Friday, October 4, 2024
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रवि रंजन कुमार ठाकुर का लेख – उर्वशी: आधुनिक स्त्रीत्व का दृष्टिबोध

उर्वशी की कथा ऋग्वेद से महाभारत तक में विस्तार पाता है। इस विस्तार में उर्वशी के स्त्रीत्व का उद्घोष गुंजायमान है। शतपथ ब्राह्मण में वह अप्सरा से श्रेष्ठ मानवी स्वरूप में दिखाई देती है। मानवीय संवेदनाओं का स्पर्श ही उसे अनोखा स्त्री व्यक्तित्व प्रदान करता है। उर्वशी की कथा विभिन्न रूपभेदों के आयाम को पार करती हुई स्त्री स्वाभिमान एवं स्वत्व का बोध कराती चलती है। स्वयं देवता के ऊरु भाग से जन्मी इस अप्सरा का अद्वितीय सौन्दर्य उषा के सौन्दर्य वर्णन में रूपांतरित हो जाता है। सर विलियम विलसन ने अनुमान से उर्वशी की कथा को अन्योक्तिपरक बताते हुए उसे उषा और पुरुरवा को सूर्य माना है। किन्तु कथा तत्त्व में जो स्त्री का स्व उभरता है उसे गौण कर दिया है। दिनकर जी ने अवश्य उर्वशी के स्वत्व को उभारने का प्रयास किया है।
अप्सरा शब्द का अर्थ जलपरी से लिया जाता है। संस्कृत में अप्सरा का अर्थ पानी होता है। अप्सराओं को जल-क्रीडा अत्यंत प्रिय होता है। ये सभी चौंसठ कलाओं में प्रवीण एवं रस धारण करने वाली मानी जाती हैं। उर्वशी से अभिप्राय उत्कट इच्छा से है। इच्छा की यही प्रबलता महत्त्वकांक्षा तक पहुँचती है जो स्त्रियों को मानिनी बनाती है। स्त्री के भीतर की जो स्त्री है उसका सन्धान पुरुष तभी प्राप्त कर पाता है जब दैहिक आकर्षण से ऊपर उठकर शाश्वत प्रेम के चैतन्य धरातल पर पहुँचता है। यही सिद्धान्त पुरुष के भीतर के पुरुष की प्राप्ति के लिए स्त्री पर भी लागू होता है। पुरुरवा और उर्वशी दोनों ही प्रेम के चैतन्य धरातल पर दिखाई देते हैं। पुरुरवा का अर्थ नाना ध्वनियों से आक्रान्त से लिया जाता है। पुरुरवा चन्द्रवंश के प्रतिस्थापक हैं। औशीनरी इनकी पत्नी है उर्वशी का ये सन्धान करते हैं। विवाहित पुरुष की ओर उर्वशी का ऐसा आकर्षण जो उसे शाप भोगने को विवश करता है तथा पुनः प्रिय की प्राप्ति यह केवल यौनाकर्षण नहीं है इसमें स्त्रीत्व का स्वरूप भी रूपायित होता है। उसे सुरक्षा से ज्यादा स्वतंत्रता प्रिय है। स्त्रीत्व के वास्तविक यथार्थ को वह आभासी रूप में नहीं अनुभव के स्तर पर ग्रहण करना चाहती है।
स्त्री स्वतंत्रता और प्रेम के मिथकीय प्रतीक के रूप में कई पौराणिक स्त्री पात्रों का वर्णन मिलता है। उर्वशी के स्वरूप में नैतिक रूढ़ियों के साथ भौतिकवाद को भी चुनौती दी गई है। स्वर्गीय सुख से उर्वशी की ऊब इसलिए होती है कि वहाँ वह एक वस्तु मात्र है। इन्द्र की मर्जी के अनुसार उसे अपना फैसला लेना है। देवराज इन्द्र प्रायः इस अप्सरा का उपभोग वर्तमान समय के ‘हनी ट्रैपिंग’ के रूप में करते हैं जहाँ उसे विभिन्न मुश्किलों का सामना स्वयं करना पड़ता है। कभी वह स्वर्गलोक की शोभा उत्तम नर्तकी के रूप में बढ़ाती है। तात्पर्य यह कि स्वर्गीय सुख में स्वत्व बोध उसका लोप हो जाता है। उर्वशी अपने स्वत्व का लोप नहीं