4 अप्रैल सन् 1928 ई. में सेंट लुइस के मिसौरी (अमेरिका का दक्षिण भाग) में जन्मी मार्गरीटा उर्फ़ माया एंजेलो का जीवन किसी महाकाव्य से कम नहीं l जिसपर जितना लिखा जाए वह कम है l बचपन के कटु जीवनानुभवों की स्मृतियाँ इतनी सजीव और प्रबल कि जिसे ताउम्र भुला नहीं सकी थीं मार्गरीटा जॉनसन l रंगभेद और नस्लभेद का दंश क्या और कैसा होता है इसे उस नन्हीं मार्गरीटा ने अपनी दादी (मोमा) के पास रहते हुए बहुत क़रीब से महसूस किया था l
नस्लीय टिप्पणियों, अमेरिकन श्वेत प्रभुओं के अफ्रीकन अश्वेतों पर किये गये अत्याचारों और रंगभेद की क्रूर स्मृतियों की झलक न केवल उनकी आत्मकथाओं (‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’, ‘मॉम एंड मी एंड मॉम’, ‘ऑल गोड्स चिल्ड्रेन नीड ट्रेवलिंग शूज़’, ‘सिंगिंग एंड स्विंगिंग एंड गेटिंग मैरी लाइक क्रिसमस’, ‘गेदर टूगेदर इन माई नेम’, ‘द हार्ट ऑफ ए वीमेन’, ‘ए सॉंग फ्लंग अप टू हैवन’) में बल्कि उनकी कविताओं (‘ऑन द पल्स ऑफ़ मॉर्निंग’, ‘रेनबो इन द क्लाउड्’, ‘स्टिल आई राइज़’, ‘फ़िनोमेनल वीमेन’ इत्यादि) में भी देखी जा सकती हैं l
स्टंप्स में रहते हुए माया ने स्वयं अपने बचपन से ही श्यामवर्णा होने के दंश झेले थे, लोगों के तीखे और घृणास्पद नज़र को महसूस किया था l माया ने देखा था दादी का वह अपमान जो प्रायः उनके स्टोर पर आनेवाली गोरी चमड़ियाँ अक्सर कर जाती थीं l वे कभी उनपर थूकतीं और कभी हाथों के बल खड़े होकर खुद के नग्न तन को दिखा जातीं l
इसी प्रकार की एक घटना का उल्लेख करते हुए माया लिखती हैं – “छोटी बच्चियों के एक समूह ने दादी के आगे ऐसे नृत्य किया जैसे कोई कुत्ते का छोटा पिल्ला हो और इसे देखकर उनके साथी ज़ोर-ज़ोर से ठहाका मारने लगीं l उन्हीं में से एक जो सबसे बड़ी थी लगभग औरत ही थी, उसने बहुत जल्दी में मोमा से कुछ कहा, जिसे मैं सुन नहीं सकी l वे सभी पोर्च से लौटते हुए पत्थर की तरह उनकी तरफ़ आगे बढ़ रहे थे l उनमें से एक बड़ी लड़की ने दादी की तरफ़ अपनी पीठ घूमाई, अपने दोनों हाथों को ज़मीन के सहारे रखकर सीधी खड़ी हो गई और पैरों को ऊपर की तरफ़ उठाकर दादी के सामने आ गई l उसका फ्रॉक उसके कमर के हिस्से तक खिसक गया था और दोनों पैरों के बीच से झांकते उसके चिकने जघन भूरे बाल त्रिकोणीय आकार में दिखाई दे रहे थे l”
माया लिखती हैं कि इतना अपमान सहने के बाद भी मोमा बहुत शांत, गंभीर और स्थिर दिखाई दे रही थीं l जिस समय यह घटना घट रही थी उस समय भी दादी ईश्वर का स्मरण कर रही थीं और उनके साथ-साथ मैं भी प्रार्थना करने लगी थी l माया लिखती हैं कि उनकी दादी कितनी मेहनती और समय की पाबंद महिला थीं l सुबह चार बजे बिना किसी अलार्म के वह बिस्तर से उठ जातीं और हर उस नए दिन के लिए ईश्वर का शुक्रिया अदा करतीं जिनकी वजह से उन्हें एक नई सुबह के दर्शन होते l
अश्वेतों का जीवन जिस भय और आतंक के साये में बीत रहे थे वहां ये तय था कि कभी भी किसी के साथ कोई भी अनहोनी हो सकती है l ऐसे में दादी का ईश्वर को धन्यवाद देना उनके भीतर के भय को प्रकट करता है l अश्वेत और गैर अमेरिकन होने के कारण माया और उसके परिवार को बहुत अन्याय और अत्याचार सहने पड़े l
माया जब अपनी दादी और चाचा विली के साथ स्टंप्स में रहती थीं, उस समय की एक दारुण घटना का उल्लेख करते हुए वह लिखती हैं कि किस प्रकार जब श्वेत-प्रभुओं का झुण्ड अपने घोड़ों पर सवार होकर उनकी तरफ़ आते, तो चाचा विली रसोईघर में रखे एक बड़े से बक्से के अंदर घुस जाते और आलू एवं प्याज़ अपने ऊपर रख लेते l “और तब हम उनको आलू और प्याज़ से परत-दर-परत ढकते जाते, जैसे कि वह कोई हांडी हों l”
वह लिखती हैं यह बहुत ही कारुणिक और दमघोंटू था, जहाँ ऑक्सीजन बिलकुल शून्य हो और आपको ये नहीं पता कि कब तक उसके अन्दर आपको बंद रहना पड़ सकता है l दादी पूरे घर की बत्तियां बुझा देतीं और ईश्वर को याद करतीं l श्वेत-प्रभुओं का आतंक उन्हें हमेशा एक डर के माहौल में रहने के लिए विवश करता l ऐसे में ईश्वर के अतिरिक्त उनका और कोई संबल नहीं था l 
सामाजिक असमानता और बराबरी का दर्जा पाने के लिए अश्वेत समुदाय को बहुत लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ा, यह इतिहास विदित है l कुछ स्त्रीवादी चिंतकों का मानना है कि अमेरिका में रंगभेद का सिलसिला अब भी जारी है और यह सच भी है l हम जॉर्ज फ्लॉयड की निर्मम हत्या और उसके बाद की क्रूर घटनाओं को कैसे भूल सकते हैं जिन्हें केवल अश्वेत होने के कारण मृत्यु के घाट उतार दिया गया l
न केवल जॉर्ज फ्लॉयड रंगभेद के शिकार हुए बल्कि अभी हाल ही में अमेरिका और पोलैंड से दो-तीन ऐसी घटनाएं सामने आईं जो भारतीयों के प्रति घृणा और नस्लीय भेद को प्रकट कर रहे थे l भारतीयों के प्रति प्रकट की गई भद्दी और अपमानजनक टिप्पणियां यह दर्शाता है कि अमेरिका में रहनेवाले श्वेत-प्रभुओं का न तो चरित्र बदला है और न ही उनकी मानसिकता बदली है l

उन्हें लगता है कि बाहर से आनेवाला हर प्रवासी भिखारी और फ़क़ीर है, जिसके प्रति अमेरिका ने दया दिखाई हो और उन्हें मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ने के लिए बुला लिया हो! उन्हें पता होना चाहिए कि भारत से जानेवाला हर शख्स अपनी काबिलियत की वजह से वहाँ तक पहुँचता है l आप उनपर रहम नहीं करते l आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में रह रहे भारतीयों का किस क्षेत्र में कितना प्रतिशत योगदान है और क्यों है?
