पुरवाई परिवार ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति के सदस्यों को दावत देता है कि वे अपने कारण सार्वजनिक करें जिससे पता चल सके कि ममता कालिया, चित्रा मुद्गल या नासिरा शर्मा जैसी लेखिकाओं की अनदेखी क्यों की जा रही है। ज्ञानपीठ को याद रखना होगा कि ये पुरस्कार शुद्ध साहित्य के लिये है; साहित्य की गुणवत्ता को रेखांकित करने के लिये। इसमें किन्तु परन्तु के लिये कोई स्थान नहीं है। गुलज़ार को जितने भी फ़िल्मी पुरस्कार मिले हैं, वे उनके हक़दार हैं। स्वामी रामभद्राचार्य को पद्म सम्मान या भारत रत्न मिलने से किसी को कोई समस्या नहीं है… ज्ञानपीठ पुरस्कारों को बख़्शा जाए! वरना मन से एक ही आवाज़ निकलती है – ज्ञानपीठ न हुआ भारत रत्न हो गया, जिसको मर्ज़ी दे डालो!

दो ग़लत निर्णय मिल कर एक सही निर्णय नहीं बन सकते। वे दो ग़लत निर्णय ही बने रहेंगे। कुछ ऐसा ही ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति ने किया है। पहले तो उन्होंने जगद्गुरु की उपाधि से सम्मानित स्वामी रामभद्राचार्य को संस्कृत भाषा के साहित्य के लिये वर्ष 2023 का ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा कर दी। फिर उन्हें डर सताने लगा कि इस घोषणा पर तीखी प्रतिक्रियाएं अवश्य मिलेंगी। उन्होंने संतुलन बनाए रखने के लिये दूसरा ग़लत निर्णय लिया और साझा रूप से पुरस्कार फ़िल्मी गीतकार गुलज़ार को भी उनके उर्दू साहित्य के लिये सम्मानित करने का निर्णय ले लिया। 
सुप्रसिद्ध कथाकार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रतिभा राय की अध्यक्षता के हुई चयन समिति की बैठक में यह निर्णय लिया गया। बैठक में चयन समिति के अन्य सदस्य माधव कौशिक, दामोदर मौजो, प्रो. सुरंजन दास, प्रो. पुरुषोत्तम बिल्माले, प्रफ्फुल शिलेदार, प्रो. हरीश त्रिवेदी, प्रभा वर्मा, डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा, ए. कृष्णा राव और ज्ञानपीठ के निदेशक मधुसुदन आनन्द शामिल थे। पुरवाई परिवार को इस बात का पूरा भरोसा है कि ये सभी सदस्य संस्कृत और उर्दू भाषा के विशेषज्ञ रहे होंगे। 
भारतीय ज्ञानपीठ 1965 से हर वर्ष भारतीय साहित्य में उत्कृष्ट योगदान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान करता है। इस बार संस्कृत भाषा को दूसरी बार और उर्दू के लिए पांचवीं बार यह पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है। देश के सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में विजेताओं को पुरस्कार स्वरूप 11 लाख रुपये की राशि, वाग्देवी की प्रतिमा और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है।
संस्कृत के लिये पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार डॉ. सत्यव्रत शास्त्री को वर्ष 2006 में प्रदान किया गया था। उन्हें पद्मश्री एवं पद्मभूषण सम्मानों से भी अलंकृति किया गया था। उन्होंने तीन महाकाव्यों की रचना की थी, जिनमें से प्रत्येक में लगभग एक हज़ार श्लोक हैं। ‘वृहत्तमभारतम्’, ‘श्रीबोधिसत्वचरितम्’ और ‘वैदिक व्याकरण’ उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं।
डॉ. सत्यव्रत शास्त्री दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के पद पर रहे और उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत स्कूल में भी योगदान दिया। प्रो. शास्त्री श्रीजगन्नाथ संस्कृत यूनिवर्सिटी, पुरीओडिसा के वाइस चांसलर पद पर भी कार्यरत रहे। उनके बारे में एक जानकारी बहुत विशेष है। वे अकेले ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने थाईलैंड की महारानी को संस्कृत सिखाई और संस्कृत में ही बी.ए. व एम.ए. की डिग्री दिलाई।
सूत्रों के अनुसार – सन 1977 में थाईलैंड की हर रॉयल हाईनेस महाचक्री प्रिंसेज सिरिन्थोर को संस्कृत से एम.ए. करनी थी। वह बैंकॉक में शिक्षा ग्रहण कर रही थीं। थाईलैंड की सरकार ने भारत सरकार से अनुरोध किया कि महारानी को संस्कृत पढ़ाने के लिए किसी अनुभवी संस्कृत शिक्षक की व्यवस्था की जाए। उसके बाद भारत सरकार ने डॉ. सत्यव्रत शास्त्री का नाम तय किया और उन्हें पढ़ाने के लिए भेज दिया।
