‘वाङ्मय’ पत्रिका के सम्पादक डॉ. एम. फ़ीरोज़ खान एक चर्चित सम्पादक हैं। आप हाशिए के समाज के लिए सदैव तत्पर रहे हैं तथा उन लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए साहित्य के माध्यम से पुरज़ोर कोशिश भी कर रहे हैं। आपने किन्नर विमर्श, आदिवासी विमर्श, मुस्लिम विमर्श के साथ-साथ अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों पर आधारित ‘वाङ्मय’ पत्रिका के विशेषांक समय-समय पर प्रकाशित और संपादित किए हैं, जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी साहित्य जगत् में एक विशिष्ट चिंतनरेखा और सृजन संसार की संसृष्टि की है। हिन्दी साहित्य में शोधकार्य के प्रति आपका समर्पण उल्लेखनीय है। शोधछात्रों की सर्वविध सहायता करने में आप सदैव तत्पर रहते हैं। ऐसे व्यक्तित्व के धनी डॉ. एम. फ़ीरोज़ खान से डॉ. कामिनी की बातचीत।
मूल आलोचनात्मक ग्रंथ: हिन्दी के मुस्लिम उपन्यासकार-2011, मुस्लिम विमर्श साहित्य के आइने में– 2012
सम्पादित: हिन्दी साक्षात्कार: उद्भव और विकास-2007, हिन्दी के मुस्लिम कथाकार– 2009, नई सदी में कबीर-2009, नासिरा शर्मा: एक मूल्यांकन-2010, नारी विमर्श: दशा और दिशा-2010, दलित विमर्श और हम-2010, कथाकार कुसुम अंसल: एक मूल्यांकन-2011, हिन्दी के मुस्लिम कथाकार: शानी-2012, साहित्य के आइने में आदिवासी विमर्श-2015, आदिवासी साहित्य: दशा एवं दिशा-2015, राही मासूम रज़ा और बदीउज़्ज़माँ: मूल्यांकन के विविध आयाम-2015, आदिवासी जीवन की हक़ीकत: उपन्यासों के आईने में-2016, कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह: मूल्यांकन के विविध आयाम-2016, हिंदी उपन्यास के शिखर-2017, हिंदी काव्य के विविध रूप-2017, थर्ड जेण्डर: अनूदित कहानियाँ-2017, थर्ड जेण्डर: कथा आलोचना-2017, प्रवासी महिला कथाकार (प्रथम एवं चर्चित कहानियाँ)-2018, आदिवासी चर्चित कहानियाँ-2018, थर्ड जेण्डर: हिंदी कहानियाँ-2018, हम भी इंसान हैं (कहानी संग्रह)-2018, थर्ड जेण्डर पर केन्द्रित हिंदी का प्रथम उपन्यास-2018, थर्ड जेण्डर और ज़िंदगी 50-50 -2018, थर्ड जेण्डर और साहित्य-2018, हमख़्याल (कहानी संग्रह)-2018, थर्ड जेण्डर: अतीत और वर्तमान (भाग 1,2)-2021, किन्नर कथा: तीसरी दुनिया का सच-2019, थर्ड जेण्डर: आत्मकथा और जीवन संघर्ष-2019, दरमियाना: आधी हकीकत आधा फ़साना-2019, प्रवासी साहित्य की हक़ीकत-2019, सिनेमा की निगाह में थर्ड जेण्डर-2020, समुंदर पार में भारतीय मन प्रवासी साहित्यकार पुष्पिता अवस्थी-2020, प्रवासी साहित्य-2021, प्रवासी मन और प्रवासी महिला कहानीकार-2021, प्रवासी महिला कहानीकार: स्त्री विमर्श की कहानियाँ-2021, हौसला (दिव्यांग जीवन पर केन्द्रित कहानियाँ)-2021, तवायफ (वेश्या पर केन्द्रित कहानियाँ)-2021, प्रवासी महिला उपन्यासकार-2021, प्रवासी साहित्य (कहानी/कविता एवं समीक्षा)-2022, वैश्विक स्वप्नद्रष्टा–तेजेन्द्र शर्मा-2022, वैश्विक परिदृश्य के साहित्यकार–तेजेन्द्र शर्मा-2022।
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आपका नाम, जन्मस्थान, शिक्षा, परिवार एवं साहित्यिक पृष्ठभूमि के बारे में बताएँ ?
मेरा नाम फ़ीरोज़ है और मैं रामपुर (टाण्डा–अम्बेडकरनगर) में पैदा हुआ हूँ, मेरी हाईस्कूल की पढ़ाई आदर्श जनता इण्टर काॅलेज, टाण्डा में हुई। इसके बाद ग्यारहवीं से लेकर पी–एच.डी. तक की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ से हुई। मैं अपने परिवार में सबसे बड़ा हूँ। हम लोग तीन भाई और एक बहन हैं। छोटा भाई हिंदी से पी–एच.डी. है और सबने एम.ए. तक की शिक्षा ली है। वर्तमान में जो भाई पी–एच.डी. है वो एक इण्टर काॅलेज में हिंदी का अध्यापक है। उससे छोटा भाई व्यापार करता है और छोटी बहन गृहिणी है। मेरी पत्नी डाॅ. शगुफ्ता नियाज़ (वीमेंस काॅलेज., ए.एम.यू. अलीगढ़ में असि. प्रो. हिंदी) है। अगर देखा जाए तो हम लोगों का परिवार हिंदी परिवार है। जहाँ तक साहित्यिक पृष्ठभूमि की बात है तो मैं आपको बता दूँ कि मेरे घर में ऐसा कोई माहौल नहीं था। मुझसे पहले मेरे घर के अधिकांश लोग हाईस्कूल पास थे। लेकिन मेरे पिता जी ने मुझे पढ़ाया और मैं आगे पढ़ता गया और पी–एच.डी. तक की उपाधि प्राप्त की। अपनी पढ़ाई के दौरान अपने सभी भाइयों को अलीगढ़ में अपने पास रखकर पढ़ाया। फिर धीरे–धीरे घर का माहौल बदल गया और आज हम तीन लोग प्राध्यापक हैं। मुझे साहित्य में रुचि एम.ए. पास करने के बाद हुई। मैं एम.ए. तक नहीं जानता था कि पत्र–पत्रिकाएँ भी होती हैं जिनमें कविता, कहानी, समीक्षा, आलेख आदि प्रकाशित होते हैं। लेकिन जब जानकारी हो गई तो उसके बाद इतनी रुचि हो गई कि आप सोच भी नहीं सकते हैं। पी–एच.डी. करने के बाद मैंने ‘वाङ्मय’ पत्रिका निकालना शुरू किया और यह लगातार आज भी निकल रही है। पत्रिका के माध्यम से मैंने अपनी पहचान बनाई और आज जो भी लोग मुझे जानते हैं, वह ‘वाङ्मय’ पत्रिका की ही देन है।
पी–एच.डी. करने के तुरंत बाद से मैंने एक सेल्फ फाइनेंस डिग्री काॅलेज में अध्यापन शुरू कर दिया था। फिर कुछ वर्षों बाद कानपुर में (हलीम मुस्लिम पी.जी. काॅलेज) स्थायी नौकरी लग गई। स्थायी नौकरी का जो एक सुख होता है वह मिल रहा है लेकिन परिवार से अलग जो रहना पड़ रहा है, वह दुःख भी है।
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आपकी प्रिय विधा कौन–सी है और क्यों ?
