• नीरजा हेमेन्द्र

चाय की भट्टी से कल की राख और कोयला बाहर निकाल कर, अपनी छोटी-सी चाय की दुकान में झाड़ू लगाते-लगाते नन्हें सोच रहा था कि आज फिर से देर हो गयी। अब तक भट्टी नही सुलगी। अभी कुछ ही देर में चाय पीने वाले ग्राहक आने लगेंगे। सुबह ही तो चाय पीने वाले ग्राहक अधिक आते हैं और यही समय भी है जब कुछ अधिक बिक्री हो जाती है। पौ फटने वाली है। अभी कुछ भी तैयार नही है। न चाय, न नमकीन। चाय के साथ नमकपारे भी बनाता है नन्हें। लोग चाय के साथ नमकपारे भी मांगते है। कल के थोड़े से नमकपारे व सेव बचे हंै। कुछ देर तक तो उनसे काम चल जायेगा। किन्तु चाय पीने वाले तो दिनभर आते रहते हैं। नमकपारे तो बनाने ही पड़ेगे। अगर चाय के साथ नमकीन न मिला तो चाय पीने वाले ग्राहक दूसरी दुकान पर चले जायेंगे। नन्हंे ने झाड़ू लगाकर कूड़ा दुकान के बगल में खाली पड़ी किसी की जमीन पर फेंक कर, शीघ्रता से भट्टी में कंडे तोड़कर डाला ऊपर से जलौनी कोयला भर कर
रद्दी काग़ज से भट्टी सुलगा दी। उसने सोचा कि जब तक भट्टी सुलगेगी तब तक वो रात के चाय के बर्तनों को धो ले। वह दुकान के बाहर जहाँ चार-छः ईंटे बिछी थीं, वहाँ पानी से भरी बाल्टी रखी और वहीं बैठकर चाय, दूध भगौने इत्यादि धोने लगा।
ऐसा नही है कि नन्हें प्रतिदिन ये सभी काम स्वंय करता है। उसने दुकान में अपनी मदद के लिए एक लड़का रखा हुआ है। वो लड़का प्रतिदिन इस समय तक आ जाता है किन्तु आज अभी तक नही आया है। हो सकता है अस्वस्थ हो गया हो या आज आने में कुछ विलम्ब हो रहा हो। यह भी हो सकता है कि वह आज आये ही न। उसके लिए रूका तो नही जा सकता। चाय की दुकान तो सुबह लग ही जानी चाहिए। यही सोच कर नन्हें बिना विलम्ब किए दुकान लगा देना चाह रहा है। चाय पीने वाले अभी से आने लगेंगे। बर्तनों को धोकर नन्हें भीतर ले आया। अंगीठी लहक कर लाल हो रही थी। चाय के भगौने में पानी पलटकर अंगीठी पर चढ़ाने ही जा रहा था कि दूध वाला आ गया। कोई और काम समय पर हो न हो, दूध वाला अवश्य समय पर आ जाता है। चाय का पानी चढ़ाने से पहले नन्हें ने दूध गरम होने के लिए अंगीठी पर चढ़ा दिया। दूध गरम होने में जो समय लगेगा उतनी देर में वह नमकान बनाने की तैयारी कर लेगा। यही सोचकर नमकीन, सेव बनाने के लिए कनस्तर से परात में बेसन पलटने लगा। एक तरफ दूध गरम होगा, दूसरी तरफ वह बेसन गूँथ लेगा।
लगभग पचपन बरस की उम्र हो रही है नन्हें की। अब उसके शरीर में उतनी स्फूर्ति व ऊर्जा नही रही, जैसी पहले हुआ करती थी। पहले भी यही चाय की दुकान थी नन्हें की। पहले भी वह चाय, सेव, नमकीन ही बनाया….बेचा करता था। किन्तु तब वह अकेले दुकान का सारा काम कर लेता था। करना तो अब भी सारा काम अकेले ही पड़ रहा है नन्हें को। क्यों कि कोई उसका अपना नही है हाथ बँटाने को। तनखा पर एक लड़का रखा है। कभी वो नही आता है तो सब कुछ अकेले करना पड़ता है नन्हें को। अपने से अर्थ यह है कि कोई पुत्र नही है उसका जो ऐसे गाढ़े समय पर उसके साथ खड़ा हो सके। यही सब सोचकर आज पुनः नन्हें का मन खिन्न हो रहा है। ऐसी सोच नन्हें के मन में बहुधा उठती रहती है…और उसका मन खिन्न होता रहता है। बेसन गूँथ चुका था। दूध भी उबल चुका था। भट्टी से दूध उतार कर अलग रख दिया तथा चाय चढ़ा दी।
