विष्णु खरे विलक्षण कवि थे, विलक्षण चिंतक-आलोचक, विलक्षण फिल्म समीक्षक, विलक्षण वक्ता और एक खरे—बहुत खरे इनसान भी। हिंदी पत्रकारिता जगत के बड़े संपादक और विश्व साहित्य के अधिकारी विद्वान तथा एक बड़े अनवादक तो वे थे ही। उनके बारे में जब-जब सोचता हूँ, बस एक ही बात मन में आती है—उन जैसा कोई नहीं। उन जैसा शायद कोई और हो ही नहीं सकता था। इसलिए कि विष्णु खरे जो कहते थे, जो करते थे, जी-जान से कहते थे और करते भी थे। उसके पीछे उनकी आत्मा का समूचा बल होता था और ऐसा अद्भुत दुस्साहस, जो विष्णु खरे को हर तरह से ‘हिंदी का दुर्जेय कवि’ साबित करता था। न उन जैसा तब कोई था और न अब, उनके जाने के कोई छह बरस बाद।
विष्णु खरे के जाने से हिंदी समाज और साहित्य जगत में बहुत कुछ रिक्त हुआ है, पर वह हमेशा रिक्त ही रहेगा। क्योंकि उसको भरने वाला कोई दूसरा विष्णु खरे दूर-दूर तक नहीं है। हो ही नहीं सकता। विष्णु खरे किस कदर दुस्साहसी थे, और कैसे सच्चे, ईमानदार और हर तरह के खतरे उठाने वाले जुझारू कवि, इसे उनके निकट के लोग कहीं बेहतर जानते हैं। और मैंने उन्हें किस कदर भीषण द्वंद्व के क्षणों में भी अंगद की तरह पाँव गड़ाए अडिग खड़ा देखा है, और कभी-कभी अपने इर्द-गिर्द के लोगों और समाज के वंचित तबके के दुख-दर्द और आत्मिक व्यथाओं से बुरी तरह विह्वल—बताने लगूँ तो शायद एक अलग संस्मरण बन जाएगा। या फिर एकदम अलहदा किस्म की पुस्तक ही।
उनके साथ होना बहुत कुछ का साक्षी होना था और कई बार तमाम विस्थितियों और विरूपताओं से टकराने का उनका अपार साहस रोमांचित करता था। युद्धभूमि में खड़े कर्ण सरीखे किसी महारथी के पराक्रम सरीखा। ऐसे क्षणों में किसी बड़े से बड़े अलमबरदार की उन्हें परवाह न होती थी, और जो कहना होता था, कहे बगैर वे रह ही नहीं सकते थे। संयोग से मैं ऐसे दो-चार नहीं, दर्जनों ऐतिहासिक पलों का साक्षी हूँ, और विष्णु जी के लिए मेरा सम्मान ऐसे भावनात्मक क्षणों में, जाहिर है, कुछ और बढ़ जाता था और अपने प्रिय नायक की जो प्रतिमा कोई चार दशकों से मेरे मन में थी, वह कुछ और बड़ी और महाकार हो जाती थी।
आज हिसाब लगाने बैठा तो पता चला, विष्णु खरे जो ‘एक दुर्जेय मेधा’ के रूप में मेरे मन, मस्तिष्क और भाव-जगत पर पिछले चालीस बरसों से छाए हुए थे, उन्हें गुजरे कोई साढ़े पाँच बरस हो गए। पर वे विष्णु खरे जो एक लड़ाका कवि के रूप में मुझे युवाकाल से ही मोहते रहे हैं, वे अब सचमुच नहीं हैं, यह यकीन तो मैं आज तक नहीं कर पाया।
जब वे थे या उनकी दैहिक उपस्थिति थी, तब उनसे अकसर मुलाकातें होती थीं, पर आज तो वे हर क्षण मेरे साथ ही रहते हैं। जब-जब मैं उनकी कविताओं से गुजर रहा होता हूँ, उनकी लिखी गरमजोशी भरी चिट्ठियाँ पढ़ रहा होता हूँ, उनसे हुई बातचीत के विचारोत्तेजक क्षणों को याद कर रहा होता हूँ, या उनसे जुड़ी भावोष्ण स्मृतियों में आवाजाही कर रहा होता हूँ, तो एक अलग ही दुनिया में पहुँच जाता हूँ, जहाँ बाकायदे विष्णु खरे से मेरी अंतहीन बतकही चल पड़ती है। तभी एकाएक किसी चमत्कार की तरह उनकी कविताओं के छिपे हुए अर्थ खुलने लगते है, और वहाँ से जीवन की नई-नई राहें निकलने लगती हैं। कई उलझे हुए प्रश्न सुलझने लगते हैं। साथ ही आगे काम करने की नई शक्ति और ऊर्जा भी मिलती है। और क्या मैं बताऊँ कि एक बार उस सम्मोहक दुनिया में पहुँचने के बाद देर-देर तक वापस लौटने का मन नहीं होता। इसलिए कि वहाँ मैं और विष्णु खरे, विष्णु खरे और मैं एक गहन संवाद की स्थिति में होते हैं।
और ऐसा तो बहुत होता है कि मैं उनके साथ गुजरे पलों के बारे में सोच रहा होता हूँ, तभी एकाएक उनकी चिरपरिचित भंगिमाओं तथा मुसकान के साथ ही एकदम अलग पहचानी जाने वाली आवाज सुनाई देती है, ‘प्रकाश जी, आप कैसे हैं…?’
जब वे थे तो महीने में कोई चार-पाँचेक फोन तो उनके जरूर आते थे, और हर बार शुरुआत यहाँ से होती थी, ‘प्रकाश जी, आप कैसे हैं…?’ और फिर देखते ही देखते उसमें साहित्य जगत ही नहीं, पूरे जमाने के हाल-चाल, सुख-दुख और विडंबनाएँ शामिल हो जाती थीं। अपने प्रिय और सुपरिचित लेखकों के बारे में जरूरी सूचनाएँ भी, जिनकी बराबर टोह लेना विष्णु खरे को प्रिय था, और लेखक होने का दायित्व भी लगता था। इसके साथ ही, जो उनके भीतर-बाहर चल रहा होता, वह सब कुछ तो इस लंबी और विस्तृत बातचीत में आता ही था। वे जर्मनी या किसी और देश के लंबे प्रवास पर हों, तब भी उनके फोन जरूर आते थे, और वे अपने काम-काज, मनःस्थिति और अपने भीतर आकार ले रहे बहुत तरह के अनुभवों और विचारों से अवगत जरूर कराते थे।