यह कहना अनुचित न होगा कि दसों दिशाओं में रातें हिन्दी सिनेमा के श्रंगार रस के गीतों की चर्चा करते हुए कहेंगी कि एक संपादकीय इस विषय के लिये काफ़ी नहीं है। हिन्दी सिनेमा के तमाम रसों के गीतों की बात करते हुए एक गंभीर पुस्तक लिखी जानी चाहिये। वरना पाठक और श्रोता संपादक से यही कहते दिखाई देंगे –

“अभी न जाओ छोड़ कर / के दिल अभी भरा नहीं। ”

मैं कल ‘दुल्हन एक रात की’ फ़िल्म का एक गीत सुन रहा था – “सपनों में अगर मेरे, तुम आओ तो सो जाऊं… तुम आओ तो सो जाऊं / बाहों की मुझे माला पहनाओ तो सो जाऊं…. ”
यह फ़िल्म मैंने उस समय देखी थी जब शायद हिन्दी फ़िल्मी गीतों को केवल गुनगुनाने तक समझता था। यह फ़िल्म अंग्रेज़ी उपन्यासकार टॉमस हार्डी के उपन्यास ‘टेस ऑफ़ डिउबरवेल’ पर आधारित थी। इसमें मुख्य कलाकार थे नूतन, धर्मेन्द्र और रहमान। लता मंगेश्कर द्वारा गाये इस गीते के गीतकार थे राजा मेहदी अली ख़ान और संगीत दिया था मदन मोहन ने।
नूतन का अभिनय इतना पारदर्शी है कि ऐसा महसूस होता है जैसे नूतन की रूह इस गीत के शब्द महसूस कर रही है। यहां प्रेमिका अपने प्रेमी के सामने एक शर्त रखती दिखाई देती है कि अगर तुम मेरे सपनों में आने का वादा करो तो मैं सोने के लिये तैयार हूं… वरना तो रात भर की बेचैनी मेरे साथ है ही।
और तब शुरू होता है गीत का पहला अंतरा –  “सपनों में कभी साजन, बैठो मेरे पास आ के / जब सीने पे सर रख दूँ मैं प्यार में शरमा के / इक गीत मुहब्बत का तुम गाओ तो सो जाऊँ, तुम गाओ तो सो जाऊँ…।”
इन शब्दों के माध्यम से गीतकार राजा मेहदी अली ख़ान ने इतना ख़ूबसूरत चित्र बनाया है कि जैसे सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा है। सपनों में साजन का पास आकर बैठना, सजनी का शरमाते हुए उसके सीने पर सर रख देना और फिर प्रेमी का मुहब्बत भरा गीत गाना। और फिर उस गीत के नशे में प्रेमिका का सो जाना।
और फिर प्रेमिका को बीती हुई यादें अपनी आँखों के सामने हँसती हुई दिखाई देती हैं। उन यादों की तुलना वह लहरों से करते हुए कहती है – “बीती हुई वो यादें हँसती हुई आती हैं / लहरों की तरह दिल में आती, कभी जाती हैं / यादों की तरह तुम भी आ जाओ तो सो जाऊँ… आ जाओ तो सो जाऊँ… सपनों में अगर मेरे, तुम आओ तो सो जाऊँ / तुम आओ तो सो जाऊँ… ”
सच तो यह है कि गीत विधा यदि आज भी बची हुई है तो केवल हिन्दी सिनेमा की वजह से। गीत विधा को साहित्य की मुख्य धारा से लगभग निष्कासित कर दिया गया है। बाएं हाथ से लिखी जाने वाली कविता में विचार है मगर संगीत नहीं। हर कविता शिकायत करती दिखाई देती है। जीवन के किसी भी पक्ष का उत्सव मनाती नहीं दिखाई देती।
हिन्दी सिनेमा में 1949 से 1971 तक का काल गीत विधा का सर्वश्रेष्ठ काल कहा जा सकता है। इस काल में शैलेन्द्र, साहिर, शकील बदायुनी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी, डी.एन. मधोक, राजेन्द्र कृष्ण, भरत व्यास, नरेन्द्र शर्मा, इंदीवर, आनंद बक्षी, योगेश और गुलज़ार जैसे बहुत से बेहतरीन गीतकारों ने इस विधा में सृजन किया है। सीधे गीत भी लिखे गये और गीतों के साथ अभिनव प्रयोग भी किये गये।
