कविता लिखने का शौक़ तो कालेज के दिनों से ही था। मित्रमण्डली में बैठ कर अपनी कविताएं सुनाया करते थे। उनकी कविताओं में भोजपुरी और पूर्वांचल की बोली का पुट साफ़ दिखाई देता था। दोस्तों ने उन्हें उपनाम दिया अंजान। और वे उसी नाम से मित्रों में लोकप्रिय हो गये।
संघर्ष इन्सान को सोने की तरह तपा देता है। बनारस उत्तर प्रदेश में 28 अक्तूबर, 1930 को जन्मे लालजी पाण्डेय इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। उनके पिता का नाम था श्री शिवनाथ पाण्डेय और माता का नाम था इंदिरा देवी। उनकी शिक्षा दीक्षा बनारस में ही हुई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्होंने बी.कॉम. की डिग्री हासिल की। उनके जीवन के बारे में अधिकांश बातें उनके सुपुत्र गीतकार समीर (शीतला पाण्डेय) के माध्यम से ही मिलती रही है।
कविता लिखने का शौक़ तो कालेज के दिनों से ही था। मित्रमण्डली में बैठ कर अपनी कविताएं सुनाया करते थे। उनकी कविताओं में भोजपुरी और पूर्वांचल की बोली का पुट साफ़ दिखाई देता था। दोस्तों ने उन्हें उपनाम दिया अंजान। और वे उसी नाम से मित्रों में लोकप्रिय हो गये।
कहा जाता है कि अपने समय के मशहूर गायक मुकेश एक बार बनारस गये तो क्लार्क होटल में उनका एक प्रोग्राम था। डी. पैरिस होटल के मालिक शशि बाबू ने उनसे आग्रह किया कि वे एक बार अंजान की कविताएं सुन लें। मुकेश मान गये। और अंजान जी की कविताएं सुन कर बोले, “आपको तो फ़िल्मों में लिखना चाहिये।”
अंजान जी को बनारस की आबो-हवा रास नहीं आ रही थी। उन्हें सख़्त अस्थमा की शिकायत थी। उनके पुत्र समीर ने एक इंटरव्यू में बताया कि डॉक्टरों ने उनके पापा से कहा कि यदि आपको ठीक होना है और जीवित रहना है तो आपको यह शहर छोड़ना होगा। अस्थमा के कारण उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी। अंततः वे बनारस छोड़ मुंबई के लिये रवाना हो गये।
उन दिनों पैसों की तंगी थी और जीवन यापन के लिये ट्यूशन पढ़ाने का काम भी किया। उनके पुत्र बताते हैं कि पिता जी संगीतकारों से काम मांगने जाते थे मगर काम मिलता नहीं था। चार दोस्तों के साथ अंजान जी ऐरोमा गेस्ट हाउस में एक ही कमरे में रहते थे। एक समय ऐसा भी आया कि उनके दोस्त आगे बढ़ गये और अंजान उस कमरे में अकेले रह गये। भला अकेला आदमी उस कमरे का किराया कैसे देता।

अंजान जी ने लोकल ट्रेन का मासिक पास बनवा रखा था। उन दिनों ठीकठाक पैसों में पास बन जाया करता था। रात को सोने के लिये कोई जगह नहीं थी। बस ट्रेन में बैठ जाते और रात ट्रेन में सोते हुए गुज़ार देते। कभी कभी किसी अपार्टमेण्ट के नीचे बिस्तर बिछा कर सो रहते।
बात 1953 की है। मुकेश अभी भी बनारस के अंजान को भूले नहीं थे। उन्होंने उनकी मुलक़ात प्रेमनाथ जी से करवा दी जो उन दिनों प्रिज़नर ऑफ़ गोलकोण्डा का निर्माण कर रहे थे। उस फ़िल्म के लिये अंजान ने पहली बार गीत लिखे। फ़िल्म चली नहीं और उसके गीत भी लोगों के दिलों में जगह नहीं बना पाए। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे प्रेमनाथ, बीना राय, राजेन्द्र नाथ, हीरालाल, आग़ा, शोभना समर्थ और कुक्कू। संगीतकार थे दत्ता दावजेकर और जगन्नाथ। इस फ़िल्म के पांच गीत अंजान ने लिखे और दो गीत प्रकाश साथी ने। अंजान के गीतों में शामिल थे – शहीदो अमर है तुम्हारी कहानी; हंसो ना बहारो ख़ुशी के नज़ारो; लहरें ये डोलें कोयल बोले; उठा के सिर चलो जवान; धमचक लग रही जंगल में।
