Saturday, July 27, 2024
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संपादकीय – फ़िजी की हवाई हिन्दी से ‘फ़िज़’ ग़ायब

मैं जब भारत में था तो किसी ने मुझ से भी पूछा, “तेजेन्द्र भाई आप फ़िजी नहीं गये?” तो मेरा सीधा सरल जवाब था, “मुझे बुलाया ही नहीं गया।” वह अविश्वसनीय निगाहों से मुझे ताकने लगा। फिर बोला, “दरअसल आप निरंतर विश्व हिन्दी सम्मेलनों के विरुद्ध लिखते रहते हैं। भला आपको कोई वहां क्यों बुलाएगा?.. मगर भाई साहब, आपसे एक गुज़ारिश करूंगा; आप अब की बार विश्व हिन्दी सम्मेलन के विरुद्ध कुछ मत लिखियेगा। वरना लोग कहेंगे खट्टे अंगूर का मामला है।… अगर इसको बुला लिया जाता तो सब ठीक है, इसे नहीं बुलाया गया तो नुक्स निकाल रहा है।”

यदि सोड़ा वाटर की बोतल खुली छोड़ दी जाए, तो उसकी गैस कुछ देर में उड़ जाती है; यानी कि उसकी फ़िज़ ख़त्म हो जाती है।  अब की बार फ़िजी के विश्व हिन्दी सम्मेलन से कुछ ऐसा ही अहसास विश्व भर में पहुंचा कि सम्मेलन से फ़िज़ कहीं गायब हो गई है।
गुरुदेव सुधीश पचौरी जी का कहना है कि हर दो तीन बरस में जहाज़ भर हिन्दी का विदेश जाना हिन्दी की सेहत के लिए अनिवार्य है। उस जहाज़ में हिन्दी प्रेमी, हिन्दी सेवी और हिन्दी भक्त मौजूद रहते हैं। और हमारे गुरुदेव तो थ्री-इन-वन हैं।
भारत में जुगाड़ संस्कृति की स्थापना रामायण काल से ही हो गई थी। जब राजा दशरथ के रथ के पहिये को महारानी कैकेई ने जुगाड़ से रोके रखा था। बाद में वक्त आने पर उसने अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या की राजगद्दी का जुगाड़ कर लिया।
बात जब वैमानिक हिन्दी की हो रही है तो बताना आवश्यक है कि आजकल एअरलाइन में भी चिपकाने वाली टेप का जुगाड़ चलता है। जहाज़ का जो भी हिस्सा गड़बड़ाता है, वहां टेप चिपका कर जुगाड़ू काम कर दिया जाता है। यहां तक कि बहुत बार तो आपको दरवाज़े पर भी टेप चिपका दिखाई दे जाएगा।
हिन्दी के जहाज़ को भरने के लिए भी थ्री-इन-वन जुगाड़ एक्सपर्ट अपनी कला का श्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए अपने सभी हथियारों का इस्तेमाल कर लेते हैं। वे साबित कर देते हैं कि विदेशी धरती पर जब तक वे हिन्दी भाषा पर अहसान नहीं कर देंगे तब तक हिन्दी भाषा वैश्विक नहीं बन पाएगी। विदेशी धरती पर वे हर बार हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बना आते हैं मगर वापस भारत आने पर हर वर्ष प्रवासी दिवस अंग्रेज़ी में मनाते हैं।
एक ज़माना था जब पाकिस्तान की क्रिकेट टीम विदेशी दौरे पर जाती थी तो खिलाड़ियों से अधिक सरकारी अधिकारी और उनकी पत्नियों की संख्या होती थी। ठीक यही भारत के सरकारी अधिकारी ओलंपिक खेलों के समय करते थे। भारत के खिलाड़ी यदि दस हैं तो सरकारी अधिकारी पच्चीस… पदक एक भी नहीं। 
इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ कि फ़िजी यात्रा के लिये उधार के पंखों से उड़ने वाले सरकारी अधिकारियों को उड़ान भरने से ठीक कुछ पहले या फिर उड़ान से उतरते ही पंख-विहीन कर दिया गया। 15 से 17 ऐसे अधिकारियों को तो फ़िजी में विमान से उतरते ही बता दिया गया कि उनका दौरा ‘अनधिकृत’ है। इसलिये उन्हें तुरंत वापस भारत यात्रा पर निकलना होगा। सरकारी अधिकारियों को भला ऐसे व्यवहार की उम्मीद कहां रही होगी। मगर जो हुआ सो हुआ… सवाल यह है कि हुआ क्यों?
पता चला कि फ़िजी में 15 फरवरी को विश्व हिंदी सम्मेलन की शुरुआत से चार दिन पहले, वित्त मंत्रालय ने भारतीय प्रतिनिधिमंडल सूची में अधिकारियों की संख्या 165 से घटाकर 51 कर दी। कल तक जो अधिकारी साहित्यकारों एवं पत्रकारों को अपने आगे-पीछे घुमाकर उन्हें विश्वास दिला रहे थे कि फ़िजी तो उनकी बाहों में होगा, वही आज पा रहे थे कि उनको पांव के नीचे से फ़िजी की ज़मीन अचानक सरक गयी थी। 
सौ से अधिक अन्य अधिकारियों पर अचानक बम फूटा जिन्हें प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा माना जा रहा था और जो फ़िजी की यात्रा करने के लिये पूरी तरह से तैयार थे। उन्हें विदेश मंत्रालय द्वारा अंतिम क्षणों में संदेश भेजा गया कि उनका टिकट रद्द कर दिया गया है।  
यही हाल बहुत से साहित्यकारों एवं हिन्दी त्रिपुरारियों के साथ किया गया। पहले उनके लेख स्वीकार कर लिये गये और उन्हें फ़िजी आने का निमंत्रण भेज दिया गया और फिर ऐन मौके पर उन्हें सूचित कर दिया गया कि उनका निमंत्रण कैंसिल कर दिया गया है। कुछ साहित्यकारों को बताया गया कि उनका आलेख तो स्वीकृत है मगर आपको फ़िजी आना अपने खर्चे पर होगा और रहने का जुगाड़ भी स्वयं ही करना होगा। वे अपने-अपने आलेख को बैठे निहार रहे हैं और कह रहे हैं कि ऐ फ़िजी – “मेरी किस्मत में तू नहीं शायद, मैं मगर तुझ से प्यार करता हूं…!”