मगर संस्कृत भाषा के साथ यह हादसा अवश्य हुआ है कि वर्ष 2006 में उसे कोंकणी साहित्य के रवीन्द्र केलकर के साथ साझा सम्मान लेना पड़ा और आज वर्ष 2023 का सम्मान उर्दू के गुलज़ार के साथ साझा करना पड़ा। 
गुलज़ार से पहले चार उर्दू साहित्यकारों को ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत किया जा चुका है। इनमें शामिल हैं – रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी (1969), क़ुर्रतुल ऐन हैदर (1989), अली सरदार जाफ़री (1997) और शहरयार (2008)। इन सभी साहित्यकारों को लेकर किसी के मन में कोई संशय या सवाल नहीं उठे। 
58 पुरस्कारों में से 54 पुरस्कार हमेशा अकेले साहित्यकार को ही प्रदान किये गये। केवल चार बार दो भाषाओं के साहित्य के बीच समन्वय बिठाने का प्रयास किया गया। 1973 में दत्तात्रेय रामचंद्र बेन्द्रे (कन्नड़) एवं गोपीनाथ महान्ती (ओड़िया) ; 1999 में निर्मल वर्मा (हिन्दी) एवं गुरदयाल सिंह (पंजाबी) ; 2006 में रवीन्द्र केलकर (कोंकणी) एवं सत्यव्रत शास्त्री (संस्कृत) और 2014 में भालचन्द्र नेमाड़े (मराठी) एवं रघुवीर चौधरी (गुजराती) को साझा रूप से पुरस्कृत किया गया।
एक मज़ेदार स्थिति यह है कि स्वामी रामभद्राचार्य को ज्ञानपीठ सम्मान देने के विरोध में और समर्थन में अधिकांश टिप्पणियां राजनीतिक टोन वाली हैं चाहे वो टिप्पणियां राजनेताओं ने की हैं या फिर साहित्यकारों ने। क्योंकि संस्कृत भाषा का ज्ञान लगभग किसी को भी नहीं है, इसलिये स्वामी रामभद्राचार्य के लिखे पर सीधी टिप्पणी करने की स्थिति में कोई भी नहीं है। 
जगद्गुरू स्वामी रामभद्राचार्य को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने पर वरिष्ठ लेखक विष्णु नागर कहते हैं, “भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार गुलज़ार और रामभद्राचार्य को मिला है। गुलज़ार को तो छोड़िए, इस पुरस्कार का रामभद्राचार्य को देना, जो राममंदिर आंदोलन के स्तंभों में से हैं और जो राम को नहीं भजता, यह कहते हुए एक जाति विशेष के लिए अपमानजनक टिप्पणी के कारण हाल ही विवाद में रहे हैं, जिन पर 2009 में भी रामचरित मानस के साथ छेड़छाड़ का विवाद जुड़ा है, जिनके साहित्यिक अवदान के बारे में कोई नहीं जानता, उन्हें भी भारत का सर्वश्रेष्ठ माना जाने वाला पुरस्कार दिया जा सकता है तो फिर क्या बचा?”
विष्णु नागर जी ने अपने वक्तव्य में कहीं नहीं कहा कि रामभद्राचार्य का लेखन कमज़ोर है। उन्होंने प्रयास ही नहीं किया कि वे संस्कृत में लिखे साहित्य का अनुवाद ही पढ़ने के लिये समय निकाल ले। उन्हें रामभद्राचार्य की एक जाति विशेष के लिये अपमानजनक टिप्पणी याद रही, जिसके कारण उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिलना चाहिये। 
मुझे याद पड़ता है कि हमारी संस्था कथा यूके ने यमुना नगर (हरियाणा) में एक प्रवासी सम्मेलन का आयोजन वहां के डी.ए.वी. गर्ल्स कॉलेज के साथ मिल कर किया था। हमारे कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे हंस के संपादक और हिन्दी के महत्वपूर्ण कथाकार – राजेन्द्र यादव। जब यमुना नगर वासियों को ख़बर मिली कि राजेन्द्र यादव हमारे प्रवासी सम्मेलन के मुख्य अतिथि हैं तो वे कॉलेज के मुख्य द्वार पर आकर नारेबाज़ी करने लगे। हुआ कुछ यूं था कि अपने एक संपादकीय में राजेन्द्र यादव ने लिख दिया था कि ‘हनुमान पहले आतंकवादी थे।’ मुझे याद नहीं पड़ता कि विष्णु नागर ने उस समय राजेन्द्र यादव की इस टिप्पणी की निंदा की हो। 
पुरवाई परिवार का मानना है कि हमें साहित्यिक पुरस्कारों को शक के घेरे में जाने से परहेज़ करना चाहिये। ऊपरी तौर पर देखने से स्वामी रामभद्राचार्य किसी साहित्यिक पुरस्कार के लिये सही प्रत्याशी नहीं प्रतीत होते। यदि राम और कृष्ण पर लेखन को ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिये चुना ही जाना चाहिये तो हमारे हिसाब से नरेन्द्र कोहली अपनी रामकथा, महासमर और तोड़ो कारा तोड़ो के लिये अधिक उपयुक्त साहित्यकार हैं जिन्हें ज्ञानपीठ दिया जा सकता है। एक साहित्यकार के रूप में शायद वे सबसे अधिक लोकप्रिय कथाकार रहे हैं और उन पर विश्वविद्यालयों में सबसे अधिक शोध भी हुए हैं। 
