• रमेश वशिष्ठ

जीवन में बहुत शोर सा हो चला है। कई बार हम अपने साथ चाहकर भी नहीं हो पाते। पतंगों का मौसम है। कई पतंगें उड़ते उड़ते बहुत निकल जाती हैं और कई उड़ते ही काट दी जाती है। ठीक उसी तरह जैसे बस में बैठे हम किसी अच्छी जगह की चाह में बहुत दूर तक सिर्फ कुछ सुकून के पल बिताने के लिए निकल जाते हैं। लेकिन वहां भी एक ख़ामोशी जो भीतर, बहुत अंदर तक बैठे हुए होती है हमें आकर घेर लेती है और सवाल करती है, क्या चाहिए?? ख़ुशी!! वो तो घर में है परिवार के साथ। सुकून!! वो भी अपनों के बीच में है। फिर क्या है जो हमें कई बार बहुत दूर जाने पर नहीं मिलता, आसपास ही बिखरा हुआ मिल जाता हैं!
बिखराब जिंदगी को संवारने का एक मौका देता है। कुछ नया करने को प्रेरित करता है। कई बार एक खालीपन दे जाता है। हम सभी एक खालीपन दे दर्द से पीड़ित हैं। वो खालीपन जो शुरू तो होता है एक ‘स्पेस’ से और अंतिम सांस तक आते आते ‘गेप’ की शक्ल अख्तियार कर लेता है।
खालीपन एक चुम्बकीय गुरुत्वाकर्षण की तरह काम करता है जो सबकुछ समेट लेना चाहता है। हम जीने के नए आयाम बना लेते हैं फिर उन्हीं पर अफ़सोस करने लगते हैं। एक रोशनी की तलाश में हम अंधकार को जीवन में प्रवेश देते हैं। एक खालीपन को जगह दे डालते हैं। ये दायरा कब व्यापक हो जाता है पता ही नहीं चलता। इतना बड़ा कि हम किसी को देख ही नहीं पाते।
फिर एक तड़फ पैदा होती है,जिससे एक विचार, कि काश एक बित्ते के बराबर ही सही कोई मेरे पास ठहर जाए। जो हमें चैन से बैठने नहीं देता। और एक ऐसी ख़ामोशी हमें जकड़ लेती है जो पूरी भी नहीं कम भी, बस अधूरी होती है। जो हमारे अधूरेपन को दर्शाती है।
हमारा अस्तित्व परिवार से जुड़ा है। परिवार समाज से जुड़ा है। और समाज हम से बनता है। बात की गंभीरता इतनी सी है कि हम स्वयं में पूरे हैं। हमसे समाज पूर्ण होता है। लेकिन हम अपनी संपूर्णता कहीं भूल आये हैं, टेक्नोलॉजी ने हमें कुछ अनजान लोगों के करीब होने का भ्रम तो दिया, लेकिन अपने के करीब होने का सच हमसे छीन लिया।
भगवान राम भी अपने जीवन में इस समस्या से जूझे थे। सीता को न चाहते हुए भी प्रजा के हितों को साधते हुए, गर्भावस्था में वन भेज तो दिया, लेकिन कभी स्थिर नहीं रह पाए। वो मजबूरी थी। कर्तव्य और व्यक्तिगत स्वार्थ की लड़ाई में कर्तव्य को ऊपर रखने का द्वन्द्व था। आज ऐसा कुछ नहीं सुविधाओं के नाम पर जीवन विनाश की ओर भागा चला जा रहा है। हम सब चुप्पी साधे इस लालसा में देख रहे हैं कि शायद कोई पहल करेगा। ये खामोशी जिसमें एक चीख दबी हुई है, बाहर आने का इंतज़ार कर रही है। परंतु विद्रूपताओं की पकड़ मजबूत हो चुकी है।
हर व्यक्ति अपने अकेलेपन का शिकार हो चला है। दिमाग काम करना बंद कर चुका है क्योंकि हम बाजार के युग में हैं। हमारी शांति भंग करने के लिए सैकड़ों तरीके इज़ाद किये जा चुके हैं। अपना घर छोड़कर ‘क्वालिटी टाइम’ बिताने हम रिजॉर्ट, विला, होटल में जाते हैं। मतलब साफ है कि कुछ हमारे आसपास ऐसा है जो जड़ हो चुका है। जिसका संपर्क हमें तनिक भी पसंद नहीं। अपनों के साथ आपसी बातचीत त्याग कर हम सीरियल देखने में व्यस्त हैं। नौकरी है लेकिन कब तक, पता नहीं। ये तनाव हमें किसी भी खुशी को महसूस नहीं होने दे रहा।
संभावनाओं को तलाशते रहने से ही इस समस्या, जो अंदर गहरे तक पेंठ बना चुकी है की पकड़ से निकला जा सकता है। परिवार के साथ छोटी-छोटी खुशियों में जीवन का आनंद लेने से ही ख़ामोशी उल्लास में परिवर्तित हो सकती है। जरूरत ये भी है कि हम टी वी की दुनिया से निकल किताबों की दुनिया की तरफ रुख करें, क्योंकि किताबें हमें ज्ञान के साथ ही मनोबल और बिना मिलाबट की सही संगत भी देती हैं। एक साधारण और असाधारण मनुष्य में बस कुछ हजार शब्दों के ज्ञान का अंतर ही पाया जाता है। जीवन के इस अधूरेपन को जीवन से निकाल फेंकने के लिए जरूरी है हम हर चीज़ को, रिश्ते-नाते, अच्छाई-बुराई, हँसी-खुशी, दुख-दर्द, कड़वा-मीठा, उतार-चढ़ाव सबको उसके वास्तविक रूप में आत्मसात करें।
वास्तविक स्तिथि जो असल में उतनी भयाभय नहीं है जितना हमें मानने पर मजबूर कर दिया गया है। हमारे खाने से लेकर सोने का एक तरीका तय कर दिया गया है। हमें क्या अच्छा लगता है ये बात हम खुद को बताना ही भूल गए हैं या कहिए भूलने की आदत हो गयी है। जिसने कुंठा को पैदा करने का काम किया है। बाजार ने हमें इस कदर मतलबी बना दिया है कि देश में अनाथालय और वृद्धा आश्रमों की संख्या हॉस्पिटलों से भी ज्यादा है। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आपसी संबंध किस कदर खंडित हो चुके हैं। ऐसा भी नहीं किसी को त्याग कर हम पूरी तरह खुश रह पा रहे हैं। अंदर एक खालीपन, अधूरापन रात को सोने नहीं देता, आखिर हैं तो हम इंसान ही। वर्तमान समय की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि हम सिर्फ अपने मतलब और जरूरत का ही चाहते हैं। बाकी को हम नकार कर आगे बढ़ जाते हैं और यहीं हमारे पतन की शुरुआत होती है।

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