युगानुसार सामाजिक और वैश्विक धरातल पर जहां परिस्थितियों में बदलाव के अंकुर फूटने लगते हैं, वहीं साहित्यकार की संवेदना अपनी दिशाओं का निर्धारण करने में जुट जाती है। परिणामतः पुराना केंचुल उतार कर वह नए  रूप में अपनी पहचान बनाती हुई विधा-विशेष के साँचे में ढलती-प्रवाहित होने लगती है। अतः हिन्दी साहित्य की आधुनिक युगीन चेतना की कोख से जन्मी साहित्यिक विधाएँ अपने समय की कटु, तिक्त और मधुर अनुभूतियों से समन्वित होकर अपनी विशिष्ट पहचान बनाती रही है। हिन्दी कहानी रचनात्मक प्रयोगों के सहारे ही विकसित हुई है। 

उत्तराधुनिकता ने जिन नए हस्तक्षेपों के साथ साहित्य में प्रवेश किया उसकी तुलना में  आलोचना में नए शब्द-निवेश,नई व्यंजना एवं समीक्षा के नए दृष्टिकोणों का अभाव ही रहा। नए कथाकार भी विचारधारागत राजनीति के शिकार हुए। इसलिए उनके द्वारा अच्छा कथा-साहित्य रचा जाने के बावजूद उन्हें आलोचना की तटस्थता ने नकार दिया। इस प्रकार कथा-साहित्य की आलोचना के अंत का आरंभ बीसवीं शताब्दी में ही शुरू हो गया था। जहां तक महिला कथाकारों की बात है तो सच तो यह है कि महिला कहानीकारों की रचनाओं पर अलग से लिखना न तो अपेक्षित है और न वांछित, किन्तु दो मुख्य कारणों से इनका पृथक मूल्याकन करना जरूरी लगता है- 

  1. इससे पूर्व कथा- साहित्य में पुरूष कथाकारों ने परंपरागत भारतीय दृष्टि, नैतिकता, मूल्यवादिता, धर्माश्रित आचारशीलता आदि को ( समाज और व्यक्ति दोनों स्तर पर ) विशेष महत्व प्रदान किया, जबकि विचार, संवेदना तथा भाषा के स्तर पर महिला कहानीकारों ने जिस आत्मपरक अनुभूतियों का प्रत्याख्यान प्रस्तुत किया वह पृथक मूल्यांकन की मांग करता है। 
  2. पिछले कुछ वर्षों में महिला कहानीकारों पर अलग से पत्रिकाओं में तथा स्वयं महिला कथाकारों द्वारा संभवतः अपनी अस्मिता के स्थापन के लिए जो आग्रह बढ़ा है, उसे देखते हुए कहानियों में इस नारी शक्ति पर थोड़ा अलग से विस्तृत विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। 1

यह सच है कि उपन्यासों की तुलना में कहानी का विकास अधिक तीव्र गति एवं प्रचुरता से हुआ। यह भी कम आश्चर्य नहीं कि कहानी का प्रारम्भ करने वाले प्रमुख कथाकारों में से एक न केवल महिला थी, अपितु वह बंगाली महिला थी जिसने ‘बंग महिला’ उपनाम से ‘दुलाईवाली’ हिन्दी कहानी लिखी। यह संवत 1964 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। नई-कहानी, साठोत्तरी-कहानी के दौर में जिन महिला कहानीकारों ने व्यक्तिगत और सामाजिक धरातल पर नए विचारों का आगाज किया उनमें से एक वरिष्ठतम पीढ़ी आज भी हमारे सामने मौजूद नज़र आती है, जैसे- मन्नू भण्डारी, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, कृष्णा सोबती, राजी सेठ, नासिरा शर्मा, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा आदि। इस दौर के कथा-साहित्य की पृष्ठभूमि में लेखिकाओं के परिवर्तित जीवन-दर्शन ने महती भूमिका निभाई है।