प्रिय विधा मेरी गद्य साहित्य है और मुझे शुरू से ही गद्य पढ़ना ही पसन्द है और जहाँ तक क्यों का सवाल है, वह थोड़ा मुश्किल सवाल है। फिर भी मैं आपको बताना चाहता हूँ कि गद्य एक आम पाठक भी पढ़ सकता है चाहे वह साहित्यिक हो या न हो, फिर भी कुछ–न–कुछ समझ जरूर पायेगा। कविता में ऐसा नहीं है। अब कुछ लोगों को कविता पसंद है तो वह अपने तरीके से बात करेंगे। सबका दृष्टिकोण अलग–अलग होता है। मुझे गद्य ही पसंद है इसलिए मैंने अपने पत्रिका में गद्य को ज्यादा स्पेस दिया है।
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आपने अपने सम्पादन में काफी नये विमर्शों पर काम किया है लेकिन आपने हिंदी साहित्य जगत् में सर्वाधिक काम किन्नर विमर्श पर किया है। इसकी प्रेरणा कहाँ से मिली ? उनके प्रति रूझान कहाँ से आया है? इसकी शुरूआत कब और कैसे हुई? इनके सम्पादन में आपको किन–किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
‘वाङ्मय’ पत्रिका हाशिए के लोगों पर ज़्यादा काम कर रही है। ‘वाङ्मय’ पत्रिका का जब पहला अंक निकला था तभी उसी अंक की चर्चा ‘हंस’ पत्रिका में हुई, उस समय राजेंद्र यादव जी जीवित थे। पहले मैं मुस्लिम विमर्श पर काम करना चाहता था। कुछ अंक निकाले भी। मुस्लिम लेखकों के ऊपर अंक निकालना बहुत मुश्किल हो रहा था क्योंकि उनके घर के लोग साहित्यिक सहयोग नहीं दे पा रहे थे। कुछ मुस्लिम लेखकों के परिवार वालों के पास एक फोटो के अलावा दूसरा फोटो भी नहीं मिल रहा था। उनकी बातों को सुनकर मुझे बहुत अफ़सोस होता था। खैर! फिर भी मैंने कोशिश की और कुछ अंक मुस्लिम लेखकों पर निकाले। (गुलशेर खाँ ‘शानी’, बदीउज़्ज़माँ, हिंदी के मुस्लिम कथाकार, राही मासूम रज़ा, नासिरा शर्मा और अब्दुल बिस्मिल्लाह) इनमें से कुछ अंकों की चर्चा भी खूब हुई। फिर मैंने दो वर्ष तक आदिवासी विमर्श पर केन्द्रित आलोचनात्मक अंक निकाले और उसी के बाद एक आदिवासी कहानी अंक निकाला। इन सभी आदिवासी अंकों की माँग आज भी है।
सितम्बर 2016 से किन्नरों के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। लेकिन वाङ्मय पत्रिका से पहले ‘मनमीत’ (2014) और ‘जनकृति’ पत्रिका का अंक आ चुका था। उसी के बाद एक और पत्रिका का अंक आया था लेकिन पूरी पत्रिका किन्नरों पर केंद्रित नहीं थी।
अब मैं आपको ‘वाङ्मय’ पत्रिका के किन्नर अंक के बारे में बता दूँ। जब मेरे पास वी.पी. सिंह जी आए और कहा कि एक अंक किन्नर पर निकालो तो मैंने उनको मना कर दिया था क्योंकि उस समय मेरा कोई रूझान नहीं था। मैंने सोचा कि उनके ऊपर सामग्री कहाँ से आएगी और उन पर कौन लिखेगा। लेकिन उस समय जम्मू विश्वविद्यालय की शोधार्थी नीलम देवी से बात हुई तो कुछ–कुछ दिमाग में आने लगा और इण्टरनेट पर खोज की, फिर तो लगा कि अब काम किया जा सकता है। थोड़ी– सी मेहनत की तो कहानियाँ मिलना शुरू हो गई। पहले अंक के लिए 20-22 कहानियाँ मिलीं। उसमें से कुछ कहानियाँ पहले प्रकाशित हो चुकी थीं। कुछ अप्रकाशित मिल गईं। 160 पेज का अंक बाज़ार में आ गया और उसकी चर्चा भी हुई। उसी दौरान पंजाबी में एक पुस्तक आई जो थर्ड जेण्डर कहानियों पर केंद्रित थी।उसमें सोलह कहानियाँ संकलित थीं। उन कहानियों को मैंने कई लोगों से अनुवाद करवाया और तीन महीने के अंदर सभी कहानियों का अनुवाद हो गया। फिर उपन्यासों की खोजबीन की और उस समय तक छः-सात उपन्यासों का सृजन हो चुका था। उनको मँगवाया, फिर अपने लेखकों–समीक्षकों को भेजा लिखने के लिए और सभी ने उन पर विस्तार से लिखा। किसी लेखक, समीक्षक ने लिखने से मना नहीं किया और इस तरह अंक तैयार हो गया। किन्नरों पर काम करने के दौरान मनीषा महंत (किन्नर) जी से बात हो गई और मैंने और मेरे दोस्त शमीम ने उनका इंटरव्यू लिया। किन्नरों पर अब तक इतना बड़ा साक्षात्कार किसी ने नहीं लिया है। उनसे लगभग 90-95 सवाल पूछे और उन्होंने विस्तार से सभी सवालों के ज़वाब दिए।
मुझे अभी तक किसी भी विषय पर लिखवाने में कोई समस्या नहीं आई है चाहे वो आदिवासी पर हो, चाहे वो किन्नर पर हो। मेरे जितने भी लेखक–समीक्षक हैं वो मुझे सभी मानते हैं। कभी भी मेरी बात को टालते नहीं हैं। ये सब ईश्वर की कृपा है और उन सभी का मेरे प्रति लगाव भी। बातें और भी बहुत–सी हैं। फिर कभी और विस्तार से इस पर बात करूँगा।
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राही के साहित्य के अनुवाद एवं शोध के पीछे क्या प्रेरणा रही, इस बारे में आप कुछ जानकारी साझा कीजिए ?