चाहती, देवताओं के सानिध्य में स्त्री अर्थ का अनुभव उसे नहीं हो पाता है, अर्थात वह स्वत्व के लिए मनुष्य का चुनाव करती है। इस चुनाव में वह अधीन नहीं होती अपने शर्त के अनुरूप उसे स्वीकारती है। कालिदास के ‘विक्रमोर्वशीयम्’ की कथा में भले ही इतिहास और मिथक की खिचड़ी हो लेकिन इस कथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री का प्रेम संपूर्ण समर्पित होता है। इतिहास मिथक को भले ही पीछे धकेल देता है लेकिन नेपथ्य में इसकी मौजूदगी को वह मिटा नहीं सकता है। उर्वशी की कथा यहाँ यह स्पष्ट कर देती है कि कला सन्धान के क्रम में दिखाई देने वाला उर्वशी का समर्पित मनुष्य प्रेम उसके स्त्रीत्व का परिचायक है।
जगत की सामान्य समझ को बनाए रखने के लिए मिथक का ज्ञान आवश्यक माना जाता है। यह ज्ञान व्यक्ति और समष्टि दोनों को एक-दूसरे से जोड़े रखता है। किसी समूह विशेष के लिए यह भले ही उपयुक्त माना जाता हो लेकिन इसके मूल तत्त्व संपूर्ण मानवीय हित के निमित्त होता है। जीवन में मानवीय समझ को विकसित करने में मिथक का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। पुरुरवा समृद्धि का प्रतीक है जिसे उर्वशी शांति प्रदान करती है। श्रृंगार और शौर्य का संघात पुरुषार्थ पर होता है तो करुणा और वात्सल्य के संघात बिन्दु पर स्त्रीत्व निहित है। उर्वशी देवलोक का त्याग मानवीय संबंध के लिए करती है। पुरुरवा की पत्नी बनकर ही प्रेम की महानीयता को महसूस करती है। मित्रावरुण और वरुण देव के संसर्ग से उसे प्रेम के ऐन्द्रियता का भान होता है जो उसके स्त्रीत्व के अहं को तृप्त नहीं करता है। इस संसर्ग से अगस्त्य और वसिष्ठ जैसे महान पुत्रों की माता वह अवश्य बनती है। पुरुरवा से उसे आयू नामक पुत्र की प्राप्ति होती है। मातृत्व उसके स्त्रीत्व को पूर्णता प्रदान करता है। इसका स्वीकार ही उसके स्त्रीत्व का अहं है।
शतपथ ब्राह्मण के कथानुसार जब गर्भवती उर्वशी पुरुरवा को त्यागकर चली जाती है तो पुरुरवा विरहोन्मत्त हो कर उसे खोजते हुए सरोवर पहुँचते हैं जहाँ वह हंसिनी बनकर जलक्रीड़ा कर रही थी। वह पुरुरवा के साथ लौट आने का आग्रह स्वीकार नहीं करती। जब पुरुरवा चट्टान से कूदकर अपना अंत करना चाहता है तो वह उसे समझाते हुए कहती है स्त्रियों का साथ कभी स्थायी नहीं होता। पुरुरवा अपने वंश का वास्ता देकर उसे बाँधना चाहते हैं लेकिन वह उनके वंश को लौटाने का आश्वासन देकर चली जाती है। स्वतंत्रता उसे प्रिय अवश्य है लेकिन इसके पीछे उसमें स्त्रीत्व का नकार कहीं भी निहित नहीं है। नृपश्रेष्ठ पुरुरवा का त्याग आबद्ध शर्तों की अपूर्णता है। युनानी मिथक में सुरज का बेटा आर्फियस और उसकी प्रेमिका यूरिडिस अंततः अलग अगर होते हैं तो उसके पीछे भी यूरिडिस की शर्त न मानना ही है। उर्वशी और यूरिडिस की कथा में नृत्य और संगीत का समन्वय दिखाई देता है। दोनों ही प्रकरण में समयानुरूप कला के प्रभाव का वर्णन दिखाई देता है। नृत्य साधना उर्वशी को मानवीय बोध करा देता है तो यूरिडिस की कथा में संगीत क्रूर जानवर को इन्सानियत सिखा देता है। दोनों ही कथाओं में स्त्रीत्व का अहं मौजूद है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उर्वशी एवं यूरिडिस का मिथक मूल तत्त्व के विवेचन से स्त्री संबंधी स्वत्व को उजागर करने वाला है।
