यह विलक्षण कल्पनाशक्ति व चरित्र का सृजन प्रेमचंद ने की है। इसमें गाँधी सा है, गाँधी नहीं है। यदि प्रेमचंद की गोदान से पहले की कृतियों को पढ़ा जाए तो वे गाँधीवाद से प्रभावित जान पड़ती हैं। ‘कर्मभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’, इन तमाम उपन्यासों पर गाँधीवाद की स्पष्ट छाप है। ‘निर्मला’ और ‘ग़बन’ में भी गाँधीवाद के असर दिखते हैं। 
गाँधीवाद से प्रभावित दूसरे महत्त्वपूर्ण लेखक हैं- जैनेन्द्र। ‘परख’ में गाँधीवाद का प्रभाव ‘सत्यधन’ पर दिखाया गया है, परन्तु ढुलमुल चरित्र के वकील सत्यधन ने इस प्रभाव को किस प्रकार ग्रहण किया, यह परख पढ़ते हुए पता चल जाता है। जिससे स्त्री, धनलिप्सा तथा स्व-प्रतिष्ठा के मोह को वह त्याग नहीं सका। इसके विपरीत बिहारी का व्यक्तित्व गाँधीवादी आदर्श से सना-गुथा जान पड़ता है। जैनेन्द्र शायद यह प्रस्तुत करना चाहते थे कि गाँधीजी के आदर्श को प्रस्तुत करना सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं। वह बिहारी जैसे व्यक्तित्व के लिए ही उपयुक्त है। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने सही कहा है कि ‘सुनीता’ और उसके बाद की रचनाओं में जैनेन्द्र ने गाँधीवाद और मनोविज्ञान का समन्वय करने का असफल प्रयास किया।  
इसी प्रकार सियारामशरण गुप्त के लेखन की अगर पड़ताल की जाय तो गाँधीवाद के प्रति उनका मोह दिखाई पड़ता है। इतना ही नहीं सियारामशरण गुप्त के व्यक्तित्व में भी गाँधी का प्रभाव है। समालोचकों ने सियारामशरण गुप्त को भी गाँधी-लेखक कहा है। ‘भारत-भारती’ के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त ने राष्ट्रीय चेतना जगाने का कार्य किया। यदि यह कहा जाय कि ‘भारत-भारती’ राष्ट्रीयता की भावना भरनेवाला काव्य है’, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।  
सुख और दु:ख में एक-सा सब भाइयों का भाग हो,
अन्त:करण में गूँजता राष्ट्रीयता का राग हो।
गाँधी विचारधारा से प्रभावित सुमित्रानंदन पंत भी थे जिन्होंने गाँधी को भारत देश के सत्य-अहिंसा के सन्देश-वाहक और मानवता के संस्थापक के रूप में समादृत किया। भारतमाता की वन्दना करते हुए पंत ने लिखा है – 
जय नव मानवता निर्माता, 
प्रयाण तूर्य बज उठे
सत्य अहिंसा दाता।
पटह तुमुल गरज उठे
जय हे जय हे शांति अधिष्ठाता। 
विशाल सत्य सैन्य, लौह भुज उठे।
शक्ति स्वरूपिणी, बहुबल धारिणी, 
वंदित भारतमाता।
वस्तुतः, महात्मा गाँधी ने विश्व-बंधुत्व, लोक-मंगल की कामना को आत्मसात करके समाज में साम्यता लाने का प्रयत्न किया था। छायावादी रचनाओं में यही साम्य-भाव और मानव-कल्याण की भावना परिलक्षित हुई है। सच्चे मायने में देखा जाय तो उस दौर की गाँधी की यह अहिंसक चेतना थी इसलिए पन्त, महादेवी जैसे कवियों ने उसे अपने रचना संसार में स्थान दिया, प्रसाद और निराला जैसे कवियों ने भी उन मूल्यों को कहीं-न-कहीं स्वीकार करते हुए अपने यहाँ स्थान दिया। 
गाँधीजी के सत्य एवं अहिंसा की तात्त्विकता और उसकी मीमांसा माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पंत, पंडित रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्राकुमारी चौहान आदि ने की है। मैथिलीशरण गुप्त ने ‘सत्याग्रह’ काव्य में गाँधीजी के ‘सत्याग्रह’ का भरपूर विवेचन किया है। समकालीन समाज में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि परिवर्तनों के साहित्य को श्रेष्ठ साधन माना गया है। इस संदर्भ में, आन्ध्र-जन-जीवन का विहंगम चित्र प्रस्तुत करने वाली रचना ‘मालपल्लि’ का अवलोकन किया जाना उपयोगी है। यह आंध्र के ग्रामीण-जीवन के विकास को काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया उपन्यास है। इस उपन्यास में जेल, अदालत, पाठशालाएँ, पुलिस, खादी, असहयोग, लूटखसोट, स्वराज-आन्दोलन आदि विषयों से संबंधित मुद्दों को महत्त्व दिया गया है। आंध्र के इस सुप्रसिद्ध उपन्यास के लेखक प्रसिद्ध देशभक्त नेता उन्नव लक्ष्मीनारायण हैं। लक्ष्मीनारायण के इस उपन्यास की गाँधीवादी व्याख्या किस प्रकार उभरकर सामने आई है, इसे उपन्यास का पाठ करके देखा जा सकता है।
