Saturday, July 27, 2024
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डॉ. गरिमा संजय दुबे का ललित लेख – मादकता पर्सोनिफाईड

नारी का सौंदर्य और अभिमान दोनों ही बहुत बलशाली होतें हैं,  हजार हजार हाथियों का बल लिए किसी के भी दर्प को खंडित कर सकते हैं, यह वह जानती है, किन्तु वही अभिमानिनी नायिका आज व्याकुल है। निरीह मृगी-सी आकुल है, और वैसी ही अपनी मृगनयनी आँखों में चकित, भ्रमित  और विस्मित भाव लिए पुकारती है।

1966 में आई फिल्म आम्रपाली, शंकर जयकिशन के सुमधुर संगीत, शैलेंद्र के गीत और स्वर कोकिला लता जी के दैवीय कंठ से सजी फिल्म।  उस समय यह कोई बड़ी सफलता नहीं थी, किंतु आज एक क्लासिकल श्रेणी में इसे रखा जाता है।  फिल्म पर बात नहीं करनी, न उसके तकनीकी पक्ष पर,  न उसकी मेकिंग पर,  न उससे जुड़ी घटनाओं पर,  वह तो आप गूगल करके भी जानकारी पा सकते हैं। इस लेख का अभीष्ट कुछ और है,  बात करनी है फिल्म के एक गीत पर, और वह गीत है “तुम्हें याद करते करते,  जाएगी रैन  सारी,  तुम ले गए हो अपने संग नींद भी हमारी”
तुम्हें याद करते-करते गीत का एक दृश्य
याद कीजिए बेहद ऐंद्रिकता की अपील लिए,  विरहिणी नायिका का व्याकुल स्वर,  लता जी का स्पर्श पाकर और घनीभूत हो उठा है। बिना किसी अश्लील हरकत के कलात्मक मादकता  देखनी हो, तो यह गीत अवश्य देखा जाना चाहिए। आप मंत्रमुग्ध हो जाएंगे,  चित्रलिखित से।
अपने करियर के शीर्ष पर, अपने सौंदर्य के शिखर पर थीं वैजयंती माला उन दिनों। यूँ भी दक्षिण भारत की अभिनेत्रियों में मादकता और सौंदर्य के सारे प्रतिमान अपने आदर्श रूप में होते हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों में तो इसके अश्लील दोहन का इतिहास पुराना है, किंतु बम्बईया फिल्मों में भी उनका दोहन कम नहीं हुआ।  किंतु इस फिल्म की तो आवश्यकता ही थी अत्यंत दुर्लभ, दैवीय सौंदर्य वाली नायिका। एक ऐसी अद्भुत सुंदरी नायिका जो इतिहास के उस त्रासद सौंदर्य के खाके मे फिट बैठती हो।
पता नहीं अत्यधिक सुंदरी स्त्रियों के जीवन त्रासद क्यों रहे?  सौंदर्य और त्रासदी का यह जाने कैसा संगम है जो इतिहास के कई चरित्रों के साथ चलता रहा। क्लियोपेट्रा हो या आम्रपाली, उनका सौंदर्यवान होना ही उनकी त्रासदी रहा, क्योंकि उनके सौंदर्य को स्वयं के लिए न मान कर सबके लिए सुलभ बनाने के दुश्चक्र ने त्रासदी रची। वैशाली की नगरवधू, जनपद कल्याणी, आम्रपाली के रूप में आज किसे याद कर पाते हैं आप ?