मानवीय प्रेम का आकर्षण उर्वशी को स्वर्ग के आमोद-प्रमोद से बाहर निकालकर उसे वस्तु से स्त्री बनने को विवश करता है। वह अपने अस्मिता की पहचान कर उसे स्पष्टतया उभारती है और अपने अस्तित्व को प्रमाणित करती है जिसमें स्त्रीत्व का गौरव, अहम एवं स्व की समझ सन्निहित है। देह पर उसका अपना अधिकार है। मित्रावरुण का चुनाव हो या उसी रास्ते में मिलने वाले वरुण का अथवा अर्जुन से प्रणय निवेदन या मानवीय जीवन की उच्चता की चाहत में स्वर्ग का त्याग, इन सभी में स्वतंत्र स्त्री जीवन के स्वरूप को को व्याख्यायित वह करती है, जिसमें स्व और शरीर पर स्वयं के अधिकार का भाव निहित है। अप्सरा बनकर केवल स्वयं को देखे जाने तक सीमित रखना उसका उद्देश्य नहीं है। उसकी आकांक्षा है कि उसे स्त्री के रूप में मान्यता मिले। वह संसार को स्वयं देखे-समझे जहाँ उसके स्वप्न को आकार मिले। स्वतंत्रता उसके स्त्रीत्व के मूल में निहित है। विवाहित पुरुष पुरुरवा के साथ विवाह एवं उसका त्याग वर्जनाओं का अस्वीकार ये सभी उसके स्वतंत्र स्वरूप के पक्षधर दिखाई देते हैं।
यौनिकता के संदर्भ में भारतीय संस्कृति में जिस आत्मनिग्रह पर बल दिया गया है उससे स्त्री और पुरुष दोनों को अनुशासित करने का प्रयास है। विचारात्मक स्तर पर यह सारहीन नहीं है। भोग का समुचित आनंद तभी संभव है जब योग का समावेश हमारे जीवन में हो। प्राचीन कामकला को व्याख्यायित करने वाली मूर्तियाँ इसे स्पष्ट कर देती हैं। अनेक पौराणिक मिथक इस तत्त्व की संकल्पना को हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। अतृप्त इच्छा सागर से समुद्भूत पुरुष आत्मनिग्रह की भावना को प्रवंचना बताकर स्वयं के लिए भोग को अपने पौरुष अधिकार से जोड़ता है। इन्द्र का पुरुषत्व इसी का उदाहरण है। स्त्री जब स्वयं को महत्त्व देती है तो आत्मा से देह की स्वतंत्रता और दृश्य से द्रष्टा के रूप में अपने अस्तित्व को स्थापित करना चाहती है। उर्वशी की मिथकीय शक्ति इसी को स्पष्ट करने वाली है। मिथक से जो सार्वभौम सत्य उभरता है उसे तहस-नहस करना सरल नहीं है। आत्मनिग्रह के भाव का अतिक्रमण केवल पुरुष ही नहीं स्त्री भी करने में सक्षम है। इंद्र के सम्मुख उर्वशी ने इसे स्पष्ट कर दिया। यह पुरुष वर्चस्व के प्रति स्त्री के नकार को दर्शाता है। इंद्र के बेटे अर्जुन से प्रणय निवेदन केवल आत्मनिग्रह का अतिक्रमण न होकर पुरुष के उस सत्ता का विरोध भी है जो स्त्री को बाँधे रखकर स्वयं के अनुरूप उपयोग करने का पक्षधर है। स्वर्गलोक में देवताओं के बीच वह बंदिनी की भाँति महसूस करती है। यहाँ वह स्त्री अर्थ का अनुभव समग्रता में नहीं कर पा रही थी। राजात्व आभा में स्वयं का उपयोग किया जाना उसे सहनीय नहीं लगता अतः वह विरोध का बिगुल वहाँ फूंकना शुरु करती है। परिणामतः स्वर्ग से निष्कासित होकर पृथ्वी पर पहुँचती है और स्वयं के अनुरूप जीवन जीना पसंद करती है।