मधुलिका बनिवाल की एक रिपोर्ट के अनुसार – यू.एस.ए. में माइक्रोसॉफ्ट के 34% कर्मी भारतीय हैं, भारतीय वैज्ञानिकों की संख्या 12%, ज़ेरॉक्स के 13% कर्मी, नासा में 36% वैज्ञानिक भारतीय हैं, आई.बी.एम. के 28% कर्मी, 38% डॉक्टर्स भारतीय हैं और इंटेल के 17% वैज्ञानिक भारतीय मूल के हैं l ऐसे में उन्हें कमतर समझना कुछ लोगों की मूर्खता है l अमेरिकी सरकार को इन घटनाओं का संज्ञान लेना चाहिए l
विकसित देश होने और साधन-सम्पन्न होने का जो दंभ है वह इन श्वेत-प्रभुओं में निहित मानवीयता को नष्ट कर चुका है l जबकि कभी अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि – “हम भारतीयों के बहुत आभारी हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना कोई भी लाभकर वैज्ञानिक खोज करना संभव नहीं था l” बखैर ये तो था भारत के संदर्भ में जिसपर अलग से चर्चा किये जाने की आवश्यकता है l
इससे इतर अश्वेतों के ख़िलाफ़ इस प्रकार की घटनाओं का एक लम्बा इतिहास रहा है जहाँ अश्वेत होने के कारण मार्टिन लूथर किंग जैसे नागरिक अधिकार आन्दोलन के प्रणेता को भी अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी l दासता और असमानता के खिलाफ़ लड़ने वाले इन महानुभवों में कभी माया भी शामिल रही थीं l यद्यपि इसीलिए वह लिखती हैं “आई वाज़ बॉर्न टू वर्क अप टू माई ग्रेव बट आई वाज़ नॉट बॉर्न टू बी ए स्लेव” यानि ‘मैं अपने जीवन के अंतिम सांस तक काम करने के लिए पैदा हुई थी न कि मैं एक गुलाम बनने के लिए पैदा हुई थी l” (अनु.डॉ.चैताली सिन्हा)   
अभावों के बीच पली-बढ़ी माया ने जीवन में हर उस पेशे का आदर किया जिससे जीविकोपार्जन में सहूलियत होl पिता विवियन बक्सटर जॉनसन समुद्री जहाज़ में दरवानी एवं रसोई बनाने का काम करते थे l जिसके बारे में वह लिखती हैं कि – “पिताजी बहुत अच्छे रसोइये थे l प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) के दौरान वे फ़्रांस में भी रहे थे और वहां उन्होंने विशिष्ट ब्रेकरों में एक दरवान के रूप में काम किया था l”
माया के अतिरिक्त उसका एक भाई भी था – बेली जॉनसन l बचपन में बेली और मार्गरीटा सेंट लुइस के लम्बे समुद्री किनारे बसे कैलीफोर्निया में रहने लगे l वहां से फिर अर्कांसस के शहर स्टंप्स और बाद में फिर से सेंट लुइस से स्टंप्स वापस लौट आये l स्टंप्स में रहते हुए माया ने बहुत से कवियों और लेखकों की रचनाओं को पढ़ा l माया के जीवन में उनकी अध्यापिकाओं का बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा है- चाहे मिस.किर्वीन हों या फिर मिसेज़ फ्लावर्स l
माया एंजेलो लिखती हैं कि “ जॉर्ज वाशिंगटन उच्च विद्यालय मेरा पहला वास्तविक विद्यालय था जिससे मैं जुड़ी l मेरी सारी कोशिशें और मेरा पूरा समय व्यर्थ हो जाता यदि मुझे वहां एक बेहतरीन, दुर्लभ व्यक्तित्ववाली, बुद्धिमान शिक्षिका के रूप में मिस.किर्वीन न मिली होतीं, जिन्हें सूचनाओं से बहुत प्रेम था l” दूसरी तरफ़ मिसेज़ फ्लावर्स थीं जिन्होंने माया के भीतर पढ़ने की ललक पैदा कीl रचनाओं और रचनाकारों से परिचय करवाया था l
बेहद प्रतिभावान और अध्ययनशील महिला थीं मिसेज़ फ्लावर्स l उन्होंने ही सबसे पहले मासूम मार्गरीटा की दोस्ती पुस्तकों से करवाई l पढ़ने के लिए किताबों के बीच छोड़ दिया एक टेलीफोन बूथ नुमा पुस्तकालय में और कहा कि मैं चाहती हूँ तुम इस पुस्तकालय में रखी सारी किताबें पढ़ डालो l उन्हें समझो, जानो और उनके लिखे हुए को ज़ोर-ज़ोर से पढ़ो इतना कि तुम्हारी आवाज़ स्वयं तुम्हें भी सुनाई दे l
माया ने मिसेज़ फ्लावर्स को निराश नहीं किया l धीरे-धीरे माया की पढ़ाई के प्रति रुचि बढ़ती गई विशेषकर विलियम शेक्सपियर के प्रति l शेक्सपियर के संबंध में माया एंजेलो लिखती हैं कि श्वेतों (गोरों) में वही मेरे प्रथम प्रेमी थे l “मैं मिली (उनकी कृतियों से) और मुझे प्यार हो गया विलियम शेक्सपियर से l गोरों में वह मेरा पहला प्यार था l”
माया बचपन से ही पढ़ने में काफ़ी होशियार थी l भाई बेली से भी अधिक तेज़ दिमाग़ था मार्गरीटा काl अपनी छोटी-सी उम्र में ही मार्गरीटा ने विलियम शेक्सपियर के अतिरिक्त किपलिंग, एलेन पो, बटलर, विलियम मेकपीस थैकरे और हेनले की रचनाओं का अध्ययन कर लिया था l वह लिखती हैं कि “मैंने अपनी युवा और ईमानदार जुनून को सुरक्षित रखा था पॉल लॉरेंस डनबर, लैंग्स्टन ह्यूजेस, जेम्स वेल्डन जॉनसन और डब्ल्यू.ई.बी.ड्यू बोइस के लिए l”