यदि सरकार चाहे तो आसानी से उन्हें भारत रत्न की उपाधि से अलंकृत कर सकती है। आजकल चौधरी चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर जैसे नामों को भारत रत्न से मरणोपरांत विभूषित किया जा रहा है तो स्वीमी रामभद्राचार्य को भी किया जा सकता है। साहित्य में पहले बहुत सी राजनीतिक घुसपैठ होती रही है। इस तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप साहित्य के लिये घातक सिद्ध हो सकता है। 
गुलज़ार साहब (असल नाम संपूर्ण सिंह कालरा) को फ़िल्म स्लम डॉग मिलियनेयर के लिये जय हो जैसे गीत पर ऑस्कर सम्मान मिला था। यह एक फ़िल्मी पुरस्कार है जिसका सीधा साहित्य से कोई सरोकार नहीं है। फिर भी अपने पाठकों के सामने इस गीत की कुछ पंक्तियां रख रहे हैं – 
हे.. आजा आजा जिंद शामियाने के तले
आजा ज़री वाले नीले आसमान के तले
जय हो.. जय हो.. जय हो..
चख ले, हो चख ले, ये रात शहद है..
चख ले..
रख ले, हाँ दिल है, दिल आखरी हद है..
रख ले
काला काला काजल तेरा
कोई काला जादू है ना
काला काला काजल तेरा
कोई काला जादू है ना
सिनेमा के लिये उनके सबसे अधिक लोकप्रिय गानों में शामिल है – बीड़ी जलाए लो जिगर से पिया / जिगर मां बड़ी आग है। आप सवाल करेंगे कि गुलज़ार साहब को फ़िल्मी गीतों के लिये तो सम्मानित किया नहीं गया। उन्हें तो उनकी उर्दू शायरी के लिये यह सम्मान दिया गया है।
भारत में साहित्य उत्सव आजकल बहुत जगह होते रहते हैं। गुलज़ार और जावेद अख़्तर वहां के पोस्टर बॉय हैं। मैं उन लोगों में से हूं जो पिछले बीस वर्षों से यह मुहिम चलाए हुए हैं कि शैलेन्द्र, भरत व्यास, साहिर लुधियानवी, शकील बदायुनी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी, राजेन्द्र कृष्ण जैसे अन्य फ़िल्मी गीतकारों को साहित्यकार का दर्जा मिलना चाहिये। उर्दू शायरी में साहिर, कैफ़ी, शकील मजरूह तो गुलज़ार के मुकाबले बहुत बड़े शायर हैं। मगर न तो साहित्य अकादमी और न ही ज्ञानपीठ का ध्यान कभी उनकी ओर गया।
जनसत्ता के पूर्व संपादक ओम थानवी ने हाल ही में लिखा है, “ मैं गुलज़ार साहब को तब से पढ़ता आया हूं, जब उनकी शायरी, संभवतः 70 के दशक में, हिंदी में कभी उनके जिगरी मित्र भूषण बनमाली ने प्रकाशित करवाई थी। उस वक़्त उर्दू-पंजाबी के रूमानी साहित्य का अपना आकर्षण था। लेकिन बाद में ‘जब भी ये दिल उदास होता है, जाने कौन आसपास होता है’ या ‘शाम की आंख में नमी सी है, आज फिर आपकी कमी सी है’ के भावुक दौर के बाद कुछ गहरे काव्य की कमी अनुभव होती गई।”
ओम थानवी आगे लिखते हैं, “पर कहना चाहता हूं कि अपनी 50 साल की पत्रकारिता में – जिसमें संपादक के रूप में 35 वर्ष साहित्य को हिंदी में सबसे ज़्यादा प्रकाशित करने, यानी गौर से पढ़ने और उससे नज़दीकी रखने का सौभाग्य हासिल है – मैंने गुलज़ार साहब को गीतों में समाज और राजनीति की व्याधियों पर परिवर्तनकारी सरोकार और साहस इख़्तियार करते कभी नहीं देखा. रूमानियत आनंदित कर सकती है, पर एक पड़ाव के बाद उसमें लिजलिजापन ही आ टिकता है।”
फ़िल्मों में भी उनके बहुत से गीत रूमानी लफ़्फ़ाज़ी ही लगती है – “हमने देखी है इन आँखों में महकती ख़ुश्बू / हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो।” 
पुरवाई परिवार ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति के सदस्यों को दावत देता है कि वे अपने कारण सार्वजनिक करें जिससे पता चल सके कि ममता कालिया, चित्रा मुद्गल या नासिरा शर्मा जैसी लेखिकाओं की अनदेखी क्यों की जा रही है। ज्ञानपीठ को याद रखना होगा कि ये पुरस्कार शुद्ध साहित्य के लिये है; साहित्य की गुणवत्ता को रेखांकित करने के लिये। इसमें किन्तु परन्तु के लिये कोई स्थान नहीं है। गुलज़ार को जितने भी फ़िल्मी पुरस्कार मिले हैं, वे उनके हक़दार हैं। स्वामी रामभद्राचार्य को पद्म सम्मान या भारत रत्न मिलने से किसी को कोई समस्या नहीं है… ज्ञानपीठ पुरस्कारों को बख़्शा जाए! वरना मन से एक ही आवाज़ निकलती है – ज्ञानपीठ न हुआ भारत रत्न हो गया, जिसको मर्ज़ी दे डालो!
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

