बीती 11 मई को सआदत हसन मंटो का जन्मदिन गुजरा है। मंटो अगर होते तो आज 111 साल के जादुई आंकड़े पर पहुँचकर मुस्कुरा रहे होते या शायद कुछ खीझे ही होते। बहरहाल, मंटो के जन्मदिन पर उन्हें याद करते डॉ. राजेश शर्मा ने यह लेख लिखा है, जो आज हम अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।

सआदत हसन मंटो एक ऐसे समय में विवादास्पद लेखक थे जो समय भारत के निर्माण का समय था। 11 मई 1912 की पैदाइश का मंटो 1947 यानी हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बनने के वक़्त काफी कुछ लिख चुका था और इतना विवादित हो चुका था कि उस पर तीन मुकदमे तो संयुक्त भारत में और दो मुकदमे जब वह पाकिस्तान चले गए वहां हुए। मंटो पर फिकरे कसे गए,उनके खिलाफ बयान दिए गए, उन्हें पत्रिकाओं और अखबारों में तमाम तरीके से छापा गया। मंटो अपनी कहानियों ठंडा गोश्त,बू, खोल दो और टोबा टेक सिंह के लिए मशहूर भी हो चुके थे लेकिन साथ ही अपनी कहानियों में अश्लीलता के आरोप की वजह से छह बार अदालत भी उन्हें जाना पड़ा था। लेकिन उनके खिलाफ कभी कुछ साबित नहीं हो पाया। 18 जनवरी 1955 में उनकी मृत्यु हो गई थी। इस छोटी सी उम्र में ही मंटो ने बाइस लघु कथा संग्रह एक उपन्यास और रेडियो नाटक के पांच संग्रह,व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित करा लिए थे।
मंटो का बस लिखना ही गजब था। लोग उनको फहाश कहते थे लेकिन मंटो कहते थे कि मैं तो वही लिखता हूं जो मैं अपने आसपास घटता देखता हूं। मैं अपनी कहानियां इसी समाज से उठाता हूँ।यही के लोगों को ही अपना किरदार बनाता हूँ। मुझे फहाश कहने वाले यह समझे कि वह किस समाज में रह रहे हैं वह कैसा है।
एक बार मुझसे किसी ने पूछा था कि आप मंटो को कैसे व्याख्यायित करेंगे तो मैंने उनसे कहा कि जिस तरह और रचनाकार किसी तफ़सील पर लिखते हुए परत दर परत उसको खोलते हैं, एक-एक करके उनका उसका पर्दा उठाते हैं वहीं मंटो एक साथ पूरा सच एकदम से उगल देते हैं। यह पूरा नंगा सच ही लोगों से दरअसल बर्दाश्त नहीं होता।वह परहेज नहीं करते, वह छुपाते नहीं है,वह परदों के दरमियान छुप छुप कर बातें नहीं करते,वह मज़े नहीं लेते वह जैसा है उसे वैसा ही परोस देते हैं।जैसे इंसान खुद को कई कपड़ों और कई परतों में दबाता है,ढकता वो ऐसा कुछ नहीं करते।मंटो के कुछ उद्धरणों से आप उन्हें समझ सकेंगे।
दुनिया में जितनी लानतें हैं भूख उनकी मां है। पहले मज़हब सीनों में होता था आजकल टोपियों में होता है। सियासत भी टोपियों में चली आई है। जिंदाबाद टोपियां।
लीडर लोगों से कहते हैं कि मजहब खतरे में है तो इसमें कोई हकीकत नहीं होती।मज़हब ऐसी चीज ही नहीं कि खतरे में पड़ सके। अगर किसी बात का खतरा है तो वह लीडरों का है जो अपना उल्लू सीधा करने के लिए मजहब को खतरे में डालते हैं।