राही मासूम रज़ा ने उर्दू में बहुत सारे उपन्यास लिखे हैं, लेकिन यह उपन्यास उन्होंने अपने नाम से नहीं लिखे हैं। वह छद्म नाम से लिखा करते थे। हिंदी में इससे पहले कई और लेखक भी हैं जो छद्म नामों से लिखा करते थे। वैसे राही ने दो नामों से लिखा था, पहला नाम शाहिद अख्तर और दूसरा नाम आफाक हैदर। इस नाम से वे ‘रूमानी दुनिया’ और ‘जासूसी दुनिया’ नामक पत्रिका में लिखा करते थे। यह पत्रिका इलाहाबाद के निकहत प्रकाशन से प्रकाशित होती थी। ‘कारोबारे तमन्ना’ और ‘कयामत’ उपन्यास मुझे राही मासूम रज़ा की धर्मपत्नी नैयर रज़ा ने उपलब्ध करवाए थे। उनका हमने लगभग एक साल में लिप्यांतरण किया और लगभग पांच वर्षों तक प्रकाशक के पास पड़ा रहा और फिर बाद में यह राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इतनी लंबी अवधि के दौरान मैं तो उन कृतियों को भूल भी गया था। साथ ही मन में यह भी संदेह था कि वे प्रकाशित हो भी पाएंगी या नहीं। पर लंबे अन्तराल के बाद ही सही, यह कार्य सम्पन्न हुआ और ये कृतियाँ अब साहित्य जगत् में हमारे सामने उपलब्ध हैं।
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राही द्वारा लिखे गए रूमानी दुनिया के उपन्यासों को उनकी चिरपरिचित सृजन शैली में समाहित करना कितना उचित होगा ?
राही उस समय जो भी लिखते थे दूसरों के नाम से लिखते थे। उसमें अपना नाम वे नहीं देना चाहते थे। उस समय राही साहब की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी क्योंकि अपनी खुद्दारी के चलते वे अपनी उच्च शिक्षा के दौरान परिवार वालों से खर्चा नहीं लेना चाहते थे। इस कारण अपनी आजीविका चलाने के लिए ऐसा लेखन किया करते थे। मेरा मानना है कि जो भी कदम राही ने उठाया वह बेहतर उठाया, क्योंकि आजीविका के लिए व्यक्ति कई तरह के काम करता है, शर्त यह है कि वह कार्य ईमानदारीपूर्वक हो और राही का यह कार्य उसी ईमानदार श्रेणी के अंदर आता है। इस कार्य से उनका थोड़ा बहुत काम चल जाता था। राही अपने लेखन में रात–दिन लगे रहते थे। रूमानी दुनिया से जुड़े हुए लगभग राही ने कुल 18 से 20 उपन्यास लिखे हैं, पर यह हमारा दुर्भाग्य है कि उनमें से कोई भी उपन्यास इन दो (कयामत और कारोबारे तमन्ना) को छोड़कर हमारे पास नहीं है। एक बात और, राही साहब का जब एक हाथ थक जाता था तो दूसरे हाथ से लिखते थे। वे काफ़ी देर तक लेखन का कार्य करते रहते थे।
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विमर्श से जुड़ा एक सवाल, विमर्शों की दुनिया में मुस्लिम विमर्श कहाँ खड़ा है? क्या मुस्लिम विमर्श जैसी कोई अवधारणा वैचारिक जगत् में मौजूद है ?
मुस्लिम विमर्श साहित्य में बहुत ज्यादा स्थान नहीं बना पाया है, क्योंकि मुस्लिम विमर्श को साहित्य में स्थापित करने के लिए इसी वर्ग के साहित्यकारों को लेखन के लिए आगे आना होगा। अन्य समाज के लेखक अगर इस विषय पर लिखते हैं तो वे मौलिकता या कहें, मुस्लिम समाज की बारीकियाँ देश की जनता के सामने नहीं रख पाएंगे। मुस्लिम जीवन पद्धति के बारे में हमारे समाज में अभी तक ज़्यादा जानकारी नहीं है या कहें तो स्वयं मुस्लिम समाज के अलावा दूसरा समाज उनके बारे में बहुत कम जानता है। इसका उल्लेख ‘काला जल’ उपन्यास में सामने आता है। दुरूद और फातिया के बारे में दूसरे समाज के व्यक्ति कितना कम जानते हैं, इस संदर्भ में इस उपन्यास के अंदर कुछ उल्लेख हुआ है। ऐसे कारणों से कोई भी दूसरे धर्म का व्यक्ति किसी दूसरे धर्म के बारे में लिखना उचित नहीं समझता। अज्ञानतावश या अनजाने में अगर कुछ गलत लिख दिया जाए तो विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, इसीलिए जब तक हम समाज के बारे में खुद नहीं लिखेंगे और लोगों को अवगत नहीं कराएंगे, तब तक वह विमर्श ज्यादा समय तक नहीं चल सकता। यही परिस्थितियाँ रहीं, जिसके कारण साहित्य जगत् में मुस्लिम विमर्श एक तरह से असफल हो गया।
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समाज में एक धारणा–सी है कि मुस्लिम विमर्श की जब कभी भी बात आती है तो अक्सर संकीर्ण विचारधारा वाले आदमी उनके विमर्श को सांप्रदायिकता की आवाज़ मान लेते हैं? क्या मुस्लिम विमर्श के प्रति उपेक्षा के लिए इस कारण को भी जिम्मेदार माना जा सकता है ?