एक मज़ेदार बात यह भी है कि उस जहाज़ में बैठी हर ‘हिन्दात्मा’ जानती है कि वह किस जुगाड़ से विमान पर चढ़ पाई है। वह यह भी जानती है कि हर जुगाड़ू किसी मामले में उनसे कम नहीं। मगर मजाल है कि कोई किसी की तरफ़ उंगली या अंगूठा दिखा दे। सब एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा भाव दर्शाते खीसें निपोरते आंखों-आंखों में यही भाव बनाए रखते हैं – “तुसी ग्रेट हो बादशाहो! ”
मन ही मन सभी को गरियाने का कार्यक्रम भी चलता रहता है। अरे यह इस विभाग का चमचा है तो वो उस विभाग का। जिस-जिस को ‘फ़िजिआने’ का प्रबंधन सौंपा गया, उस-उसने अपने चमचों, कड़छों और पतीलों से विमान को भर दिया। और जिस-जिस का नाम सूची में नहीं आया, वो स्वयंभू महान बन कर साधु-भाषा बोलने लगा।”
मंत्री हो या संतरी, सब अचानक महत्वपूर्ण महसूस करने लगे। सब अपने चेले-चपाठों के पंख लगाने में जुट गये। और जिनको पंख नहीं लग पाए वे फ़िजी की ओर आंसू भरी नज़रों से ताकते हुए गा रहे थे, “पंख होते तो उड़ आते थे, ओ मेरी हिन्दी मैया!” आखिर यही लोग तो हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने की योग्यता रखते हैं।
जो लोग रोज़ भारत में अपनी हिन्दी में अवधी, भोजपुरी, ब्रज और राजस्थानी का तड़का लगाने की वकालत करते नहीं रखते थे, अचानक हिन्दी के वैश्विक महत्व पर भाषण देने लगे। सकुचाती, शरमाती, लज्जाती हिन्दी हैरान होती रहती कि मुझे अभी तक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का हिस्सा तो बनाया नहीं, सीधा “विश्व एकता” जैसा कठिन काम सौंप दिया है। 
बॉलीवुड के मेगास्टार और निर्माता निर्देशक विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजकों के पांव छू-छू कर धन्यवाद ज्ञापन दे रहे थे कि उनकी फ़िल्मों पर फ़िजी जैसी सुपर पॉवर की धरती पर सृजनात्मक चर्चा की जा रही है। जिन लोगों को फ़िल्म निर्माण के बारे में कोई जानकारी नहीं, वे फ़िल्मों पर व्याख्यान देकर सिनेमा निर्माण की नई परिपाटियां प्रस्तुत कर रहे हैं।  प्रवासी लेखक गदगद हुए जा रहे थे, कि उनके साहित्य पर गंभीर चर्चाएं हो रही हैं, जबकि उनको भारत में कोई पढ़ना पसंद नहीं करता। 
मैं जब भारत में था तो किसी ने मुझ से भी पूछा, “तेजेन्द्र भाई आप फ़िजी नहीं गये?” तो मेरा सीधा सरल जवाब था, “मुझे बुलाया ही नहीं गया।” वह अविश्वसनीय निगाहों से मुझे ताकने लगा। फिर बोला, “दरअसल आप निरंतर विश्व हिन्दी सम्मेलनों के विरुद्ध लिखते रहते हैं। भला आपको कोई वहां क्यों बुलाएगा?.. मगर भाई साहब, आपसे एक गुज़ारिश करूंगा; आप अब की बार विश्व हिन्दी सम्मेलन के विरुद्ध कुछ मत लिखियेगा। वरना लोग कहेंगे खट्टे अंगूर का मामला है।… अगर इसको बुला लिया जाता तो सब ठीक है, इसे नहीं बुलाया गया तो नुक्स निकाल रहा है।” 
जब फ़िजी में हवाई साहित्यकारों से पूछा गया, “भाई, भला विदेशी धरती पर देसी भाषा के बारे में बातचीत करने का औचित्य क्या है? आप वहां ऐसी कौन सी बात कर पाएंगे जो भारत की निर्धन धरती पर नहीं हो सकती?” वो तो लगभग आप खो बैठे, “अरे आप भी कमाल करते हैं! स्थान और स्थल का महत्व आप समझते नहीं! पूरे घामड़ किस्म के इन्सान हैं आप भी! जो बात हम गली मोहल्ले में कहते हैं, यदि वही बात हमें विज्ञान भवन अथवा संसद भवन में कहने का अवसर मिले तो क्या कोई अंतर नहीं पड़ेगा?” स्थान का महत्व आप नहीं समझेंगे। विदेश में हिन्दी के बारे में बात करने से बात का वज़न बढ़ जाता है। 
आम आदमी (आर. के. लक्ष्मण का आम आदमी) सपने देखने लगा। फ़िजी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के बाद संयुक्त राष्ट्र के महा सचिव सभी देशों के प्रमुखों से फ़ोन पर हिन्दी में बतिया रहे हैं। ऋषि सुनक ब्रिटेन की संसद में अपना भाषण हिन्दी में दे रहे हैं। जो बाइडेन यूक्रेन के राष्ट्रपति के साथ हिन्दी में युद्ध नीति पर बातचीत कर रहे हैं। और हिन्दी परेशान खड़ी भारत की संसद के द्वार की ओर कातर निगाहों से ताक रही है… सोच रही है… इस भवन की मुख्य भाषा मैं कब बन पाऊंगी?”
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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71 टिप्पणी