’’राम-राम नन्हें भईया। ’’ दो ग्राहक चाय पीने दुकान पर आ गये थे। वे दोनों दुकान की दीवार से लगी लकड़ी की ढीली बेंच पर सम्हल कर बैठ गये। उनकी राम-राम का उत्तर देते हुए नन्हें ने उनके लिए दो शीशे के गिलास में चाय निकाल दी।
’’ दो रूपये के नमकीन भी दे दीहौ नन्हें भईया। ’’ उन्होंने नन्हें से कहा।
नन्हें ने पुराने अखबार से दो टुकड़े किये और सामने मेज पर रखी जस्ते की ट्रे में रखी नमकीन में से अन्दाज से दो रूपयें की थोड़ी-थोड़ी नमकीन अखबार के दोनों टुकड़ों पर रख कर उनके सामने बेंच पर रख दिये। वे दोनों गपशप करते हुए चाय पीने लगे। धीरे-धीरे और भी चाय पीने वाले आने लगे। चाय के साथ नमकीन की मांग भी थी। काम वाला लड़का अभी तक नही आया था। नन्हें की दुकान शाम के आठ-नौ बजे खुली रहती है। तब तक आज नन्हें को अकेले दुकानदारी करनी पड़ेगी। आज दोपहर को भोजन करने भी नन्हें घर नही जा पायेगा, क्यों कि काम वाला लड़का आज आया नही है। यद्यपि नन्हें का घर बस्ती के इसी मुहल्लें में दुकान से कुछ दूरी पर है। फिर भी नन्हें घर नही जा सकता, क्यों कि घर जाने के लिए दुकान बन्द करनी पड़ेगी। काम वाला लड़का रहता है, तो नन्हें दोपहर का भोजन करने घर चला जाता है। चाय पीने वाले दिन भर आते रहते हैं। दुकान बन्द करने से एक तो ग्राहक इधर-उधर चले जाते हैं, दूसरे चाय और दूध जैसा कच्चा माल खराब हो जाता है। अब एक ही उपाय है कि अपने घर की ओर आते-जाते किसी से भोजन दुकान में ही भेजने के लिए घर में कहलवा देगा। उसकी पत्नी चन्द्रावती भोजन दुकान पर पहुँचा देगी। चन्द्रावती घर से बाहर कम ही निकलती है। ऐसे ही आवश्यकता पड़ने पर कभी-कभी किसी काम से दुकान पर आ जाती है। घर से बाहर निकलते ही लम्बा-सा घूँघट निकाल लेती है। ऐसा वह उस समय से कर रही है जब तेरह वर्ष की अवस्था में व्याह कर इस घर में आयी थी। आज लगभग पचास वर्ष की हो रही होगी चद्रावती। दाढ़ के दाँत टूट गये हैं। बाल आधे से अधिक सफेद होकर खिचड़ी हो गये हैं। किन्तु घूँघट के बिना अब भी बाहर नही निकलती।
नन्हें की दो बेटियाँ हैं। कहने को दोनों सयानी है,ं व्याह कर देने लायक। छोटी वाली बारहवीं में पढ़ रही है और बड़ी बी0ए0 में है। नन्हें अभी तक इनका व्याह नही कर पाया है। ऐसा नही कि वह इनका व्याह करना नही चाहता या इनके योग्य लड़के नही मिल रहे। लड़के भी मिल रहे हैं और नन्हें व्याह करना भी चाहता है किन्तु उसकी बड़ी बेटा कल्पना नन्हें की बात नही मानती। व्याह के लिए कहने पर कहती है कि अभी आगे और पढ़ेगी। वह नही समझती कि ई छोटा कस्बा है। मोहल्ले में कानाफूसी होती है कि नन्हें की दोनों बिटिया व्याह की उमर पूरी कर चुकी हैं, किन्तु नन्हें को उनके विवाह की कोई फिकर नही है। कोई क्या जाने कि नन्हें को फिकर कैसे नही है..? सोचते-सोचते नन्हें का मन खराब हो गया।