इन कथाकारों ने परंपरागत भारतीय दृष्टि, नैतिकता, मूल्यवादिता,धर्माश्रित आचारशीलता इत्यादि के नकाबों को उतार फेंकने का खतरा उठाया। नारी-हृदय के अनकहे मूक सच को पूरी तटस्थता के और ईमानदारी से मुखर करने वाली मन्नू भण्डारी की कहानियों में आत्मा के विस्तार के साथ ही संवेदना का फैलाव भी है… नए-पुराने जीवन-मूल्यों के संघर्ष से पैदा हुई मानसिकता ही इन कहानियों की रचनात्मक पृष्ठभूमि है। 2

सुधा अरोरा की कहानियों में अकेलापन एक यंत्रणा नहीं, आत्मदान है। वह साक्षी है हमारी जीवन की विसंगतियों का, वह प्रमाण है हमारी यथार्थ मनः स्थितियों का और वह स्वयम लेखिका की प्रतिबद्धता स्पष्ट करता है। 3 चित्रा मुद्गल की कहानियाँ भी अनुभव वृत्त के कथ्य की नई ज़मीन तलाशती है। या फिर चिर-परिचित कथ्य और मानवीय सम्बन्धों के अनदेखे पक्ष को नए कोण से उठाती है। 4 यहाँ सभी कहानीकारों की विशेषताओं की चर्चा करना तो संभव नहीं किन्तु कुल मिलाकर इस दौर की हिन्दी कहानियों के नए आयामों में रूढ़िवादिता, परम्पराओं से मुक्ति, टूटते पारिवारिक संबंध, बनते हुए नए संबंध, नारी का आर्थिक संघर्ष, प्राचीन-नवीन मूल्यों की टकराहट, अस्तित्व की तलाश, प्रेम, यौन संबंधी समस्याएँ आदि विषयों को प्रमुख माना जा सकता है। 

नए रास्तों की तलाश में आज युवा महिला कथाकारों की एक पूरी पीढ़ी इस कालावधि में भरपूर शिद्दत से लिख रही है। इनमें जया जादवानी, मधु कांकरिया, अलका सरावगी, इन्दिरा दाँगी, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अल्पना मिश्र, प्रत्यक्षा, नीलाक्षी सिंह, वंदना राग, शर्मिला बोहरा जालान, उर्मिला शिरीष, क्षमा कौल, नीरजा माधव, सुषमा मुनीन्द्र आदि प्रमुख है। यह वह समय है जहां एक ओर कथ्य के स्तर पर ‘स्त्री-विमर्श’ एवं ‘दलित-विमर्श’ की अनुगूँज सुनाई देती है, वहीं दूसरी ओर शिल्प के धरातल पर बेबाक भाषा में भावाभिव्यक्ति, आतमपरकता, वैचारिक प्रतिबद्धता, चीतिगत उदात्तता की टेक्निक भी है। ‘इतिहास व स्वतंत्रता का संघर्ष परंपरागत होकर भी नई सोच से भरपूर है’ 5

स्त्री-विमर्श के नाम पर कितना अर्थ का अनर्थ हुआ, इस पर नीरजा माधव की एक व्यन्ग्योक्ति उनकी कहानी ‘शीर्षक क्या दूँ’ से दृष्टव्य है- 

“मैं मन ही मन लज्जित हो रही थी नारियों की इस हार पर और हँस रही थी मुक्ति की बात पर। पुरुषत्व को ओढ़ने पर स्त्री किस कदर विद्रूप हो उठती है। दृष्टियों का पात्र बनने को अपनी सफलता मान लेना उस कौतुहल की तरह है, जैसे लोग सर्कस में करतब दिखाते कलाकारों को देखते हैं। सबका अपना एक विशेष स्वरूप प्रकृति प्रदत्त है। उसमें परिवर्तन होना तो चाहिए पर उलटबांसी नहीं।“ 6