श्रृंगार रस में संयोग और वियोग दोनों ही इस काल में गीतों के माध्यम से पर्दे पर दिखाई दिये। मिलन और विछोह दोनों के लिये कुछ अद्भुत गीतों की रचना हुई।
फ़िल्म चौदहवीं का चांद में जब शकील बदायुनी कहते हैं – “चौदहवीं का चांद हो या आफ़ताब हो / जो भी हो तुम ख़ुदा की कसम, लाजवाब हो…” तो लगता है जैसे आसमान से चांद उतर कर ज़मीन पर चला आया हो। यह गीत किसी भी प्रेमी द्वारा अपनी प्रेमिका के लिये गाया हुआ श्रेष्ठतम गीत हो सकता ह।
मगर यह शकील जब प्यार को बग़ावत का रूप देते हैं तो एलान कर देते हैं – जब प्यार किया तो डरना क्या / प्यार किया कोई चोरी नहीं की / छुप-छुप आहें भरना क्या / जब प्यार किया तो डरना क्या।”
जहां पहले गीत में रवि के संगीत में मुहम्मद रफ़ी बता रहे हैं कि वहीदा रहमान किस तरह चौदहवीं का चांद है तो दूसरे गीत में लता मंगेश्कर विद्रोह करती दिखाई देती हैं नौशाद की धुन पर। मधुबाला, पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, दुर्गा खोटे और निगार ने इस पूरे गीत के दौरान अद्भुत अदाकारी का परिचय दिया है।
राजेन्द्र कृष्ण जब प्यार में वियोग के पलों का ज़िक्र करते हैं तो कहते हैं – “फिर वही शाम, वही ग़म वही तनहाई है / दिल को समझाने तेरी याद चली आई है…. / जाने अब तुझ से मुलाकात कभी हो के न हो / जो अधूरी रही वो बात कभी हो के न हो / मेरी मंज़िल तेरी मंज़िल से बिछड़ आई है।” फ़िल्म जहांआरा में जहांआरा के प्रेमी के दिल का दर्द राजेन्द्र कृष्ण ने बहुत ख़ूबसूरती से समझा है। उस दर्द को पर्दे पर भारत भूषण को चित्रित किया है संगीत एक बार फिर मदन मोहन का ही है।
हसरत जयपुरी प्यार की नज़ाकत दिखाते हुए प्रेमिका को लिखते हैं – “ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर / के तुम नाराज़ न होना / के तुम मेरी ज़िन्दगी हो / के तुम मेरी बंदगी हो।”  मगर वही हसरत आह के लिये लिख जाते हैं – “आजा रे अब मेरा दिल पुकारा / रो रो के ग़म भी हारा / बदनाम न हो प्यार मेरा / आजा रे।”
यदि हम ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि फ़िल्मी गीतकार एक मामले में गीत विधा के कपिल देव होते हैं। वे नौ के नौ रसों की गीत इतनी आसानी से रच देते हैं कि सुनने वाला दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाता है।
मजरूह सुल्तानपुरी फ़िल्म अभिलाषा में प्यार की विशालता को शब्दों में नापने का प्रयास करते दिखाई देते हैं – “वादियां मेरा दामन / रास्ते मेरी बाहें / जाओ मेरे सिवा / तुम कहां जाओगे।” कलाकार संजय  पर फ़िल्माया गया यह गीत प्यार की विशालता को कितनी आसानी से अभिव्यक्त कर देता है। मुहम्मद रफ़ी और लता मंगेश्कर द्वारा गाये इस गीत की धुन राहुल देव बर्मन ने बनाई है। यानी कि प्रेमी का दामन वादियों की तरह विशाल है, बाहें रास्तों सी लम्बी हैं – फिर भला प्रेमिका के लिये जाने का कौन सा स्थान बचता है।