वर्तमान समय में राजत्व आभा बाज़ार ने विज्ञापन के रूप में प्रदान किया है जहाँ स्त्री दूसरों के द्वारा संचालित होकर दृश्यविधान तक स्वयं को सीमित करती जा रही है। दरअसल उर्वशी का मिथक हमारा ध्यान इस ओर भी खींचने का प्रयास करता है। उर्वशी स्वयं स्त्री जीवन को अनुभव करना चाहती है। मानवीय जीवन के उच्चता की अनुभूति ही उसे देवालय में व्रिदोह की स्वानुभूति से गुजरने को विवश करती है। स्त्री के प्रति प्राचीन सामंती मानसिकता और आधुनिक उपभोक्तावादी दृष्टि का मेल जिस बिन्दु पर है वह शरीर है। दोनों जगहों पर शरीर प्राप्ति भोग तन्तू मात्र है। जहाँ भोग की प्रवृत्ति है वहाँ काम शरीर के स्तर पर संचालित न होकर दिमाग के स्तर से संचालित है। इसमें आनंद गौण एवं आनंद प्राप्ति के साधन की बहुलता प्रमुख है। इतना अवश्य है कि आत्मिक ऊँचाई के बिना यौन तृप्ति एक भ्रम है। उर्वशी का पुरुरवा से सशर्त प्रेम केवल दिमाग एवं शरीर केन्द्रित न होकर उस ऊँचाई तक पहुँचने का प्रयास है जिसे ब्रह्मानंद सहोदर कहा जाता है। बर्टेड रसेल ने अपनी पुस्तक ‘एथिक्स, सेक्स एंड मैरिज’ में सेक्स, नैतिकता और विवाह से संबंधित अपने विचार में प्रेमहीन सेक्स और सेक्सहीन प्रेम के भाव, विचार से गुजरकर विवाद के नैतिकता पर बात करते हुए अपने पक्ष को रखने का प्रयास किया था जिसमें परकीया प्रेम के जरूरतों को युगसंदर्भ के कसौटी पर तोला गया था। वर्तमान समय की यौन मनोरुग्णता, आधुनिक मनुष्य के मन को, कामनाओं के संसार में विचरण करने के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। नवीन सौन्दर्य का अनंत आकर्षण परंपरा एवं स्वतंत्रता को आपस में टकराने को विवश करता है। इससे जहाँ नैतिकता और प्रेम के प्रश्न प्रमुखतः हिलोरे लेने लगते हैं। उर्वशी और पुरुरवा का मेल इस संदर्भ में इसलिए चिरंतन है कि दोनों अपने संसार को छोड़कर एक दूसरे से मिलते हैं।
स्त्री-पुरुष के संबंध का आधार मानवीय प्रेम, सम्मान, और सहकार है। पितृसत्तात्मक समाज होने के बावजूद भारत में यह विश्वास है कि पत्नी ही जीवन और आनंद है। वैदिक युग में स्त्री को व्यक्तित्व विकास के सभी अवसर प्राप्त थे। उपनिषदकारों ने नर-नारी को एक ही चेतना के रूप में देखा है। यही कारण है कि पत्नी को अर्द्धांगिनी माना जाता है। मनुस्मृति का मानना है कि एक बार गया में पिण्ड देने से पितृ ऋण से मुक्ति मिल जाती है। लेकिन मातृ ऋण से मुक्ति के लिए गया में सात बार पिण्डदान आवश्यक है। स्त्रियों के लिए मातृत्व निःसंदेह एक महत्त्वपूर्ण मूल्य है। लेकिन मातृत्व प्राप्ति का अर्थ स्त्री अधिकारों से वंचित होना नहीं है। उर्वशी के विषय में शतपथ ब्राह्मण में वर्णित कथा इसी तथ्य को बताता है। दुनिया के सभी प्राचीन संस्कृतियों में आदिकल्पनाओं का भंडार है जिसे आधुनिक जीवन किसी न किसी रूप में प्रेरणा ग्रहण