विलियम शेक्सपियर के प्रति अगाध प्रेम के संबंध में माया एंजेलो ने लिखा है कि वह अपने भाई बेली के साथ मिलकर ‘वेनिस का सौदागर’ के एक दृश्य को प्रस्तुत करना चाहती थीं परंतु अपनी दादी के डर से उसे रद्द कर दिया, क्योंकि शेक्सपियर एक श्वेत रचनाकार थे और कहीं दादी को पता चल गया तो वह सवाल करेंगी इस लेखक के बारे में, फिर हम उन्हें क्या कहेंगे कि शेक्सपियर एक श्वेत (गोरे) कवि हैं ! माया जानती थीं कि गोरों का उनके जीवन से क्या सरोकार रहा है l 
यहाँ विलियम शेक्सपियर का गौर वर्ण होना दादी हेंडरसन के लिए घृणा का विषय नहीं था वरन् गौर वर्ण के भीतर छिपा मनुष्य का वह बर्बर, घृणित, वीभत्स और क्रूर रूप था, जिसने अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी थीं अश्वेतों के प्रति l अश्वेतों ने श्वेत प्रभुओं की ज़्यादतियां इस कदर सही थीं कि उन्हें उस गौर वर्ण से ही घृणा होने लगी l
अफ्रो-अमेरिकन इतिहास में विशेषकर दासाख्यान में ऐसी घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है जहाँ काले लोगों को देखते ही मार दिये जाने के आदेश थे l एक समय ऐसा भी था जहाँ ऐसी रोंगटे खड़े कर देनेवाली घटनाएं हुईं कि अश्वेतों को देखते ही या तो उन्हें बिजली के झटके देकर आग के हवाले कर दिए जाते, जबरन जला दिए जाते या फिर उनका गला रेत दिया जाता, जो जहाँ मिलते उसे उसी जगह कुचलकर उनकी हत्या कर दी जाती l
उदाहरण के लिए सन् 1919 में ओमाहा, नेब्रास्का में ओमाहा रेस दंगों के दौरान ब्लैक लिंचिंग पीड़ित विल ब्राउन की हत्या को देख सकते हैं, जहाँ श्वेत प्रभुओं ने उनके शरीर पर खड़े होकर पहले तो तस्वीरें खिंचवाई और बाद में उन्हें वहीं जलाकर मार डाला l घृणा एक ऐसा परजीवी है, ऐसा रोग है, जो एक पवित्र आत्मा को भी नष्ट कर देता है l ‘Hate is a Parasite, It’s a sickness that kills the bigots Soul’, ‘God have mercy on those who hate…!’   
आठवीं श्रेणी में उत्तीर्ण होने के बाद मार्गरीटा पुनः सेन-फ्रांसिस्को वापस लौट आई अपनी मां के पास l परंतु अपनी माँ के पास आकर रहने की उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी l माया एंजेलो के माता-पिता पहले ही अलग हो चुके थे और पिता विवियन बक्सटर ने अपने दोनों बच्चों को अपनी मां (माया की दादी) के पास भेज दिया था l
अपनी आत्मकथा में वह लिखती हैं कि – “जब मैं तीन साल की थी और बेली (भाई) चार साल का, हम दोनों एक गंदे और पुराने, छोटे शहर में जा पहुँचे l वहाँ जाने के लिए हम दोनों की कलाइयों पर एक-एक पर्ची चिपका दी गयी थी, जिसमें लिखा था – ये जिस किसी से भी संबंधित हो कृपया सूचित करें कि हम मार्गरीटा बेली जूनियर थे जो कैलीफोर्निया के लम्बे तटीय क्षेत्र से आते हैं और अर्कांसस स्थित स्टंप्स में रहनेवाली श्रीमती ऐनी हेंडरसन के पते पर जाना है l” 
सेन-फ्रांसिस्को लौटने के कुछ समय बाद ही माँ के प्रेमी मिस्टर फ्रीमैन ने महज़ आठ वर्षीय बच्ची माया एंजेलो का यौन घर्षण किया, जो उसके लिए किसी अभिशाप से कम नहीं था l इस भयावह घटना के संबंध में वह लिखती हैं कि जब कोई बलात्कारी किसी का यौन शोषण करता है तो उसके चेहरे के भाव कैसे भयानक और हैरान करनेवाले होते हैं l
माया कहती हैं कि यौन घर्षण के दौरान फ्रीमैन का चेहरा भी कुछ ऐसा ही था l वह दयावान-सा दीख रहा था लेकिन वह हंस नहीं रहा था और न ही उसकी आँखें ही झपक रही थी l “उसकी पतलून खुली हुई थी और उसका ‘सामान’ अपने आप बड़ा होता जा रहा था l मैं वापस भागने लगी l दुबारा मैं उस मटमैली कठोर चीज़ को छूना नहीं चाहती थी और न ही मुझे उसकी कोई ज़रूरत थी l उसने मेरी बांह पकड़ ली और मुझे खींचकर अपने पैरों के बीच में दबोच लिया l उसके पैर मेरी कमर को दबा रहे थे l”
इसके बाद माया लिखती हैं कि फ्रीमैन ने कैसे उसे स्नानघर में ले जाकर सारे दाग़-धब्बे धुलवाए और अपने कुकृत्य को पानी के साथ बहा दिया l इतना ही नहीं उसने उसे खामोश रहने की सलाह दी और किसी से भी न कहने के लिए वादा माँगा वरना वह उसके भाई की हत्या कर देगा l “उसने रेडियो की आवाज़ तेज़ कर दी बहुत तेज़ और मुझसे कहा यदि तुमने चिल्लाने की कोशिश की तो मैं तुम्हें जान से मार दूंगा और यदि किसी से कहा तो बेली को मार दूंगा l” लेकिन क्यों, क्यों वह बेली की हत्या करना चाहता है, उसने उसका क्या बिगाड़ा था !