कैफ़ी आज़मी का गीत तो प्रेमी के टूटे हुए दिल की आवाज़ ही बन कर बजना शुरू कर देता है – “मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था / के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको / हवाओं में लहराता आता था दामन /के दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको / कदम ऐसे अंदाज़ से उठ रहे थे /के आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको… यहां तक मुहम्मद रफ़ी को उम्मीद है कि शायद प्रेमिका मना लेगी।
मगर यहां से संगीत और रफ़ी की आवाज़ दर्द से भर जाते हैं। कैफ़ी उस दर्द को अपने सरल शब्दों से महसूस करवा देते हैं – मगर उसने रोका / न उसने मनाया / न दामन ही पकड़ा / न मुझको बिठाया
न आवाज़ ही दी / न वापस बुलाया / मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया / यहाँ तक के उससे जुदा हो गया मैं… ” चेतन आनंद ने इस गीत को कलाकार सुधीर पर फ़िल्माया था। शायद सुधीर के जीवन का यह श्रेष्ठतम गीत रहा होगा। गीत के अंत में यह पंक्ति तीन बार और बजती है – यहां तक कि उससे जुदा हो गया मैं। जुदा होने का दर्द एक-एक शब्द और एक-एक वाद्य में सुनाई देता है।
मगर यही कैफ़ी फ़िल्म हीर रांझा में प्रेमिका की स्थिति को दर्शाते हुए कहते हैं – मिलो न तुम तो हम घबराएं / मिलो तो आँख चुराएं हमें क्या हो गया है ?”
प्रेम धवन श्रृंगार रस के अद्भुत कवि हैं। “बुरा हो इन बैरन अखियन का कर बैठीं नादानी / पहले आग लगा दी मन में अब बरसाएं पानी / हाय रे जोगी / हम तो लुट गये तेरे प्यार में जाने तुझको, हाय रे जाने तुझ को ख़बर कब होगी।”
नीरज तो अपनी प्रेमिका को चेतावनी देने से भी बाज़ नहीं आते – “देखती ही रहो आज दर्पण न तुम / प्यार का ये मुहूरत निकल जाएगा। ” मगर फ़िल्म प्रेम पुजारी में तो वे प्यार का एक पूरा फ़ार्मूला ही तैयार कर देते हैं – शोख़ियों में घोला जाए, फूलों का शबाब / उसमें फिर मिलाई जाये थोड़ी सी शराब / होगा यूं नशा जो तैयार वो प्यार है। ”
इंदीवर तो अपनी प्रेमिका से अंग्रेज़ी कवि विलियम बटलर येट्स की कविता ‘वेन यू आर ओल्ड… ’ की तर्ज़ पर लिखते हैं – “कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे / तड़पता हुआ जब कोई छोड़ दे / तब तुम मेरे पास आना प्रिय / मेरा दर खुला है / खुला ही रहेगा / तुम्हारे लिये।”
शैलेन्द्र ने श्रंगार रस के कुछ अद्भुत गीत हिन्दी सिनेमा को दिये हैं – “मेरे सपने में आना रे सजना, मेरे सपने में / वो बात पिया मेरे कानों में फिर से कह जाना रे सजना”, “दिन ढल जाए हाए, रात न जाए / तू तो न आए, तेरी याद सताए”, “हर दिल जो प्यार करेगा, वो गाना गाएगा दीवाना सैंकड़ों में पहचाना जाएगा”। हिन्दी सिनेमा का कालजयी गीत – “प्यार हुआ इक़रार हुआ तो प्यार से फिर क्यों डरता है दिल / कहता है दिल रस्ता मुश्किल मालूम नहीं है कहां मंज़िल।”
यह कहना अनुचित न होगा कि दसों दिशाओं में रातें हिन्दी सिनेमा के श्रंगार रस के गीतों की चर्चा करते हुए कहेंगी कि एक संपादकीय इस विषय के लिये काफ़ी नहीं है। हिन्दी सिनेमा के तमाम रसों के गीतों की बात करते हुए एक गंभीर पुस्तक लिखी जानी चाहिये। वरना पाठक और श्रोता संपादक से यही कहते दिखाई देंगे – “अभी न जाओ छोड़ कर / के दिल अभी भरा नहीं। ”
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