  1. जुगाड़ के बिना क्या कोई स्थान या सम्मान या कोई पद सम्भव हो सकता है? मुझे तो नहीं लगता, अधिकतर सम्मानों के लिए साहित्यकार/ फिल्मकार/ नाटककार ख़ुद ही फॉर्म भरता है, रिज्यूम या क़िताब भेजता है, कहीं तो उसका शुल्क भी भरता है, या फिर लोग एक दुसरे को सम्मान दे डालते हैं, जहां तक हिंदी की बात है तो ज्यादातर अंग्रेजी वाले लोग ही इसके लिए चिल्लाते रहते हैं बाकी काम अंग्रेजी में करते हैं।

  2. अच्छा और सच्चा लेख है तेजेंद्र भाई। कई बिंदु विचारणीय हैं। सत्रों के चयन में अवयस्थताएँ और समय से निर्णयों का न लेना साफ़ झलक रहा था।

  3. बहुत ही सार्थक ,सटीक ,सच्चा और सृजनात्मक आलेख।स्वयंभू की और रेवड़ी संस्कृति के वीभत्स रूप को शनील में लपेट कर कस कस के पीटता सफल प्रयास।
    बधाई हो।

      • फिजी की फ़िज़ा से साहित्य सोडा का फिज़ गायब, ठीक उसी तरह से जिस तरह इन सम्मेलनों से साहित्य गायब। गदहों के सर से सींग गायब, गोष्ठी तो अब घोस्ट बनकर रह गए ऐसे सम्मेलनों से। लब्बोलुआब ये है कि सब खेला का मेला है, कौन गुरु और कौन चेला है?