यानि कि अंजान साहब की संघर्षगाथा इस फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद भी रुकी नहीं। रेलगाड़ी की रफ़्तार से चलती रही। वे अपनी रातों की रेलयात्रा को भूले नहीं थे। काम मिलता रहा मगर न तो नाम ही मिल रहा था और न ही दाम।
1960 में एक फ़िल्म रिलीज़ हुई लम्बे हाथ। इस फ़िल्म के हीरो थे महमूद और हिरोइन नाज़ साथ में डेज़ी ईरानी भी थीं। संगीतकार थे जी.एस. कोहली। इस फ़िल्म का एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ – प्यार की राह दिखा दुनियां को, रोके जो नफ़रत की आन्धी / तुम में से कोई गौतम होगा, तुम में से कोई होगा गान्धी। मगर जब तक कोई ए-ग्रेड फ़िल्म न मिले और उसके गीत हिट न हो जाएं, तब तक गीतकार का संघर्ष कहां समाप्त होता है।
1963 में निर्देशक त्रिलोक जेतली की फ़िल्म गो-दान रिलीज़ हुई। यह फ़िल्म प्रेमचन्द के महान उपन्यास गो-दान पर आधारित थी। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राजकुमार, कामिनी कौशल, महमूद, शोभा खोटे, शशिकला, टुनटुन और मदन पुरी। राजकुमार होरी बने थे और महमूद गोबर। फ़िल्म के संगीतकार थे महान सितार-वादक पंडित रविशंकर। इस फ़िल्म के लिये अंजान ने दिल लगा कर बेहतरीन गीत लिखे जिनमें भोजपुरी और पूर्वांचल की बोलियों के शब्दों का भरपूर इस्तेमाल किया। – पिपरा के पतवा सरीखा डोले मनवा, कि जियरा में उठत हिलोर, हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा, जरत रहत दिन रैन। तारीफ़ तो बहुत मिली मगर फ़िल्म से अंजान साहब के बैंक में पैसों की खनखन नहीं सुनाई दी।
महान फ़िल्म निर्माता, निर्देशक एवं अभिनेता गुरूदत्त ने एक फ़िल्म बनाने की घोषणा की थी जिसका नाम रखा था – बहारें फिर भी आएंगी। फ़िल्म पर काम भी शुरू हो चुका था। गुरूदत्त स्वयं ही फ़िल्म में नायक का किरदार निभाने वाले थे। उनका किरदार एक पत्रकार का था। फ़िल्म की कुछ शूटिंग हो भी चुकी थी। मगर 10 अक्तूबर 1964 को गुरूदत्त की असामयिक मृत्यु हो गयी। ज़ाहिर है कि फ़िल्म बन्द हो गयी। फिर गुरूदत्त के भाई आत्माराम ने इस फ़िल्म को पूरा करने का बीड़ा उठाया और गुरूदत्त के स्थान पर धर्मेन्द्र को लिया गया। फ़िल्म के अन्य कलाकार थे माला सिन्हा, तनुजा, देवेन वर्मा, जॉनी वॉकर एवं रहमान। संगीत था ओ.पी. नैय्यर का। इस फ़िल्म में कैफ़ी आज़मी, शेवन रिज़वी और अज़ीज़ कश्मीरी पहले से गीत लिख रहे थे। नैय्यर साब ने दो गीत लिखने का ज़िम्मा अंजान साब को दिया और दो बिल्कुल अलग मूड के दो गीत लिख कर अंजान ने अपनी लेखनी का दमख़म साबित कर दिया। पहला गीत है – आपके हसीन रुख़ पे आज नया नूर है, मेरा दिल मचल गया तो मेरा क्या कुसूर है। गीत धर्मेन्द्र पर फ़िल्माया गया था और सामने खड़ी दो बहनें (माला सिन्हा और तनुजा) प्रतिक्रियाएं दे रही थीं। यह गीत मुहम्मद रफ़ी के बेहतरीन गीतों में शामिल है। दूसरा गीत भी मुहम्मद रफ़ी ने ही गाया था मगर वो एक मज़ाहिया गीत था जिसे जॉनी वॉकर पर फ़िल्माया गया… सुनो सुनो मिस चैटर्जी, मेरे दिल का मैटर जी….