आप शहर में ख़ूबसूरत और नफ़ीस गाड़ियाँ देखते हैं… ये ख़ूबसूरत और नफ़ीस गाड़ियाँ कूड़ा करकट उठाने के काम नहीं आ सकतीं। गंदगी और ग़लाज़त उठा कर बाहर फेंकने के लिए और गाड़ियाँ मौजूद हैं जिन्हें आप कम देखते हैं और अगर देखते हैं तो फ़ौरन अपनी नाक पर रूमाल रख लेते हैं… इन गाड़ियों का वुजूद ज़रूरी है और उन औरतों का वुजूद भी ज़रूरी है जो आपकी ग़लाज़त उठाती हैं। अगर ये औरतें ना होतीं तो हमारे सब गली कूचे मर्दों की ग़लीज़ हरकात से भरे होते।
लाहौर से प्रकाशित एक रिसाले नुकुश में 1954 में मंटो खुद फरमाते हैं कि मंटो के मुताल्लिक़ अब तक बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। इसके हक़ में कम और ‎ख़िलाफ़ ज़्यादा। ये तहरीरें अगर पेश-ए-नज़र रखी जाएं तो कोई साहब-ए-अक़्ल मंटो के ‎मुताल्लिक़ कोई सही राय क़ायम नहीं कर सकता। मैं ये मज़मून लिखने बैठा हूँ और समझता ‎हूँ कि मंटो के मुताल्लिक़ अपने ख़यालात का इज़हार करना बड़ा कठिन काम है। लेकिन एक ‎लिहाज़ से आसान भी है इसलिए कि मंटो से मुझे क़ुरबत का शरफ़ हासिल रहा है और सच ‎पूछिए तो मंटो का मैं हमज़ाद हूँ।
अब तक इस शख़्स के बारे में जो कुछ लिखा गया है मुझे इस पर कोई एतराज़ नहीं। लेकिन ‎मैं इतना समझता हूँ कि जो कुछ उन मज़ामीन में पेश किया गया है हक़ीक़त से बालातर है। ‎बाअज़ उसे शैतान कहते हैं, बाअज़ गंजा फ़रिश्ता… ज़रा ठहरिये मैं देख लूं कहीं वो कमबख़्त ‎यहीं सुन तो नहीं रहा… नहीं नहीं ठीक है। मुझे याद आ गया कि ये वक़्त है जब वो पिया ‎करता है। उस को शाम के छः बजे के बाद कड़वा शर्बत पीने की आदत है।
हम इकट्ठे ही पैदा हुए और ख़याल है कि इकट्ठे ही मरेंगे लेकिन ये भी हो सकता है कि ‎सआदत हसन मर जाये और मंटो न मरे और हमेशा मुझे ये अंदेशा बहुत दुख देता है। इसलिए ‎कि मैंने उस के साथ अपनी दोस्ती निभाने में कोई कसर उठा नहीं रखी। अगर वो ‎ज़िंदा रहा और मैं मर गया तो ऐसा होगा कि अंडे का ख़ौल तो सलामत है और इस के अंदर ‎की ज़रदी और सफ़ेदी ग़ायब हो गई।
अब मैं ज़्यादा तमहीद में जाना नहीं चाहता। आपसे साफ़ कहे देता हूँ कि मंटो ऐसा वन टू ‎आदमी मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी नहीं देखा, जिसे अगर जमा किया जाये तो वो तीन बन ‎जाये। मुसल्लस के बारे में इसकी मालूमात काफ़ी हैं लेकिन मैं जानता हूँ कि अभी उस की ‎तस्लीस नहीं हुई। ये इशारे ऐसे हैं जो सिर्फ़ बा-फ़हम सामईन ही समझ सकते हैं।
यूं तो मंटो को मैं इस की पैदाइश ही से जानता हूँ। हम दोनों इकट्ठे एक ही वक़्त 11 मई सन ‎‎1912 को पैदा हुए लेकिन उसने हमेशा ये कोशिश की कि वो ख़ुद को कछुआ बनाए ‎रखे, जो एक दफ़ा अपना सर और गर्दन अंदर छुपा ले तो आप लाख ढूंढ़ते रहें तो इस का ‎सुराग़ न मिले। लेकिन मैं भी आख़िर उस का हमज़ाद हूँ मैंने उस की हर जुंबिश का मुताला ‎कर ही लिया।
लीजिए अब मैं आपको बताता हूँ कि ये ख़रज़ात अफ़साना निगार कैसे बना? तन्क़ीद निगार बड़े ‎लंबे चौड़े मज़ामीन लिखते हैं। अपनी हमा-दानी का सबूत देते हैं। शोपन हावर, फ्राइड, हीगल, ‎नित्शे, मार्क्स के हवाले देते हैं मगर हक़ीक़त से कोसों दूर रहते हैं।
