हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और ये विज्ञान और तकनीक के मायने में एडवांस होने की सदी है। आज जमाना इंटर डिसिप्लिनरी और एप्लाइड साइंस का है। विज्ञान एक-दूसरे क्षेत्र से इंटरेक्शन कर रहा है। इससे नए-नए विषय सामने आ रहे हैं और साथ ही रोजगार के नए क्षेत्र भी सामने आ रहे हैं। बायोटेक्नोलॉजी हो या बायोमेडिकल साइंस, जेनेटिक्स हो या न्यूक्लियर साइंस, विज्ञान में इंटर डिसिप्लिनरी और एप्लाइड साइंस की एक लंबी लिस्ट है, जिनमें अध्ययन करके नई ऊंचाइयां हासिल की जा सकती हैं। साथ ही साथ आज सामाजिक विज्ञान विषय भी  देश भर के स्कूलों में किसी न किसी रूप में पढ़ाए जा रहे हैं। पहले आमतौर पर ऐसी स्थिति नहीं थी। आजादी के पहले समाजशास्‍त्र, राजनीति विज्ञान और यहाँ तक कि अर्थशास्‍त्र की शिक्षा भी मुख्य रूप से विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों तक सीमित थी। आजादी के बाद सामाजिक विज्ञान के विषयों की शिक्षा में निरन्तर विस्तार हुआ तथा जल्दी ही इन्हें स्कूलों में पढ़ाए जाने की माँग बढ़ने लगी। वाणिज्यिक विषयों के साथ भी अमूमन यही स्थिति है।
उपरोक्त सभी बातों को मद्देनजर रखते हुए कहना होगा कि शिक्षाविद, मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री सभी इस बात पर जोर देते हैं कि पढाई-लिखाई के केंद्र में छात्र है, हमने ये जानना-समझना होगा कि हम विज्ञान, समाजिक विज्ञान या वाणिज्य में से छात्र को वही विषय पढ़ायें जिसमें उसकी दिलचस्पी हो।
अभी हाल ही में एक अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर ने “दि हिन्दू” अखबार में एक लेख लिखा जिसे मेरे सहित जितने भी शिक्षाविदों, चिंतकों ने पढ़ा होगा उनकी नींद उड़ गयी होगी, ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाएँ पहले आँखों के सामने से नहीं गुजरी लेकिन चूँकि उक्त घटना एक प्रोफेसर के साथ घटी, चुनांचे ध्यान जाना ज्यादा अहम् है। हुआ ये कि अमुख व्यक्ति के पुत्र ने जब दसवी की परीक्षा पास की तो वह अपने पुत्र को ग्यारहवी में प्रवेश दिलाने हेतु स्कूल गया। स्कूल की प्रधानाचार्या यह कहकर उन्हें प्रवेश से मना कर देती हैं कि आपके पुत्र के गणित में कम अंक होने के चलते उसे विज्ञान विषय में प्रवेश नहीं मिल सकता, लिहाजा आप उसे गणित रहित वाणिज्य वर्ग में प्रवेश दिलाएं।
अहम् सवाल ये खड़ा होता है कि किसी एक विषय में कम अंक आने से किसी छात्र को उसकी पसंद के विषय से वंचित कैसे किया जा सकता है? अगर हम परीक्षा प्रणाली पर गौर करें तो हम पाते हैं कि आज मूल्यांकन की जो स्थिति है उसमें सिर्फ रटकर मात्र तीन घंटे में विषय की जानकारी को उत्तर पुस्तिका में उगलना होता है जहाँ विषय की गहन जानकारी बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि किस छात्र ने कितना रटा और किसने रटे हुए में से कितना उगला। गौर करने लायक बात ये भी है कि प्रश्न-पत्र तैयार करने वाली टीम किस सोच पर काम करती है और कक्षा में पढ़ाने वाले अध्यापक की नियति क्या है? परीक्षा के समाजशास्त्र को समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि बच्चे की परफोर्मेंस का विश्लेषण करना।