नहीं, मेरे हिसाब से ऐसा नहीं है।हो सकता है कि कुछ लोगों के ऐसे आक्षेप रहे हों पर हम खुद ही अगर अपने समाज के बारे में नहीं लिखेंगे, उनकी विशेषताओं, उनके रीति–रिवाजों का उल्लेख नहीं करेंगे तो और कौन करेगा ? मुस्लिम लेखक भी ईर्ष्या से मुक्त नहीं हैं। वे भी ये सोचते हैं कि अगर हम किसी लेखक पर विमर्श या शोध करेंगे तो वह प्रसिद्धि पा जाएगा, यह भी एक कारण है। मुसलमानों पर भी वे अपने–अपने लोगों को लेकर अलग–अलग धारणाएँ, अलग–अलग विचारधाराएँ लेकर चलते हैं। वे उन्हीं विचारधाराओं को आधार बनाकर अपनी रचनाओं में वैसे ही पात्रों का सृजन भी करते है।
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आपने जो मुस्लिम विमर्श के ऊपर काम किया है, क्या आपने भी इन्हीं सब बिन्दुओं को ध्यान में रखकर कार्य किया ?
मैंने सन् 1998 में ‘मुस्लिम मानस और हिंदी उपन्यास’ विषय पर अपना शोधकार्य प्रारंभ किया। उस समय मुस्लिम कथाकारों के ऊपर जब किताबें देख रहा था, तब मुझे मुस्लिम साहित्यकारों से जुड़ी किताबें नहीं मिल पा रही थीं। जगह–जगह पर मुझे भटकना पड़ा। जब लेखकों से सम्पर्क किया, तब स्वयं लेखक भी पुस्तकें उपलब्ध नहीं करवा पा रहे थे। कई साहित्यकारों का देहान्त हो चुका था जैसे राही मासूम रज़ा। राही की रचनाएँ तो मिल गई थीं, पर शानी साहब की रचनाएँ नहीं मिल पा रही थीं। इसके बाद धीरे–धीरे कुछ प्रयास करने के बाद मुझे उनकी रचनाएँ मिलीं जिनके आधार पर मैंने अपना शोधग्रंथ पूरा किया। इसके बाद हमने ‘वाङ्मय’ पत्रिका का गुलशेर खाँ ‘शानी’ अंक निकाला तो उनसे जुड़ी हुई कई जानकारियाँ विभिन्न पत्रिकाओं के माध्यम से सामने आईं जिसमें शानी साहब का साक्षात्कार विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस साक्षात्कार में नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, शानी साहब के साथ विश्वनाथ त्रिपाठी जी की बहस है। इस बहस में यह मुद्दा उठा कि हिंदी उपन्यासों में या कथा साहित्य में मुस्लिम पात्र एक तरह से गायब है। इस वार्ता में सभी साहित्यकार इस तथ्य से सहमत होते हुए दिखते हैं। हकीकत भी है, क्योंकि दूसरे लोग अगर मुस्लिम समाज के बारे में लिखते हैं, वह भी बिना जानकारी के तो वे अच्छे पात्रों की खोज नहीं कर पाते हैं, जिस कारण वे उन पात्रों को लाना उचित भी नहीं समझते। यह एक डर उनमें देखा जा सकता है। इस डर के पीछे सांप्रदायिकता भी एक कारण है।
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मुस्लिम समाज में महिलाओं को क्या–क्या अधिकार मिला है ? विस्तार से बताएं ?
मुस्लिम समाज में महिलाओं को संपत्ति का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, खुला का अधिकार, स्वतंत्र या व्यक्तिगत रूप से अपनी राय व्यक्त करने की स्वतन्त्रता जैसे अधिकार मिले हैं। अगर किसी औरत को लगता है कि वह किसी कारण से पति के साथ नहीं रह सकती है तो इस्लाम उसे अपने पति से अलग होने या तलाक़ लेने का अधिकार देता है। शादी के बाद जब पत्नी को पता चले कि उसका पति नपुंसक है या पागल है या दाम्पत्य दायित्वों के पालन में असफल है तो इस स्थिति में पत्नी अपने पति से ‘खुला’ ले सकती है। यह उसका मौलिक अधिकार है।
इस्लाम महिलाओं को पति से ‘मेहर’ के रूप में एक रकम लेने का अधिकार देता है। पत्नी द्वारा माँगी जाने वाली इस मेहर की राशि की कोई सीमा तय नहीं है। कोई भी ‘निकाह’ या इस्लामी विवाह तब तक मान्य नहीं होता है जब तक कि पति अपनी पत्नी को मेहर देने के लिए सहमत न हो जाए। इस्लाम में महिला पर किसी भी प्रकार का आर्थिक दायित्व नहीं डाला गया है। इस्लाम किसी महिला को नौकरी या व्यवसाय करने से नहीं रोकता है। महिला अपनी कमाई संपत्ति और अपने माता–पिता से विरासत में मिली संपत्ति की मालिक होती है। इस्लामी कानून के तहत पति अपनी पत्नी को उसकी संपत्ति अपने साथ साझा करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है।
परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी अधिकार को जानने-समझने और फिर उसे पाने के लिए शिक्षित होना बहुत जरूरी है। अशिक्षा के कारण मुस्लिम औरतों में इतना आत्मविश्वास नहीं आ पाता है कि वे अपने अधिकारों की माँग कर सकें। चूँकि उन्होंने अपने धर्म का अध्ययन ठीक से नहीं किया है। (क़ुरआन शरीफ़ तो अधिकांश लोग पढ़ते हैं लेकिन उसे समझते नहीं हैं) इसलिए उनके द्वारा उठाये गए किसी क़दम को धर्म के विरुद्ध कहकर उन्हें चहारदीवारी के अंदर कैद कर दिया जाता है। शिक्षित न होने के कारण वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी नहीं रह पाती हैं। वर्तमान समय में मुस्लिम महिलाएँ धीरे–धीरे जागरूक भी हो रही हैं और अपने हक़ के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ रही हैं।
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मुस्लिम महिलाएँ लेखन के क्षेत्र में कम हैं, इसके क्या कारण हैं ?