करता है। मिथक द्वारा इतिहास, धर्म, दर्शन की व्याख्या आसान हो जाती है। भारतीय परंपरा में जो पुरावृत्त है उसे ही आज मिथक के रूप में हम जानते हैं। भारोपीय भाषा परिवार का शब्द मुथ का अर्थ कल्पना करना बताया गया है। मिथ का हिन्दी करण करते हुए मिथक शब्द हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने प्रदान किया। उर्वशी का मिथकीय रूप विद्वानों ने भले ही उषा काल की तरह माना है। जब वह समग्रता में स्पष्ट होता है तो उसमें स्त्रीत्व के उद्घोष का स्वर प्रस्फुटित होते हुए दिखाई देने लगता है।
भारतीय संस्कृति में स्त्री सृजन शक्ति के रूप में स्वीकृत रही है जिसमें स्त्रीत्व का विकास समाहित है। वैदिक युग में उसे संपूर्ण विकास की स्वतंत्रता प्राप्त थी। महाभारत काल में सगोत्रीय विवाह निषेध कानून ने उसके समक्ष यौनिकता से जुड़े सवाल को रखकर उसके अक्षय शक्ति को अवरुद्ध करने का प्रयास किया जाता। अपने ही सगोत्रीय अर्जुन के प्रति उर्वशी का प्रणय निवेदन इसी का प्रतिकार है। कामजन्य प्रेरणाओं की व्याप्तियाँ सभ्यता के भीतर बहुत दूर तक पहुँचकर अपना असर छोड़ती हैं। पुरुरवा और उर्वशी का प्रेम मात्र शरीर के धरातल पर नहीं रुकता यह रूप के भीतर डूबकर अरूप की पड़ताल करते भी दिखाई देता है। स्वत्व हरण की प्रवृत्तियों से अगर पुरुष पूर्ण है तो इसे साबित करने में स्त्री कमजोर नहीं है। कार्तिकेय का मिथक यह उद्घोष करता है कि वह ऐसा पूर्ण बलशाली पुरुष है जिसका निर्माण मूलतः स्त्रियों ने किया है। उर्वशी पुत्र आयु भी ऐसा ही दावा करते दिखाई देता है। सारांशतः स्वतंत्रचेता स्त्री निर्मिति को भी पूर्णता प्रदान कर सकने में समक्षम सिद्ध हो सकती है।
शिव और पार्वती के काम संबंधी मिथक काम को एक शक्ति के रूप में विवेचित करता है। ऐसी शक्ति जो सृजन और संहार के साथ ऊर्जा प्रदान करने वाली है। ऐसी ऊर्जा जो रावण जैसे शक्तिशाली पुरुष का रास्ता रोकने में समर्थवान है। बड़वानल को शांत कर सकता है, हिम को अंगार में बदल सकता है। डी.एच. लारेंस का कथन ‘मानव जीवन में सेक्स बड़ी शक्तिशाली, लाभदायक और आवश्यक चीज है और हमें इसका कृतज्ञ होना चाहिए।’ इसी शिव-पार्वती के मिथक से उत्प्रेरित लगता है। लारेंस का मानना है कि नए भौतिकवादी युग में स्त्री-पुरुष संबंधों की अनुभूतिहीनता के लिए सेक्स उष्णता प्रदान कर जीवन में जिंदगी लहर दौड़ा देता है। उर्वशी और पुरुरवा की यौनिक यात्रा मानवीय आस्था भरी सृजनात्मकता का उत्प्रेरक अर्थपूर्णता से परिपूर्ण है। उर्वशी जब अपने स्त्री होने के अर्थ को तलाश करती है तो उसे यह प्रतीत होता है कि शरीर का भोग उदात्त आत्मिक जरूरत के रूप में महसूस किये जाने की आवश्यकता है। इसी कारण से उसके मन में रूप से अरूप की ओर प्रत्यागमन संबंधी विचार पल्लवित होते हैं जिसके फलस्वरूप वह अपने स्वत्व को बचाने का प्रयास करती है।
