आजकल चर्चा में रहने वाले युवा लेखकों में एक नाम अंकिता जैन का भी है। सोशल मीडिया पर अच्छी प्रशंसक-श्रृंखला रखने वाली अंकिता की अबतक हिंदी में दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। एक कहानी-संग्रह ‘ऐसी वैसी औरत’ और दूसरी गर्भधारण से माँ बनने तक एक स्त्री की यात्रा पर कथेतर पुस्तक ‘मैं से माँ तक’। साक्षात्कार श्रृंखला की सातवीं कड़ी में पीयूष द्विवेदी ने अंकिता जैन से उनके निजी जीवन और रचनाकर्म सहित विविध विषयों पर बातचीत की है:

सवाल – अपने निजी जीवन के विषय में कुछ बताइए।
अंकिता – अच्छा चल रहा है सब। एक पुरसुकून जगह पर रहती हूँ जहाँ कोई भाग-दौड़ नहीं है। घर-गृहस्थी, लिखना-पढ़ना, खेती, और दो साल का बेटा। बस यही जीवन का हिस्सा है फ़िलहाल।
सवाल – ‘तकनीक की पढ़ाई के बाद साहित्य की तरफ रुझान कैसे हुआ’ ये आजकल के लेखकों से पूछा जाने वाला बड़ा सामान्य सवाल हो गया है। चूंकि आजकल इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के क्षेत्र से बहुत लेखक आ रहे हैं। इस सवाल का जवाब भी लेखक लगभग एक-सा ही देते हैं कि साहित्य में बचपन से मन था, कुछ साहित्य पढ़कर लिखने का मन कर दिया वगैरह। आप भी इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके ही साहित्य में आई हैं, सो इस पर क्या कहेंगी?
अंकिता – मैं ऐसा कुछ नहीं कहूँगी कि बचपन से साहित्य का मन था, या पढ़ती ही थी। मुझे याद है मैंने शायद बचपन में एक ही बार किसी लाइब्रेरी से जाकर कोर्स के अलावा कोई किताब पढ़ने ली होगी। उन दिनों मैं अपने ताउजी के घर विदिशा में रहने गई थी। गर्मी की छुट्टियों में जब दीदी लाइब्रेरी से मैगज़ीन वगेरह पढ़ने लातीं तो मैं भी कोई कहानी की किताब या कोमिक्स आदि ले आती। मेरी कोर्स के अलावा किताबें पढने में कोई ख़ास रूचि नहीं रही। थोड़ी बहुत कोमिक्स पढ़ती थी। वो भी मेरी छोटी बहन की लायी हुई होती थीं। मेरी छोटी बहन की पढ़ने में बहुत रूचि थी। चाहे साहित्य हो, विज्ञान हो या धार्मिक ग्रंथ। उसे घरवाले लोग मुंशी जी कहकर छेड़ते थे। पर मैं उससे ठीक विपरीत थी। मैं खेल-कूद या आर्ट एंड क्राफ्ट में लगी रहती। मेरे लिए उस समय साहित्य जैसी किसी चीज़ का कोई अस्तित्व नहीं था। एक ही घर में रहते हुए हम दोनों बहनें दो अलग-अलग दुनिया में रहते थे जिसे एक दूसरे की दुनिया से कोई मतलब नहीं था। साहित्य की तरफ मेरा रुझान बढ़ा जब मैं भोपाल आई। जीवन में आए कुछ उतर-चढ़ाव के बाद थोड़ा-बहुत लिखना शुरू किया। और खाली समय में दिमाग को भटकने से बचाने के लिए बहन की दी हुई कुछ किताबें पढ़नी शुरू कीं। उन दिनों मैं और बहन दोनों साथ रहते थे भोपाल में कमरा लेकर। लिखने-पढ़ने का वह सिलसिला वहीं से शुरू हुआ। तब मैं पढ़ाई कर चुकी थी और नौकरी कर रही थी। नौकरी में भी समस्याएँ आ रही थीं क्योंकि मैं अपने में मगन रहने वाली लड़की थी, अपने हिसाब से काम करने वाली। लेकिन आजकल के पढाई सिस्टम में बच्चों को बस पास होने के लिए पढ़ाया जाता है। आए दिन कॉलेज में प्रिंसिपल से उसूलों के लिए लड़ने की वजह से मैं नौकरी से विमुख हो गई और लिखने-पढने का जूनून सर चढ़ने लगा। वहीं से यह सारी शुरुआत हुई। फिर मंटो को पढ़ा और पढ़ने और पढ़ते ही जाने की लत सी लग गई।

सवाल – जहां तक मेरी जानकारी है, आपकी पहली किताब अंग्रेजी में थी, फिर आप हिंदी लेखन की तरफ मुड़ीं। हम जानना चाहेंगे कि पहली किताब अंग्रेजी में क्यों लिखी और इसके बाद हिंदी की तरफ मुड़ने का इरादा कैसे हो गया?