  4. इस बढ़िया संपादकीय के लिए साधुवाद माननीय. किसी ने बताया कि चार्टर्ड प्लेन में चालीस से अधिक सीटें खाली गयीं.
    जिनके नाम कटे वे सब सरकारी खर्चे पर नहीं, बल्कि अपनी-अपनी संस्था के टिकट और खर्च पर जा रहे थे. उन्हें सूची से हटाने पर सरकार को एक चवन्नी की भी बचत नहीं हुई. अलबत्ता आयोजकों की अक्षमता और अदूरदर्शिता अवश्य उजागर हो गयी. पहले चिट्ठी भेजकर बुलाया, हर प्रकार की अनुमति दी, उनकी टिकटों, होटल बुकिंग, बीमा, पंजीकरण आदि पर लाखों रुपये खर्च करवाए और ऐन यात्रा से पहले फोन करवाकर यात्रा रुकवा दी.
    114 लोगों की no सूची में बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें फिजी पहुँचकर मेल मिली कि आपकी यात्रा अवैध है. कुछ लोग यह जानकर भी तीन दिन के सम्मेलन में शामिल हुए. उन्हें सरकारी प्लेन या आवास व्यवस्था की जरूरत ही नहीं थी. वे तो अपने खर्च पर गये थे.
    सम्मेलन का पंजीकरण, ई क्लीयरेंस और उक्त मेल, सब अंग्रेजी में हुआ. ज़ाहिर है कि सम्मेलन का उद्देश्य पर्यटन ही रहा, न कि हिन्दी में काम काज. वरना उक्त कार्रवाई हिन्दी में न होती.

  5. बहुत ही अच्छा।बखिया उधेड़ने में आपका जवाब नहीं। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाला संपादकीय नहीं है। यह संपादकीय आईना दिखाता है तथाकथित उन लोगों को जो इस दौड़ में शामिल हैं। बधाई।

  6. हरि ॐ, इति ब्रह्मपुराणे, रेवा खण्डे…. फीज़ी विश्व हिन्दी सम्मेलन का खट्टी-मीठी यादों प्रतिक्रियाओं के साथ एक और अध्याय पूरा हुआ। पचौरी जी के बाद आपका लिखा खरा सच पढ़ा। जितनी साफ़गोई से आप हमेशा, हिन्दी को वैश्विक भाषा बनाने के विश्व हिन्दी सम्मेलन के प्रयासों के खोखलेपन के बारे में, कहते रहे हैं, वैसे ही इस संपादकीय में भी कहा, आनंद आ गया।
    कोई तो है जो हिन्दी को भुनाने में नहीं उसके हित चिन्तन में लगा है। वास्तविकता यही है कि दुनिया भर में हिन्दी का प्रकाश फैलाने का दावा करने वाले चिराग़-तले घनघोर अँधेरा है। भारत में हिन्दी का प्रयोग मोदी सरकार के आने के बाद थोड़ा सा बढ़ा है, क्योंकि स्वयं प्रधानमंत्री हिन्दी का प्रयोग विदेशों में भी करते हैं। अन्यथा हिन्दी के लिये बनायी गयी सभी संस्थाएं, हिन्दी की सेहत के लिए नहीं अपने निजी स्वास्थ्य केलिए चिन्तित रहती हैं। काश पचौरी जी और आपके सन्देश हिन्दी के सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त ‘कर्णधारों’ तक पहुँचे। पहले देश में हिन्दी आये फिर विश्व में फैल ही जायेगी, क्योंकि हम भारतीय ‘इतनी जनसंख्या’ में हैं कि सारे विश्व में फैले हैं। बस ‘हिन्दी बोलने में आती शर्म’ को छोड़ना पड़ेगा…

  7. बढ़िया व्यंग्यात्मक संपादकीय,बधाई,
    आपको लग रहा है कि हिंदी में से फ़िजी में फ़िज़ निकल गई तो यह तो अच्छी बात है, फ़िज़ तो कार्बन डाइऑक्साइड होती है न,वह निकल जाएगी तो शायद हिंदी विश्व के लिए और उपयोगी और अधिक लोकप्रिय हो जाए।

    बिना किसी विश्व हिंदी सम्मेलन में गए मेरे विचारों का कोई महत्व तो नहीं है, परंतु फिर भी मुझे लगता है कि लोक भाषाओं के शब्दों के प्रयोग से हिंदी का शब्द भंडार और समृद्ध होगा।
    एक बार फिर ‘अपनी बात’ को बिना लाग लपेट के प्रकट करने के लिए बधाई!!

