Chapter 1
प्रेम और लगाव
इस कहानी की शुरुआत किसी के जीवन नहीं बल्कि दो लोगों की मृत्यु के विछोह के साथ शुरू होती है। मैं जीवन चाहता हूँ और मेरी दादी और मेरी प्रेमिका की मृत्यु के बाद एक रात घर से निकल पड़ता हूँ। महीनों तक चले एक लंबे भटकाव के बाद ऋषिकेश पहुँचता हूँ जहाँ मेरी मुलाक़ात एक संन्यासी से होती है।
कुछ हद तक तो मुझे यह जीवन समझ में आता है, पर मृत्यु को लेकर मैं अब भी सहज नहीं हूँ। संन्यासी मुझे समझाता है कि जन्म और मृत्यु जीवन की बहुत ही सहज प्रक्रियाएँ हैं। बावजूद इसके, मैं मृत्यु के विछोह से नहीं निकल पाता। और मेरा यह विछोह ही ईश्वर के प्रति विद्रोह में बदल जाता है।
मैंने संन्यासी से कहा, “जो बातें उस रात हम दोनों ने ईश्वर से की थीं अब उसका कोई गवाह नहीं है। मैंने दादी का हाथ पकड़कर मद्धम आवाज़ में कहा था और उनका सिर कंधे से सरककर मेरी छाती पर आ गया था। मेरा मुँह उनके कान के बिलकुल नज़दीक था। इतना नज़दीक कि वह मेरी हर साँस सुन सकती थीं।”
उन्होंने पूछा था, “क्या सचमुच ईश्वर मर चुका है?”
मैंने बिना वक़्त गँवाए ‘हाँ’ कहा था और मेरे इस एक ‘हाँ’ से दादी के जीवन की सारी उम्मीदें टूटकर बिखर गई थीं। अपनी आश्वस्ति के लिए एक बार उन्होंने फिर से अपनी कही बात को दोहराया कि क्या सचमुच ईश्वर मर चुका है? अपनी ज़ुबान पर अडिग मैंने दुबारा ‘हाँ’ कहा था।
पल भर में ही दादी की आँखें पथराईं और वह लकड़ी के बने एक ताबूत में परिवर्तित हो गईं।
दादी के लिए उनका ईश्वर ही सब कुछ था। अपने ईश्वर की मौत की ख़बर सुनने के बाद उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया। यह तक़रीबन आज से पंद्रह साल पहले की बात है। मौत के चार घड़ी पश्चात उन्हें वैदिक मंत्रों के साथ अग्नि को सौंप, उनकी चिता की बची राख को गड्ढा खोदकर खेत की सबसे बंजर मिट्टी में दबा दिया गया। जिस पर कुछ महीने बाद मैंने उन्हीं तुलसी के पौधों को उगते देखा था जिन पौधों की वो पूजा करती थीं।
मेरी दादी ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था और श्रद्धा रखने वाली एक धार्मिक महिला थीं, बावजूद इसके ईश्वर ने उन्हें छीन लिया। उस वक़्त मेरी उम्र महज़ सात साल रही होगी। यह घटना मुझे इसलिए याद है क्योंकि मेरे पिता को लगता था कि दादी ने अपनी मौत के पश्चात तुलसी का जीवन पाया है इसलिए दादी की बरसी के दिन वह उस तुलसी के पौधे की पूजा करते हैं। उस दिन सपरिवार एक जगह पर एकत्रित होकर अपनी नम आँखें लिए उनको हम सब याद करते, श्रद्धांजलि देते और उन तमाम प्रार्थनाओं को दोहराते हैं जो वह अपने जीवन के अंतिम दिनों में अक्सर किया करती थीं।
उस रात उनकी चिता की राख पर छोटे-छोटे जीवों के पैर के निशान मिले थे। दरअसल, मान्यता यह थी कि मरने के बाद जिस योनि में इंसान दोबारा जन्म लेता है, उसके पैरों के निशान राख पर बन जाते हैं। ये सब जब हुआ तब मुझे ज़्यादा कुछ मालूम नहीं था। जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया तो अक्सर सोचता, दादी अगर तुलसी नहीं बनी होंगी तो कौन-सा जीव बनी होंगी? और कई छोटे जीवों के नाम मेरे ज़ेहन में अनायास ही उतर आते थे।
