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डॉ. विमलेश शर्मा
दलित साहित्य की अपनी वैचारिकी है जो इसे विशेष बनाती है। बहिष्कृत समाज के नायक की भाषा सौन्दर्य के परम्परागत मानकों के आधार पर तय नहीं की जा सकती। इस लेखन में यथार्थ का तीव्र स्वर और निषेध के प्रति आक्रोश है । वेदना,व्यथा औऱ असंतोष की अभिव्यक्ति के कारण भाषा के संदर्भ में दलित साहित्यकार बुनावट से कोसों दूर है। यथार्थ चित्रण का आग्रही दलित साहित्य लोक से जुड़े हुए देशज शब्दों में अपनी अभिव्यक्ति देता है।वह छद्म की भाषा और भाषा के छद्म से समान दूरी बनाए रखता है। इस कविता में मानवीय भाव, सहानुभूति, प्रगतिशील दृष्टि और सामाजिक विकृतियों के प्रति आक्रोश झलकता हुआ दिखाई देता है।
दलित साहित्य पर समय-समय पर अनेक आक्षेप लगते रहे हैं कि क्या दलित साहित्य अश्लील साहित्य है, दोयम है? दलित साहित्य सहानुभूति का साहित्य है या स्वानुभूति का? अब तक की परिपाटी रही है कि हिन्दी साहित्य के मूल्यांकन के लिए संस्कृत काव्यशास्त्र के मानदण्डों को आधार बनाया गया। मुंशी प्रेमचंद नये सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता पर लिखते हैं-“हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो,जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति, संघर्ष औऱ बैचेनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”(हिन्दी दलित कविता- डॉ इकरार अहमद, वाड़मय बुक्स, सं.-2014, अलीगढ़,पृ.15) भारतीय साहित्य की सैद्धान्तिक परिपाटी को पहली बार प्रेमचंद ने बदलने का प्रयास किया। दलित जन की स्थापना के लिए सर्वथा नए सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता थी। इस नए सौन्दर्यशास्त्र ने शिल्प की अपेक्षा कथ्य पर जोर दिया। हालाँकि कलावादियों ने, आलोचकों ने इन जनवादी मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगाया कि वस्तु तत्त्व एवं भावना को प्रधानता देने पर कलातत्त्व क्षीण हो जाएगा; परन्तु यह साहित्य मुक्तिबोध के विचार का अनुसरण करता हुआ आगे बढ़ता रहा-“हमें साहित्यिक मापजोख दो दृष्टियों से करना चाहिए , एक रूप की दृष्टि से, दूसरा वस्तु तत्व की दृष्टि से। वस्तु तत्त्व में इतनी शक्ति होती है कि वह स्वयं अपने रूप को लेकर आता है। अतएव मुख्यतः हमारे लिए वस्तु तत्त्व प्रधान हो जाता है।”1 इसी जनवादी सौन्दर्यशास्त्र पर विचार करते हुए चीनी मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्री ‘याओ वेन युआंग ’सृजनात्मक सौन्दर्यशास्त्र की तीन प्रमुख समस्याएँ बतलाते हैं-
“1.सौन्दर्यशास्त्र की पहली समस्या जनता के जीवन में सुन्दर औऱ असुन्दर का अध्ययन करना अर्थात् सुन्दर-असुन्दर के अन्तर्विरोध का अध्ययन करना है।
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कला के सामान्य नियमों का अध्ययन करना जो यथार्थ को ही एक उच्चतर धरातल पर प्रतिबिंबित करते हैं अर्थात् सामाजिक जीवन एवं कलाकृतियों में सौन्दर्य के अंतर्विरोध का अध्ययन करना दूसरी समस्या है।
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सौन्दर्यशास्त्र की तीसरी सबसे बड़ी समस्या सौन्दर्य के रूप और विषयवस्तु का अध्ययन अर्थात् स्वयं वस्तुओं में सुंदर-असुंदर,सत्य-असत्य आदि के अंतर्विरोधों का अध्ययन करना है।”2