  8. भाषा के आर. के. नारायण साहब को साधुवाद ।।ऐसी टिप्पणी लिखने के लिए केवल ज्ञान की नहीं
    “जिगर ” की भी आवश्यकता होती है!!
    अंतिम पंक्ति ने तो पाठक के ” मुंह की छीन लेने” जैसा वाक्य लिख दिया है कि संसद के द्वार पर हिंदी…….
    अब इससे अधिक क्या ही कहा जाए कि सच में कुर्सी और हिंदी की सांठ – गांठ हिंदुस्तान कर ही नहीं सकता ,साफ है कि सब कुछ बदल सकता है पर गुलामी से आजाद होना जब हम स्वयं नहीं चते तो भला प्रवासी भारतीय कब तक बकरे की खैर मनाएंगे??
    बहुत सुंदर “पोस्टमार्टम ऑफ हिंदी ” फिजी के बहाने आपने किया,करते रहिए मैं तो कहूंगी क्योंकि शायद कभी कोई चितेरा दीदावर पैदा हो जाए और भारत बचा खुचा पूर्ण स्वतंत्र हो जाए। मैं आशावादी हूं इसलिए आस लगाए रहूंगी…..!!

    • डॉ सविता जी, आपकी दिल से निकली टिप्पणी पुरवाई के लिए महत्वपूर्ण है। हार्दिक आभार।

  9. फिजी हाय फिजी, हर चार वर्ष में विश्व हिंदी के उपलक्ष्य में यह नाटक होता है जिसे सरकारी निमंत्रण मिलता है जिसे सरकार की तरफ से पुरस्कृत किया जाता है वो हिंदी का टॉलस्टाय बाकी तो गदहे हैं ही। इस बार प्राइवेट हवाईजहाज 276 यात्रियों को लेकर हिंदी जी आजकल सरकारी मानक हिन्दी की जगह हिंदी हो गया है । लिखने पढ़ने जाते हैं इनमे कितने हिन्दी की सेवा में रत हैं कितने आयोजक और सरकारी चमचागिरी में यह विचारणीय है। समय सापेक्ष हिंदी के साधक होते हैं । कभही वामपंथी विचार के होते थे अब दक्षिण पंथी हैं पंथी होना जरूरी है। तेजेन्द्र शर्मा कोई पंथी नहीं तो लटके हुए हैं सुरेश चौधरी कोई पंथी नहीं बल्कि पंथ विरोधी हैं अतः कोई जानता भी नहीं । यही दुनिया है यही हकीकत । जुगाड़ नहीं होगा तो भारत मे छोटी से छोटी संस्था का भी सम्मान नहीं मिलेगा।

    • आपका लेख पढ़ा। बहुत सारी बातों से अवगत हुआ और यह भी जाना कि विगत विश्व हिंदी सम्मेलनों से भी हिंदी का कोई भला नहीं हुआ है और इस सम्मेलन से भी कुछ नहीं होनेवाला है। कुछ और बातों की जानकारी भी आपके माध्यम से हुई, जो वहाँ से लौट आने के बाद भी नहीं जान पाया था।

      आप सब तो ‘विदेशयात्री’ हैं, आपके अनुभव अधिक हैं। आप सब हिंदी के लिए कार्य भी कर रहे हैं और देश-विदेश के पाठक आपका सम्मान भी करते हैं। आपके लेखन का महत्त्व है। मैं ‘देशयात्री’ हूँ। देखा करता हूँ कि देश के हर क्षेत्र में किस प्रकार हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। भारतीय भाषाओं की अनूदित सामग्री पढ़ने के लिए मिलती है।

      मुझे फीजी जाने का सुअवसर मिला। अनेक अनुभव हुए। देखा कि कैसे श्रीलंका, सैन फ्रांसिस्को, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, सूरीनाम, माॅरीशस, न्यूजीलैंड, जापान इत्यादि जगहों पर हिंदी के लिए लोग कार्य कर रहे हैं। मैं अभी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी-विभाग के प्राध्यापक के रूप में विदेशी छात्र-छात्राओं को हिंदी पढ़ाता हूँ तो उनके श्रम और समर्पण को समझ सकता हूँ।