वह फ़ुर्सत भरे दिन थे। उन दिनों मेरी माँ के पास दादी से जुड़ी सैकड़ों कहानियाँ थीं। जब कभी मुझे नींद नहीं आती तो वह दादी की ही कही कोई कहानी सुनाकर मुझे गहरी नींद में सुला देती थीं। इस तरह मैं कभी अपनी दादी तो कभी अपनी माँ की कही कहानियों को सुनकर बड़ा होता गया।
जीवन से इतर हर बच्चे का अपना एक स्वप्नलोक होता है। मेरे बचपन का स्वप्नलोक मेरी दादी की रहस्यमय दुनिया थी। मैंने अपना शुरुआती जीवन उन्हीं के पास, उन्हीं की बनाई रहस्यमय दुनिया में जिया था। वह कहती थीं कि गौतम, तुम इस दुनिया के सबसे प्यारे बच्चे हो! उनकी बातें सुनकर मेरी आँखें चमक जाती थीं, जैसे उनमें उम्मीद की रौशनी घुल गई हो।
वह अब नहीं रहीं तो मेरी आँखों की चमक भी धीरे-धीरे मद्धम पड़ने लगी है। मेरा वह स्वप्नलोक अब एक अँधेरे कमरे में तब्दील हो गया है। इतना अँधेरा कि कभी-कभी मुझे मेरी हथेली तक नहीं दिखाई देती है। बावजूद इसके मैं उसी अतीत के अँधेरे में अक्सर भटकता रहता हूँ।
दादी को इस दुनिया से गए हालाँकि एक लंबा अरसा हो गया और वर्षों से माँ ने मुझे दादी की कही कोई कहानी भी नहीं सुनाई है। नींद उचटी-उचटी-सी है। मानो कि एक उम्र बीत गई हो और अच्छे-से सो नहीं पाया हूँ। हर लम्हा उम्र पर भारी है, हर ख़्वाब तन्हा-तन्हा-सा नज़र आ रहा है। मेरे मन में वर्षों से ठहरी हुई एक उदासी है जो परस्पर गहरी होती जा रही है। मैं इस उदासी को मारना चाहता हूँ, पर डर है कि कहीं ख़ुद न ख़त्म हो जाऊँ!
मैं अपनी आँखें बंद कर, अँधेरे का हाथ पकड़कर, एक बिलकुल ही अज्ञात और बियाबान रास्ते पर निकल पड़ा हूँ। मेरी उम्र की इन छोटी-छोटी पगडंडियों पर दूर तक फैला सन्नाटा है। मुझे नहीं पता कि जाना कहाँ है? अथवा पहुँचना किस जगह पर है? शायद यही घुमक्कड़ों और लेखकों का जीवन होता है जिसमें सब कुछ अप्रत्याशित होता है।
“तो तुम घुमकक्ड़ हो?” एक सवाल के साथ संन्यासी की गहरी ख़ामोशी टूटी।
“एक लेखक भी… और जन्म से ही।” मैंने संन्यासी को जवाब दिया। “मैं एक जन्मजात घुमक्कड़ हूँ। यह बात पहली बार मेरी दादी ने ही मुझे बताया था और घुमक्कड़ी के सारे संस्कार भी मेरे अंदर उन्हीं का दिया हुआ है। परंतु ये वर्षों पुरानी बातें हैं। मैं लंबे समय के बाद एक बार फिर से उन्हीं रास्तों को ढूँढ़ने का प्रयास कर रहा हूँ जो उम्र के साथ कहीं खो गए थे। एक लंबा वक़्त ज़ाया करने के बाद दोबारा घुमक्क्ड़ी की दुनिया में लौट रहा हूँ और वर्षों बाद जब उसी घटना को फिर से दोहरा रहा हूँ तो समय लोहे की तरह मेरी आँखों में पिघलता प्रतीत हो रहा है। मानो कि मेरी आँखों के आँसू शीशा और फिर दर्पण बन गए हैं। अब मैं अपने अतीत को बहुत ही स्पष्ट रूप से अपनी आँखों में तैरता देख सकता हूँ। मैं ही क्या, मेरी इन आँखों में उतरकर कोई भी मेरी कहानी को आसानी से पढ़ सकता है।”
संन्यासी ने मेरे चेहरे पर एक नज़र डालते हुए हुलिए का मुआयना किया।
