• कुलदीप मीणा

आम धारणा यह है कि मीरा का समय और समाज ठंडा और ठहरा हुआ था। मीराँ को रहस्यवादी संत-भक्त और कवयित्री मानने वाले इतिहासकार, समालोचक और नये स्त्री-विमर्शकार, इस सम्बन्ध में कमोबेश सभी एकमत हंै। स्त्री विमर्शकार मीराँ के विद्रोह तेवर, साहस और स्वेच्छाचार की तो सराहना करते हैं लेकिन उसे हाशिए की वंचित-उत्पीड़ित आवाज कहकर उसके समाज को ठंडा और ठहरा हुआ मान लेते हैं। मीरा उनके अनुसार असाधारण स्त्री थी, जिसने अपने इस ठहरे हुए समाज के विरूद्ध विद्रोह किया। ’’यह समाज उनकी निगाह में पितृसत्तात्मक और पूरी तरह निर्देशात्मक ब्राह्मण साहित्य से अनुप्राणित समाज था। कुमकुम संगारी ने इस सम्बन्ध में एक जगह लिखा है कि मध्यकाल तक आते-आते स्मृति और पुराण अब कानून के रूप में मान्य नहीं रह गये थे लेकिन उस वैचारिक पृष्ठभूमि और आदर्शों के मानक की तरह वे अब भी उपलब्ध थे, जिसने शासक राजपूत जातियों के पारस्परिक प्रभाव क्षेत्र और जातिय बोध को आकार दिया था।’’1 मीराँ के समाज के सम्बन्ध में प्रचलित ये दोनो धारणाएँ पूरी तरह सही नहीं हैं। उपनिवेशकालीन इतिहासकारों और स्त्री विमर्शकारों ने लगता है, अपने पहले से तय निष्कर्षो को पुष्ट करने के लिए धाराणाओं का निर्माण किया है।
मीरा कालीन समाज में वर्ण और जातिय गतिशीलता थी। उपनिवेशकाल से पहले तक जिस तरह से यहाँ निरन्तर वर्ण मिश्रण हुआ, पेशे बदले औ नयी जातियाँ बनी उससे लगता है कि वर्ण व्यवस्था का ब्राह्मण आदर्श यहाँ के दैनन्दिन जीवन मंे पूरी तरह कभी प्रभावी नहीं रहा।
’’सामंती नैतिकता नारी और भूमि को एक दृष्टि से देखती थी। वहां ’माता भूमि पुत्रोः अहं पृथिव्यांः’ का सिद्धान्त ’वीरभोग्या वसुन्धरा’ में बदल गया। सामंत का राज्य बहुत बड़ा उसकी सेना बहुत बड़ी तो उसका अतःपुर भी बहुत बड़ा। भूमिदान दी जाती है। तो स्त्री भी दान की जाती है-यानी नगरों में वेश्याहाट जरूर होता था,जितना बड़ा नगर उतना प्रभावशाली वेश्याहाट शासक, सामंत, सैनिक मरें तो स्वर्ग में भी अप्सराएँ उनके स्वागत की तैयारी करने लगती थी इस विषय पर हिन्दू और मुसलमानों में नैतिकता समान थी’’2 सती प्रथा का रिवाज उच्च वर्गों में ही था निम्न वर्ग में नहीं। शासक के मरने पर केवल पत्नियां या रखैले ही नही सती होती थी, नौकर-चाकर भी जलते थे।
मध्यकालीन सामंती व्यवस्था में नारी का संपत्ति या धन के रूप में उपयोग होता था। सामंती दृृष्टि नारी का पूर्ण रूप नहीं देखती थी। वह नारी को शरीर ही समझती थी। वस्तुतः कबीर आदि संत जब नारीनिन्दा करते हैं, तो उनका आशय नारी के सामंती रूप की निन्दा करना होता है। नारी जो केवल रमणी है, शरीर है, मां नहीं, पुत्री नहीं पतिव्रता नहीं। वह माया का रूप है। कबीर के यहां माया कनक और कामिनी के रूप में दिखलायी पड़ती है।
मीराँ की कविता में लोकलाज, कुल की मर्यादा तोड़ने या लांघने की बात बार-बार कहीं गई है। यह अकारण नहीं। इसके सामाजिक कारण हैं। मीराँ अपने इष्ट को समर्पित तो होती हैं लेकिन इस समर्पित होने की प्रक्रिया में जो विध्न-बाधा आती है उसका संकेत भी वह देती हैं। तुलसी के समान मीराँ की कविता में भी ’दुर्जन,’ ’खल’ आते हैं। विषमता का बोध मीराँ के यहाँ प्रकट है। कबीर, तुलसी ने अपने समकालीन किसी ’खल’ का नाम लेकर उल्लेख नहीं किया। मीराँ ने ’राणा’ का नाम लिया है। मीराँ की कविता में अमृत-विष साथ-साथ अक्सर आते हैं। कहा गया है कि उन्हें विष दिया गया था, उन्होंने पी लिया तो अमृत हो गया। पता नहीं यह सत्य है या असत्य, लेकिन इसका प्रतीकार्थ जरूर है और अमृत उस संघर्ष से प्राप्त तोष है जो भावसत्य है। मीराँ का संघर्ष जागतिक, वास्तविक है, अमृत उनके हृदय या भावजगत में ही रहता है।