      मैं पहली बार विश्व हिंदी सम्मेलन-2023 में सम्मिलित हुआ। विज्ञान विषय में प्रथम स्थान से अंतरस्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कर हिंदी पढ़ने की ओर रुझान बन गया और पटना की साहित्यिक गतिविधियों से संलग्न होकर हिंदी-सेवा में रत हुआ। पिछले बत्तीस वर्षों से मैं इस क्षेत्र में अपनी सेवाएँ दे रहा हूँ। मेरी लिखित, संपादित और अनूदित 18 पुस्तकें प्रकाशित हैं। पूर्व से नेपाल और माॅरीशस देशों की साहित्यिक यात्राओं का अनुभव है। फीजी जाकर नया अनुभव हुआ।

      फीजी गए भारतीय रचनाकारों में पहली बार, जैसा कि मैंने जाना, अरुणाचल प्रदेश, असम, त्रिपुरा, मेघालय, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा जैसे हिंदीतर राज्यों में हिंदी के लिए कार्य और लेखन करनेवाले लेखकगण गए थे। वे अपने-अपने क्षेत्रों में हिंदी के लिए कार्य कर रहे हैं। इसी सम्मेलन में श्रद्धेय डाॅ. नारायण कुमार जी जैसे वयोवृद्ध एवं ज्ञानसमृद्ध रचनाकार को सम्मानित होते देख कितना गर्व हुआ, कितनी आश्वस्ति हुई!

      आशा है, आयोजगगण आपके सुझावों पर ध्यान देंगे।

      • जी मुझे लगता है कि यदि यह सम्मेलन भारत में होता, तब भी ये सारी जानकारियां आपको मिल जातीं। उसके लिये विदेश जाने का इतना टंटा नहीं उठाना पड़ता। विदेशी मुद्रा ख़र्च करने से बेहतर है कि रुपये में ख़र्च किया जाए। विदेशी हिन्दी मेहमानो को भारत बुलाया जा सकता है।

  10. असरदार सम्पादकीय
    हिंदी अपनी आब -ओ हवा बदलने देस ब देस
    घूमती रहती है ।मठाधीश भी जीवन में परिवर्तन चाहते हैं ।
    आप सच का आईना दिखाते रहिएगा कोई तोहो जो सच कह सके ।
    साधुवाद
    Dr Prabha mishra

  11. विश्व हिंदी सम्मेलनों में सदा से ही चाटुकारिता ओं की भीड़ रही है और हिंदी केवल एक मोहरा भर रहे हैं आपका आलेख सचमुच सोचने पर मजबूर करता है क्या इस तरह हम हिंदी को वैश्विक स्तर पर कोई स्थान दिला पाएंगे

  12. श्रीमान जी …प्रतीत तो होता है कि हिन्दी व वास्तविक हिन्दी सेवियों पर कोई “दया” करता ही नहीं …35 वर्षीय सेवा-काल के दौरान लगभग यही पाया …

    एकदम सही/सत्य को बखान किया है आपने…कुछ चेहरे/नाम ऐसे हिन्दी-कार्यक्रमों के लिए शाश्वत से हो गए हैं …उनके अतिरिक्त नये लोग/विचार बहुत कम देखने को मिलते हैं …
    सम्मेलनों का हिन्दी की दशा-दिशा पर कोई प्रभाव पड़ता कभी नज़र ही नहीं आता ?

    चन्द्रकान्त पाराशर,वरिष्ठ लेखक व समीक्षक ।
    रामपुर बुशहर,शिमला हिल्स, हि०प्र० 172001

    [पूर्व अपर महाप्रबंधक(कार्मिक/प्रशासन -राजभाषा)1500मेगावाट-नाथपा झाकडी हाइड्रो पावर स्टेशन ,SJVN LTD,(A Joint VEnture Of Goi & Govt of HP)डाकघर:झाकडी,ज़िला:शिमला हिमाचल प्रदेश भारत पिन:172201]

  13. ईमानदार और बेबाकी से व्यंग्यदार संपादकीय के लिए बहुत बधाई आपको। सरकारी तंत्र कागज़ी स्तर और हवाई स्तर पर काम करता है , पर ज़मीनी स्तर पर नहीं। अंग्रेजी से ज्यादा जुगाड़ू संस्कृति हिंदी का बिगाड़ कर रही है।

  14. सरकारी राजाभाषा अधिकारियों के लिए चार वर्ष में यह सम्मलेन दूसरी एल एफ सी होती है जिसमें पत्नी की बजाए किसी अन्य रूपसी का नामांकन करा लिया जाता है.