(यहाँ से मैं ख़ुद को इस पूरे परिदृश्य से अलग करता हूँ। आगे की मेरी इस यात्रा में सिर्फ़ वह लड़का है और संन्यासी है। दोनों की ही अपनी-अपनी यात्राएँ हैं, अपनी-अपनी भूमिकाएँ हैं और अपना-अपना जीवन है। मैं होकर भी इस कहानी में मैं कहीं नहीं हूँ। यहाँ से मेरी भूमिका बदलती है और एक लेखक में परिवर्तित हो जाती है। हम सब अपने-अपने जीवन की किताब में महज़ एक चरित्र ही तो हैं। मैं भी अपने जीवन की इस संपूर्ण किताब में महज़ एक चरित्र हूँ।)
गोल चेहरा, उत्सुक आँखें, घने लंबे गंदे बाल, उम्र तक़रीबन बाइस साल के आस-पास रही होगी। बातें किसी बुज़ुर्ग जैसी मगर अधपकी, अधकचरी। चेहरे के इतने बदलते भाव कि कोई भी सामान्य इंसान संशय में पड़ जाए। लेकिन भ्रम की स्थिति से कोसों दूर। क्योंकि इन सबके इतर लड़के के चेहरे का एक स्थायी भाव उदासी भी था।
आश्रम में बैठे संन्यासी ने एक नज़र उसके हुलिए पर डाला, चेहरे का फिर से मुआयना किया। लड़के की आँखों में वर्षों के ठहरे हुए आँसू थे जो बहने को आतुर दिखाई दे रहे थे। कुछ देर देखने के पश्चात संन्यासी ने अपना कंधा मोड़कर नज़र को नदी की उठती-गिरती लहरों पर ऐसे टिका लिया जैसे कि वह उस लड़के की आँखों में उतरने से बूरी तरह से डर गया हो। गंगा नदी का तेज़ बहाव मानो, सारे तटबंधों को तोड़ जाने को बेताब हो। लेकिन इस डर को संन्यासी ने लंबे समय तक अपने चेहरे पर क़ाबिज़ नहीं होने दिया।
कुछ देर बाद वह लड़का अपनी जगह से उठकर उस संन्यासी के और क़रीब पहुँच गया। संन्यासी ने अपनी शॉल को उतारकर लड़के के कंधे पर रख दिया। सर्दियों का मौसम था। इस समय ऊपर ग्लेशियरों की बर्फ़ जम जाती है। नदियों में बहुत कम पानी रह जाता है। लेकिन इन सबके उलट ऋषिकेश में गंगा अपनी पूरी उफान पर थी। संन्यासी और लड़के की नज़रें देर तक गंगा की उन्हीं उठती-गिरती लहरों पर टिकी रहीं।
संन्यासी जितना ही आश्वस्त दिख रहा था लड़का उतना ही हैरान और परेशान। लड़के के मन पर अस्थिरता हावी थी। मन में एक अजीब तरह का अंतर्द्वंद्व चल रहा था। वह अपने मन के इसी अंतर्द्वंद्व से उबरने के क्रम में ही संपूर्ण हिमालय की यात्रा करने के बाद इस जगह पर पहुँचा था जहाँ कुछ दिन पहले ही उसकी मुलाक़ात संन्यासी से हुई थी। फिर वह मुलाक़ात एक संवाद में बदली और संवाद कब विचार और विचार से दर्शन की तरफ़ बढ़ गया, इसका अंदाज़ा मुश्किल है।
दोनों को एक-दूसरे से मिले अभी कुछ ही दिन हुए थे लेकिन लड़के को लगा था कि उसके तमाम सवालों और उलझे हुए जीवन का मानो एक सिरा पकड़ में आ गया हो। लड़का बिलकुल भी बातूनी नहीं था, पर उसके पास संन्यासी से पूछने और उसको बताने के लिए काफ़ी कुछ था। एक तरह से उसका अब तक संपूर्ण जीवन। जिसे वह संन्यासी के सामने एक सिरे से बेझिझक खोलता ही जा रहा था और उसके उसी बिखरे हुए जीवन को समझने की कोशिश में संन्यासी उसकी हर बात को गंभीरता से सुन रहा था।
एक स्तर पर जाने के बाद संन्यासी ने महसूस किया कि वह लड़का जिस राह पर चलने की कोशिश कर रहा है, वह अपने जीवन के जिस उलझाव से गुज़र रहा है, वह ख़ुद भी तो कभी उसी से होकर गुज़रा है। आख़िर यही तो होता है, दूसरों की कहानियों को सुनते-सुनते इंसान अपने जीवन में कब प्रवेश कर जाता है उसे पता कहाँ चलता है!