इधर की अनेक महत्वपूर्ण कहानियों को पढ़ते समय बराबर लगता है कि कहानीकार केवल वर्तमान विसंगतियोंविडंबनाओं से जूझ रहे है अपितु आगत से जुड़ी समस्याओं को भी महसूस कर रहीं हैं। कटु सच्चाई इन कहानियों में परिकल्पना, फंतासी, प्रतीकात्मकता आदि के माध्यम से बहुत प्रभावशाली रूप में संश्लिष्ट होकर उभरी है। यह अवश्य है कि भविष्य को देखतीआँकती दृष्टि के पैर संक्रमणशील वर्तमान पर मजबूती से टिके हुए हैं। कहानी में नए रास्तों की तलाश के कुछ विशेष कथाकारों को रेखांकित करना उचित होगा। 

नमिता सिंह की कहानी “मिशन जंगल और गिनी-पिग” में फौज में ह्यूमेन क्लोनिंग के इस्तेमाल और उसकी अमानवीयता का भयावह रूप केंद्रस्थ है। हिंदुस्तान में भी बायो-टेक्नालोजी के जरिये वांछित गुण वाले जींस को मिलाकर साहसी, कठोर तथा एक-सी शक्ल के भ्रूण प्रयोगशाला में तैयार किए जाते हैं फिर सरकारी बाल-गृहों में उन्हें पाला-पोसा जाता है और सेना के लिए तैयार किया जाता है” (पृष्ठ 43)।  क्षमा शर्मा की कहानी “सीधा प्रसारण” विज्ञापन चर्चा से शुरू होती है। एक प्रसारण कंपनी तीन अपराधियों को फांसी दिये जाने का सीधा प्रसारण कर दर्शकों को क्रूर और हिंसक बनाने का काम तो करती ही है, उससे पैसा भी कमा रही है। दर्शक हिंसा का आनंद लेते हैं। जो दर्शक बिजली चले जाने से क्लाइमेक्स नहीं देख पाये, वे हाथ में फंदे लेकर बिजली कर्मचारियों की तलाश में निकाल पड़े हैं। (कहानी संग्रह- इक्कीसवीं सदी का लड़का) जो संचार माध्यम जनता का दुख-दर्द बांटने के लिए उपयोगी है वह गलत हाथों में पड़कर नकारात्मक प्रवृत्तियों को एकजुट करने में सहायक होते रहेंगे। 

बाजारवादी मानसिकता ने मध्यमवर्ग के भीतर भस्मासुरी भौतिक लिप्साओं को जन्म दिया है। बाजारवाद से जुड़ी अमानवीयता का एक बड़ा और सर्वग्रासी दुष्परिणाम यह है कि इसने घर को भी लहू-लुहान कर दिया है। नैतिकता, ईमान और पारिवारिक रिश्ते अब बाज़ार की शर्तों के अनुरूप निर्धारित होते है। नीलाक्षी सिंह की कहानी “प्रतियोगी” इसी सती को उजागर करती है। मधु कांकरिया की कहानी “पोलिथीन में पृथ्वी” सर्वथा नए कथ्य पर आधारित है। भ्रूण हत्या रोकना डा सौमित्र का मिशन है लेकिन उनके मिशन की उड़ान पर एक दिन बिजली गिर पडती है, वह भी उनके अपने ही घर में, उनकी गर्भवती पुत्रवधू दो महीने और दो ग्राम के पिंड से छुटकारा पा लेती है क्योंकि वह उसकी विदेश यात्रा में बाधक था और सौंदर्य में भी। युवा जो प्रतिभासम्पन्न होने के बावजूद अपना सही रास्ता नहीं चुन पा रहा है। चमकती हुई दुनिया उसे जिस गहरे अंधेरे की तरफ खींच रही है, उसकी हताशाएँ, उसकी लाचारियाँ, उसकी बेरोजगारी… अंततः अपराध के सहज उपलब्ध रास्ते, यह सब चिंताएँ परेशान करती हैं । अल्पना मिस्र की कहानी “नीड़” समय के ऐसे ही भीतरी यथार्थ को पकड़ने की कोशिश में लिखी गई है।