48 टिप्पणी

  1. रामभद्राचार्य अगर जगद्गुरु हैं सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार के अलावा तो इसमे किसका दोष आज संस्कृत में उनसे बड़ा विज्ञ कौन है कृपया नज़्म बतलायें वे जो प्रश्न उठा रहे हैं।

    • सुरेश भाई हमने अपने संपादकीय में स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि दोनों लेखकों का चयन सवालिया निशान के घेरे में क्यों आ रहा है। आभार।

  2. बहुत बढ़िया लिखा है।

    जो सही हकदार है उसको मिलना चाहिए
    साधुवाद

  3. इस सामयिक संपादकीय के लिए आपको बधाई। भारतीय भाषाएँ, रचनाकार और कृतियाँ हमेशा से ही राजनीति से संबद्ध रही हैं। राजनीति उनका उपजीव्य है। रामभद्राचार्य हों या गुलजार- सान्नू की! लिखा तो दोनों ने है। इस बहस को छोड़ दें तो एक बात आपने बहुत पते की लिखी है। साहिर, शकील, कैफी, फिराक, नजीर, जोश, शहरयार, राहत, बशीर, जावेद और मंटो, इस्मत चुगताई, मुल्कराज आनन्द, किशनचंदर आदि ने केवल लिपि ही तो ज़ुदा अपनाई। उनकी भाषा हिन्दी नहीं लगती क्या?
    गुलशन नंदा को पाठ्यक्रम में लगाया तो इन मठाधीशों ने कितना बवाल काटा!
    अवधी- हिन्दी का पूरा सूफी साहित्य तो अरबी लिपि में है। उससे क्या वह अवधी/ हिन्दी का साहित्य न रहा?
    हिन्दी, संस्कृत में आज छुटभैये प्रोफेसरों, संपादकों का बोलबाला है। पता नहीं वे पढ़ते कितना हैं! अधिकतर तो मंचायमान दिखते हैं।
    इसलिए संदर्भाधीन विषय पर उनके मंतव्य को महत्त्व न देना ही उचित है।

  4. बात एक हद तक सही कही है आपने हालांकि रामभद्राचार्य जी के लेखन पर कोई भी टिप्पणी करने की स्थिति में हम आपमें से कोई भी नहीं है और गुलज़ार साहब के बारे बस इतना कहा जा सकता है कि बालीवुड में एक अच्छे गीतकार हैं लेकिन ज्ञान पीठ की कसौटी पर दोनों प्रश्न चिन्हित हैं इसमें भी दोराय नहीं है