मंटो की अफ़साना निगारी दो मुतज़ाद अनासिर के तसादुम का बाइस है। उसके वालिद ख़ुदा ‎उन्हें बख़्शे बड़े सख़्त-गीर थे और इस की वालिदा बेहद नर्म-दिल। इन दो पाटों के अंदर ‎पिस कर ये दाना-ए-गंदुम किस शक्ल में बाहर निकला होगा, उस का अंदाज़ा आप कर सकते ‎हैं।
अब मैं इस की स्कूल की ज़िंदगी की तरफ़ आता हूँ। बहुत ज़हीन लड़का था और बेहद शरीर। ‎इस ज़माने में इस का क़द ज़्यादा से ज़्यादा साढ़े तीन फुट होगा। वो अपने बाप का आख़िरी ‎बच्चा था। उस को अपने माँ बाप की मुहब्बत तो मयस्सर थी लेकिन उसके तीन बड़े भाई जो ‎उम्र में उस से बहुत बड़े थे और विलाएत में तालीम पा रहे थे उनसे उसको कभी मुलाक़ात का ‎मौक़ा ही नहीं मिला था, इसलिए कि वो सौतेले थे। वो चाहता था कि वो इस से मिलीं, इससे ‎बड़े भाइयों ऐसा सुलूक करें। ये सुलूक उसे उस वक़्त नसीब हुआ जब दुनिया-ए-अदब उसे बहुत ‎बड़ा अफ़साना-निगार तस्लीम कर चुकी थी।अब लोग कहते हैं कि वो उर्दू का बहुत बड़ा अदीब है और मैं ये सुनकर हंसता हूँ इसलिए कि ‎उर्दू अब भी उसे नहीं आती। वो लफ़्ज़ों के पीछे यूं भागता है जैसे कोई जाल वाला शिकारी ‎तित्लियों के पीछे। वो उस के हाथ नहीं आतीं। यही वजह है कि उस की तहरीरों में ख़ूबसूरत ‎अलफ़ाज़ की कमी है। वो लट्ठमार है लेकिन जितने लठ उस की गर्दन पर पड़े हैं, उसने बड़ी ‎ख़ुशी से बर्दाश्त किए हैं।
उससे पेश्तर कह चुका हूँ कि मंटो अव़्वल दर्जे का फ़राड है। इस का मज़ीद सबूत ये है कि ‎वो अक्सर कहा करता है कि वो अफ़साना नहीं सोचता ख़ुद अफ़साना उसे सोचता है। ये भी ‎एक फ़राड है हालाँकि मैं जानता हूँ कि जब उसे अफ़साना लिखना होता है तो उसकी वही ‎हालत होती है जब किसी मुर्ग़ी को अण्डा देना होता है। लेकिन वो ये अण्डा छुप कर नहीं देता। ‎सबके सामने देता है। इस के दोस्त यार बैठे हुए हैं, इस की तीन बच्चियां शोर मचा रही होती ‎हैं और वो अपनी मख़्सूस कुर्सी पर उकड़ूं बैठा अंडे दिए जाता है, जो बाद में चूओं चूओं बड़े हो जाते हैं।
मंटो दरअसल अनपढ़ है। इस लिहाज़ से कि उसने कभी मार्क्स का मुताला नहीं किया। फ्राइड की कोई ‎किताब आज तक उस की नज़र से नहीं गुज़री। हेगल का वो सिर्फ़ नाम ही जानता है। हीवल्क ‎एलिस को वो सिर्फ़ नाम से जानता है लेकिन मज़े की बात ये है कि लोग… मेरा मतलब है ‎तन्क़ीद निगार, ये कहते हैं कि वो इन तमाम मुफ़क्किरों से मुतास्सिर है। जहां तक मैं जानता ‎हूँ, मंटो किसी दूसरे शख़्स के ख़्याल से मुतास्सिर होता ही नहीं। वो समझता है कि समझाने ‎वाले सब चुग़द हैं। दुनिया को समझाना नहीं चाहिए उस को ख़ुद समझना चाहिए।