35 टिप्पणी

  1. फिल्मी गीतों पर आपका यह संपादकीय मन में गहरे तक उतर गया। आपने बहुत अच्छे विषय का चयन किया। आपकी लेखन-शैली भी उत्तम है। बहुत बधाई।

      • हिन्दी फिल्मी गीतों जैसे एक अलहदा विषय पर संपादकीय पढ़कर जैसे ताज़गी सी महसूस हुई । विविध मौकों के लिए लिखे गये अनगिनत गीतों पर तो एक नहीं बल्कि अनेक किताबें लिखी जा सकती हैं ।
        ये फिल्मी गीत हमारे जीवन का हिस्सा बनने से पहले किसी गीतकार की कलम से निकल ,
        किसी संगीतकार के सुरों से बँधकर , गायकों की आवाज़ और अभिनेताओं के अभिनय की प्रक्रियाओं से गुज़र चुका होता है । हमने उन गीतों को अपनी विरासत के रूप में सहेजा भी है ।
        फिल्मों के लिए गीत आज भी लिखे जा रहेहैं लेकिन उनका उथला स्तर हमें उन्हें सपरिवार सुनने से रोकता है ।
        आज की कविताओं पर आपकी टिप्पणी बहुत सटीक लगी । सच है, उनमें बस विचार है लयात्मकता नहीं …उत्सव मनता है उनमें भी.. कमियों का, शोषण का , स्त्री और दलित विमर्श का और अभिव्यक्ति पर बटोरी गयी तालियों का । ख़ुशियों का उत्सव मनाते ही उसकी सार्थकता का जैसे अवसान हो जाता है । यह प्रचलन अपनी पैठ बना रहा है लेकिन कवित्त की कीमत पर ।

  2. आपको बधाई इस बहुत ही प्रासंगिक विषय- चयन और उसके विशद प्रतिपादन के लिए. फिल्मों के बहुसंख्यक गीतकार उर्दू गजलगो रहे हैं. हिन्दी गीतकारों ने भी लिखा. लेकिन इस समूचे साहित्य-संसार की कोई गंभीर मीमांसा हिन्दी साहित्य- जगत में नहीं हुई.
    हिन्दी समीक्षा का ठेका उन शिक्षकों के पास है जो विभिन्न विश्व विद्यालयों में अपने विभागीय मठों पर कुंडली मारे बैठे रहते हैं. उनका दृष्टि- परास अति संकीर्ण और संभवतः अपने असुरक्षा बोध से ग्रस्त रहता है. वरना क्या कारण है कि इतने लोकप्रिय गीतों, कहानियों और उनके रचनाकारों को साहित्य-समीक्षा में अथवा हिन्दी साहित्य के इतिहास में कोई जगह नहीं मिलती?
    हिन्दी भाषा को दुनिया भर में फैलाने का काम जो फिल्में कर रही हैं, उनके लिए गीत लेखन, संवाद और पटकथा लेखन का कोई परचा हिन्दी बीए अथवा एम ए में क्यों नहीं पढाया जाता?
    समूचा प्रेमाख्यानक साहित्य अरबी लिपि में लिखा गया. किन्तु राम चंद्र शुक्ल प्रभृति आचार्यों ने उसे हिन्दी साहित्य माना. जावेद अख्तर ने लिखा ” जैसे मंदिर में हो कोई जलता दिया ” (1942 अ लव स्टोरी). यह पंक्ति केवल अरबी लिपि में होने के कारण उर्दू रचना नहीं है. इसकी मीमांसा हिन्दी रचना के रूप में होनी चाहिए.
    अगर हम लिपि का संकीर्ण दायरा और दुराग्रह छोड़ दें तो आज हिन्दी क्षेत्र खाड़ी के देशों से लेकर बर्मा तक यानी धरती के बहुत बडे हिस्से को आच्छादित करता दिखता है. यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि के हिन्दी भाषी भी इसमें शामिल हो जाएं तो हिन्दी इस ग्लोब की कितनी बड़ी भाषा बन जाती है! इस पर कोई मरदुआ हिन्दी प्रोफेसर क्यों नहीं सोचता?
    छुई मुई बनने से काम नहीं चलता.
    ज्यादा दिन जीना है और ज्यादा भूगोल पर अपनी उपस्थिति दर्शाती है तो हमें सर्वसमावेशी होना पड़ेगा.
    आपने जो प्रसंग उठाया है, वह निश्चय ही शोधनीय है.