और तब l तब वहां दर्द था, पीड़ा थी l टूटकर फिर से जुड़ने की हिम्मत जुटाना क्या इतना ही सरल होता होगा ! यहाँ तक कि जब सारी इंद्रियां भी टूटकर बिखर जाएँ l आगे चलकर माया ने अस्पताल में अपने भाई बेली को इस घटना की जानकारी दी और कहा कि चुप रहना वरना फ्रीमैन तुम्हारी हत्या कर देगा l परंतु यह बात माया के मामाओं तक पहुंची और उन्होंने फ्रीमैन की हत्या कर दी l इस घटना से माया एंजेलो को इतना गहरा सदमा लगा कि लगभग छह वर्षों के लिए वह मौन हो गईं l उसकी आवाज़ जा चुकी थी l
अब न वह कुछ बोलती और न ही उसके भीतर कोई हलचल थी l वह खुद को अपराधी मानने लगी थी, उसे लगता था कि यदि वह अपना मुँह नहीं खोलती तो शायद उस आदमी की हत्या नहीं होती l इसी दुश्चिंता ने अबोध माया के मन को अपराध बोध से भर दिया l फ्रीमैन की हत्या माया के लिए किसी दु:स्वप्न से कम नहीं था l इस घटना ने माया का जीवन बदल दिया l माया एंजेलो लिखती  हैं “मैंने उसका नाम बता दिया, मेरी आवाज़ उसकी मृत्यु का कारण बन गयी l अब मैं कभी बोल ही नहीं पाऊँगी l”
अपनी आत्मकथा ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’ में दर्ज उन तमाम यातनाओं, प्रताड़नाओं और शोषण का ज़िक्र मिलता है, जिसे मार्गरीटा ने अपने जीवन में झेला और जिया l बचपन में बीते एक-एक क्षण की कटु स्मृतियाँ उनके मन मस्तिष्क पर ऐसे काबिज़ थी मानों अभी कल ही की तो घटनाएँ थीं , जिन्हें चाहकर भी नहीं भूल पातीं l बालमन पर पड़े उन कठोर अनुभवों का पुंज लिए माया बड़ी होती हैं और निरंतर आगे बढती हैं l
माया ने झेले थे रंगभेद, नस्लभेद, जातिभेद और स्त्री होने के दंश l अश्वेत होने की पीड़ा, उसके विभिन्न रंग जो निहायत ही स्याह और क्रूर थे l नस्लभेद और रंगभेद का रंग कितना गाढ़ा था इसे माया से बेहतर कोई नहीं जान सकता l उनकी यह आत्मकथा केवल उनकी अपनी नहीं थी वरन् उन समस्त अश्वेत समाज की आत्मकथ्यनुमा कहानी थी, जिन्होंने सहे थे असंख्य दुःख और घृणा बिना किसी दोष के l अश्वेत होने के क्या दुःख होते हैं इसे बहुत करीब से महसूस किया था माया एंजेलो ने l
वह कहती हैं कि अपने भीतर एक अनकही कहानी समेटे रहना सबसे बड़े दुःख का कारण है l यही वजह है कि माया काम करना चाहती थीं उसने अपनी माँ को इस बात के लिए हमेशा तैयार किया कि उसे नौकरी करनी है और माँ ने भी अपनी सहमति दी l एक टिकट परीक्षक के रूप में काम करनेवाली पहली अश्वेत स्त्री थी माया एंजेलो परन्तु एक अफ्रीकन स्त्री का अमेरिका के किसी कार्यालय में काम करना इतना आसान नहीं था l वहां भी उसे बहुत ज़िल्लत सहनी पड़ी, अपमानित होना पड़ा लेकिन माया एंजेलो भीतर से बहुत मज़बूत और महत्वाकांक्षी थीं l
वह उनकी नीतियों को अच्छे से जान चुकी थीं l इसलिए उन्होंने उनका सामना किया और हरेक घटना की जानकारी अपनी माँ को ज़रूर देतीं l माया जानती थीं कि उनकी मुक्ति का द्वार इसी तरह खुल सकेंगे l माया के जीवन की कई कहानियां थीं l यह कहानियां थीं बचपन में अपने यौन घर्षण की, बिन ब्याही माँ बनने की, देह श्रमिक से लेकर लेखिका, अभिनेत्री, फ़िल्म-निर्माता, नागरिक अधिकार आन्दोलन की कार्यकर्ता, शिक्षाविद्, निर्देशक, वक्तृता, कवयित्री, गायिका, नाटककार और नृत्यांगना बनने की, अपनी दादी की मानसिक प्रताड़नाओं की, दादी के जीवन में आये कई ‘का-पुरुषों’ की, मां श्रीमती बक्सटर के विवाह विच्छेद और संबंध विच्छेद की, पिता विवियन बक्सटर के संघर्ष और प्रेमिका डोलोरस स्टॉक्लैंड की, भाई बेली और श्वेत प्रभुओं के अत्याचारों तथा घृणाओं की, अश्वेत होने और समानता के लिए किये जानेवाले संघर्ष की l खुद के जीवन में किसी मनचीते पुरुष को न पाने की l न जाने कितनी ही कहानियाँ और कितने ही आयाम थे माया एंजेलो के व्यक्तित्व के l 
माया एंजेलो बहुत आगे तक नहीं पढ़ सकीं, उन्होंने स्नातक की उपाधि कैलीफोर्निया के उच्च विद्यालय से प्राप्त की l इससे आगे की पढ़ाई न कर पाने के पीछे उनका अपना अव्यवस्थित जीवन रहा l मात्र सोलह वर्ष की अवस्था में ही वह माँ बन चुकी थीं l इस माँ बनने के पीछे की कहानी भी बड़ी रोचक है l माया स्वयं के युवती होने पर संदेह करने लगी थीं l उनका लंबा-चौड़ा शरीर और छातियों में कोई उभार न होने के कारण उन्हें सदैव ऐसा महसूस होने लगता कि कहीं वह लड़की के भेष में कुछ और तो नहीं !