सेव का बेसन गूँथकर नन्हें ने तेल की कड़ाही भट्टी पर चढा़ दी। वह छनौटे से सेव बना कर गरम तेल में गिराता जा रहा था तथा सेव तल कर पौने से निकालकर ट्रे में रखता जा रहा था। अकेले दुकान में काम करते-करते आज सुबह से नन्हें का मन खिन्न हो रहा था। सही कहते हैं लोग…आज उसका बेटा होता तो उसके काम में हाथ बँटाता। कल को बड़ा होकर दुकान सम्हालता। दो-दो लड़कियाँ हो गईं हैं किन्तु किसी काम की नही हंै। ये लड़कियाँ घर में अपनी महतारी के साथ घर के काम में हाथ बँटाती हंै और पढ़ने चली जाती हैं। घर में जब देखो तब पढ़ती ही रहती हैं। शादी-व्याह की बात करने पर कहती हैं कि- ’’ अबहीं नाही करब। हम पढ़-लिख के कुछ बनब तब व्याह करब। ’’
लड़कियाँ ये नही समझतीं कि जो थोड़ा-बहुत पढ़-लिख लिया वो बहुत है। आखिर अधिक पढ़-लिख कर भी घर में ही रहना है और चूल्हा-चैका करना है। अब तो नन्हें ने उन्हें कुछ भी समझाना छोड़ दिया है। कुछ पैसे जोड़ रखे है नन्हें ने उनके व्याह के लिए। लड़का भी देख रखा है। पास के मुहल्ले में चाय की दुकान है लड़के की। लड़का सरकारी स्कूल से आठवीं पास भी है। लगता है कि ये लड़का हाथ से निकल जायेगा। लड़कियाँ समझती नही हैं कि ज्यादा पढ़-लिख लेंगी तो उनकी जोड़ का लड़का कहाँ मिलेगा..? सोचते-सोचते नन्हें का मन उचाट होने लगा था। सहसा उसकी दृष्टि पड़ोस में रहने वाले सरजू के लड़के जीतू पर पड़ी। बारह-तेरह बरस का जीतू कितनी तेजी से साईकिल से भागा जा रहा था।
’’ये जीतूआ…..ये जीतूआ….। ’’ शीघ्रता से बाहर निकल कर नन्हें ने आवाज लगाई। इतनी देर में जीतू दो दुकान आगे बढ़ गया था।
’’का है काका। ’’ नन्हें की आवाज कानों में पड़ी तो साईकिल किनारे रोक कर बोला।
’’हिंया आव। ’’ नन्हें ने हाथ के इशारे से उसे बुलाया।
जीतू ने साईकिल घुमाई और नन्हें की दुकान के आगे खड़ा हो गया तथा प्रश्नवाचक दृष्टि से नन्हें की ओर देखने लगा।
’’ घरै जात बाड़ का? नन्हें ने उससे पूछा।
’’ हाँ। ’’ जीतू ने कहा।
’’ हमरै घरै जाके काकी से कहि दीह कि केहू के हाथे हमार खाना भेज दीहैं। आज सोहना काम पर नाही आईल बा। ’’ नन्हें ने उससे कहा।
’’ ठीक बा। अबहि हमके उधर से लौटे के बा। हमहि तोहार खाना लेत आईब। ’’ जीतू ने कहा।
’’ ठीक बा। जा घरै। ’’ नन्हें ने कहा।
आनन-फानन में साईकिल हाँकता जीतू सर्र…से निकल गया। ग्राहक के लिए चाय छानते-छानते नन्हें सोचने लगा कि आज हमारे लड़का होता तो हमें किसी और के लड़के की चिरौरी क्यों करनी पड़ती..? लड़का न होने पर बात-बात में रोना उसकी किस्मत में बदा है। कहाँ तक इसका रोना रोये? नन्हें को पता है कि उसकी पीठ पीछे लोग उसे निरबंसिया…तो सूखा पेड़…. न जाने क्या-क्या कहते हैं। वो किसी का मुँह थोड़े ही पकड़ सकता है? बस कलेजे पर पत्थर रख लेता है। लगभग घंटे भर पश्चात् जीतू नन्हें की खाने की पोटली लेकर आ गया।
’’ ई खाना पकड़ो काका। काकी कहिन हैं कि अकेले हौ तो शाम को जल्दी दुकान बन्द कर घर आ जाना। ’’ जीतू ने खाने की पोटली पकडा़ते हुए नन्हें से कहा और साईकिल से फुर्र हो गया। नन्हें उसे देखता रह गया।