  15. बहुत बढ़िया सम्पादकीय,सारी सच्चाई सामने आ गई। फिजि को लेकर जो भ्रम था लोगों के अंदर और कोई इस पर बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। आपने अपनी कलम के जादू से सारा कथा चिठा खोल दिया। भविष्य में भी इसी प्रकार निर्भय होकर लिखते रहें।
    नमन तेजेन्द्र शर्मा जी।

  16. आदरणीय सर हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है। सच कहना कभी आसान नही होता वो भी तब जब करेला वो भी नीम चढ़ा हो। फिज़ी की फिज़ को आपके आईना दिखाते विचारों ने डिफ्यूस जरूर कर दिया है। सच तो ये है विश्व पटल पर हिंदी का बैंड बजाने वाले लोग जो शायद हिंदी ठीक से बोल भी नही पाते, लिख भी नही सकते, भारत मे उन्होंने हिंदी का बैंड बजा रखा है। बचपन से सीखा है जड़ो को मजबूत करना चाहिए फिर पाँव पसारने चाहिए, मेरी बालसुलभ बुद्धि यही कहती पहले अपने घर मे, मन मे हिंदी को स्थान दो हिन्दी समृद्ध भाषा है उसका फिज़ मत निकालो।
    आपके सम्पादकीय क्रिस्टल क्लियर होते है सर, बिना लाग लपेट के सीधी सच्ची बात कहने वाले। जिसे हजम करना शायद सबके बस की बात नही फिज़ की जरूरत पड़ती है उन्हें।
    साधुवाद एक बार पुनः तीखा तेज धारदार लिखने के लिए।

  17. फिजी में विश्व हिंदी सम्मलेन के जरिये आपने अपने संपादकीय में हिंदी की दशा और दुर्दशा का सटीक चित्रण ही नहीं किया है वरन इन आयोजनों की निरर्थकता पर खरी-खरी भी सुना दी है। जैसे हर वर्ष 14 सितम्बर को हिंदी सप्ताह के रुप में मनाया जाता है किन्तु उसके बाद वही ठाक के पात…ठीक इसी तरह विश्व हिंदी सम्मलेन हैं जिनमें हिंदी के सुधार, उद्धार की भावना कम, घूमने फिरने की लालसा, अपनी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति की भावना अधिक होती है।

    ज़ब तक हम हिंदी को दिल से नहीं अपनाएंगे, अपने काम काज की भाषा के साथ अपनी संसद तथा न्यायलय की भाषा नहीं बनाएंगे तब तक हिंदी के विश्व पटल पर छाने का सपना सिर्फ सपना ही रहे

  18. बहुत शानदार तंज।
    हिन्दी के लिए किए जाते छद्म व्यवहार पर सही लिखा।
    अंत तो मारक पंच लाइन की तरह।
    साधुवाद!

  19. बहुत अच्छा लिखा है। मैं भी अंदाज़ लगा रहा था कि विश्व हिंदी सम्मेलन में कौन कौन से लोग दिख रहे हैं।

  20. सादर,
    पहले तो आपको जोरदार लेखनी यानि कि चाँदी का जूता जि़म्मेदारों को जिम्मेदारी से दिखाने के लिए साधुवाद। मेरा तो यही मानना है कि, पहले अपने देश में ही हिंदी की सुध ली जाए तो और श्रेष्ठता पा जाएगी। भविष्य में बाकी देशों कें हमारी यही मजबूती मिसाल का काम करेगी।
    ◾अजय जैन ‘विकल्प’
    -प्रधान संपादक-संस्थापक
    (हिंदीभाषा.कॉम)
    —-