मध्यकालीन समाज में अवर्णों को सवर्णों के समान होने के लिए जातिप्रथा से टकराना पड़ता था तो नारियों को रूढ़िग्रस्ता और छद्म कुलमर्यादा से । भक्ति आंदोलन में आर्थिक समानता की बात नहीं थी, बात केवल भक्ति की दृष्टि से समानता की थी। लेकिन इस भावजगत की समानता के अनुकूल आचरण करने पर जातिप्रथा और नारीपराधीनता की रूढ़ि रास्ता रोककर खड़ी हो जाती थी। मीराँ जब कविता में बार-बार लोकलाज, कुल की मर्यादा को तोड़ने की बात कहती हैं तब वह उसी बाधा का संकेत करती हैं। ऐसे उल्लेख मीराँ के यहां बहुत ज्यादा है। जैसे तुलसीदास को जहां अवसर मिलता है, भूख, अकाल, महामारी, और कामदेव के प्रभाव का उल्लेख कर देते हैं, कबीर, ’जाति जुलाहा मति का धीर’ जैसा उल्लेख कर देते हैं, वैसे ही मीराँ लोकलाज, कुल की मर्यादा तोड़ने का अदबदा कर उल्लेख करती हैः
’’लोकलाज कुलरां मरजादां जग मां णेक णा राख्यां री (पद सं0-17) साज सिंगार बांध पग घंूघरू लोकलाज तज नाची (पद सं0-19) लोकलाज की काण न मानूं (पद सं0- 35)’’3
’’मीरा ने अपने पदों में यह भी कहा है कि लोकलाज तो मैंने तोड़ दी, लेकिन इसके लिए लोग मुझे बुरा कहते है, निंदा करते है, तरह-तरह की बातें करते हैं। सास लड़ती है, ननद खिजाती है, पहरा बिढला दिया गया है, ताला जड़ दिया गया है, ताकि मीराँ बाहर न जा सके:
हेली म्हांसू हरि बिन रह्यों न जाय। सास लडे़ मेरी ननद खिजावै राणा रह्या रिसाय। पहरो भी राख्यों चैकी बिहार्यो, तालो दियो जडाय।।’’4 (पद सं0-42)
मीरा की कविता का परिवेश सीमित और व्यक्तिगत है लेकिन वह इस व्यक्तिगत और सीमित परिवेश को तोड़कर बाहर आना चाहती हैं, बाहर आने से रोकी जाती हैं- बाहर न आ पाने की व्यथा का वर्णन-चित्रण करती हैं, तो परिवेश अपनी विषमता युक्त बाह्य समाज का भी संकेत कर देता है। सिंहासन पर मूर्ख बैठे हैं, विद्वान् द्वार-द्वार मारे फिरते हैं राणा भक्तों का संतार करता है।
’’मूरख जण सिंघासण राजा, पंडित फिरतां द्वारां मीरा रे प्रभु गिरधर नागर राणा भगत संघारां।’’6 (पद सं0-190)
मूर्ख सिंहासन पर बैठा है-ऐसी सीधी और कटु उक्ति भक्त कवियों में से कम ने ही की होगी। मीरा की काव्य भाषा कहीं-कहीं कबीर से बिल्कुल अलग है। उसके कई रूप हैं। ये सीधे-सीधे राज परिवार को चुनौती हैं। यह कबीर के यहाँ नहीं हैं। कबीर समाज और धर्म के मठाधीशों को चुनौती देते हैं। पर मीरा राजसत्ता को चुनौती देती हैं-
थाँरे देसा में राणा साद्य नहीं छै लोग बसैं सब कूड़ो। ऐसी बात किस कवि ने कही है? पर मीराँबाई कहती हैं। वह कहती है कि तुम्हारे देश में राणा कोई साधू अर्थात् सज्जन नहीं हंै, सब के सब कूड़ा ही बसे हैं। मध्यकाल में एक स्त्री इस बात को सीधे-सीधे कह रही है। मीरा ने कहा क्योंकि उन्होंने अपने पारंपरिक स्त्रीपन को छोड़ दिया है। मीरां कहती हैं- गहना गाँठी राणा हम सब त्यागा,त्याग्यों करणे चूड़ों। यहाँ मीराँ का विद्रोही स्वर भी है और लोक तत्व भी। ’गहना गाँठी वो सब मैने छोड़ दिया है, जो एक स्त्री का प्रतीक चिन्ह है।