अंकिता – मैं हिंदी माध्यम से पढ़ी हुई हूँ। मैं अंग्रेजी से इतना डरती थी कि एम्.एस. करने जब बनस्थली गई तो अपना सबसे पहले पेपर मैं हिंदी में लिख आई थी। उत्तर पुस्तिका में आधे सवाल अधकचरी अंग्रेजी में थे, आधे हिंदी में। मैं आश्चर्य करती हूँ कि मैं उसमें पास भी कैसे हुई थी। शायद कांसेप्ट ठीक होने की वजह से मुझे पास कर दिया गया था। लेकिन उसके बाद मैंने मेहनत की और अंग्रेजी सीखी। फिर अंग्रेजी में सहजता आ गई। पहली किताब जब लिखनी शुरू की थी, तब चारों तरफ अंग्रेजी माहौल था। उन दिनों आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस में रिसर्च कर रही थी। तो उससे संबंधित पढ़ाई, कोडिंग, फ़िल्में, दोस्तों और सहकर्मियों से बात-चीत सब अंग्रेजी में होता था। इसलिए लिखने बैठती थी तो विचार भी अंग्रेजी में ही आते थे। अतः वह कहानी अंग्रेजी में ही लिखी गई। लेकिन जब वह एडिटर के पास पहुँची तो मालूम हुआ कि छपने के हिसाब से और एक उपन्यास बनने के हिसाब से उसमें बहुत खामियां हैं। उस दौरान मेरी एडिटर ने मुझे सुझाव दिया था कि मैं हिंदी में ही लिखूं क्योंकि मैं उसमें ज्यादा सहजता से लिख पाउंगी, अंग्रेजी की तुलना में बेहतर भी। वह किताब भी मैंने कुछ ही समय के बाद बंद करवा दी। कॉन्ट्रैक्ट भी ख़त्म कर दिया। अब वह अतीत बन चुकी है और मैं हिंदी की लेखक।
सवाल – नारीवाद पर आपकी क्या राय है? आपको नहीं लगता कि वर्तमान नारीवाद निरपवाद रूप से स्त्री-स्वच्छंदता का समर्थक और पुरुषों के अंधविरोध का पर्याय बन चुका है?
अंकिता – मैं नारीवाद का अर्थ शायद ठीक से अब तक समझ नहीं पाई हूँ। वर्तमान में देखती हूँ तो गाँव आदि में लड़कियाँ छोटे-कपड़े या शराब आदि को ही नारीवाद की परिभाषा मानने लगी हैं। उन्हें लगता है स्वच्छंदी होना ही नारीवाद की पहचान है। जबकि मेरे हिसाब से नारीवाद का अर्थ अपने ख़ुद के स्वतंत्र विचार रख पाना है। वे किसी से भी, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष द्वारा सिखाए गए नहीं होना चाहिए। शराब, और छोटे कपड़ों से पहले लड़कियों को आत्मनिर्भर बनने के बारे में सोचना चाहिए, उच्च शिक्षा के बारे में सोचना चाहिए। उसके बाद उन्हें यदि छोटे कपड़े या शराब ठीक लगती है तो वह उनका अपना निर्णय होगा, न कि किसी की देखा देखी। मैं किसी भी बात के लिए पाबंदी के हक में नहीं, ख़ासकर कपड़ों या खाने-पीने के मामले में, लेकिन मैं यह मानती हूँ कि लड़कियों को पहले अपनी समझ, अपने विचार इस हद तक परिपक्व करने की ज़रुरत है कि वे अपना अच्छा-बुरा सोच पाएँ, अपने निर्णय ख़ुद ले पाएँ, उन्हें घर-परिवार के सामने बुलंद आवाज़ में रखने का साहस जुटा पाएँ। उसके बाद यदि वे घर में रहकर अपना परिवार चलाना ही चुनती हैं तो वह भी उनका अपना चुनाव होना चाहिए, न कि उन पर थोपा हुआ। मैं स्त्रीवाद की परिभाषा खोज रही हूँ, और अब तक शायद यही समझ पाई हूँ कि मेरे लिए नारीवाद का अर्थ वैचारिक और आर्थिक स्वतंत्रता है, यह स्वतंत्रता, देखा-देखी और पितृसत्ता द्वारा थोपे गए नियम दोनों से होनी चाहिए।
सवाल – आपकी किताब ‘ऐसी वैसी औरत’ में एक कहानी है – रूम नम्बर फिफ्टी। ये कहानी पूरी कल्पना है या सच्चे अनुभव भी इसमें शामिल हैं?