कुछ देर लड़के की बातें सुनने के पश्चात संन्यासी को अपने अतीत और लड़के के भविष्य में एकरूपता नज़र आने लगी। कई बार ऐसा लगा कि वह लड़का अपनी नहीं बल्कि उसकी कहानी को बयान कर रहा है। सच कहा जाए तो वह संन्यासी कभी अपने तो कभी उस लड़के के उस जीवन को समझने का प्रयास कर रहा था जिसमें एक बच्चे के साथ-साथ एक लेखक और एक घुमक्कड़ का जीवन भी शामिल था।
(लड़का अपनी इस संपूर्ण यात्रा में एक लेखक और एक घुमक्कड़ बनने की राह पर था। एक पल के लिए मुझे लगा कि मैं कितने हिस्सों, कितने टुकड़ों में बँटा हुआ हूँ। एक लेखक भी मैं ही हूँ, घुमक्कड़ भी मैं ही हूँ, वह लड़का भी मैं ही हूँ और शायद संन्यासी भी मैं ही हूँ।)
हाँ सच, वह लड़का एक घुमक्कड़ और लेखक बनने की राह पर था। वह अपने सवालों के माध्यम से जीवन और दर्शन की तरफ़ रुख़ कर रहा था। लड़के के चेहरे पर उदासी थी, पर बातों और विचारों में ग़ज़ब का आकर्षण। वही आकर्षण संन्यासी को बार-बार अपनी तरफ़ खींच रहा था। लड़का एक साँस में वह सब कुछ बता गया जो संन्यासी वर्षों से जी रहा था। क्योंकि लड़के के पास अपना जिया हुआ सच था, तमाम तरह की आधी-अधूरी कहानियों और रास्तों का विविधतापूर्ण अनुभव। उसका बचपन कुछ अजीब और अनोखे रहस्यों से भरा हुआ था। कुल मिलाकर संन्यासी को उस लड़के और उसके जीवन से लगाव हो गया था। इसी लगाव ने दोनों को एक साथ, एक जगह, एक-दूसरे के समांतर खड़ा कर दिया था। कुछ देर ठहरकर लड़के ने अपनी बात को दोबारा शुरू किया।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उसने कहा, “अपनी ही आँखों में इतने गर्म आँसू मैंने पहले कभी नहीं देखे। मेरी अँगुलियाँ काँप रही हैं। कुछ लिखूँ, तो कलम साथ नहीं दे रही। नीली रोशनाई उठकर गले में अटक गई है। ऐसा लग रहा है कि ऋषिकेश में आकर मैं शिव हो गया हूँ। मेरा गला नीला पड़ता जा रहा है।”
“क्या तुम उदास हो?” संन्यासी ने पूर्व में कही अपनी ही बात को एक बार फिर से दोहराया और उसकी नज़र नदी की उठती-गिरती लहरों से उठकर लड़के की शांत सोई आँखों में जाकर ठहर गई। संन्यासी को लड़के की आँखें थोड़ी ज़िंदा और थोड़ी-थोड़ी मरी हुई जान पड़ीं।
“नहीं, उदास नहीं मैं नाराज़ हूँ। मेरी नाराज़गी मेरे उस ईश्वर से है जो अब मर चुका है। जिसे हमारी चीख़-पुकार सुनाई नहीं देती।” लड़के ने भी पूर्व में कही अपनी बात को फिर से दोहराया।
संन्यासी के लिए यह समझना थोड़ा मुश्किल था कि लड़का अपने जीवन से दुखी है या फिर नाराज़? लेकिन अपनी बात कहते-कहते लड़के का गला अचानक से ऐसे नीला पड़ गया मानो वह सचमुच का शिव हो गया हो।
संन्यासी ने कहा, “कभी तुम नीलकंठ गए हो?”