    बहुत बहुत बधाई आदरणीय.

    • भाई रामवृक्ष जी आपकी भावनाएं हमारे पाठक अवश्य पढ़ेंगे। आपको संपादकीय का विषय भाया यह हमारे लिये गर्व का विषय है। धन्यवाद।

  3. पुराने फिल्मी गीत जो रूह को स्पर्श करते थे। आज भी उतने ही नये लगते हैं। आवश्यक विषय पर लाजवाब संपादकीय।

  4. भाव विभोर शानदार मन प्रसन्न हो गया सर। वादियां तेरा दामन अक्सर सुनती हूं पर वास्तविक अर्थ आज समझ में आया सर । बेहतरीन जरिया है कागज ,सब कुछ कह देने का।

  5. वाह ! वाह
    पूरा पढ़ने के बाद यही कह सकते हैं
    “अभी तो कुछ कहा नहीं ,अभी तो कुछ सुना नहीं (-पाठकों ने)
    बुरा न मानो बात का …..गिला नहीं “…..
    अब तो पूरा रविवार इन गीतों को गुनगुनाते निकलेगा ।
    बहुत मनभावन संपादकीय!यय

  6. वाह, गीतों पर लिखी गई एक अच्छी संपादकीय। ओल्ड इज गोल्ड । इन गानों में इतनी ताजगी है कि पीढ़ी दर पीढ़ी इन गानों को सुनता है, महसूस करता है और इसमें कहीं ना कहीं खो कर अपने आप को टटोल ता है. “जब भी यह दिल उदास होता है जाने कौन आस पास होता है….” एकाकी जीवन में यह सभी गीत मन में उल्लास भरने के लिए काफी है और काफी है वादियों में दूर-दूर तक खो जाने को। ….हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे हैं खो बैठे तुम कहते हो कि ऐसे प्यार को भूल जाओ…. विरह और श्रृंगार का इससे अच्छा नमूना और कहीं नहीं हो सकता।

  7. अपने सीमित ज्ञान की दृष्टि से कहूं तो हिंदी फिल्मी गीतों पर आधारित यह संपादकीय न केवल दुर्लभ है संपादकीय इतिहास में, बल्कि इस तरह गीतों की महत्वपूर्ण व्याख्या कम ही पढ़ने में मिली है। आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है कि साहित्य में गीत विधा का अस्तित्व शेष है तो इन हिंदी फिल्मी गीतों के कारण। गीत विधा का वैसे भी बहुत अधिक नुक़सान आधुनिक कविता, अतुकांत कविता ने किया है। बहरहाल एक सुंदर विषय के चयन और उस पर श्रेष्ठ प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई आपको।