क्षमा कौल की कहानी “गर्भ-गृह” (अक्षरा,जुलाई-अगस्त, 2015) उन पाकिस्तानी आक्रमणकारियों की बर्बरता आर आधारित है जिन्होने जम्मू-कश्मीर को जन्नत से दोज़ख मे बदल डाला।संवेदना के स्तर पर इस कहानी का शिल्प अद्भुत है। निम्न मध्य वर्ग में आर्थिक दबावों की जैसी संघर्षशीलता से प्रेरित रजनी गुप्त की कहानी “उतरती हुई धूप” सामूहिक या एकल रूप में मन-मंथन का दूरगामी प्रभाव छोड़ती है। समस्त नैतिकता एवं परंपरा को पीछे धकेलकर समय के साथ चलने का साहस, वह भी ग्रामीण युवतियो द्वारा। उदाहरण दृष्टव्य है- 

“पिछले महीने अपने गाँव गई, जहां तमाम सधवाएँ अपने जीते जी पतियों को कब्र में दफनाकर विधवाओं का फर्जी सार्टिफिकेट देकर पेंशन पा रही हैं। पूरे देश का यही हाल है। हम चाहे जितनी बड़ी-बड़ी बातें क्यों न कर लें, मगर कुछ भी तो बदलता नहीं दिख रहा है। हमारे आस-पास हर रोज़ एक नया घोटाला, हर दिन दर्जनों बलात्कार और… और…” 8

महत्वाकांक्षाएँ आज नारी के पतन का कारण भी बन रही है। यही बात सिद्ध होती है भूमिका द्विवेदी की कहानी ‘दांव’ से। सुषमा मुनीन्द्र की कहानी ‘अपना ख्याल रखना’ की विशेष चर्चा करना चाहूंगी। निसंतान दम्पतियों के लिए सेरोगेट मदर की अवधारणा निश्चय ही आशा की एक किरण है, लैकिन यह भी एक धुंध की तरह सामने आई है। वात्सल्य, मातृत्व की जगह कमाई ने ले ली है। प्रस्तुत कहानी में इसी मनोवृत्ति को रेखांकित किया गया है साथ ही एक सुखद आश्वस्ति भी इसमें है कि भावना या संवेदना के धरातल पर सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है। (वर्तमान साहित्य,मार्च,2009,पृष्ठ-31)इसी कथ्य पर आधारित एक और कहानी ने ध्यान आकर्षित किया है, वह है सीमा आज़ाद रचित ‘सेरोगेट कंट्री’। अखबारों में प्रकाशित खबर के अनुसार एक आस्ट्रेलियाई दम्पति  ने एक भारतीय माँ की कोख किराए पर ली, उसने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया लेकिन कोख पर निवेश करने वाले दंपति इसमें से बेटी को अपने साथ नहीं ले जाते। लेखिका लिखती है- “मेरे मन में सरकारों ने तो पूरे देश को ही सेरोगेट मदर बना दिया है, जिसमें बाहर वाले निवेश कर रहें हैं। उससे प्राप्त मुनाफा वे अपने साथ ले जा रहें हैं और उसका हर दंश देशवासियों के लिए छोड़ जा रहें हैं। “मेक इन इंडिया” से यह प्रक्रिया और भी तेज़ होगी… । मजदूर और सेरोगेट माँ दोनों अपने उत्पाद से जुड़ाव महसूस करते हैं, लेकिन उत्पाद और मुनाफा इनके हिस्से नहीं आता है… यानि बेरोजगारी में औरतों को यह काम भी करना चाहिए। 