लड़के ने नहीं कि मुद्रा में अपना सिर हिलाया। तभी ‘हर-हर महादेव’ की एक उच्च ध्वनि आसमान में गूँजी। दोनों ने एक साथ उस ध्वनि से उत्पन्न आवाज़ को दोहराया- ‘हर-हर महादेव!’
लक्ष्मण घाट पर संन्यासियों की एक टोली गंगा-स्नान के लिए नदी में उतर रही थी। इस जयघोष के साथ लड़के की मनोदशा में थोड़ा-सा परिवर्तन आया। वह अपने अतीत से निकल आस-पास के वातावरण को समझने का प्रयास करने लगा। वह देर तक नदी, पहाड़ और प्रकृति के बीच खोया रहा।
संन्यासी ने अपनी जगह बदल दी। वह वहाँ खड़ा हो गया, जहाँ कुछ देर पहले वह लड़का खड़ा था। शायद, इसे ही परकाया में प्रवेश कहा जाता है। यह वह स्थिति होती है जिसे ज़ाहिर तौर पर लव एंड अटैचमेंट से जोड़कर देखा जाता है। लव एंड अटैचमेंट मतलब प्रेम और लगाव। इस संबंध में बहुत सारी बातें हैं और बहुत सारे विचार।
वह लड़का इस तरह की स्थिति और विचार दोनों से ही परिचित था।
लड़के ने संन्यासी को बताया, “मायरा कहा करती थी कि प्रेम हर किसी से करो लेकिन लगाव नहीं रखो। मैं उससे कहा करता था कि क्या यह संभव है? तो वह हमेशा इसका उत्तर हाँ में देती थी। मैं पूछता कि इसमें अंतर क्या है? वह कहती, बहुत ज़्यादा। प्रेम विशुद्ध प्रेम होता है कोई मोह अथवा लगाव नहीं, यह कभी दुख नहीं देता। लेकिन इसमें जब लगाव जुड़ता है तो स्थितियाँ बदल जाती हैं। जिससे हम प्रेम करते हैं, लगाव की स्थिति में उसकी ख़ुशी हमारी ख़ुशी बन जाती है और उसका दुख-दर्द हमारा दुख-दर्द। इसीलिए कहा गया है कि प्रेम करो पर लगाव से बचो परंतु असल सच यह है कि इससे शायद ही कोई बच या उबर पाता है।“ संन्यासी भी नहीं बच पाया और लड़के के जीवन का दुख उसका ख़ुद का दुख बन गया।
Chapter 2
मृत्यु और विछोह
भोर का वक़्त था, सुबह के तक़रीबन सात बज रहे होंगे। लक्ष्मण घाट पर लोगों की चहल-पहल शुरू हो चुकी थी। गंगा-स्नान के लिए ऋषिकेश उतना ही प्रसिद्ध है जितना हरिद्वार। दोनों ही गंगा मैया और शिव की नगरी है, परंतु दोनों ही जगहों पर स्नान और अनुष्ठान के अपने अलग मायने हैं।
गंगा-स्नान के लिए कुछ लोग ऋषिकेश को चुनते हैं तो कुछ लोग हरिद्वार को। एक और महत्त्वपूर्ण चीज़ जो दोनों धार्मिक नगरों को एक-दूसरे से अलग करती है वह है–योग और ध्यान। हालाँकि ऋषिकेश का मूल अध्यात्म है जो इंसान को ख़ुद के एक सूक्ष्म साक्षात्कार के बाद ज्ञान और दर्शन की तरफ़ ले जाता है। इस जगह पर आकर इस बात में भी थोड़ी-बहुत सच्चाई नज़र आती है कि यहाँ आकर इंसान फक्कड़ हो जाता है।