  8. वाह तेजेन्द्र जी एक खूबसूरत संपादकीय, 71 में ग्रेजुएशन पूरा हो गया था , सच कॉलेज के दिनों के गीत अविस्मरणीय हैं। मेरा सदा बगैर गीत जिसे आज भी उतनी ही शिद्दत से वुंगुणता हुन वह गई फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज पाती।

  9. वाह तेजेन्द्र जी एक खूबसूरत संपादकीय, 71 में ग्रेजुएशन पूरा हो गया था , सच कॉलेज के दिनों के गीत अविस्मरणीय हैं। मेरा सदा बहार गीत जिसे आज भी उतनी ही शिद्दत से गुनगुनाता हूँ वह है फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज पाती।

  10. अच्छा लिखा है आप ने, इस में कोई शक नहीं।
    साहित्य समाज का आइना होता है। जब नफरत ने मोहब्बत को रिप्लेस कर दिया हो तो हाथ चाहे बांया हो या दांया , शिकायत के सिवा क्या लिखे गा?
    फिर चाहे वै गीत हों, गज़ल हों, नज़्म या अन्य कोई विधा । हो सकता है आप जहां हैं वहां तक हिंदी लैंड की हवाएं न आती हों वर्ना शिकायती कविता से शिकायत न होती।
    काश १९४९ – १९७१ वाले दिन आज भी होते । गीत तो आज भी होते है फिल्मों में लेकिन वह दिल को सहलाते नही सर पर हथौड़ा चलते हैं।
    तभी तो बड़ी शाइस्तगी से ” बर्फ़ ही बर्फ़ है कुछ पिघलता नहीं/ पास बैठे कोई और रुलाए कोई ” फिर शिकायत ही करता है।
    आप ने अपने संपादकीय में छुआ है विषय को । निःसंदेह अच्छा है।

    • धन्यवाद डॉक्टर साहब। कल नॉटिंघम में आपसे मिल कर बहुत अच्छा लगा। इस सार्थक टिप्पणी के लिये धन्यवाद।

  11. आज तो सभी अपने ज़माने को याद कर गीत गाते रहेंगे
    गीतों भरी लाज़वाब सम्पादकीय, जितनी पढ़ी जाए उतनी कम लगे ।
    साधुवाद
    Dr Prabha mishra

  12. एक नया सा विषय, जिसको स्थापित कविगण सम्भवतः अस्पृश्य मानेंगे आप जैसे प्रतिष्ठित कवि – लेखक ने स्पर्श किया, आपके साहस को वन्दन। वैसे मेरी ख़ुद की नज़रों में बॉलीवुड कोई सम्माननीय स्थान नहीं रखता था। कुछ गाने विविध भारती या बिनाका गीतमाला के कान में पड़ जाते थे, जो मेरे बड़े बड़े भाई – बहिन कभी कदा छिप कर सुन लेते थे। क्योंकि पिता फ़िल्मी संगीत को स्तरीय नहीं मानते थे। सुगम संगीत और शास्त्रीय संगीत सुनने को प्रेरित करते थे। इस लिये न रुचि पैदा हुई न जानकारी विस्तृत हुई। लेकिन आज संपादकीय पढ़ कर लगा कि इन गानों को न सुन कर कुछ छूट गया है।एक नए कोण से फ़िल्मी संगीत दिखाने के लिए धन्यवाद, आभार

  13. ये सारे संयोग-वियोग श्रृंगार के गीत बचपन से ही दिलो- दिमाग़ पर रचे-बसे हैं। कमाल का विषय आपने चुना।
    पढ़कर वाक़ई लगा “कि दिल अभी भरा नहीं।”
    इस विषय के लिए कई किताबें रच जाएंगी। फिर भी सम्पादकीय ‘गागर में सागर’ की उक्ति को सार्थक कर रहा है।

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