  5. शानदार और साहसिक संपादकीय। साहसिक इसलिए कि कल को हमें भी पुरस्कार मिल सकता है कि चाह में आज के पत्रकार और साहित्यकार सच का गला घोंट रहे हैं। आप ने तथ्यों के साथ बात रखी इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं

  6. वाह तेजेन्द्र जी कलम तो बहुत ही तेज तलवार की तरह एक दम सही चली है। और सही है कु यह तो शुद्ध साहित्य के साथ उसी साहित्यकार को दिया जाए कि सभी हमेशा उन्हें दिल और इज्जत से रखा जाए। आपने बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है सभी समिती सलाहकार जरूर इस ओर ध्यान देगें और अमल भी करेगें.. बहुत ही धन्यवाद आभार…

    • सबसे ज्यादा मारक तो इस संपादकीय का शीर्षक है। आपने एक तीर से कई निशाने लगा दिये।
      बहुत अच्छी संपादकीय, पढ़कर मजा भी आया और अनेक जानकारियां भी हासिल हुई। आपने बहुत जरूरी और ज्वलंत सवाल उठाया है, ये हर उस दिल
      का सवाल है जो किसी न किसी रूप से साहित्य से वास्ता रखता है।
      बहुत- बहुत बधाई सर!

  7. आपका सम्पादकीय उचित प्रश्न उठाता है। पर सब जानते हैं कि
    कारण क्या है। मैने नरेन्द्र कोहली के महाभारत पर आधारित 8उपन्यास जबसे पढ़े हैं मैं उनके लेखन से अत्यन्त प्रभावित हूँ। और भी जितने साहित्यकारों के नाम आपने लिये उनमें से सब भी अच्छे लेखक हैं। और भी बहुत हैं जो बहुत ही अच्छे साहित्यकार हैं पर चयन समिति भी शायद निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है।

  8. क्षमा याचना के साथ अपना मत व्यक्त करना चाहूँगी। आपका सरोकार और दर्द समझ सकती हूँ। आपके दृष्टिकोण का सम्मान भी करती हूँ। बेबाक लिखे सम्पादकीय के लिए बधाई और आभार।
    लेकिन पुरस्कारों के साथ शुचिता और योग्यता का कोई सीधा सम्बन्ध मुझे नहीं दिखा। नोबेल, एबेल, पुलित्ज़र, ग्रैमी आदि के लिए भी लॉबिंग होती है। पुरस्कार योग्यता से अधिक अन्य निहित प्रयोजनों से जुड़े रहे हैं और रहेंगे। मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी है (याज्ञवल्क्य की जै हो)।

    रही बात भारतरत्न और ज्ञानपीठ की, तो प्रजातंत्र में जब एक अनपढ़ और सर्वोच्च शिक्षित व्यक्ति के वोट की क़ीमत बराबर है, वहां चुनाव जीत कर सत्ता में आने के लिए सब कुछ किया जाता है। हमारे देश के अतिरिक्त विश्व के कई प्रजातांत्रिक देशों के चुनाव इसका प्रमाण हैं। ऐसे में यदि मोदी को सत्ता में आना है तो बहुत सारी गोटें बिठानी पड़ेंगी।
    बंगाल की वर्तमान स्थिति देखते हुए यदि फेयर ऑर फाउल किसी भी तरह से बीजेपी चुनाव जीतती है तो मुझे निजी तौर पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता। ज्ञानपीठ किसे मिला या भारत रत्न किसे मिला। शायद किसी को फ़र्क नहीं पड़ता,मात्र सिविल परीक्षा के लिए जी. के. की तैयारी करने वाले अभ्यर्थियों के अलावा ।
    देश जिस तरह से पिछले 10 वर्षों से विकसित हुआ है वैसे ही आगे पांच साल चले तो भारत आर्थिक रूप से विकसित होगा, उसकी वैश्विक स्थिति सुधरेगी। सभी के लिए अच्छा होगा।
    बाद में भूल सुधार का मौका भी मिलेगा। आज चुनाव का युद्ध है और एवरीथिंग इज़ फे़यर इन लव एण्ड वार। धन्यवाद।

    • आप भारत की वर्तमान स्थिति को पुरस्कारों से ऊपर मानती हैं। आभार शैली जी।

  9. सामयिक विषय पर विस्तार से चिंतन है ।
    सभी बिंदु विचारणीय हैं ।
    राम भद्राचार्य और गुलज़ार सचमुच विचित्र मूल्यांकन है ।दो भाषाओं के सृजन कर्ताओं के चयन में तराजू के दोनों पलड़ों का वजन बराबर तो होना चाहिए वरना ऐसे सम्मान का क्या मान ।
    आपके कथन से सहमत
    Dr Prabha mishra