निर्देशक की नज़र  का कमाल कहिए, वेशभूषा की कलाकारी कहिए या कि स्वयं नायिका का  सौंदर्य, या  चरित्र में कुछ इस तरह परकाया प्रवेश कहिए जो ऐसा प्रभाव रचा गया है कि यह तारी रहता है आप पर। कम रौरोनी से भरे अपने शयनकक्ष में विरहिणी  नायिका अकेली है, रुद्र वीणा के तार से खेलती। संगीत और नृत्य ही तो उसके सहचर हैं।
अजातशत्रु से अब सचमुच प्रेम हो गया है उसे, सचमुच! किंतु जनपद कल्याणी का कर्तव्य तो सबसे प्रेम करना है और  हर श्रेष्ठी  पुरुष को है उसे प्रेम करने का अधिकार। हाँ, उसे किसी एक से प्रेम का अधिकार नहीं, गोया कि मन और प्रेम कोई वस्तु हो और समाजवादी तरीके से सबमें बाँट दी  जाए। देह का बंटना शायद संभव है, नैतिक तो वह भी नहीं। किंतु देह का बंटना सदा मन का बंटना नहीं होता ।
प्रेम का नाटक, अपने कर्तव्य का निर्वाह, अपने को सबमें बांटने का कर्तव्य बखूबी निभाती है नगरवधू, बंटने के बदले में तमाम भौतिकताओं का भोग करती,  भोग में डूबी नायिका उसमें ही प्रसन्न थी।  हाँ…… .कैसा दुष्चक्र कि अपने विनाश में ही प्रसन्न थी। अब तक अपनी दीन अवस्था का परिचय नहीं था, धनी थी नायिका। उसे अहसास करवाया जाता रहा था कि वह संसार की सबसे सुखी और भाग्यशाली स्त्री है जो उसे यह पद मिला। किन्तु सहसा अपने को विपन्न  मानने लगी।
 ओह !   प्रेम क्या एक साथ सम्पन्नता और विपन्नता का आभास करवा  देता है ?
विलास में  तन को छूने वालों की भीड़ में कोई पहली बार मन छू गया था।  और कैसा विरोधाभास कि तन छूने वालों पर सूक्ष्म मन नहीं वारा, किंतु मन छूने वाले पर तन न्योछावर करना चाहती है। “तन के आभूषण मिले मगर मन का शृंगार न हो पाया” अब मन का शृंगार करना चाहती है। किन्तु किसी प्लूटोनिक लव जैसे भ्रम में नहीं है वह, मन का सूक्ष्म प्रेम भी स्थूल देह का आकांक्षी है यहाँ।
तन छूने वालों को  तो सदा अपने सौंदर्य की जूती की नोंक पर रखा, अपनी चितवन के एक घाव से घायल करती रही, अपने घने कुंतल की लटों में लपेट ठीक  ऐसे फ़ेंक दिया करती थी जैसे कोई हाथी अपनी  सूंड  में लपेट  किसी को फ़ेंक दे और खंडित कर दे उसके दर्प  को।
गीत का एक और दृश्य
नारी का सौंदर्य और अभिमान दोनों ही बहुत बलशाली होतें हैं,  हजार हजार हाथियों का बल लिए किसी के भी दर्प को खंडित कर सकते हैं, यह वह जानती है, किन्तु वही अभिमानिनी नायिका आज व्याकुल है। निरीह मृगी सी आकुल है, और वैसी ही अपनी मृगनयनी आँखों में चकित, भ्रमित और विस्मित भाव लिए पुकारती है।
अब तक प्रेम से अछूती थी, वैभव, विलास, श्रेष्ठी  पुरुषों की नज़रों में अपने लिए कामान्धता, अपने को पाने की ललक का आनंद उठाती, उन्हें हंसी में उड़ाती, सहसा ठहर गई थी।
सच्चा प्रेम क्या सचमुच इसी तरह स्थिर नहीं कर देता है मन के विचलन को ? या कि विचलन बढ़ जाता है या अन्मयस्कता ?  जैसे जिसकी तलाश थी वह मिल गया, प्राप्ति की तृप्ति, किंतु फिर भी सान्निध्य की ललक।