उर्वशी के मिथकीय अर्थ को जड़ नैतिक व्यवस्था से विद्रोह या अतिभौतिकवाद से ऊब के रूप में देखे जाने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री मानवी बनकर ही समग्रता में स्वयं को व्याख्यायित कर पाती है। स्त्री-पुरुष का मेल उनके अन्तस्थ में ऐसी तृषा को संचारित करता है जिसकी तृप्ति आत्मिक धरातल पर ही उपलब्ध हो सकती है। पुरुरवा द्वारा किया गया दुसाहसिक अग्नि मंथन उर्वशी की पुनः प्राप्ति हेतु इसी आत्मिक सुख की प्राप्ति का सन्धान कहा जा सकता है। औशीनरी पति के लिए उर्वशी नहीं बन सकती है। उसका अपना पक्ष है जिसमें पत्नी पति का आध्यात्मिक उर्ध्वारोहण का विरोध उर्वशी के सदृश नहीं कर सकती। सामाजिक वर्जनाओं से निकलकर उर्वशी जिस स्वत्व का सन्धान करती है औशनरी के लिए वह संभव नहीं है। औशीनरी की आध्यात्मिक पूर्णता मनसा, वाच, कर्मणा, आत्मनिग्रह के रास्ते दाम्पत्य भाव के मूल में निहित है जहाँ आत्मपहचान, स्व की सिद्धि को नगण्य माना जाता है।
उर्वशी के व्यक्तित्व से जिस स्वतंत्रता स्त्री स्वरूप का दर्शन प्राप्त होता है वह वर्तमान समय के स्त्रीत्व संबंधी बोध एवं बौद्धिकता दोनों से अवगत कराने वाला है। बाज़ार, विज्ञापन, उपभोक्तावादी व्यवस्था में जकड़ी स्त्री के लिए स्वत्व की पहचान स्वयं का आत्मबोध एवं अस्मिता की सुरक्षा कितना आवश्यक है वह उर्वशी के मिथकीय ज़मीन से समझा जा सकता है। पुरुष-स्त्री के यौनिकता से जुड़े तथ्यों को विवेचित कर यह मिथक मनुष्य को पशुता से ऊपर उठने की सलाह देता है। भौतिक आधार से उठकर प्रेम आत्मा के अन्तरिक्ष में कैसे स्वच्छंद विचरण करता है इसे यहाँ समझा जा सकता है। स्त्री चेतना ने स्त्री के स्त्रीत्व को समझने की जो शक्ति प्रदान की है वह विभिन्न मिथकीय पात्रों से परिभाषित होता है। उर्वशी का स्त्रीत्व को महसूस करने की स्वतंत्र इच्छा रागात्मक होकर विराग का समर्थन है। पुरुष प्रभुत्ववादी परिवेश में उर्वशी स्त्री के स्वतंत्र अर्थ को तलाशती दिखाई देती है।
रवि रंजन कुमार ठाकुर
मो.-8384049497
ईमेल- [email protected]
संपर्क- F44B, गली नं.-2, मंगल बाजार रोड़
लक्ष्मी नगर, नई दिल्ली-110092
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2 टिप्पणी

  1. बहुत ही सहज सरस सार्थक आलेख जो जानकारी से लबरेज़ है।साहित्य और संस्कृति से संबद्ध पाठकों को अच्छा लगेगा।
    बधाई लेखक और संपादक दोनों को।

  2. वैसे तो उर्वशी मेनका रंभा स्वर्ग की तीनों ही अप्सराएँ अद्वितीय सौंन्दर्य की स्वामिनी हैं। महत्वपूर्ण भी। तीनों की ही अपनी-अपनी कुछ ना कुछ कहानी है पर आपने उर्वशी को लेकर जितना कुछ लिखा वह बहुत महत्वपूर्ण है।इसे पढ़कर एक बात समझ में आती है कि अगर कोई नरश्रेष्ठ है तो अप्सरायें उन्हें पसंद करती हैं।
    वे लंबे समय तक पृथ्वी पर नहीं रह सकतीं उन्हें वापस लौटना ही होता है स्वर्ग।
    लेकिन यह नहीं पता था की उर्वशी का प्रसंग ऋग्वेद और महाभारत में भी है।
    कई वर्षों पूर्व शायद सन् 80 में हमने महाभारत पढ़ी थी। जब खरीदी थी तो बहुत डांट पड़ी थी कि महाभारत घर में नहीं रखी जाती। ऐसा कहा जाता है कि महाभारत घर में हो तो झगड़ा होता है। पर हमें पढ़ना ही था हमने सोचा प्रैक्टिकल भी हो जाएगा की झगड़ा होता है या नहीं पर झगड़ा नहीं हुआ