  10. बहुत बढ़िया लेख लिखा है आपने मेरे मन की सारी बातें आ गई। ऐसा हमेशा ही होता आया है पर इस बार चुनाव की राजनीति से प्रभावित है। युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है। आपका लेख पढ़ने में मुझे बहुत ही सुकून मिलता है। धन्यवाद

    • हार्दिक आभार भाग्यम जी। आप को संपादकीय पढ़ने से सुकून मिलता है जान कर प्रसन्नता हुई।

  11. बहुत सुन्दर संपादकीय
    बिलकुल सटीक और बेबाक

    ज्यादा न कहते हुए बस इतना ही कहूँगी
    “पुरस्कार अब पुरस्कार नहीं रहें”

  12. साहित्य राजनीति चाटुकारिता संतुलन बनाने की कला आज के जमाने के ब्रह्म शब्द हैं। भारत रत्न आज पुरस्कार प्रदान करने की त्वरित तड़ित बन गया है। सही कहा ये भारत रत्न थोड़े ही है जिसे जब चाहे दे डालो।यही पर याद आते हैं स्वनाम धन्य आदरणीय एवं स्वर्गीय राहत इंदौरी साहाब और उनका हस्ताक्षर सृजित कथन हिंदुस्तान किसी के बाप का थोड़े ही है?!
    काश कोई पुरस्कार और वो भी ज्ञान पीठ पुरस्कारों के लिए भी यही बात कह देता,अलबत्ता एक ईमानदार संपादकीय से औचित्यपूर्ण कोशिश जरूर हुई है। पुरस्कार समिति में। जिस भाषा से संबंधित पुरस्कार दिया जाना है उसके विशेषज्ञ तो होने उतने ही जरूरी हैं जितना रोटी के लिए आटा !
    संस्कृत का एक प्राचीन नाटक परंतु आज भी बेहद प्रासंगिक याद आ रहा है नाम था मृच्छकटिकम् और आमजन के लिए बता दे कि इसी पर आधारित एक फिल्म बनी थी उत्सव उसमें एक कैरेक्टर था राजा का साला जिसे खूबसूरत अभिनेता शशि कपूर जी ने अभिनीत किया था। आजकल पुरस्कार लेने वाले विशेष रूप से लीक से हटकर आम जन को हतप्रभ करने वाले वही हो गए हैं।
    साहित्य देखा जाए तो आत्मा या संस्कृति की तरह है जो किसी गीत या गीतों के माध्यम से रस विशेष से आनंदित करे वह साहित्य के घर का आप्तकाम यानी ईश्वरीय साथी कैसे हो सकता है।
    साहिर लुधियानवी साहाब जिनका जन्म दिन आठ मार्च को है और आधी आबादी के ब्रांड एंबेसडर कहे जानेवाले या मजरूह सुल्तानपुरी कैफ़ी आज़मी सरीखे व्यक्तित्व को शायद कभी इस परिपेक्ष्य में देखा ही नहीं गया,,,विकसित भारत में ऐसा क्यों?!
    आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी ने दावत सही है अब देखें कि दावत कबूल करते हैं की नहीं।

    • इस विस्तृत और गरिमापूर्ण टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार सुर्यकान्त भाई।

  13. सही बात… पुरस्कारों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। साहित्य साहित्य है… उसे खेल न समझा जाय।

  14. मुझे पता नहीं ज्ञान पीठ पुरस्कारों की कसौटी क्या है? साहित्य का मूल्यांकन तो किया ही जाता होगा? जगद्गुरु भद्राचार्य ने सुना है सौ से अधिक पुस्तकें संस्कृत में लिखी हैं। उस साहित्य का मूल्यांकन तो संस्कृत विद्वान ही कर सकते हैं, मेरी नज़र में यह कभी नहीं आया कि किसी संस्कृत विद्वान ने उनकी किसी कृति का मूल्यांकन किया हो। जब ज्ञानपीठ किसी लेखक को ज्ञानपीठ देता है तो वह पहले साहित्य का मूल्यांकन तो कराता ही होगा? पुरस्कारों में पारदर्शिता लाने के लिए यह बताया जाना चाहिए कि पुरस्कृत लेखक के साहित्य की गुणवत्ता क्या है उस पर प्रकाश डाला जाये। जब स्वामी भद्राचार्य के साहित्य पर ज्ञानपीठ दिया गया है तो मूल्यांकन करवाया गया होगा। आलोचना करने वाले यह सिद्ध करें कि उनका साहित्य या तो साहित्य नहीं है या फिर घटिया है। केवल बयान के लिए ध्यान देना पर्याप्त नहीं हो सकता। आपने समिति के सदस्यों से ज्ञानपीठ देने का औचित्य पूछा है , उन्हें बताना ही चाहिए,विवाद को समाप्त करने के हित में भी यह उचित ही होगा।