नन्हें जानता है कि इस समय उसकी दोनों बेटियाँ पढ़ने गईं होंगी। उसकी पत्नी घर में अकेली होगी। आज उसका अपना लड़का होता तो जीतू की तरह उसका सहारा होता। नन्हें फिर वही लड़का-लड़की की अनर्गल बातें सोचने लग गया।
’’ एक चाय अउर दो रूपये का सेव दीहौ भईया। ’’ सामने खड़े ग्राहक ने कहा। मन में उमड़ते-घुमड़ते इन बातों पर विराम लगाते हुए नन्हें ग्राहक के लिए चाय छानने लग गया।
शाम को शीघ्र दुकान बन्द कर नन्हें घर आ गया।
’’ बाउ जी, फार्म भरने के लिए पैसे चाहिए। ’’ अभी हाथ-मुँह धोकर नन्हें बाहर की कोठरी में बिछे तख़त पर बैठा ही था कि बड़ी बेटी ने कहा।
’’ फिर से पैसे..? अभी तो कोचिंग के लिए पैसे ले गयी थी? ’’ नन्हें ने कहा।
’’ वो तो छः माह हो गये बाबूजी। अब नौकरी के लिए फार्म भरने हैं। उसके लिए पैसे चाहिए।
’’ पता नही कब और कितने पैसे मांग पड़े ये लड़कियाँ। ’’ मन ही मन बड़बड़ाते हुए नन्हें उठा और भीतर कोठरी में जाकर पैसे वाली छोटी-सी बकसिया का ताला खोल कर उसमें से पैसे निकाले और बड़ी बिटिया को दे दिया। नन्हें जान रहा था कि पास के बड़े शहर में उसकी ये लड़की कभी इम्तहान देने जाती है और तो कभी इन्टरव्यू देने। आने-जाने में पैसे लगते ही हैं। जब भी मांगती है, नन्हें पैसे दे दिया करता है। समय व्यतीत होता जा रहा था। नन्हें के जीवन में सब कुछ उसी प्रकार था। कोई बदलाव नही था। नन्हें को बस एक ही फिक्र थी और वो थी किसी प्रकार लड़कियों का व्याह कर देने की फिक्र।
’’ बाबूजी हम पी0 सी 0 एस0 के इम्तहान में पास हो गये हैं। ’’ एक दिन मोबाईल फोन में न जाने क्या देखते हुए बड़ी बेटी ने खुश होते हुए कहा।
’’ ई का होत है…? अउर तुम फोनवे में ही पास हो गयी…? ’’नन्हें ने लगभग डपटते हुए कहा। ’’ बाबूजी नेट पर हम रिजल्ट देख लिए हैं। ’’ बेटी ने समझाते हुए कहा।
’’ ई लड़कियाँ सब न जाने क्या-क्या कहती हैं….? हमका कुछ समझ में नाही आवत है। ’’ बड़बड़ाता हुआ नन्हें बाहर चला गया। कुछ देर में घूम-टहल कर घर आया और सो गया।
दूसरे दिन भोर में नियत समय पर नन्हें दुकान पर पहुँचा। दुकान खोलकर भट्टी झाड़ ही रहा था कि काम वाला लड़का भी आ गया। दोनों मिलकर चाय आदि बनाने की तैयारियों में लग गये। नन्हें ने नमकीन बनाने का बेसन गूंथने के लिए लड़के को दे दिया तथा दूध आदि देखने के लिए स्वंय भट्टी पर खड़ा हो गया। सवेरा हो गया था। धीरे-धीरे चाय पीने वाले ग्राहक आने लगे थे।
’’ नन्हें…अरे ओ नन्हें….इहाँ तू चाय छानत हौ। ई देखौ तोहार बड़ी बिटिया के फोटो अखबार मे छपल बा। ’’ बगल की परचून की दुकान वाले रामलाल हाथ में अखबार लेकर नन्हें की दुकान पर खड़े थे।
’’ बिटिया क फोटो….? ऊ काहे…? ’’ परेशान होते हुए नन्हें ने पूछा। वो कुछ समझ नही पाया।
’’ तुहार बिटिया अफसर हो गयी। ई देखो….ई फोटो…। ’’ अखबार आगे बढ़ते हुए रामलाल ने कहा।
’’ तू त पढ़लै नही बाड़। हमहीं पढ़ि के बतावत हईं। ’’ अखबार में बिटिया की फोटो निहारते नन्हें को देख रामलाल ने कहा।
’’ ई मा लिखल बा कि तोहार बिटिया बड़का अफसर बनेगी। ई मा तोहार नाव ( नाम ) भी लिखल बा। ई गाँव का नाव भी लिखल बा। तुहार बिटिया अपने गाँव का नाव रोशन कर दीस।