उक्त छात्र के सम्बन्ध में बात करें तो पता चलता है कि विद्यालय प्रशासन छात्र को या तो वाणिज्य विषय पढने की सलाह देता है या फिर स्कूल छोड़ने का प्रमाणपत्र लेने की बात करता है, विद्यालय का कहना है कि वाणिज्य विषय गणित के अयोग्य छात्रों के लिए ही है, सवाल ये खड़ा होता है कि योग्यता का मापदंड क्या मात्र रटंत विद्या में प्राप्त अंक ही हैं और ये विषय  चयन का क्या एकमात्र तरीका है? विद्यालय के लिए इस एक बात को कह देना मात्र एक वाक्य हो सकता है लेकिन क्या उक्त छात्र की मनोदशा का अध्ययन नहीं किया जाना चाहिए? यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि एक छात्र एक ही विद्यालय में प्रथम कक्षा में प्रवेश के साथ लगतार एक मोटी फीस और समय देकर अध्ययन करता है और अचानक उसे कह दिया जाता है कि आप विज्ञान विषय पढने के लिए उपयुक्त नहीं हैं, ये उपयुक्त होने की पद्धति का विकास कहाँ से होता है इसके समाजशास्त्र को भी समझने की आवश्यकता है। बच्चे के एक दसक तक विद्यालय में बने रहने को विद्यालय या शिक्षा-प्रणाली क्यों नहीं समझ पाती, इसे भी चिंतन का विषय बनाये जाने की जरुरत है।
आज स्कूली-शिक्षा में उन छात्रों को महिमामंडित करने का चलन है जो अधिक मार्क्स लाते हैं, इसकी आड़ में जगह-जगह शिक्षा की दुकानें भी खुलती हैं, दिल्ली जैसे महानगरों में ये दुकानें लगातार खुलती है और खुलने के साथ ही फलने-फूलने लगती हैं, ये दुकानें १००% अंक लाने की गारंटी के विज्ञापन जारी करती हैं, अब तो कुछ निजी विद्यालय भी ऐसी दुकानों के साथ अनुबंध करते दिखाई देते हैं। यहाँ से उच्च अंक प्राप्त करने की उपयोगिता का खेल शुरू होता है।
विज्ञापन की इस दुनिया से बाहर आकर हम बाल-मनोविज्ञान के आधार पर सोचे तो कुछ सवाल स्वाभाविक रूप से जहन में आयेंगे, मसलन- कैसे कोई ये तय कर सकता है कि अमुक छात्र सिर्फ किसी विषय का अध्ययन मात्र इसलिए नहीं कर सकता कि उसने किसी एक विषय में कम अंक प्राप्त किये हैं? अगर हम इतिहास उठाकर देखें तो कितने ही वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, शिक्षाविद, इंजीनयर, चिकित्सा-विज्ञानी ऐसे मिलेंगे जो अपने छात्र जीवन में बहुत ही सामान्य या उससे भी कम रहे हैं। आखिर हम हैं कौन जो किसी का भविष्य लिखने के लिए बैठ जाएँ।
उक्त के संदर्भ में महान चिन्तक, विचारक वाटसन की बात याद आती है जो कहता है कि आप मुझे एक बालक दे दो मैं उसे जो चाहे बना सकता हूँ, क्या हम किसी छात्र को उसकी पसंद के विषय पढने से वंचित करके स्वाभाविक व्यवहारवाद को जबर नकारने की कोशिश नहीं कर रहे होते? शिक्षा का असल उदेश्य बच्चे की कमजोरियों को उजागर करके उसे हतोत्साहित करना है या फिर उसे प्रोत्सहन देकर अपनी कमजोरियों से बाहर आने में मदद करना? मैं समझता हूँ कि एक बच्चे के भाग्य को पूर्व में न लिखकर उस पर हमें विश्वास व्यक्त करना चाहिये कि वह क्या कर सकता है? आज की शिक्षा प्रणाली में ऐसे सुधारों की शख्त आवश्यकता हैं जहाँ बच्चो को उसनके पसन्द के विषय चुनने की आज़ादी हो, केवल किसी एक परीक्षा में आये अंक के आधार पर बच्चे के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए।

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