    • संतोष जी, अपने संपादकीय में हम ज्ञानपीठ के निर्णायकों से इसी बात की गुहार लगा रहे हैं। आपने लेखकीय गुणवत्ता की बात सही उठाई है।

  15. किसी भी लेखक की राजनीतिक पहुंच नहीं है या संबंध नहीं है तो उसे कोई भी सम्मान या कोई भी पुरस्कार मिलना मुश्किल होता है. आजकल कई सम्मान और पुरस्कार बिकते हैं. साहित्य अकादमी का सम्मान भी इसी तरह का है. इस बार तुम ले लो अगली बार मुझे दे देना.

  16. सच लिखा है आपने कि ज्ञानपीठ को याद रखना होगा कि ये पुरस्कार शुद्ध साहित्य के लिये है, साहित्य की गुणवत्ता को रेखांकित करने के लिये हैं। काश! आपकी आवाज़ ज्ञानपीठ समिति के सदस्यों तक पहुँच पाये।

  17. सम्पादक ईमानदार हो तो कलम केवल मुखर ही नही, प्रखर हो उठती है। रही बात पुरस्कारों की, तो आज ये सब मुझे नुक्कड़ के परचून की दुकान की याद दिलाती है। गुलज़ार साहब से माजरत चाहती हूँ

  18. बहुत बेबाक व सटीक शीर्षक और उसका स्पष्ट नज़रिया तेजेन्द्र जी। कई प्रश्न खड़े कर दिए थे इस प्रकार के निर्णय ने किंतु बेबाक निर्भिक पूरे स्पष्टीकरण के साथ डटकर स्थित प्रज्ञ हो रहना, हम जैसों को ऊर्जा देता है।
    आपकी कलम को नमन
    चरैवेति चरैवेति

  19. ज्ञानपीठ पुरस्कार की इतनी विस्तृत जानकारी तथा बेबाकी से अपना मत प्रदर्शित करना बहुत बड़ी बात है. स्पष्टवादी सम्पादकीय कलम को साधुवाद.

  20. आदरणीय तेजेन्द्र जी!
    संपादकीय हर बार की तरह अपने शीर्षक, विशिष्ट विषय वस्तु और सत्य की तीखी तलवार की धार से लिखा गया है। शीर्षक के साथ ही संपादकीय की भूमिका भी दमदार लगी।
    वैसे तो गलत निर्णय गलत ही है ,चाहे संख्या कितनी भी हो; फिर भी एक गलती को सुधारने के तालमेल में दूसरी गलती करना निर्णायक समिति पर ही प्रश्नचिन्ह उठाता है ।चयन समिति की लंबी- चौड़ी लिस्ट को आपके संपादकीय से जान पाए। रामभद्राचार्य के बारे में पढ़कर उन्हें जानने की इच्छा हुई।हमने उनकी जीवनी यूट्यूब पर देखी और हमने जाना कि उन्हें 14 भाषाओं का ज्ञान है और वे 54 भाषा बोल सकते हैं, साथ ही पी एच डी भी हैं।
    अतः उनकी विद्वत्ता को प्रणाम।
    विष्णु नागर जी ने जो कहा वह वाकई तर्क सम्मत नहीं लगता, लेकिन एक बात व्यक्तिगत रूप से हम सोचते हैं कि संतों को इस तरह के सम्मानों से दूर रहना और रखना चाहिये।
    फिर जगतद्गुरु की उपाधि के सामने तो सारे सम्मान वैसे ही फीके पड़ जाते हैं पर जगद्गुरु स्वयं सम्मान का मोह नहीं त्याग पाए और वह भी साझेदारी में! यहाँ तो चयन समिति का निर्णय ही राजनीतिक दबाव से प्रेरित लगा।
    संस्कृत की साझेदारी ने तकलीफ दी।
    विदेशों में संस्कृत सीखने की माँग है। हमारी एक क्लासफैलो का सप्ताह पहले ही जयपुर से फोन आया था। उसकी बेटी को संस्कृत सीखना है तो तुम ऑनलाइन पढ़ा दोगी क्या?
    पर अपने ही देश में उसे साझेदारी झेलनी पड़ रही है यह चिंतनीय विषय है।सच में राजनीति व चयन समिति की बलिहारी है।
    सत्यव्रत शास्त्री जी के बारे में पढ़कर बहुत अधिक दुख हुआ, बल्कि हमारे लिए तो चयन समिति ही संदेह के घेरे में लगी। आपके इस संपादकीय ने देश के महत्वपूर्ण सम्मानों की ही पोल खोल दी। संस्कृत का राष्ट्रीय स्तर है। वह लगभग सारे देश में द्वितीय भाषा के रूप में माध्यमिक शाला तक पढ़ाई जाती है उसकी साझेदारी! वह भी क्षेत्रीय भाषा से!!!!
    महज फिल्मी गीतकार होना भी क्या ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने का मापदंड है?
    हम यहाँ पुरवाई की वैचारिकता से सहमत हैं।चयन समिति को पुरवाई की दावत कबूल करना चाहिये ।वह कटघरे में आए। चयन समिति के सदस्यों के लिए निर्धारित नियम और शैक्षणिक की योग्यता की भी जानकारी देना जरूरी है।
    ज्ञानपीठ पुरस्कार की मर्यादा बनाए रखने के लिए निश्चित ही आवश्यक है कि सही पात्र का चयन किया जाए जो साहित्य से ही विशुद्ध रूप से जुड़ा हो अन्यथा सम्मान का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता।
    संपादकीय के लिए तारीफ करने को अब तो कोई शब्द भी नहीं रहे तेजेन्द्र जी!क्योंकि हर बार की संपादकीय विशिष्ट ही लगती है।
    एक बार पुनः आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ!