मुस्लिम महिलाएँ लेखन के क्षेत्र में कम हैं, यह बात बिल्कुल सही है। अगर हम हिंदी साहित्य के क्षेत्र में देखते हैं तो यहाँ भी महिलाएँ कम ही नज़र आ रही हैं। हिंदी लेखन में नासिरा शर्मा, मेहरून्निसा परवेज़ का मुख्य रूप से नाम आता है। इसके बाद सादिका नवाब सहर, तसनीम खान, तराना परवीन, ज़ेबा रशीद और हुस्न तबस्सुम निहाँ आदि का नाम लिया जा सकता है। वैसे मुस्लिम समाज के लोगों की मातृभाषा उर्दू है। उर्दू में लिखने वालों की संख्या बहुत है। इनमें इस्मत चुग़ताई, कुर्रतुल–ऐन–हैदर, रशीद जहाँ, जिलानी बानो, किश्वर नाहिद, रज़िया सज्जाद ज़हीर, मुमताज शीरीन, सलमा सिद्दीकी, ज़किया मशहदी, शकीला अख्तर का नाम प्रमुख है। इनके अलावा भी और बहुत से नाम हैं। मुस्लिम समाज में नारी को साहित्य और कला के क्षेत्र में बहुत कम स्वीकृति मिल पाती है। अगर थोड़ा बहुत स्वीकृति मिली है तो चिकित्सा और अध्यापन के क्षेत्र में। इसके अलावा अगर कोई दूसरा काम वह करना चाहती भी है तो घर वाले उसको मना कर देते हैं।इन सबके अलावा और भी कई दिक्कते हैं। घर–परिवार में देखा जाए तो महिलाओं के पास ज्यादा ज़िम्मेदारी होती है जिसकी वजह से बहुत–सी महिलाएँ लेखन के क्षेत्र में नहीं आ पाती हैं। घर का पूरा दारोमदार उन्हीं के कंधों पर टिका रहता है।
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क्या इस संवादहीनता के कारण समाज में यह बात उभर रही है कि हम एक–दूसरे समाज के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं जिससे सामाजिक समरसता का कार्य अवरुद्ध–सा हो गया है ?
सर अकेले चलने पर ही दुनिया में हम कुछ कर सकते हैं जब अपने हमें गिराते हैं जब सपने हमारे टूटते हैं तभी हम कुछ कर पाते हैं इस सच्चाई को कोई इनकार नहीं कर सकता है कि हम दुनिया में अकेले आए और अकेले लड़ना पड़ेगा और अकेले आगे कदम रखना पड़ेगा और अकेले ही जीत हासिल करना पड़ेगा तालियां बजाने को तो लोग जरूर आएं आपने जो किया जो सहा जो समझा जो कर रहे हैं अद्वितीय है आप एक मिसाल है युवा वर्ग के आपका यह सेवा भाव यूं ही चलता रहे
थैंक्स
फिरोज भाई ने हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अभी हाल ही में उन्होंने कश्मीर पर केंद्रित अंक भी निकाला है जो पहले मैंने किसी पत्रिका को निकालते नहीं देखा है
थैंक्स
जी बिल्कुल।
थैंक्स
बहुत ज्ञानवर्धक साक्षात्कार।फिरोज जी सेल्फ मेड व्यक्तित्व हैं।ऐसा जीवन साथी देने के लिए ईश्वर का धन्यवाद ।
थैंक्स
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
आप ख़ुद तो आगे बढे ही साथ ही अपने भाई बहन एवं अन्य लोगों का भी बहुत खूब मार्गदर्शन किया और यह कार्य निरंतर जारी है परिधि के लोगों को केंद्र में लाने के लिए भी आपका प्रयास विमर्श के माध्यम से जारी है हम आपके इस सेवा भाव को नमन करते हैं
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सबाल्टर्न डिसकोर्स पर अगर सबसे ज्यादा काम करने वाले लोगों का नाम लिया जाएगा तो उसमें सर का नाम अग्रणी होगा। भारत में सर ने इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा काम किया है और उन समस्त समाजों के प्रति लोगों के मन, मस्तिष्क को सकारात्मकता से भर दिया जिससे आलोचनात्मक चेतना का निर्माण हुआ है। यह चेतना उन सभी समाजों को मुख्यधारा में लाने का कार्य कर रही है। सरकार की पॉलिसी फ्रेमिंग में भी इसका प्रभाव दिखाई दे रहा है और सरकार द्वारा इनके लिए सार्थक प्रयास किए जा रहे हैं।इसके लिए भारतीय जगत फिरोज सरकार हृदय से आभारी है।
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बहुत खूब सर! आपका यह परिचय और कही हुई सारी बातें हम सभी को कुछ न कुछ सिखाती हैं, और आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं।
थैंक्स
डॉ.फीरोज को कई वर्षों से वांग्मय पत्रिका के माध्यम से पढ़ रही हूं, जान रही हूं । इस साक्षात्कार के माध्यम से साहित्य, शोध, मुस्लिम विमर्श, किन्नर विमर्श के संबंध में उनकी महत्वपूर्ण विचारधारा से पुनः अवगत होने का अवसर मिला। हिंदी साहित्य के क्षेत्र में उनका योगदान वर्तमान पीढ़ी के लिए अत्यंत प्रेरणादायक है। उनके लेखन और संपादन की यह विशेषता है कि वे हर बार किसी नए विषय को सामने लाते हैं जिस पर बातचीत की अपेक्षा रहती है । हम कई लेखक उनके संपादन में या यूं कहें उनके मार्गदर्शन में अलग-अलग नवीन विषयों पर लिखने का अवसर पा रहे हैं ।उनके संपादन कार्य और साहित्यिक श योगदान के लिए हार्दिक शुभकामनाएं…
थैंक्स
समकालीन हिंदी साहित्य विशेषकर विमर्शों की दुनिया में आपका योगदान अतुलनीय है। अगर आज हिंदी साहित्य में किन्नर समुदाय के प्रति लोगों कि संवेदनाओं का विकास हो रहा है तो उसका एक मात्र कारण आप हैं। एक प्रोफेसर के पद पर होते हुए भी समाज और साहित्य के लिए इतना सक्रिय रहना और लगातार प्रयासों से इन विमर्शों में जान फूंकते रहना , आपके जूझारु और जिवंत व्यक्तित्व का प्रमाण है।