    हमें बिल्कुल याद नहीं आ रहा कि उसमें कहीं पर उर्वशी का प्रसंग आया हो। पर क्योंकि है एक लंबे अंतराल की बात है तो हो सकता है कि उसमें रहा हो लेकिन हमें याद ना हो महाभारत और भागवत अलग-अलग है। खैर …..।
    आपने बहुत ही खूबसूरती से और विस्तार से उर्वशी को समझाया है सिर्फ उर्वशी ही नहीं अप्सराओं का अर्थ भी स्पष्ट हुआ एक बार पुनः पूरुरवा और उर्वशी की कहानी पढ़ने में आई। अपने पूर्व और उर्वशी की प्रेम प्रसंग को लेकर मनुष्य और स्त्री के बीच के प्रेम संबन्धों को बहुत ही बारीकी के साथ और बहुत ही सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया है।
    हमने इसलिए को कम से कम पाँच बार पढ़ा थोड़े-थोड़े अंतराल से‌ अच्छा साहित्य अपने को बार-बार पढ़वा लेता है। इसके माध्यम से हम अपनी संस्कृति को भी समझ पाते हैं।
    हम सोचते हैं कि सभी को इसको कम से कम एक बार तो जरूर ही पढ़ना चाहिए। अगर आप पाठक हैं सही मायने में तो आपको अच्छा साहित्य पढ़ने में रुचि रखना ही चाहिये वरना आपका लेखक होना भी सार्थक नहीं। आप ज्ञान के एक खूबसूरत अंश से ही नहीं बल्कि सत्य से भी परिचित हुए बिना ही रह जाएंगे।
    *स्त्री के भीतर जो स्त्री है उसका सन्धान पुरुष तभी प्राप्त कर पाता है जब दैहिक आकर्षण से ऊपर उठकर शाश्वत प्रेम के चैतन्य धरातल पर पहुँचता है। यही सिद्धांत पुरुष के भीतर पुरुष की प्राप्ति के लिए स्त्री पर भी लागू होता है।*
    पुरुरवा व उर्वशी की प्रेम कहानी के माध्यम से प्रेम के उत्कृष्टतम रूप को यहाँ पर बताया गया है। पर सिर्फ इतना ही नहीं है जब इसे आगे बढ़ेंगे तो “आधुनिक स्त्रित्व का बोध” जैसा की शीर्षक में लिखा है वह सब भी समझ आता है!
    रवि रंजन जी! एक लंबी अवधि के बाद एक बहुत अच्छा लेख पढ़ने को मिला।
    आपने इसे बहुत ही सुंदर ढंग से निभाया है।
    यह सुरक्षित रखने वाली रचना है। थोड़े-थोड़े अंतराल से इसको पढ़कर मानव जीवन में प्रेम के महत्व को और जीवन की सच्चाई को महसूस किया जा सकता है। इस पर बहुत लिखा जा सकता है लेकिन अब हम कोशिश करेंगे कि हम टिप्पणी को थोड़ा संक्षिप्त करने की आदत डालें क्योंकि हम देख रहे हैं की लंबी टिप्पणी पढ़ने में सबको दिक्कत होती है।
    और हम ऐसे हैं कि जो पढ़ते हैं ,पढ़ते वक्त जो- जो मन में आता जाता है वह लिखते चले जाते हैं। काट-छाँट करने जैसी इच्छा ही नहीं होती। पढ़ने के बाद पहली बार जो विचार मन में आते हैं वही सच्चे होते हैं जब अपन उनको दोबारा पढ़ते हैं पोस्ट करने के पहले ,तो फिर दोबारा समझ में आता है कि इसमें किसी सुधार की जरूरत है या नहीं।
    आपको पढ़कर तो हम खुश हैं। शायद पहली बार पढ़ा लेकिन बहुत अच्छा पढ़ा।
    बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको और पुरवाई का विशेष आभार इस प्रस्तुति के लिए।

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