इसी की परीक्षा करने के लिए माया ने अपनी हमउम्र के एक युवक को सहसंबंध के लिए आमंत्रण दिया l वह लिखती हैं कि इस संबंध में कहीं भी कोई रोमांस नहीं था वह एक औपचारिकता थी l तीन हफ्ते बाद ही माया को आभास हुआ कि वह गर्भवती हैं l “तीन हफ्ते बाद, उस अजीब घटना के बारे में और उस अजीबोगरीब खाली रात में अपने बारे में भी मैंने बहुत कम सोचा, मैंने पाया कि मैं गर्भवती हूँ l” अब उसके लिए जीवन पहले जैसा नहीं रहा गया था l वह लोगों से मुंह चुराती, कॉलेज जाती और बिना पूरी कक्षा लिए ही वापस घर लौट आती l
माया एंजेलो लिखती हैं कि इसके बाद “मेरी दुनिया खत्म हो चुकी थी और मैं ही वह एकमात्र इंसान थी जो यह जानती थी l” (‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’,पृ.304). इस अनिच्छित मातृत्व के लिए माया ने उस आदमी को भी दोषी नहीं ठहराया क्योंकि माया जानती थी कि उसने खुद की शंका को, समलैंगिक होने की शंका को मिटाने के लिए यह क़दम उठाया था l
मातृत्व ग्रहण करने के बाद माया एंजेलो के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी आर्थिक स्वावलंबन की l आगे का जीवन माया एंजेलो के लिए चुनौतियों से भरा था l नादानी में उठाये गए इस क़दम की बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी माया एंजेलो को, माया इसे अब समझने लगी थी l परंतु हाथ में सिवाय पछतावे के और कुछ नहीं था, समय रेत की तरह मुट्ठी से फ़िसलता जा रहा था l
बाद में उसने भाई बेली को इसकी जानकारी दी जो उस समय अपने समुद्री यात्रा पर था व्यापारी मरीन के साथ l उसने किसी से भी इस बारे में ज़िक्र न करने की सलाह दी थी l माया ने भी अपने होंठ सिल लिए थे l उसे पता था कि कठिन परिस्थितियों में भी कैसे शांत, संयत और नियंत्रित रहना चाहिए l इसका मूल मंत्र सीखा था माया ने अपनी दादी से l परंतु कहते हैं न सृष्टि में एक माँ ही ऐसी होती हैं, जिनसे कुछ छिपाना संभव नहीं हो पाता, जिन्हें अपने बच्चों के हर हाव-भाव समझ में आ जाते हैं l
माँ बक्सटर को बहुत जल्द ही इसकी भनक लग गई कि माया सामान्य स्थिति में नहीं है l उसने बेटी को सहारा दिया और बहुत देखभाल भी की, जो माया की उम्मीद से परे की बात थी l इसी सेवा के फलस्वरूप गाई जॉनसन का जन्म (8 सित.1945) हुआ, जिसने माया के जीवन को एक अलग दिशा दी l   
अपने बचपन से लेकर युवावस्था (विशेषकर माँ बनने के बाद) तक के जीवन में माया एंजेलो ने बहुत से क्षेत्रों में काम किया l स्ट्रीटकार कंडक्टर से लेकर नॉर्थ कैरोलिना के विंस्टन सलेम स्थित ‘वेक फ़ॉरेस्ट विश्वविद्यालय’ में एक प्राध्यापिका के रूप में कार्य करने तक की यात्रा माया एंजेलो के लिए काफ़ी चुनौतीभरा था l इन चुनौतियों से माया का जीवन और निखरा l
संघर्षों और जहालतों से जूझने के परिणामस्वरूप ही माया एक साहसी एवं सशक्त महिला के रूप में अफ्रो-अमेरिकन समाज में उभरीं l वह लिखती हैं, “पूरा जीवन मैंने अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के लिए अनथक श्रम किया l घर साफ़ करना, भोजन पकाना और घर के बाहर काम करना मेरी दिनचर्या का अनिवार्य अंग थे l मैं घर के काम हमेशा करती आई l दुर्भाग्यवश हमारे देश में हमसे जबरन काम करवाने का इतिहास रहा है, इसलिए यहाँ दूसरों की सेवा को दासत्व से जोड़कर देखा गया, जबकि अफ्रीका में किसी की सेवा करना बहुत ही सम्मान और गौरव की बात है l यूरोप में ऐसा नहीं है l मैं छह फीट की स्वस्थ स्त्री हूँ और यदि मैं किसी की सेवा हृदय से करती हूँ तो उसे दासत्व से जोड़कर देखने की आवश्यकता नहीं l”
स्वाभाविक है कि माया को यह प्रेरणा कहीं-न-कहीं दादी ऐनी हेंडरसन से ही मिली होगी, जो स्वयं में एक असाधारण स्त्री थीं l संघर्षशील होने के साथ-साथ धैर्यवान होने की कला भी माया ने मोमा से ही सीखी थी l माया ने देखा था मोमा के अद्भुत धैर्य को जहाँ उन्हें प्रायः श्वेतों के दुराचार सहने पड़ते थे l मोमा (दादी) जो परचून की दुकान (डब्ल्यूएम्.जॉनसन जनरल मेर्चेंडाईज़ स्टोर) चलातीं वहां अक्सर ऐसा होता था कि लोग सामान ख़रीदते और बिना पैसे दिए ही चल देते परंतु उनसे पैसे माँगने का साहस दादी में नहीं होता l पैसे मांगने का अर्थ था अपमानित होना, स्टोर को क्षति पहुंचवाना l
एक स्त्री होकर स्टोर चलाना दादी के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था आखिर सवाल पेट का था – “दुनिया के दो आदिम दुःख हैं – भूख और अपमान l लात पेट पर पड़े या पीठ पर तकलीफ़ बराबर होती है l महापंडित लिखते हैं – ‘दुधारू गाय की लात भली’, पर जो यह सिखाते हैं – उन्हें फेंककर रोटी दी जाए, उनके अधिकार उन पर कृपा की तरह बरसें तो उनको कैसा लगेगा ?” कई बार यह ज़रूरी भी नहीं होता कि प्रतिरोध के लिए आप हर बार शब्दों का ही आश्रय लें, कई बार आपकी ख़ामोशी भी सामनेवाले को पराजित कर देती है क्योंकि “स्त्री-समाज एक ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल और राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और जहाँ कहीं दमन है, चाहे जिस वर्ग, जिस नस्ल की स्त्री त्रस्त है, वह उसे अपने परचम के नीचे लेता है l” 
ऐनी हेंडरसन जानती थीं पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े रहना कितना दुष्कर होता है फिर भी सबकुछ चुपचाप सहना उनकी नियति थी, वह ये भी जानती थीं l श्वेतों के बीच रहने के लिए गुलामी करना अश्वेत समुदायों की विवशता थी l उनके खिलाफ़ बोलना ही उनके लिए कठोर दंड को न्यौता देना था l माया एंजेलो ने ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’ के माध्यम से मनुष्य की गुलामी को पक्षी की पीड़ा से जोड़ा है l पिंजरे में बंद चिड़िया मनुष्य की गुलामी, पराधीनता और विवशता का प्रतीक है l पिंजरे में क़ैद पंछी और पराधीन मनुष्य में कोई अंतर नहीं l जो छटपटाहट, जो घुटन चिड़िया को एक बंद पिंजरे में महसूस होती होगी, ठीक वही स्थिति मनुष्य (विशेषकर स्त्री के संदर्भ में) के साथ भी होती है l इसके बावजूद पिंजरे में बंद चिड़िया अपना गीत भूलती नहीं गाती ही रहती है l  
दरअसल यह आत्मकथा ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’ केवल माया एंजेलो के जीवन की कथा नहीं है l यह कथा है माया एंजेलो से भी पहले के अश्वेत समुदायों की जिसमें कभी पॉल लॉरेंस डनबर जैसे महान् कवि भी हुए और बाद में चलकर मार्टिन लूथर किंग जैसे महान् नेता भी l उन्नीसवीं सदी के महत्वपूर्ण कवियों में से एक थे पॉल लॉरेन्स डनबर (1872-1906) जिन्होंने अश्वेतों की समस्याओं को अपने काव्य का विषय बनाया l अमेरिका के डेटॉन स्थित ओहियो में पैदा हुए डनबर की रचनाओं से हमें अश्वेत समाज की पीड़ाओं के साक्ष्य मिलते हैं l
डनबर अपनी कविता ‘सहानुभूति’ (सिम्पैथी) में लिखते हैं, उन्हें पता है कि ‘पिंजरे में बंद चिड़िया क्या महसूस करती है’, ‘पिंजरे में बंद चिड़िया क्यों गाती है’ – ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’ l इसी पंक्ति को आधार बनाकर माया एंजेलो ने अपनी आत्मकथा का शीर्षक रखा ‘मुझे मालूम है पिंजरे में बंद चिड़िया क्यों गाती है?’