’’ नन्हें हकबक मुँह बाये रामलाल की बात सुन रहा था।
’’ अब चाय नाही, आज मिठाई से सबका मुँह मीठा कराव। ’’ रामलाल ने खुश होते हुए कहा।
दिन भर जब जिसको पता चलता, लोग नन्हें की दुकान पर आकर उसे बधाई देने आते रहे। नन्हें लड्डू से सबका मुँह मीठा कराता रहा। किन्तु वह अब भी नही समझ पा रहा था कि उसकी बिटिया ने ऐसी कौन-सी नौकरी पा ली है कि लोग इतने खुश हैं, अचम्भित हैं। दिन में अखबार वाले भी आये। उन्होंने नन्हें, नन्हें की पत्नी, गाँव-गिराँव सबके बारे में नन्हें से पूछा। नन्हें के दुकान की फोटो भी खींच कर ले गए। अगले दिन नन्हें के गाँव का नाम, बिटिया कल्पना के साथ नन्हें व उसकी पत्नी, उसकी दुकान की फोटो भी अखबार में छपी थी। साथ ही यह भी कि एक साधारण घर की बुद्धिमान लड़की ने अपने माता-पिता का नाम रौशन किया।
नन्हें समझ नही पा रहा था कि क्या लड़कियाँ भी ऐसा कर सकती हैं? नन्हें बाजार की ओर निकला तो सब उसे राम-राम,  दुआ-सलाम करते रहे। नन्हें को लोगों द्वारा पता चला कि अब वो तहसीलदार बेटी का पिता बन गया है।
’’ बाबूजी, अगले हफ्ते हमको ट्रेनिगं के लिए जाना है। ’’ दूसरे दिन नन्हें जब दुकान पर जाने के लिए घर से निकल रहा था, तब बड़ी बिटिया ने कहा।
’’ ठीक हवै बेटा। ’’ नन्हें ने कहा।
’’ हमका ऊँहा किराये-भाड़े और अन्य खरचा खातिर कुछ पईसा चाही बाबूजी। ’’ बिटिया ने झिझकते हुए कहा।
’’ तू ई सब फिकर न करा। तू जायेका तैयारी कर। ’’ नन्हें ने मुस्कराते हुए कहा।
वो दिन भी आ गया जब कल्पना को ट्रेनिंग के लिए जाना था। उसने जाने की सभी तैयारियाँ कर ली थीं। बिटिया पराये शहर में अकेले कैसे रहेगी, सोच-सोच कर नन्हें का मन घबरा रहा था।
’’ बाबूजी आप परेशान न हो। ट्रेनिंग में हमको कउनो परेशानी ना होई। ’’ नन्हें के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें देखकर बिटिया ने कहा।
’’बस कुछ दिन की बात है। फिर माई अउर तुमका हम अपने पास बुला लंेगे। फिर तुमको भोर में उठ के चाय के दुकान खोले नाही जाये क पड़ी। ’’ बिटिया ने आगे कहा।
बिटिया की बात सुनकर नन्हें की आँखों में अश्रु आ गये। नन्हें जानता है कि अश्रु मन की दुर्बलता की पहचान होते हैं। बिटिया के सामने पिता की दुर्बलता जाहिर न हो जाये, इसलिए नन्हें बाहर निकल गया। आज नन्हें के कदम गर्व के साथ दुकान की ओर बढ़ रहे थे।
समय के साथ बिटिया की टेªनिंग पूरी हो गई। ट्रेनिंग के पश्चात् नियुक्ति पत्र लेकर बिटिया घर आयी। अब उसे नौकरी के लिए दूसरे शहर जाना था। बिटिया ने कहा दो-चार दिन आप लोगों के साथ रह कर मैं जाऊँगी। बिटिया की जाने की बात सोचकर नन्हें का जी हलकान हो रहा था। दूसरी ओर उस पर गर्व भी हो रहा था कि अधिकारी बन कर बिटिया ने पूरे शहर में नन्हें का नाम रौशन कर दिया।
’’ बिटिया, तुम पराये शहर में अकेली कैसे रहोगी? रोकते-रोकते भी नन्हें ने अपनी शंका प्रकट कर दी।
’’ हम रह लेंगे बाबूजी। आप बिलकुल भी चिन्ता न कीजिए। अब वो पहले वाला समय नही रहा। लड़कियाँ अकेले आ-जा रही हैं, रह रही हैं। वो आत्मनिर्भर और समर्थ हो रही हैं, आपकी बेटी की भाँति। ’’ बिटिया ने नन्हें को आश्वस्त करते हुए कहा।