अपर्णा मनोज की “कुछ नहीं के विषदंत” के संबंध में जितना कहूँ, कम लगता है। आत्मकथात्मक शैली में लिखी इस लंबी कहानी ने मेरे रातों की नींद उड़ा दी थी। सात खंडों में विभाजित यह कहानी पुराने कथ्य की नींव पर नए क्षितीज और नई धरती की तलाश में संवेदनाओं एवं भावनाओं को इस तरह पिघलाती चलती है मानों विडंबनाओं का पूरा शिखर भरभराकर ढह गया हो। युवा लेखिका अपर्णा के शिल्प की गहनता, सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता और सूक्ष्मता ज़रा इस कथांश में देखिये- “आस्थाओं का शोर बड़ा भयावह होता है। कबूतरों के दड़बे में जैसे अजगर आ बैठा हो… और कबूतर मुक्ति, मुक्ति मुक्ति… गूँ गूँ करते कबूतर अजगर के मुख को आकाश माँ बैठे… मुक्ति दुनिया का भव्यतम तमाशा है। इसे हर कोई भोगना चाहता है, खेलना चाहता है… अपनी अपनी तरह से…आज इस निर्जनता के पहाड़ पर सब पुण्य कमाने आयें थे। पुण्य कमाने का भी एक बड़ा आर्थिक आधार है, आर्थिक इतिहास है, आर्थिक नृविज्ञान है। यहाँ भी विषमताओं का जंगली मुक्तिवाद। मुक्ति को में बहुत रिलेटिव मानने लगी हूँ। “ 10

संक्षेप  में निम्नांकित तथ्यों को आज के महिला-लेखन (कहानी) के नए आयामों के रूप में देखा जा सकता है-

  1. निजत्व एवं आत्मसम्मान की चेतना
  2. अधिकारों और न्याय के लिए आंदोलन 
  3. यथास्थितिवादी मानसिकता पर प्रहार 
  4. यौन शोषण के विरुद्ध संघर्ष
  5. प्रतिशोध की मानसिकता का प्रस्तुतीकरण 
  6. दलितों की दर्दनाक ज़िंदगी का इजहार 
  7. समय और समाज को पुनर्भाषित करने का साहस 
  8. तात्कालिकता 
  9. प्रयोगधरमिता का उत्कर्ष 
  10. भूमंडलीकरण, बाजारवाद, पाश्चात्य अनुकरण, उपभोक्तावाद के परिणाम/दुष्परिणाम । 

निसंदेह युवा महिला कथाकारों ने अपने लिए नई भाषा गढ़ी, नए मुहावरे खोजें और बेलाग ढंग से अपनी सोच को पाठकों से साझा किया, फिर भी एक यक्ष प्रश्न तो अब भी अनुत्तरित है की क्या यथास्थिति को बदलने के लिए केवल नकार, असंतोष, और असहमति काफी है, या सचमुच इन नए रास्तों पर चलकर कोई नया मुकाम भी मिलेगा और वह भी बिना आलोचना के।

संदर्भ-ग्रंथ सूची-

1- विजयमोहन सिंह,बीसवीं शताब्दी का हिन्दी साहित्य,पृ 188

2 डा शिवशंकर पांडे,स्वातंर्योत्तर हिन्दी कहानी:कथ्य और शिल्प, पृ 199

3 सुरेश सिन्हा, हिन्दी कहानी: उद्भव और विकास, पृ 612 

4 पुष्पपाल सिंह, समकालीन कहानी: रचना मुद्रा, पृ 123

5 सुरेश कुमार जैन, उत्तर शती का हिन्दी साहित्य, पृ 81

6 अक्षरा, मार्च-अप्रैल, 2013, पृ 55

7 मुक्तांचल, अप्रैल-जून, 2015, पृ 34

8 रजनी गुप्त, किस्सा, मई, 2015, पृ 81

9 सीमा आज़ाद, सेरोगेट कंट्री, नया ग्यनोदय, पृ 82 

10 अपर्णा मनोज, पहल-98, पृ 178-79।

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