  21. वाह क्या बखिया उधेड़ी है आपने लेख के माध्यम से… “भारत में जुगाड़ संस्कृति की स्थापना रामायण काल से ही हो गई थी….रेवड़ी बाँटना आदि…”
    आपका संपादकीय पढ़कर आँखों के सम्मुख एक साथ कितने ही चित्र उभर आए…कैसे लोग जुगाड़ लगाते हैं…चमचागिरी करते हैं..चाहे वो सम्मान पाने की बात हो चाहे इस तरह के कार्यक्रमों में जुगाड़ लगाने की.. क्या-क्या खरा खरा लिखा है आपने …ख़ुद का पहले सम्मान कराओ और ख़ुद ही गाओ…ग़ज़ब की लेखनी चली आपकी बहुत बहुत बधाई आपको इस “बखिया उधेड़” संपादकीय की

  22. अति अति अति सराहनीय संपादकीय
    यथार्थ दर्शन, हकीकत बयां कर कूटनीतिज्ञों की पोल खोल कर रख दी। आज तक यही होता आ रहा है । अधिकारी इस traj के आयोजनों को सैर के लिए मुफ्त की मोटर गाड़ी ही समझते हैं। हिंदी तो बस नाम के वास्ते ही राज भाषा/ राष्ट्र भाषा/ मात्र भाषा है । आज तक अंग्रेजी की बैसाखी और पालने में ही है अर्थात अदालत,सरकारी दफ्तर, सांसद, विधान मंडल हर जगह अंग्रेजी में ही काम होता है, हिंदी में बात की तो समझो आपका काम होगा ही नहीं। विशवस के साथ कह सकते हैं हाथी के दांत खाने के और दिखाने के ओर

  23. इस संपादकीय को पढ़कर हमें हिन्दी साहित्य जगत में होने वालेी कुछ बातों का पता चला। करदाताओं के पैसों का इतना अपव्यय करने की क्या ज़रूरत है? इससे अच्छा तो भारत के नवोदित लेखकों के लिए कुछ स्टाइपेन वग़ैरह की व्यवस्था होती तो हिन्दी का अधिक कल्याण होता।

  24. वैसे तो इतनी सारी प्रतिक्रिया लोग बाग दर्ज कर चुके हैं मुझ जैसा मूढ़ मति अब इस पर ज्यादा कुछ कह नही पायेगा। लेकिन हाँ इस संपादकीय को पढ़कर लगा की जैसे तेजेंद्र सर व्यंग्यकार भी उम्दा हैं। वैसे उन्हें इस बारे में विचार करके राजनीतिक व्यंग्य लिखने चाहिए। मजेदार संपादकीय है सर।
    और

    एक मज़ेदार बात यह भी है कि उस जहाज़ में बैठी हर ‘हिन्दात्मा’ जानती है कि वह किस जुगाड़ से विमान पर चढ़ पाई है। वह यह भी जानती है कि हर जुगाड़ू किसी मामले में उनसे कम नहीं। मगर मजाल है कि कोई किसी की तरफ़ उंगली या अंगूठा दिखा दे। सब एक-दूसरे के प्रति श्रद्धा भाव दर्शाते खीसें निपोरते आंखों-आंखों में यही भाव बनाए रखते हैं – “तुसी ग्रेट हो बादशाहो! ”

    बस यही कहूंगा अंतिम लाइन से ही की सर तुसी ग्रेट हो तोहफ़ा कबूल करो

    • तेजस तुम्हारी टिप्पणी हमेशा महत्वपूर्ण होती है। युवा पीढ़ी की मेरे लेखन कश्पय प्रतिक्रिया जानने का अवसर मिलता है।

  25. एक और सम्मेलन! यह फ़िल्म हर चार वर्ष बाद चलती है। वही पात्र रहते और कहानी भी लगभग वही रहती है। बड़े-बड़े प्लान बनते हैं और परिणाम . . .?

  26. आदरणीय ! आपने जो भिगो भिगो कर ‘……’ मारे हैं, उसका जवाब नहीं। आप जैसा निडर सम्पादक ही ये कर सकता है। बधाई हो आपको।
    मेरी टिप्पणी कुछ विलम्ब से आ रही है, क्षमायाचना।
    अस्तु ! तथाकथित हिन्दीभक्तों की और जुगाड़ुओं की जो छीछालेदर आपने की है, पढ़ कर “आनन्दम् आनन्दम्” ।

  27. भाई यह संपादकीय आलेख है ही नहीं नश्तर है नश्तर . मगर मज़ा तब आये जब यह बहुत सारे लोगों द्वारा जगह जगह पर पढ़ा जाये , अगर आप अनुमति दें तो इसे हिंदी की रोटी खा रहे अधिकारियों के समूहों में पहुँचाया जाये

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