पिंजरे में बंद पड़ी चिड़िया प्रतीक है अश्वेतों के शोषण का, दमन का, घुटन और निर्ममता का, जीवन और मृत्यु का, निराशा और हताशा का, घृणा और हिंसा का, बंधन और मुक्ति का भी ! क्या इतना सरल होता होगा पिंजरे से मुक्त होना? उससे निकलकर स्वतंत्र हो खुली हवा में अपने पंख पसारना? माया एंजेलो का जीवन देखकर तो नहीं लगता ! जहाँ सबकुछ स्याह था, नहीं थी कहीं भी ठंडी उजासें जिससे जीवन को सुन्दर कहने की दुहाई दी जाती l
दासता में जकड़ी जीवन की सच्चाइयां इतनी जल्दी कहाँ बदलनेवाली थीं, कैसे मिलनेवाली थी कोई मुक्ति की राह ! थी तो केवल दुश्वारियां l लगभग 50 वर्षों से रचनारत रहनेवाली माया का लम्बा जीवन इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने कितनी अनगिनत तकलीफें उठाई होंगी अपने समय में, अपने जीवनकाल में l अविवाहित मातृत्व, रंगभेद, निर्धनता, उपेक्षा, पितृसत्ता, वैवाहिक संबंधों की टूटन, संबंध विच्छेद, आर्थिक स्वावलंबन के लिए किये जानेवाले संघर्ष और दासत्व का इतिहास समेटे हुए दासत्व के इतिहास से बने हुए पिंजरे की क़ैद में रहते हुए भी अपनी यौनिकता, स्त्रीत्व और मनुष्य की जिजीविषा का उत्सव मनानेवाली माया का गीत है यह आत्मकथा ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’ l 
बचपन में भोगे हुए दुःख को, अभाव को क्या माया कभी भूल पायीं थीं? नहीं, वरन् उस भोगे हुए यथार्थ ने ही माया को एक कवि हृदय, एक संवेदनशील व्यक्तित्व के रूप में पूरे विश्व में चिन्हित करवाया था l पेट की आग को बुझाने के लिए ही माया को चकला तक चलाने का काम करना पड़ा, रातों को क्लबों में नाचना पड़ा, ड्रम की थाप पर, जैज़ की धुन पर थिरकना पड़ा, कंडक्टर की भूमिका निभानी पड़ी l माया का सपना था नृत्य और संगीत को अपना करियर बनाने का लेकिन असफ़ल प्रेम संबंधों और अविवाहित मातृत्व ने उन सभी स्वप्नों को आर्थिक अभाव के बोझ तले दबा दिया l
किशोर प्रेम के आवेग की जगह ले ली थी दुनिया-धंधों ने, ज़िम्मेदारियों ने, बेटे की परवरिश कैसे हो- इसकी चिंता ने l “माया का जीवन बहुत से घात-प्रतिघातों की कहानी थी l रात्रि क्लबों में नाचना तथा वेश्यावृत्ति को पेशे के रूप में अपनाना किसी भी स्वाभिमानी स्त्री के लिए सरल-सहज नहीं हो सकता/न होता है l वे स्वयं लिखती हैं कि जीवन के बहुत कम ही ऐसे वर्ष रहे जब उसे अपने खर्चे निकालने, बिजली का बिल भरने की चिंता नहीं रहीl
जैज़ की धुनों पर नाचती माया को देखकर यह अंदाज़ा लगाना कठिन था कि यह वही माया है जो बचपन में यौन शोषण, कई पुरुषों के दुर्व्यवहार-अपमान, ग़रीबी और रंगभेद की शिकार थीं l” जीवन में इतने उतार-चढ़ाव के बावजूद माया खुद को असाधारण कहती हैं और सही मायनों में वह थीं भी असाधारण ! उपेक्षा और घृणा से उपजा मनुष्य का जीवन उसे अपने इरादों के प्रति पहले से कहीं अधिक मज़बूत बनाता है, चट्टान बनाता है, अडिग रहना सिखाता है, दृढ़ निश्चयी बनाता है, इसका जीता-जागता प्रमाण है माया का जीवन l
माया एंजेलो जानती थीं उपलब्धियों के पीछे की त्रासदी को, उसके दुखांत को l जीवन के तमाम झंझावातों से उलझती माया एंजेलो जानती थीं कि एक दिन ऐसा भी आयेगा जब लोग आपको आपके अच्छे कर्मों से, अनुभवों से पहचानेंगे, बाकी सब, समय के साथ भुला दिए जायेंगे l माया लिखती हैं – “मैंने अपने जीवन से यह सीखा है कि लोग तुम्हारा कहा हुआ विस्मृत कर देंगे, तुमने किसी के लिए क्या किया, लोग इसे भी भूल जायेंगे पर तुमने किसी को क्या अनुभव कराया- इसे वे कभी नहीं भूलेंगे l साथ ही मेरा दृढ़ विश्वास है कि स्वयं के बिना कोई कार्य पूरा नहीं होता l”
आजीविका के लिए माया एंजेलो के आगे जो भी चुनौती सामने आई, उसने खुली बांहों से उसे स्वीकार किया, भले ही वह आत्मा के विरुद्ध क्यों रहे हों l प्रेमचंद कहते हैं न कि भूखे आदमी के लिए पहले रोटी ज़रूरी होती है, मर्यादा और नैतिकता की बातें खाए-अघाए लोगों की बातें हैं l भूखे आदमी के लिए नैतिकता की बात करना बेमानी है l ठीक यही बात माया एंजेलो के जीवन के संदर्भ में भी कही जा सकती है l “यह एक ऐसा समय था जब माया अपनी भूमिका खोज रही थी l हर दूसरे व्यक्ति की तरह उसे भी जीवन के व्यापक परिदृश्य पर, तरह-तरह के लोगों से भरे हुए इस विश्व में अपनी भूमिका खोजनी थी l उसे अपने ‘देखने’ को गहरा और व्यापक बनाना था l”     