    • आदरणीय नीलिमा जी, हमेशा की तरह आपने संपादकीय की तह तक जा कर पड़ताल की है। आप की साहित्यिक एवं पत्रकारिता की समझ बेहतरीन है। हार्दिक आभार।

  21. आपने एक बार फिर अपनी असहमति, विरोध बेबाकी से प्रकट किया है. आप उस देश की बात कर रहे हैं जहां के एक नहीं दो दो प्रधान मंत्रियों ने भारत रत्न पुरस्कार स्वयं ले लिया. वो राजनीतिक लोग थे, आज जो भारत रत्न दिए जा रहे हैं, वहां भी राजनीति है, राजनीतिज्ञ लोग ही राजनीतिक लाभ हानि के लिए दे रहे हैं. लेकिन साहित्य जगत को तो इससे बचना ही चाहिए. मग़र दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि साहित्य जगत भी उसी समय से प्रभावित है जिस समय लोगों ने स्वयं ही भारत रत्न ले लिए थे.राजनीतिक पिता पुत्री के इस निंदनीय कृत्य के प्रभाव से साहित्य जगत भी अछूता नहीं रहा. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब यहां यह बात भी चर्चा में रही कि बुकर लेने के लिए 15 लाख से अधिक खर्च किये गये. पुरस्कार देने वाली संस्थाओं के निर्णय उचित और निष्पक्ष ही होंगे इस पर प्रश्नचिन्ह तो और बड़े हो गए जब नोबेल भी संदेह के घेरे में आ गया. रामभद्राचार्य जी की योग्यता, उनके ज्ञान पर कोई प्रश्न नहीं है, लेकिन मेरी तरह अनेक लोगों की उनसे यही अपेक्षा हो सकती है कि आप जगद्गुरु हैं, आपको यह पुरस्कार अस्वीकार कर देना चाहिए. फ़्रांस के ज्यां पॉल सार्त्र ने 1964 में नोबेल पुरस्कार अस्वीकार कर दिया था. 1973 में ले डक थो ने भी मना कर दिया था. हमें इस आशा के साथ प्रश्न खड़े ही करते रहना चाहिए कि स्थितियां बदलेंगी. आपकी तरफ से तो सभी निश्चिंत हो सकते हैं कि आप ऐसे ही बेबाकी साहस के साथ प्रश्न खड़े करते रहेंगे….

    • भाई प्रदीप जी, आपकी टिप्पणी हमारे संपादकीय को एक नया अर्थ प्रदान करती है। हार्दिक आभार।

  22. साहित्यिक सन्दर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण,ज्ञानवर्धक,स्पष्ट और विचारणीय संपादकीय।इस उत्तम प्रश्नाधारित लेख हेतु आपको
    हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय।

  23. एकदम निष्पक्ष और सही विश्लेषण ।साहित्यिक पुरस्कारों की
    गरिमा तभी बनी रह सकेगी जब वे अपने क्षेत्र के सही हक़दार तक
    पहुँचे ।बधाई आपको ।

  24. सर, आपने सही से बखिया उधेड़ी है इस फ़र्ज़ीवाड़े की.. साहित्य में राजनीति का घुसना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है..आपके रिसर्च और सच को सामने लाने की मेहनत को नमन

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