मीरा मध्यकाल में प्रेम के महत्त्व को जिस तरह स्थापित करती है, वह अपने आप में बहुत बड़ी बात है। और वह भी कविता के माध्यम से! यदि पुरूषों ने प्रेम के महत्त्व को स्थापित किया, तो यह उनके लिए आसान था। पुरूषों के लिए आसान इसलिए कि वे अपने प्रेम-सम्बन्धों की बातें खुलेआम कर सकते हैं। लेकिन मध्यकाल में एक स्त्री अपने प्रेम की अभिव्यक्ति और इसकी स्थापना इतने मुखर रूप में करती है तो तत्कालीन सामंती समाज द्वारा समाज व्यवस्था में स्त्री के लिए खींची गई सीमा रेखा को पार कर बाहर निकलती है। मीराँ बडे़ साहस से कहती है कि जो तुम लोग मुझे बदनाम कर रहे हो वह तो मुझे अच्छी लग रही हंै और वहीं यह भी कहती हैं कि-
राणा जी म्हाँने या बदनामी लागे मीठी। मीराँ कहती है कि मैं अपने ही रास्ते पर चलूँगी चाहे कितनी ही बदनामी क्यों न हो। कोई निन्दो कोई बिन्दो, मैं चलूँगी चाल अनूठी
मीरा की कविता में सीमित चेष्टाशीलता है। उसमें बंधन तोड़कर निकलने की व्याकुलता तो है किन्तु यह अनिवार्य बोध भी है कि इस बंधन को तोड़ पाना दुष्कर है। उनकी कविता में प्रिय के प्रति जो समर्पण का भाव है वह उनके अबलात्व के बोध से युक्त है। वह जानती है कि वह पंखहीन पक्षी हैं। उनकी तीव्र इच्छा उन्हें व्याकुल ही बनाएगीं। बंधन की नियति के बोध ने उन्हें एक शांति भी दी है जिसके साथ वे कृष्ण के प्रति समर्पित होती हैं। मीरा की कविताओं से उनके रचनाकार का जो रूप उभरता है वह पिंजरे में हताशा-बद्ध पक्षी का है जो दूरस्थ नीड़ के ध्यान में मग्न होकर नाच रहा है।
भारतीय मानस नारी की करुण दशा से बहुत परिचित है। मीरा की इस असहाय और विवश अभिव्यक्ति की सपाटबयानी उसके मानस में तत्काल उचित संदर्भों में जुड़ जाती है और वह अनुभूति-स्पंदित हो उठता है।
वास्तव में मीराँ के लिए भक्ति एक बहाना था और कविताई एक हथियार। मीराबाई एक कैनवास पर एक ऐसे समाज को रेखाचित्र खींचने कोशिश कर रही थी। जहां सामंती मूल्यों और वर्जनाओं का निषेध हो, जहां जौहर और चिता की लपलपाती भवावह अग्नि-लपटें बेबस स्त्री मन को दहलाती न हो और सामाजिक समरसता और समानता की स्थापना ही पहली शर्त हो।
मध्यकाल के किसी भी कवि के यहाँ दमनकारी सत्ता के विरूद्ध इतनी आक्रामक और बेबाक अभिव्यक्ति नहीं मिलती जितनी मीराँ के यहाँ मिलती है इस ऩजरिए से देखे तो मीरा कबीर आदि अन्य मध्यकालीन कवियों के मुकाबले मीलों आगे खड़ी दिखती हैं।

(लेखक हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं।)

सन्दर्भ सूची-
पचरंग चोला पहर सखी री,माधव हाड़ा, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2015 पृ0 60
मीरा का काव्य, विश्वनाथ त्रिपाठी, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली 2010 पृ0 43
मीराबाई की पदावली, परशुराम चतुर्वेदी साहित्य मम्मेलन प्रयाग
मीरा का काव्य, विश्वनाथ त्रिपाठी वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली पृ0 56
मीराबाई की पदावली परशुराम चतुर्वेदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ।

 

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