महिलाओं की नौकरी के मुद्दे को समझने के लिये ज़रा 21वीं सदी से पहले के समय को देखना और समझना ज़रूरी हो जाता है जहां कमोबेश गौना प्रथा थी। कम उम्र में लड़की की शादी कर दी जाती थी और उसे उस उम्र तक मायके में रहना होता था, जब तक रजस्वला होना शुरु न हो जाये। इस दौरान उसे घर के कामकाज सिखाये जाते थे और प्रारंभिक शिक्षा…पांचवीं, छठीं कक्षा तक पढ़ाई…किसी तरह चिठ्ठी लिखना आ जाये…बस।
आज के ज़माने की लड़कियों की बनिस्बत वे लड़कियां कम उम्र में ससुराल चली जाती थीं और फिर वहां के माहौल में खुद को ढालने में व्यस्त हो जाती थीं। पति से मिलना भी रात को ही हो पाता था क्योंकि आमतौर पर संयुक्त परिवार होने से पति-पत्नी का साथ बैठना और हंसना-बोलना मुश्किल से हो पाता था। हां, कुनबा ज़रूर बढ़ता था। भले ही संयुक्त परिवार थे, पर तीन-चार बच्चों के माता-पिता बन जाना मामूली बात थी।
जहां तक याद आता है, सत्तर के दशक के बाद लड़कियों का दसवीं तक पढ़ाना ज़रूरी माना जाने लगा। इसे विडंबना माना जाये कि मेरी एक सहेली को दसवीं पास करते करते ही वैधव्य अभिशाप के रूप में मिल गया था। उसका बाल विवाह हुआ था। दसवीं पास करने के बाद वह ससुराल जाने के बजाय अपने भाई-भाभी के पास झुंझनू चली गई थी। पता नहीं, उस लड़की को आगे पढ़ने दिया गया या नहीं..उसका पुनर्विवाह हुआ या नहीं।
मेरी ही क्लास में पढ़ती थी…उसका नाम गुलाब था, गुलाब की तरह खूबसूरत। उसका भी बाल विवाह था और सातवीं कक्षा तक ही पढाया गया था। उसने बताया कि सगाई तो पांचवी कक्षा में थी, तभी कर दी गई थी। क़रीब सात-आठ वर्ष पहले उससे मिलने गई थी…वह असमय बुढ़ापे की ओर अग्रसर है। जिस चाल में वह शादी के पहले रह रही थी, आज भी उसी चाल में है। सचमुच हैरान थी कि एक इंटेलिजेंट लड़की घर के चौका बासन में असमय झोंक दी गई थी।
उस समय कॉलेज जाना बड़ी बात थी। लड़की उतनी ही पढ़े कि चिठ्ठी पत्री लिख ले…बस। पति जो भी कमाकर लाये, उसमें गुज़ारा करे। घर की इज्ज़त का जो सवाल था। अब ज़रूर कुछ परिवर्तन आये हैं लेकिन यह तो शुरुआत भर है।
अस्सी और नब्बे के दशक में नारियों ने नौकरी के क्षेत्र में कदम रखना शुरु किया। इसके पीछे कारण स्पष्ट रहा कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने पर आत्मविश्वास आता है। साथ ही भी कड़वा सच है कि यदि पति की असामयिक मृत्यु हो जाये तो उसका सबसे ज्य़ादा ख़ामियाजा पत्नी और बच्चों को सबसे अधिक भुगतना होता है। रिश्तेदार धीरे धीरे किनारा करने लगते हैं। इसके विपरीत यदि पत्नी नौकरी कर रही है तो वह इन संतापों से धीरे धीरे खुद को मुक्त करके अपने बच्चों को सम्मानित जीवन दे पाती है।
कई बार ऐसा होता है कि परिवार के लोग बहू को पैसा कमाने की मशीन समझने लगते हैं। सारी उम्र उन्होंने कमाया, घर बनाने में में, संवारने में सहयोग दिया, पर पत्नी हमेशा उन सुविधाओं से वंचित रहीं। कारण? ससुराल पक्ष के लोग साधिकार आते रहे बेटे के घर और उनके हिस्सों में कमरे आते रहे। पत्नी ने कभी जाना नहीं कि बेडरुम क्या बला होती है। अंतत: वह विद्रोह कर देती है एक दिन और अपने घर को अतिथि गृह बनने से रोक देती है। ऐसे मामलों में नारियों का नौकरपेशा होना निमित्त रहा है।
दो वर्ष पूर्व किसी कार्य के सिलसिले में मुंबई हाईकोर्ट जाना हुआ। वहां एक महिला… महिला वकील से मिलने आई थी। वह समृद्ध परिवार की दिख रही थी। उसने बताया कि उसका रईस पति उसे बताये बिना लिव-इन-रिलेशनशिप में दूसरी महिला के यहां रहने चला गया है और बंगला भी बेच दिया है। अब उसे कुछ लाख रूपये देकर हमेशा के लिये चले जाने के लिये कह दिया है। उस पढ़ी-लिखी महिला के चेहरे पर आई परेशानी और पति पर ज़रूरत से ज्य़ादा विश्वास करने का क्षोभ स्पष्ट नज़र आ रहा था।
उसके पास कोई नौकरी नहीं थी। बंगले की तथाकथित मालकिन सड़क पर आ गई थी। वह वकील की फीस कहां से देगी और वकील कब तक केस चलायेंगे, पता नहीं। अभी हाल ही में जो किस्सा हुआ कि अठ्ठाइस साल के विवाहित लड़के का शिरडी वापसी में रोड एक्सीडेंट हो गया था और इतना भयानक सीन था कि महज़ बीस मिनट में उस लड़के की पत्नी की दुनिया ही बदल गई थी। वह कम पढ़ी लिखी है। उस दिन मिलना हुआ तो रोते हुए बोली कि अब तो काम सीखना ही पड़ेगा पेपर का एजेंसी है…नहीं देखेगी तो बिजनेस घाटे में जाते देर नहीं लगेगी।
इन सारे मुद्दों का देखते हुए यह कहा जा सकता है कि नारी के लिये शिक्षा नितांत ज़रूरी है। आज के ज़माने में एक अदद डिग्री तो चाहिये। नौकरी न भी करे पर वह मानसिक रूप से तैयार रहे कि यदि कोई आपदा आती है तो डिग्री काम आयेगी। हां, नौकरी करने से पुरुष की सामंतवादी प्रवृत्ति पर आंशिक अंकुश ज़रूर रहता है।