धन्यवाद सर।
थैंक्स
फिरोज जी हार्दिक शुभ कामनाएं
very inspiring sir…proud of you
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आपका व्यक्तित्व शोधकर्ताओं को सदैव कुछ करने के लिए प्रभावित करता है।
थैंक्स
अकेला चलो रे कारवाँ में तब्दिल हुआ।यह आपके जीवन की बहुत बडी उपलब्धि है। आपका अभिनंदन और ढेर सारी शुभकामनाएँ।
थैंक्स
प्रभावी भेंटवार्ता, निश्चित तौर पर अकेले ही कोई शुरुआत करता है और कारवाँ बढ़ता है। और वही प्रयास सफलता के रूप में दूसरों के लिए आदर्श बनता है। फ़िरोज़ सर अपने इसी आदर्श रूप में हमारे लिए प्रेरणामयी हैं। शुभेच्छा सहित सादर प्रणाम।
थैंक्स
डॉ. फ़ीरोज़ एक सम्पादक के रूप में अप्रतिम व्यक्तित्व के धनी हैं. लगातार विशेषांक के माध्यम से नये – नये विमर्श को सामने लाते रहे हैं. किन्नर और प्रवासी को विमर्श के केंद्र में लाने का इन्होने महत्वपूर्ण कार्य किया है.
थैंक्स
आपसे मिलकर हमेशा सुखद अनुभूति होती है। आपका व्यक्तित्व नितांत सहज, सरल है और आप प्रतिदिन कुछ नया करने के उधेड़बुन प्रयासरत रहते हैं। आपका यही व्यक्तित्व हम जैसे शोधार्थियों को कुछ कर गुजरने के लिए प्रभावित करते हैं। आपके भावी जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं कि आप इसी तरह सृजनरत रहें।
थैंक्स
Well done keep it up
फीरोज़ सर को मैं बहुत कम दिनों से जानता हूँ पर इतने कम दिनों में सर से मैँ काफी प्रभावित हूँ और मैं मानता हूँ कि मैं अकेला ऐसा व्यक्ति नहीं हूँ जो इनसे इतने कम दिनों में इनसे प्रभावित हो गया । दरअसल उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है जिससे कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। वे हमेशा विद्यार्थियों के मदद करने के लिए आतुर रहते हैं। वे हमेशा हमारा मार्गदर्शन व हमें प्रेरित करते रहते हैं। और रही बात अकेले चलने की तो कुछ हासिल करने के लिए जिस मंजिल तक हमें पहुँचना है वहाँ तक पहुँचने के लिए, लक्ष्य प्राप्ति हेतु अकेला चलना ज़रुरी है तभी हम दुनिया के भीड़ में रहकर दुनिया से अलग पहचान बना पायेंगे और दुनिया को अलग दॄष्टि से देख पायेंगे और उन सभी को जो ना चाहते भी दुनिया से कटकर अकेले चलने को मजबूर हो जाते हैं उनका हमदर्द बन पायेंगे। जिसको दुनिया हमेशा अपने आँखों से ओझल करती आयी हैं उन सब पर सूरज के प्रकाश का एक तिनका डाल पायेंगे ताकि उन सब पर सबकी नज़र पड़े और वे भी उनको अपने साथ होने का मौका दे। अत: यह फीरोज़ सर ने बखूबी कर दिखाया है। उनके इस प्रयास को सादर प्रणाम।
मुझे इस संदर्भ में बांग्ला कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक पंक्ति अनायास ही याद आ गयी –
“जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसे
तोबे एकला चलो रे
एकला चलो, एकला चलो
एकला चलो, एकला चलो ” ||
थैंक्स
हम जैसे युवा शोधार्थियों के लिए फ़िरोज़ सर की साहित्यिक यात्रा को जानना बेहद प्रेरणादायी है। साहित्य-समाज में उभरते विमर्शों पर फ़िरोज़ सर की विशेष पकड़ ही उनके लेखन कार्य की पक्षधरता को स्पष्ट करती है। आपके सृजनरत जीवन के लिए अनेक मंगलकामनाएँ।
थैंक्स
हाशिये के समाज के लिए आपके द्वारा किया गया कार्य अत्यंत साहसी, सराहनीय,और अभिनंदनीय हैं।
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बंधुवर आपने डॉ० कामिनी जी द्वारा पूछे गए सभी सवालों का बहुत ही माकूल जवाब दिया है। आपकी पत्रिका के पाठक और सुधी आलोचक इस तथ्य से भलीभाँति अवगत हैं कि आपने आदिवासी, दलित, वृद्ध और थर्डजेण्डर विषयक विभिन्न विमर्शों को विशिष्ट आयाम दिया है। कुशल और सफल व्यक्ति सफर एकला शुरू करता है, क्रमशः कारवाँ बनता जाता है। जीवन में अनेक संघर्ष करते हुए आज आप जिस मुकाम पर पहुँचे हैं, वह काबिलेतारीफ है। यथार्थ यह है कि आपने अनेक आलोचकों, शोधार्थियों को आलोचना व शोध के वास्तविक रूप से परिचित भी कराया है। आपकी कर्मनिष्ठा और रचनाधर्मिता को सादर अभिवादन।
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डॉरोज अहमद और वाङ्गमय पत्रिका एक दूसरे के बिना अधूरा है।आपका साहित्य के प्रति समर्पण और शोधार्थियों के प्रति सहयोग का मैं कायल हूँ। आपकी सुविधवंचित लोगों के प्रति पैनी दृष्टि बनी हुई है, जिससे आने वाला समय में उनका भला होना संभव है। आप इसी तरह साहित्य की सेवा करते रहें क्योंकि आपसे कई लोग साहित्य के क्षेत्र में ऊर्जावान होते है।
