बंधु! सच बताओ इतनी कड़वाहट कहां से लाते हो? कैसे करेले और नीम को भी तुम हमेशा ही हराते हो?
बंधु! सच बताओ …
किसी का एक कदम भी आगे बढ़ना भला क्यों तुम्हें खटकता है? किसी का एक सीढ़ी भी ऊपर चढ़ना क्यों तुम्हें अखरता है? इतना ज्यादा मैलापन मन में भला कैसे उपजाते हो?
बंधु! सच बताओ …
मेहनत करे कोई और तो पसीना तुमको क्यों आता है? सफलता किसी को तनिक भी मिलना क्यों तुम्हारा खून सुखाता है? क्यों बेमतलब यहाँ-वहाँ अपनी टांग अड़ाते हो?
बंधु! सच बताओ …
तुम सदा ही चाहो कि सब तुम्हारी ही जय जयकार करें तुम ही हो ‘सर्वोसर्वा’ सब सदा स्वीकार करें आखिर क्यों खुद पर इतना इतराते हो?
बंधु! सच बताओ …
जो तुमने बोया वो सब सदा तुमने ही तो काटा है भला कब किसने तुमसे आकर कुछ बांटा है? फिर भला क्यों दूसरे की थाली में अपने दांत गड़ाते हो?
बंधु! सच बताओ …
खुद को ही तुम तुर्रम खां समझो ऐसी भी क्या मजबूरी है? सब तुम्हारा ही गुणगान करें क्या ये सदा जरूरी है? क्यों बस अपनी ही डपली हर वक्त बजाते हो?