इसी प्रकार, महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर फिल्मों का निर्माण करना जितना सराहनीय है उतना ही जटिल भी रहा। बापू के व्यापक एवं अद्भुत व्यक्तित्व को कुछ घंटे में परदे पर पूरे न्याय के साथ प्रस्तुत करना या फिल्माना बहुत ही जटिल काम था लेकिन हिन्दी सिनेमा ने काफी हद तक इस काम को किया है। वी. शांताराम और विमल राय की फिल्मों में गाँधीवादी संवेदना और आदर्श की कसौटी अनिवार्य रूप से रहती थी। इस दौर में बनी फिल्मों को देखें- ‘दो बीघा जमीन’, ‘दो आँखें बारह हाथ’, ‘आवारा’ और ‘जागृति’ ऐसी ही कुछ फिल्में थीं जिसमें गाँधी की आत्मा उभरकर सामने आती है। अगर लोकप्रिय और व्यावसायिक सिनेमा ने बर्बरता को प्रोत्साहित किया तो दूसरी तरफ ऐसी फिल्में भी बनती रहीं जिनमें धार्मिक सौहार्द और अहिंसा को काफी सशक्त तरीके से प्रस्तुत किया गया। रिचर्ड एटेनबरो की ‘गाँधी’ शीर्षक से बनी फिल्म हो या श्याम बेनेगल की ‘द मेकिंग आफ महात्मा’ या फिर ‘गाँधी- माई फादर’, इन सभी फिल्मों में गाँधी जी के जीवन के महत्त्वपूर्ण पड़ावों को सत्य व अहिंसा के उनके मूल्यों के साथ काफी सशक्त तरीके से पेश किया गया। गाँधी जी का प्रभाव “लगे रहो मुन्ना भाईफिल्म में भी बखूबी दिखा।
फिलहाल, महात्मा गाँधी द्वारा लिखित पुस्तकों की संख्या कुल मिलाकर चालीस के आसपास है, जिनका प्रकाशन सर्व सेवा संघ, सस्ता साहित्य मण्डल, नवजीवन और सर्वोदय मण्डल आदि ने किया है। उनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में- ‘सत्य के प्रयोग’ अथवा ‘आत्मकथा’, ‘अनासक्तियोग’, ‘सर्वोदय’, ‘विद्यार्थियों को संदेश’, ‘महिलाओं से’, ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ और ‘हिन्द स्वराज’ आदि है। ये सारी पुस्तकें गुजराती भाषा में हैं, जिनके हिन्दी अनुवाद आज पूरी दुनिया में उपलब्ध हैं। महात्मा गाँधी की पुस्तकों को पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे आवश्यकता पड़ने पर अपने पुराने विचारों को त्याग कर नये विचार- जो बहुसंख्यक के लिए उपयोगी हों, बड़ी तत्परता से आत्मसात करते हैं। इसका उदहारण हमें हिन्द स्वराज पढ़ते हुए भी मिलता है या गांधी जी के लिखे पत्र भी इसके साक्ष्य हैं। गाँधी के अंतिम वसीयतनामा को पढ़ते हुए इस नतीजे पर पाठक पहुँच जाता है कि उन्होंने तो कांग्रेस को भी भंग करने का अनुरोध कर डाला था। यह तथ्य गाँधी की सांस्कृतिक चेतना से साहित्य को नए आयाम देता है। उनके साहित्य में कोई रुग्णता नहीं अपितु एक स्वस्थ परिपाटी को विकसित करने की पहल है। यह संस्कृति वस्तुतः जिस साहित्य सौन्दर्य को गढ़ने का साहस रखती है वह हमें कहीं अन्यत्र नहीं मिलती। निःसंदेह, आज जब तमाम मूल्य ध्वस्त हो रहे हों, नई-नई कोशिशों से समाज भी अपने सतत सनातन मूल्यों की अनदेखी कर रहा हो, पोस्ट-ट्रुथ की अवधारणा अपना स्वरूप ले रही हो ऐसे में अहिंसा, सत्य और प्रेम, साहित्य के लिए नए मूल्य गढ़ सकेंगे और उसका पाठ होगा यह कहना, साधारण बात नहीं है। साहित्य की बहुत सी विधाओं में हो रहे लेखन, अनुसन्धान और नवाचार में गाँधी और गाँधीवादी मूल्यों की बहुलता पुनः परिभाषित होने लगी है। यदि साहित्यकार और प्रकाशक इस बात को स्वीकार न करेंगे तो हो सकता है कि साहित्य के जरिए जो सामाजिक चेतना समादृत होनी है, वह न हो पाए। इस स्थिति में साहित्य की संवेदना पर भी सवाल उठेंगे।
लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारीओएसडी रह चुके हैं। आप केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में चेयर प्रोफेसर और अहिंसा आयोग और अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं।
प्रो. कन्हैया त्रिपाठी
चेयर प्रोफ़ेसर  
डॉ. आंबेडकर मानवाधिकार एवं पर्यावरणीय मूल्य पीठ, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, घुद्दा, बठिंडा-151401 (पंजाब)
मो. 9818759757, Email: hindswaraj2009@gmail.com or kanhaiya.tripathi@cup.edu.in 


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