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जिन मूल्यों और संवेदनाओं को हम अपने बच्चों में डालने के लिए हमेशा शिक्षा की ओर देखते हैं उस महत्वपूर्ण कार्य को वांग्मय पत्रिका के माध्यम से फिरोज सर प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष तरीके चुपचाप कर रहे हैं ।उनकी यह पत्रिका मूल्यों का संचार तो कर ही रही है साथ ही हाशिए के समाज के लिए जिन संवेदना की कमी हो रही थी उसको जनमानस में रोपने का कार्य भी बहुत अच्छी तरीके से कर रही है।
इस इसके लिए सर को बहुत-बहुत धन्यवाद ,
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फिरोज भाई अपने आप मे एक शोध-संस्थान हैं! हिंदी का अकादमिक जगत आपसे बहुत लाभान्वित हो रहा है। आपकी ऊर्जा यूँ ही बरकार रहे। आपको हार्दिक शुभकामनाएं
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फ़ीरोज़ भाई ने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में अनूठा कार्य किया है। सच तो यह है कि फ़ीरोज़ भाई ने इतिहास रच डाला है। वांग्मय पत्रिका और उसके विशेषांक पठनीय होने के साथ ही संग्रहणीय भी हैं। फ़ीरोज़ भाई की लगन और निष्ठा का ही परिणाम है कि उन्होंने विभिन्न विमर्शों पर लिखने के लिए कई नवोदित लेखकों को भी प्रेरित किया जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण मैं हूँ। बिना किसी भेद भाव या पूर्वाग्रह के फ़ीरोज़ भाई सतत साहित्य सेवा में लगे हुए हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि वे यूँ ही सतत सक्रिय रहें तथा हिंदी की सेवा करते रहें।
डॉ० लवलेश दत्त
बरेली
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फिरोज सर , आपका व्यक्तित्व और कार्य शैली दोनों ही हम शोधार्थियों को प्रेरित करने वाला है। आपने विभिन्न विषयों पर विशेषांक निकालकर उन विषयों को भी साहित्यिक पटल पर रखा जिन पर बहुत कम चर्चा हुई है। आप हमेशा ऐसे ही हिंदी जगत को अपना योगदान देते रहें । यही कामना है । शुभेच्छा सहित सादर प्रणाम ।
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फिरोज़ सर, आपका साहित्य का प्रवास अत्यंत प्रेरणादास्पद है। साहित्य के विभिन्न विमर्शो में आपका सराहनीय कार्य रहा है जिससे हिन्दी प्रेमी लाभान्वित हो रहे हैं।
आपकी उत्तरोत्तर प्रगति के लिए अनगिनत शुभकामनाएं।
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फिरोज जी बहुत अच्छा आत्म कथ्य पढ़ने मिला अंतिम पैराग्राफ में साहित्य के कालखंडों को वर्गीकृत कर बहुत अच्छा उत्तर दिया है ।
साधुवाद
Dr Prabha mishra
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बहुत सराहनीय कार्य डॉ साहब
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डॉ. फ़िरोज़ अहमद ने जो कार्य ‘अनुसंधान’ एवं अन्य साहित्यिक गतिविधियों के द्वारा आरम्भ किया है, वह क़ाबिल ए दाद है। समाज के विविध विषयों और समस्याओं के जिस प्रकार विमर्शों के माध्यम से प्रचारित प्रसारित किया है वह कार्य अन्यत्र कम ही देख गया है।
ये वास्तव में साधुवाद के पात्र हैं। मैं अपने हृदय की ऊर्मियों से उनको शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ।
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साहित्य शिल्पी डॉ फिरोज़ अहमद भाई का अकादमिक कार्य अत्यंत सराहनीय है l हाशिए के समाज से अध्यापक, प्राध्यापक, लेखक, कवि और आलोचक के रूप में लिखने वाले समाजसेवी लेखकों को उन्होंने वांग्मय और अनुसंधान पत्रिका के माध्यम से एक पुख्ता मंच दिया है l स्वार्थ और भाई भतीजावाद की गंदी राजनीति करनेवालों को उन्होंने एक मजबूत विकल्प तैयार किया है l उनका कार्य हमेशा साहित्य प्रेमियों को प्रेरणादाई रहा है l उनके सकारात्मक कार्य को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं l
डॉ भगवान गव्हाड़े “अजय”
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बहुत ही ज्ञानवर्धक
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लाज़वाब सर !
आप सच्चे अर्थों में ‘गुदड़ी के लाल’ हैं । आपने अपने गांव रामपुर, टाण्डा, अम्बेडकर नगर से लेकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तक की उच्च शिक्षा के लिए जो श्रम, साधना और संघर्ष किया है, वह अत्यंत विस्मयकारी है। आपकी यह शैक्षिक यात्रा शून्य से शिखर तक की यात्रा है। हाशिये के समाज के दुःख-दर्द को विभिन्न विमर्शों के माध्यम से ‘वाङ्गमय’ पत्रिका में आपने जो आवाज़ दी है, निसंदेह यह उपेक्षित वर्गों के लिए भगीरथ प्रयास है। ‘वाङ्गमय’ पत्रिका को साहित्यिक जगत में स्थापित करने का पूरा श्रेय आपके कठिन परिश्रम और दृढ़ इच्छाशक्ति को जाता है। आपकी साहित्य-साधना को पाकर हिंदी और अधिक लहलहा उठी है। उम्मीद है कि निकट भविष्य में आपकी तथा आपकी टीम की धारदार लेखनी से तराशे हुए अनेक रत्न साहित्यिक जगत को उपलब्ध हो सकेंगे।
हार्दिक बधाई और अनन्त शुभकामनाएं आदरणीय सर !