बिटिया नौकरी पर दूसरे शहर चली गई। शहर अधिक दूर नही है। चार घंटे के सफर के पश्चात् वहाँ पहुँचा जा सकता था। वहाँ से बिटिया का फोन भी बराबर आता रहता है।
’’ बाबूजी, हमको सरकारी घर मिल गया है। अब आप हमारे साथ यहाँ आकर रहिएगा। अब आपको और मेहनत करने की आवश्यकता नही है। ’’ एक दिन बिटिया ने फोन पर बताया। बिटिया की बात सुनकर नन्हें कुछ नही बोला। बस, बिटिया को खूब आशीष दिया।
दो महीने हो गये थे बिटिया को गये हुए। उससे फोन पर तो प्रतिदिन ही बात होती है किन्तु नन्हें की इच्छा अब उसे देखने की हो रही थी। नन्हें का मन नही माना, एक दिन नन्हें
अपनी पत्नी और छोटी बेटी का लेकर कल्पना बिटिया से मिलने चला गया। चलने से पहले फोन पर अपने आने की बात उसने कल्पना बिटिया से बता दिया था। वहाँ स्टेशन पर पहँुच कर उसने देखा कि कल्पना उन्हें लेने स्टेशन पर आ गयी थी। उसकी सरकारी गाड़ी देखकर नन्हें को उस पर बहुत गर्व हो रहा था। गाड़ी सीधे बिटिया के सरकारी बंगले पर रूकी। बिटिया का घर, लाॅन, घर की साज-सज्जा देखकर नन्हें अचम्भित था। इन सबकी देखभाल के लिए नौकर भी मिले थे बिटिया को। बिटिया के घर में नन्हें आराम से बैठा था।
’’ बाबूजी, अब आपको चाय की दुकान खोलने की आवश्यकता नही है। इतना बड़ा घर है। किसी चीज की कमी नही है। आप सब यहीं मेरे साथ रहिये। ’’ बिटिया ने कहा।
’’ नाही बिटिया, तू सुखी रह। खूब तरक्की कर। हमार जिनगी चाय के दुकान पर बीत गई। हमके ऊहैं नीक लागेला। लोगन के चाय पिला के हमके खुसी मिलेली। घर में बईठल में हमका अच्छा नही लागेला। ’’ नन्हें ने बिटिया से कहा।
बिटिया के घर दो दिन रहा नन्हें। उसने देखा कि बिटिया समय और काम की बहुत पक्की है। बिटिया ने बताया कि लोगों की और देश की सेवा के लिए वह इस नौकरी में आयी है। ’’ वह गाँवों में रहने वाली बेटियों की शिक्षा और उनकी आत्मनिर्भरता के लिए भी काम करेगी। ’’ बिटिया को देखकर खुश होता हुआ नन्हें घर आ गया। नन्हें ने चाय बनाना नही छोड़ा। कल्पना ने अपने बाबूजी की दुकान पक्की बनावा कर गैस का चूल्हा, पंखा, कूलर, तथा लोगों के बैठने के लिए मेज-कुर्सी आदि लगवा कर आधुनिक सुख-सुविधाओं से दुकान को लैस कर दिया। दुकान पर नौकर काम करते। नन्हें काउन्टर पर बैठ कर आराम से दुकान का संचालन करता, लोगों से गपशप करता। नन्हें की छोटी बेटी भी पढ़ने में रूचि रखती है। उसने भी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग ज्वाईन कर लिया है। वे जितना पढ़ना चाहे पढ़े, नन्हें उसे पढ़ायेगा। नन्हें को बटियों केे विवाह की चिन्ता अब नही है। नन्हें समझ गया है कि उसे वर ढँूढने जाने की कहीं भी आवश्यकता नही है। वर स्वंय उसका घर ढूँढते हुए आयेंगे। नन्हें इस बात को समझ चुका है कि पुत्र-पुत्री में कोई फर्क नही होता, बस पुत्रियों पर भरोसा रखने की आवश्यकता है। वह लोगों को भी बेटियों पर भरोसा रखने की सीख देता रहता है।

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