अद्भुत कलात्मक देहयष्टि, श्यामल वर्ण, देह के सौंदर्य को द्विगुणित करता हल्के पीच रंग का प्राचीन भारतीय परिधान।  बड़ी-बड़ी भाव प्रवण आँखे, चेहरे की कमनीयता, मासूमियत और देह की मादकता का अनिर्वचनीय मेल हठात स्तब्ध कर देता है। गाने के बोल, “मुझे ऐसे मत सताओ, मेरी प्रीत है कुँवारी” में उपालम्भ देती दृष्टि का क्या वर्णन करे कोई ? बड़ी बड़ी आँखों के उपालम्भ का जो दृश्य है उसके लिए शब्द नहीं हैं। अभिनय इतना आसान तो नहीं, कैसे नायिका ने आँखों से भावोद्दीपन किया है, यह विस्मित करता है।
नृत्य प्रवीण नायिका के लिए भावों का प्रदर्शन कठिन नहीं, किंन्तु फिर भी ऐसी निष्णात अभिव्यक्ति प्रायः दुर्लभ ही होती है। उपालम्भ के स्वर पर भी ध्यान जाता है, जाने कैसे गायक भी उस भाव की जी लेता है, तभी तो गीत में वह भाव भी ध्वनित होता है। मतलब अभिनय केवल परदे की घटना नहीं है, वह पार्श्व-गायन में भी घटित होती है, गायक भी अभिनय करता है। और फिर यदि स्वर सुर, सरस्वती लता जी का हो तो किसी के लिए करने और कहने को क्या रह जाता है। नायिका ने स्वर पकड़ कर अभिनय किया है या गायिका ने अभिनय के लिहाज से स्वर दिया है, कहना कठिन है।  अद्भुत मेल, भाव और स्वर का, एक दूजे को कॉम्पलिमेंट करते हुए।
बीच गाने में माथे पर हीरे सी चमकती बिंदी का प्रभाव अनुभव ही किया जा सकता ,है उसकी व्याख्या संभव नहीं। क्या यह अनायास हुआ कि बिंदी पर पड़ रहे प्रकाश ने उसे परावर्तित कर गीत के, नायिका के सौंदर्य को और बढ़ा दिया या निर्देशक की सूक्ष्म दृष्टी ने इसे गढ़ा, जो भी हो इस दृश्य को देख रोमांच हो आता है।
सितार की ताल पर कमरे में नायिका की चहल कदमी, देहभाषा, लंबी घनी घुँघराली केश राशि, साँसों की लय, चेहरे पर आते जाते कई भाव, कभी शांत तो कभी आकुल, कभी लेटना तो कभी अचानक चौंक कर उठ बैठना, कभी निरीह तो कभी अभिमान, एक बेहद खूबसूरत, मनोहारी दृश्य प्रस्तुत करते हैं। नायिका का सौन्दर्य मुझे एक स्त्री होते हुए भी लुभा गया,  सिहरन सी दे गया, तो पुरुष मन की कौन कहे ?
नायिका साक्षात् सौन्दर्य और मादकता का विग्रह लगती है। मादकता का मानवीकरण हो गया है इस गीत में। मादकता पर्सोनिफाईड, सिम्पली पर्सोनिफाईड।
डॉ. गरिमा संजय दुबे
डॉ. गरिमा संजय दुबे
सहायक प्राध्यापक , अंग्रेजी साहित्य , बचपन से पठन पाठन , लेखन में रूचि , गत 8 वर्षों से लेखन में सक्रीय , कई कहानियाँ , व्यंग्य , कवितायें व लघुकथा , समसामयिक लेख , समीक्षा नईदुनिया, जागरण , पत्रिका , हरिभूमि , दैनिक भास्कर , फेमिना , अहा ज़िन्दगी, आदि पात्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। संपर्क - [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. शानदार लेख . पढ़ते ही नायिका का रेखाचित्र आँखों के सामने आ जाता है . हिन्दी के शब्दों का प्रयोग अत्यंत कुशलता के साथ मन अभिभूत हो गया पढ़कर बहुत बधाई.

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