मंटो अपने पर लगे गैर मज़हबी आरोपों को जुठलाते हुए लिखते हैं कि अजीब बात है कि लोग उसे बड़ा ग़ैर मज़हबी और फ़ुहश इन्सान समझते हैं और मेरा भी ‎ख़याल है कि वो किसी हद तक उस दर्जा में आता है। इसलिए कि अक्सर औक़ात वो बड़े गहरे ‎मौज़ूआत पर क़लम उठाता है और ऐसे अलफ़ाज़ अपनी तहरीर में इस्तेमाल करता है, जिन पर ‎एतिराज़ की गुंजाइश भी हो सकती है लेकिन मैं जानता हूँ कि जब भी उसने कोई मज़मून ‎लिखा, पहले सफ़े की पेशानी पर 786 ज़रूर लिखा जिसका मतलब है बिस्मिल्लाह… और ये ‎शख़्स जो अक्सर ख़ुदा से मुन्किर नज़र आता है काग़ज़ पर मोमिन बन जाता है। ये वो ‎काग़ज़ी मंटो है, जिसे आप काग़ज़ी बादामों की तरह सिर्फ़ उंगलियों ही में तोड़ सकते हैं, वर्ना वो ‎लोहे के हथौड़े से भी टूटने वाला आदमी नहीं।
तो ऐसे हैं सआदत हसन मंटो।इस्मत चुगताई मंटो के बहुत करीब रहीं हैं।उनके साथ की ही वो भी विवादास्पद लेखिका रहीं हैं।इस्मत चुग़ताई का मेरे शहर बरेली से भी नाता रहा है।वो यहाँ के इस्लामियां गर्ल्स स्कूल की पहली हेड मिस्ट्रेस रहीं हैं।अभी नंदिता दास ने एक फीचर फिल्म मंटो पर बनाई है जिसमें नंदिता दास ने मंटो के जीवन पर काफी रोशनी डाली है। इसमें इस्मत आपा के साथ साथ मंटो के अन्य मित्रों को भी दिखाया गया है।मंटो अपने जीवन में किस तरह से बनते और टूटते हैं इसको इस फिल्म में काफी जगह दी गई है। सआदत हसन मंटो का फिल्मों में क्या योगदान था इसको भी विस्तार से दिखाया गया है। नवाजुद्दीन ने इसमें फ़िल्म में मंटो के किरदार का अभिनय किया है।
मंटो ने एक बार कहीं जिक्र किया था कि एक बार वह अपने कुछ दोस्तों के साथ सफर पर निकले थे मयनोशी के बाद तय हुआ कि किसी जगह जाकर जिस्मानी तौर पर हल्का हुआ जाए। इसके लिए उन्होंने एक तांगा कर लिया और उसे किसी जिस्मफरोशी की जगह पर ले गये तांगा वाला तो उन्हें उस जगह ले गया लेकिन कोई भी दोस्त वहाँ उतरने की हिम्मत नहीं कर पाया फिर वह किसी दूसरे मुकाम पर पहुंचे लेकिन वहां भी वह दोस्त अंदर जाने के बारे में बहाने बाजियाँ करने लगे तीसरी जगह जाने पर भी दोस्तों में सिर्फ बातें होती रही लेकिन कोई भी तांगे से उतरने को तैयार नहीं था इस तरह से चार पांच जिस्मफरोशी के अड्डों पर जाने के बाद एक जगह तांगे वाले ने तांगा रोका और इन लोगों से अपना किराया एडवांस में मांगा और पैसे लेकर तांगेवाला कहीं अंदर गया और पंद्रह मिनट बाद वापस आया तो वह बहुत मीठी आवाज में गुनगुना रहा था।ला लला ला कर रहा था। यानी कि वह जिस्मानी तौर पर हल्का हो आया था और यह सारे दोस्त केवल अपने संकोच में, लाज में, शर्म में उस तांगे पर ही बैठे रहे जबकि बातें बड़ी-बड़ी थी,जिस्मफरोशी का मन भी था लेकिन वे लोग हिम्मत नहीं जुटा पाए। यह हिम्मत उस तांगे वाले ने दिखायी जिसका मूड इनकी बातों से ही बन गया था। तो मंटो इस तरह का लिखने वाले थे।
आज जिस समाज में हम रह रहे हैं उस समाज को मंटो की बहुत जरूरत है क्योंकि आज इस समाज में इतने परदे लग गए हैं कि सच्चाई दिखती ही नहीं।चारों तरफ झूठ का व्यापार है, फरेब है,बुराई का बाज़ार है। लोगों के चेहरों पर ना जाने कितने नकाब हैं लेकिन उन्हें उतारने वाला मंटो नहीं है।मंटो की समाज को पहले भी जरूरत थी आज भी जरूरत है।मंटो हर समाज के लिए हमेशा जरूरी रहेगा।
लेखक – डॉ. राजेश शर्मा

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