Saturday, July 27, 2024
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अजय कुमार पाण्डेय की कविता – लम्हों का दर्द

कुछ शब्द गिरे थे उस दिन शायद क्या तुमको अहसास नहीं
कुछ मुझसे छूटे कुछ तुमसे शायद वो लम्हे अब भी पास वहीं
गिरे वहीं पर सपने शायद जब नींद बहुत ही गहरी थी
दोनों के हाथों से गिरकर एक उम्मीद वहीं कहीं ठहरी थी
शब्दों का क्या है कब बिगड़े और कभी फिर बन जाये
घाव कभी देते हैं गहरे और कभी मलहम बन जाये
जब परदेसी हवा चली मौसम का रुख तब बदल गया
जो वक्त हाथ में ठहरा लगता लम्हों में ही फिसल गया
पलकों में कुछ अश्रु ठहर कर चौखट को यूँ देख रहे
मौन सिसकती आवाजों में अपनेपन को खोज रहे
जाने थी वो कौन घड़ी जब मन से मन का मान गिरा
औरों की बातों में आकर खुद अपना सम्मान गिरा
एक कोख के रिश्तों पर कुछ शब्द किसी के भारी क्यूँ
लम्हों के कुछ दोषों से ये सदियाँ हरदम हारी क्यूँ
उगता सूरज रोज निकलता साँझ ढले छिप जाता है
जाते-जाते जीवन के वो कुछ सीख हमें दे जाता है
रात अँधेरी भले घनेरी लेकिन कितनी देर रही है
खिली किरण जब पुनः भोर की रातें कितनी देर रही हैं।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
संपर्क – [email protected]
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