अंकिता – यह दोनों का मिश्रण है। ऐसी एक प्यारी-सी लड़की को जानती हूँ जिसने अपने सेक्सुअल प्रिफरेंस की वजह से बहुत समस्याएँ देखीं। कहानी का कुछ भाग काल्पनिक भी है।
सवाल – स्त्री-साहित्य जैसे साहित्य के लैंगिक विभाजन को आप ठीक मानती हैं? पुरुष-साहित्य जैसा तो कुछ नहीं है, फिर स्त्री-साहित्य क्यों?
अंकिता – मुझे नहीं लगता है स्त्री साहित्य को अलग से विभाजित किया जाना चाहिए। उनका लिखा, साहित्य या मुख्य साहित्य का हिस्सा है, उन्हें अलग तबके में रखकर क्यों देखना? कई लोग स्त्री साहित्य कहकर उसे मुख्य धारा से अलग कर देते हैं, या उन्हें बिचारे भाव से भी देखते मिलते हैं। यह मुझे उचित नहीं लगता। वे जो रच रहीं हैं, और खुद वह भी, साहित्य का ही हिस्सा हैं, फिर विभाजन क्यों?
सवाल – घर-परिवार और बच्चे के बीच लेखन के लिए समय निकालना मुश्किल होता होगा। कैसे करती हैं सब?
अंकिता – नहीं करुँगी तो समय से बहुत पीछे छूट जाउंगी। और मैं सिर्फ गृहस्थ बनकर नहीं रह सकती, यह मेरा स्वभाव नहीं। मैं हमेशा कुछ न कुछ प्रोडक्टिव करते रहना चाहती हूँ। बचपन से यही मेरा स्वभाव रहा है। इसके लिए थोड़ी मेहनत और समय की जद्दोजहद होती है, लेकिन मैनेज हो जाता है। रात्रि के दो-एक घंटे मैं अपने लिए रखती हूँ।
सवाल – आपकी हालिया किताब ‘मैं से माँ तक’ गर्भधारण से माँ बनने तक एक स्त्री के जीवन की चुनौतियों की कथा कहती है। कहानी-संग्रह से सीधे ऐसे विषय पर कथेतर साहित्य लिखने की कैसे सूझी?
अंकिता – उस दौर को जी रही थी, और अपने आसपास स्त्रियों को उस कठिन दौर जूझते देख रही थी। माहौल में उनके प्रति एक ढर्रे वाला रवैया देख रही थी तो लगा इन सब बातों को लिख देना चाहिए। बताना चाहिए कि यह महज़ एक ज़िम्मेदारी नहीं जिसे अन्य की तरह बस निभा दिया जाएगा, बल्कि यह सृजन है, एक सुन्दर सृजन। एक मनुष्य ही काफी है पूरी धरती को बर्बाद करने के लिए काफी है, ऐसे में हम उस मनुष्य का जन्म सिर्फ एक काम के रूप में कैसे देख सकते हैं। हमें उसे सुन्दर बनाना है, ताकि वह धरती के विनाश नहीं बल्कि उसे सुन्दर बनाने की दिशा में कार्य करे। यही सब विचार उस किताब के जनक हैं।
सवाल – नए लेखकों पर एक आरोप लगता है कि वे पढ़ते नहीं हैं। आप के पास तो समय भी कम होता होगा, पढ़ने को कुछ समय दे पाती हैं?
अंकिता – जैसा कि मैं ऊपर बता चुकी हूँ, पिछले कुछ वर्षों से अब पढ़ने की लत लग चुकी है। मैं अपने लिए जो घंटे सुरक्षित रखती हूँ उसमें यदि कुछ लिख नहीं रही होती हूँ तो पढ़ रही होती हूँ, और यह दोनों नहीं कर रही होती हूँ तो कुछ अच्छा देख रही होती हूँ।
सवाल – आपके प्रिय लेखक/लेखिका?
अंकिता – यह बहुत कठिन सवाल है। नाम बहुत हैं, पुराने में, राही मासूम रज़ा, यशपाल, आचार्य हज़ारी प्रसाद, मंटो, शिवानी, इस्मत आपा, राहुल संकृत्यायन, जयशंकर प्रसाद, रेणु, कुलदीप नैय्यर, और भी हैं, पर उनके नाम अभी ज़ुबान पर नहीं आ रहे, वैसे याद हैं।
समकालीन वरिष्ठों में, ममता कालिया जी, प्रभात रंजन जी, गीता श्री जी, मनीषा कुलश्रेष्ठ जी, गौतम राजऋषि जी, कमलाकांत त्रिपाठी जी, यतीन्द्र मिश्र जी, त्रिलोक नाथ पाण्डेय जी, इनमें भी और नाम हैं लेकिन फ़िलहाल यही याद आ रहे हैं।
युवाओं में, सुशोभित सिंह सक्तावत, नवीन चौधरी, भगवंत अनमोल, गौरव सोलंकी, प्रवीण झा,  आज़म-अकबर क़ादरी, पूनम दुबे, अमित तिवारी आदि। कई नाम छूट गए हैं और लिस्ट बहुत लम्बी है।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

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