निर्माता जी.पी. सिप्पी की फ़िल्म बन्धन (1970) के लिये संगीतकार कल्याण जी आनन्द जी ने अपने प्रिय गीतकार इंदीवर के साथ साथ अंजान को भी इस फ़िल्म के लिये गीत लिखने के लिये आमंत्रित किया। यह सही मायने में बड़ी फ़िल्म थी क्योंकि इसके नायक थे सुपर-स्टार राजेश खन्ना और नायिका थीं मुमताज़। अन्य कलाकारों में शामिल थे जीवन, अचला सचदेव, अंजु महेन्द्रु, कन्हैया लाल, राजेन्द्र नाथ, बीरबल, कमल कपूर, रूपेश कुमार और संजीव कुमार। इस फ़िल्म के लिये अंजान ने अपनी प्रिय भाषा का इस्तेमाल करते हुए गीत लिखा – बिना बदरा के बिजूरिया कैसे चमके, कैसे चमके ओ कोई पूछे रे हम से। और दूसरा गीत था – आ जाओ, आ भी जाओ, हमको न यूं सताओ।

कल्याणजी आनन्द जी से अंजान का मिलना उनके लिये जैसे अंजान साहब के लिये वरदान जैसा सिद्ध हुआ। क्योंकि आगे चल कर उनके श्रेष्ठ एवं सार्वाधिक लोकप्रिय गीत कल्याणजी आनन्द जी के संगीत निर्देशन में ही लिखे गये। उनसे मिलने के बाद ही अंजान के संघर्ष के दिनों का अन्त हो पाया।
अंजान के कुछ श्रेष्ठ गीत…
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आपके हसीन रुख़ पे आज नया नूर है… (बहारें फिर भी आएंगी – 1966)
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पिपरा के पतवा सरीखा डोले मनवा (गोदान – 1963)
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प्यार की राह दिखा दुनियां को (लम्बे हाथ – 1960)
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खाई के पान बनारस वाला (डॉन – 1978)
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ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना (मुकद्दर का सिकन्दर – 1978)
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रोते हुए आते हैं सब, हंसता हुआ जो जाएगा (मुकद्दर का सिकन्दर – 1978)
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काहे पैसे पे इतना ग़ुरूर करे है (लावारिस – 1981)
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लुक छिप लुक छिप जाओ न (दो अन्जाने – 1976)
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आज रपट जाएं तो हमें ना उठइयो (नमक हलाल – 1982)
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छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा (याराना – 1981)
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इन्तहा हो गयी इन्तज़ार की (शराबी – 1984)
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तू पागल प्रेमी आवारा (शोला और शबनम – 1992)
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गोरी हैं कलाइयां, तू लादे मुझे हरी हरी चूड़ियां (आज का अर्जुन – 1990)
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जिधर देखूं, तेरी तस्वीर नज़र आती है (महान – 1983)
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मानो तो मैं गंगा माँ हूं (गंगा की सौगन्ध – 1978)
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आई ऐम ए डिस्को डाँसर (डिस्को डाँसर – 1982)
आदरणीय, नमन आपकी लेखनी संघर्ष में तप कर निखरे इंसानों
की बयानी है।अंजान पर समग्र लिखकर आपने उन्हें जाना पहचाना कर दिया है।
आभार
प्रभा
इन महान हस्तियों की ज़िन्दगी से रूबरू कराने के लिए सहृदय धन्यवाद !
फ़िल्मी गीतकारों पर आप यह रोचक श्रृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं।हृदय से बधाई व साधुवाद। गीतकारों का संघर्ष और सफलता आपकी लेखनी के रास्ते हमारे सामने आकर जीवन्त हो उठते हैं।
अनजान अब हमारे लिए अनजान नहीं रहे, आपके शोधपूर्ण आलेख ने उनसे हमारी जान-पहचान करवा दी।