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डॉ. फ़िरोज अहमद सर को हार्दिक बधाइयॉं, अभिनंदन और हृदय पूर्वक धन्यवाद! सर ने भारतीय साहित्य में हाशिए पर धकेल दिए गए बहुत बड़े समुदाय को साहित्य लेखन और चिंतन-मंथन के केंद्र में लाने का ऐतिहासिक काम किया है। आदिवासी साहित्य, संस्कृति, इतिहास, दर्शन और परंपराओं को जिस बखूबी से वाङ्मय पत्रिका में प्रकाशित हुआ, जिससे अखिल भारतीय साहित्य और राजनीति के मंच पर चर्चा का अनिवार्य विषय बना। हमारे जैसे नव पाठक, अनुसंधानात्सुओं के लिए अत्यंत महनीय सामग्री उपलब्ध हुई। प्रायः सभी विमर्शों पर चिंतन-मंथन का उत्कृष्ट मंच आपके यहॉं निर्माण हुआ, मैं आपके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूॅं।
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आपकी उपलब्धियों के लिए बहुत बहुत बधाई सर
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बेहद खूबसूरत इंटरव्यू। काफ़ी जानकारी से भरा और सहेजने लायक़। फ़ीरोज़ साहब साहित्य के निष्काम-निस्पृह साधक हैं। उनका सिर्फ काम करने में विश्वास है, नाम कमाने और पुरस्कार की जोड़ तोड़ उन्होंने कभी नहीं की। उनका साक्षात्कार प्रकाशित करने के लिए हार्दिक साधुवाद।
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धन्यवाद
सर्वप्रथम तो डॉ फिरोज खान साहब को बहुत बहुत बधाई….जिस बेबाकी और कुशलता से आपने जवाब दिए वो मुझे एक साहित्य प्रेमी होने के नाते रूप बेहद पसंद आया …वैसे आपके जवाबों को पड़कर समझकर ये अंदाजा लगाया जा सकता है की आपको शब्दो का सही प्रयोग और विषय की गंभीरता को सरल अंदाज में बयां करने की कला न सिर्फ आती है बल्कि आप इस पारंगत है …. मैने आपको जाना जब आपके द्वारा किन्नर विमर्श पर अपनी अभिव्यक्ति के लिए आपने मुझे वांग्मय जैसे प्रतिष्ठित पत्रिका के facebook page पर लाइव शो में आमंत्रित किया …. वो दिन है और आज का दिन है मैं आपसे हमेशा ही कुछ न कुछ सीखती ही रही हु …शांत , परिपक्व , बुद्धिमान होने के साथ साथ ही आप सहायक, शुभचिंतक एवम ज़मीन से जुड़े मृदुभाषी व्यक्ति है …. आपके द्वारा संचालित किन्नर विमर्श समाज को नई सोच दे रहे है और थर्ड जेंडर को सही तरीके से प्रस्तुत कर रहे है ,आपके प्रयास हमेशा साहित्य रसिक के साथ साथ थर्ड जेंडर के लिए यादगार रहेंगे …. आप सदा खुश रहे और यूंही कलम की ताकत को अवाम तक पहुंचाए
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हार्दिक बधाई सर
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डाॅ. फ़िरोज अहमद जी के इस साक्षात्कार में उनके बारे में जाना। वांग्मय जैसी शोधपरक पत्रिका निकालने के लिए उनके प्रति सम्मान का भाव तो था ही लेकिन एक नितांत असाहित्यिक परिवार से इतनी शानदार साहित्यिक यात्रा का आगाज़ करना कोई आसान काम नहीं था। उन्हें साधुवाद। वांग्मय व अनुसंधान पत्रिका के बहुत ही विचारोत्तेजक व शोधपरक विशेषांक जो वे निकालते हैं उनके लिए प्रशंसा व सराहना का हर शब्द छोटा है। आप दोनों पति-पत्नी को खूब सारी हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं।
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आपके इस साक्षात्कार से हमारे शोध की गुणवत्ता और अधिक प्रमाणित हो गई, इस हेतु आपने अपना बहुमूल्य समय दिया साक्षात्कार के लिए इसके लिए आपका बहुत-बहुत आभार सर।
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हार्दिक बधाई सर आदिवासी विमर्श से लेकर प्रवासी विमर्श थर्ड जेंडर स्त्री विमर्श जैसे अनगिनत अनछुए पहलुओं पर साहित्य सृजन साहित्य समाज और देश के लिए युवा पीढ़ी के लिए शोधार्थियों के लिए आवश्यक था और यह पावन कार्य आपके द्वारा संभव हो सका आपका हृदय से धन्यवाद
थैंक्स
आदिवासी विमर्श ,स्त्री विमर्श ,थर्ड जेंडर विमर्श,जैसे अनगिनत अनछुए पहलुओं पर आपने चर्चाएँ की जिसमें आपका साहित्यिक सृजनात्मक व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है आगे भी आप इस तरह अनेक कार्यक्रम , चर्चाएँ ,शोध लेख प्रसारित करें इसके लिए मैं आप को शुभकामनाएं देती हूँ ।
आदिवासी विमर्श ,स्त्री विमर्श ,थर्ड जेंडर विमर्श,जैसे अनगिनत अनछुए पहलुओं पर आपने चर्चाएँ की जिसमें आपका साहित्यिक सृजनात्मक व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है उम्मीद है आगे भी आप इस तरह अनेक कार्यक्रम , चर्चाएँ ,शोध लेख प्रसारित करें इसके लिए मैं आप को शुभकामनाएं देती हूँ ।
Thanks