किताब-ए-हुस्न में कोई वफ़ा की बात भी है क्या?
ग़मों से चूर दिन तो हैं, ख़ुशी की रात भी है क्या?
कहानी-दर-कहानी बस वही हालात होते हैं,
मुकर्रर आशिक़ी में दर्द की सौग़ात भी है क्या?
हमेशा आदमी के अश्क़ दिखलाई नहीं देते,
तुम्हारी ख़ुश्क आँखों में छुपी बरसात भी है क्या?
मुक़द्दर में लिखा है जो, ज़रा सा भी बदल पाए,
कहो, इंसान की इतनी बड़ी औक़ात भी है क्या?
पुलिस मुस्तैद है लेकिन मुसलसल ज़ुर्म होते हैं,
कभी ये पूछ कर देखो कि तहक़ीक़ात भी है क्या?
बृज राज किशोर “राहगीर”
ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड,
मेरठ, (उ.प्र.)-250001
मोबाइल: 9412947379
बहुत सुंदर ग़ज़ल है ब्रज किशोर जी!
हर शेर अच्छा है। आखिरी शेर कबीलेगौर है।
बधाई।
वाह…. बेहतरीन