भूख की तड़प एक समय में लगभग सभी कवियों-लेखकों ने महसूस किया होगा l इसी संदर्भ में मुझे याद आती है हार्लेम होप्स्कोच की प्रसिद्ध पंक्तियाँ, जो लिखते हैं कि “हवा में अब दोनों पैर नीचे करो, क्योंकि तुम काले हो इसलिए इधर-उधर मत रहो, भोजन चला गया है, किराया अभी बाकी है, कोसो और रोओ फिर दो छलांग मारो l” (अनु.डॉ.चैताली सिन्हा) l 
इस दासता और गुलामी से अश्वेत समाज बहुत लम्बे अरसे तक जूझते रहे जबकि सन् 1865 में गुलामी के उन्मूलन की घोषणा कर दी गई थी l सन् 1800 तक अश्वेत लोगों के साथ दुर्व्यवहार होते रहे l सन् 1960 में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने नागरिक अधिकार आन्दोलन की अगुवाई की, जिसमें माया एंजेलो भी शरीक हुईं l यह आन्दोलन था समान नागरिकता और सामाजिक समता का l अश्वेतों को मनुष्य समझे जाने का l मार्टिन से पूर्व रोज़ा पार्क्स ने मोंटगोमरी बस सेवा में होनेवाले भेदभाव के खिलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की थी l जो आगे चलकर बहुत प्रसिद्ध घटना के रूप में सबके सामने आई l
बसों में काले अफ्रीकंस को सबसे पीछे बैठने को कहा जाता और आगे की सीटें गोरों के लिए रिज़र्व रहतीं l रोज़ा ने इसी का विरोध किया था l इस विद्रोह के पहले जिस किसी ने भी बस में प्रथम श्रेणी की सीट पर बैठने की चेष्टा की उसे या तो बस से बाहर फेंक दिया जाता या गोली मार दी जाती l रोज़ा पार्क्स ने इसी दोहरी नीति के खिलाफ़ आवाज़ उठाई और अश्वेतों के लिए निर्धारित सीट पर बैठने से इनकार कर दिया l
यह घटना 1 दिसम्बर 1955 की है l इस घटना के बाद रोज़ा पार्क्स एक ऐसे समुदाय का प्रतीक बन गई थीं, जो 350 वर्षों के अन्याय के चलते थककर चूर हो गया था l हालाँकि रोज़ा पार्क्स बतातीं हैं कि “इसके पीछे किसी तरह की कोई योजना नहीं थी l खरीदारी की वजह से मैं थक गई थी l मेरे पाँव में दर्द हो रहा था l मैं सचमुच नहीं जानती कि उठने के लिए मैं क्यों तैयार नहीं हुई l”
आगे चलकर मोंटगोमरी बस बहिष्कार का इतना दूरगामी प्रभाव पड़ा कि पूरे विश्व स्तर तक इसकी अनुगूँज सुनाई देने लगी थी, जिसके परिणामस्वरूप कई संगठनों का आविर्भाव हुआ l इन संगठनों का एक ही उद्देश्य था अश्वेत समाज की श्वेत प्रभुओं से मुक्ति, उनसे बराबरी का हक़ पाना और स्व की पहचान l 
वैसे तो अफ्रो-अमेरिकन समाज में रहनेवाले प्रत्येक अश्वेतों की कोई न कोई दुखभरी दास्ताँ अवश्य रही, जिन्होंने उनके मनुष्य होने पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिए थे l चाहे, रोज़ा पार्क्स हो, मार्टिन लूथर हों या फिर स्वयं माया एंजेलोl सबने दासता के असहनीय दंश को झेला था, सबने उस गुलामी से मुक्ति की कामना की थी l दरअसल दास प्रथा की भी एक लम्बी यात्रा रही है, जिसका प्रभाव बाद की पीढ़ियों पर भी पड़ाl
सत्रहवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में बार्बाडोस और वेस्टइंडीज़ के देशों से अश्वेत दास वर्जीनिया में लाये जाते थेl दास प्रथा सन् 1620 से लेकर 1865 तक जारी रही l उस दौरान अमेरिका के लिए 1.20 करोड़ दास जहाजों में भरकर भेजे गये l उन्हें जहाज़ों में इतनी ज़्यादा संख्या में भर दिया जाता था कि बड़ी तादाद में उनके दम घुटने, भूख लगने और प्यास लगने के कारण मृत्यु हो जाती थीl
इसी समय प्रायः अठारह लाख दासों की मृत्यु रास्ते में ही हो गई l बाद में जब 1777 में अमेरिका ब्रिटेन से स्वतंत्र हुआ तो दास-प्रथा को समाप्त करने की मुहिम आरंभ हुई और इस मुहिम को सफ़ल बनाने में सत्ताईस वर्ष लगे l 1 जनवरी 1808 में अमेरिका ने दास-प्रथा को समाप्त करने के लिए नये कानून बनाये परंतु ये कानून सिर्फ़ कागज़ों की शोभा बढ़ा रहे थे, दास-प्रथा अभी भी खत्म नहीं हुई थी l हालाँकि ये अवश्य कहा जाना चाहिए कि दास-प्रथा को समाप्त करने में ‘रिपब्लिकन पार्टी’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई l 
दास-प्रथा की कोख से जो पीढ़ी निकली उसने नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष किये और इन संघर्षों के बीच मार्टिन लूथर किंग एक सशक्त नेता के रूप में उभरकर सामने आये l मानवाधिकारों के लिए मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने तेरह वर्षों तक संघर्ष किये l अपने जीवन में नस्लीय टिप्पणियों और रंगभेद के घृणित षड्यंत्र का शिकार स्वयं मार्टिन भी हुए थे l दक्षिण अमेरिका में अश्वेत समाज जिस आग में जल रहे थे उसे बहुत करीब से देखा और महसूस किया था मार्टिन ने l उन्होंने महसूस किया था कि नस्लगत भेदभाव और आर्थिक भेदभाव के बीच कितना गहरा रिश्ता था l 
“सन् 1960 में अश्वेत आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले मार्टिन लूथर किंग से माया एंजेलो की मुलाक़ात माया एंजेलो के जीवन को एक नयी दिशा देने के समान था l किंग के आग्रह पर माया एंजेलो सदर्न क्रिश्चियन लीडरशिप कॉन्फ्रेंस की संयोजक बनी l” सन् 1960 में हार्लेम के चर्च में जब माया एंजेलो ने मार्टिन लूथर किंग जूनियर को नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए देखा तो उसने उसी समय तय कर लिया था कि वह भी इस आंदोलन का हिस्सा बनेंगी और अश्वेतों के हक़ के लिए लड़ेंगीl
मार्टिन लूथर किंग जूनियर अहिंसावादी थे और उनके ऊपर गांधी जी के विचारों का गहरा प्रभाव था l गाँधी के विचारों को किंग ने न केवल अपने जीवन में अपनाया बल्कि उन्हें जीया भी l माया एंजेलो मार्टिन लूथर किंग और मेल्कॉम एक्स; दोनों से बहुत प्रभावित थीं l अश्वेत समुदायों की मुक्ति के साथ-साथ माया ने अपनी मुक्ति की राह भी तलाश ली थीl
माया एंजेलो की रचनाएं हर उस शोषित और पीड़ित वर्ग को समर्पित है जिसने श्वेतों की गुलामी सही, उनके अधीन रहकर नारकीय जीवन जीया, उनकी उपेक्षाओं और घृणाओं का सामना किया l अश्वेत होने की कीमत चुकाई l माया एंजेलो ने अपनी कविताओं और आत्मकथाओं के माध्यम से सम्पूर्ण विश्वभर को सन्देश दिया – “तुम अपने शब्दों से मुझे मार सकते हो,
 चीर सकते हो मुझे अपनी निगाहों से
 अपनी घृणा से कर सकते हो मेरी हत्या,
 फिर भी हवा की तरह 
 मैं उड़ती जाऊँगी l”    
उक्त पंक्तियाँ माया एंजेलो के दृढ़निश्चयी होने और चुनौतियों के सामना करने का उदाहरण है l 
‘मुक्ति’ शब्द का अर्थ प्रायः वह नहीं होता जो हम समझते हैं बल्कि वह होता है जिसे हमें समझने की आवश्यकता महसूस की जानी चाहिए l दार्शनिक मतानुसार ‘कर्म के बंधनों से मुक्त होना ही मुक्ति है’ मनुष्य का जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाना मुक्ति है l वेदांत के अनुसार आत्म ज्ञान द्वारा इंद्रियों के वशीभूत न होना मुक्ति है l वास्तव में मुक्ति वह स्थिति होती है जब आप किसी भी आंतरिक और बाह्य नियंत्रण से बाहर के खांचे में स्वयं को फिट करने की स्थिति में पाते हैं, स्वच्छंद रूप से साँसें ले रहे होते हैं l परंतु ‘स्वतंत्रता’ से तात्पर्य है कि हमपर किसी भी प्रकार का बाहरी दबाव या नियंत्रण का न होना और न बिना किसी पर बहुत अधिक निर्भर हुए अपने निर्णय लेना l उसकी अपनी एक स्वायत्तता हो l 
सन्दर्भ सूची
  1. माया एंजेलो, ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’, रैंडम हाउस, यू.एस.ए., प्रथम संस्करण : 1969 : पृ. 34
  2. माया एंजेलो, ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’, रैंडम हाउस, यू.एस.ए., प्रथम संस्करण : 1969 : पृ.21
  3. https://icwa.in>show_content
  4. माया एंजेलो, ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’, रैंडम हाउस, यू.एस.ए., प्रथम संस्करण : 1969 : पृ. 245
  5. वही, पृष्ठ. 230
  6. वही, पृष्ठ.16
  7. वही
  8. वही, पृ. 7
  9. वही, पृ. 83 – 84
  10. वही, पृ. 84
  11. वही, पृ. 93
  12. माया एंजेलो, ‘आई नो व्हाई द केज्ड बर्ड सिंग्स’, रैंडम हाउस, यू.एस.ए., प्रथम संस्करण : 1969 : पृष्ठ. 303
  13. गरिमा श्रीवास्तव (2015), ‘माया एंजेलो : स्वर्ग का आह्वान’, प्रतिमान, वर्ष-3, खण्ड-3, अंक-1(जनवरी-जून) : पृष्ठ. 305
  14. अनामिका, ‘स्त्री-मुक्ति : साझा चूल्हा’, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, दिल्ली, संस्करण : 2010 : पृष्ठ. 15-17
  15. वही, पृष्ठ. 75
  16. गरिमा श्रीवास्तव (2015), ‘माया एंजेलो : स्वर्ग का आह्वान’, प्रतिमान, वर्ष-3, खण्ड-3,अंक-1(जनवरी-जून) : पृष्ठ.304
  17.  वही, पृष्ठ. 307
  18.  वही, पृष्ठ. 301
  19. दिनकर कुमार, ‘मार्टिन लूथर किंग’, चिल्ड्रेन बुक टैम्पल, दिल्ली, संस्करण : 2016 : पृष्ठ. 63
  20. गरिमा श्रीवास्तव (2015), ‘माया एंजेलो : स्वर्ग का आह्वान’, प्रतिमान, वर्ष-3, खण्ड-3, अंक-1(जनवरी-जून) : पृष्ठ. 301
  21. माया एंजेलो, ‘स्टिल आई राईज़’, (अनु.विपिन चौधरी, ‘मैं रोज़ उदित होती हूँ’), दख़ल प्रकाशन, 104,नवनीत सोसायटी, प्लॉट नंबर-51,आई.पी.एक्स्टेन्शन, पटपड़गंज, दिल्ली – 110092, पृष्ठ. 118 

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