एक तरह से देखा जाए तो फक्कड़पन ऋषिकेश की हवाओं में रचा-बसा है और यह मिज़ाज यहाँ के जीवन में अनायास ही यदाकदा देखने को मिल जाता है। फिर चाहे वह त्रिवेणी घाट हो, राम या लक्ष्मण झूला हो, या राम जानकी पुल। यहाँ के मंदिर हों, योग अथवा ध्यान शिविर या फिर आश्रम।
इस जगह पर सब कुछ गतिमान है, पर वक़्त ठहरा हुआ है जो पल-प्रतिपल पौराणिकता का बोध कराता है। बार-बार मन में यही ख़याल आता है कि इस जगह का नाम ऋषिकेश कैसे पड़ा? मान्यता है कि यह महान संत रिहाना ऋषि का निवास स्थान था। पवित्र गंगा नदी के तट पर उन्होंने घोर तपस्या की थी और ऋषिकेश के रूप में भगवान विष्णु उनको दर्शन दिए थे। तभी से इस नगर को ऋषिकेश के नाम से जाना जाने लगा। माना जाता है कि समुद्र मंथन, जो देवों और दानवों के बीच हुआ था, से निकला ज़हर शिव ने इसी जगह पर ही पिया था जो नीलकंठ नाम से प्रसिद्ध है।
इस जगह पर लोगों को अपनी-अपनी धुन में रमा हुआ देखकर भक्ति और वैराग्य का भाव एक साथ आता है। ऐसा लगता है कि ऋषिकेश में आकर हर कोई शिव हो जाता है, संन्यास धर्म अपना लेता है, साधु बन जाता है। एक तरह से देखा जाए तो शिव ऋषिकेश के स्थायी और सर्वमान्य देवता हैं।
ऐसे ही चलते-चलते एक दिन संन्यासी पहुँचा था और अपने जीवन का भटकाव लिए अब वह लड़का। …और दोनों की यह मुलाक़ात अप्रयोजित थी।
वह लड़का और संन्यासी दूसरे दिन भी वहीं मिले जहाँ पहले दिन मिले थे। गंगा नदी में स्नान के उपरांत दोनों ने उस संवाद को दुबारा वहीं से आगे बढ़ाया जहाँ छूटा था। लड़के ने संन्यासी को बताया, “अपनी दादी की अस्थियों को गंगा में विसर्जित करने के लिए मैं पहले भी हरिद्वार आ चुका हूँ, परंतु ऋषिकेश पहली बार आया हूँ और यह प्राचीन नगर मेरे लिए बिलकुल ही नया है।”
संन्यासी ने पूछा, “अपनी यात्राओं के दौरान भी नहीं?”
लड़के ने कहा, “नहीं, मैंने अपनी यात्राओं के दौरान हिमालय की यात्रा की जो कि हरिद्वार से शुरू हुई और हरिद्वार में ही आकर ख़त्म हो गई थी। इस दौरान मैंने तमाम नगरों की यात्रा की पर ऋषिकेश जाने कैसे पीछे छूट गया? जो बचा रह जाता है वही तो रिक्त है, वही तो हमारे भीतर रिक्तता का बोध कराता है। यह नगर मुझे भरने का काम कर रहा है।”
संन्यासी ने कहा, “नि:संदेह ये नगर तुम्हें भरने का काम करेगा।”
इस दौरान लड़के ने संन्यासी के सामने नीलकंठ महादेव के दर्शन की भी अपनी सहज इच्छा ज़ाहिर की जिसे संन्यासी ने सहस्र स्वीकार कर लिया और कुछ देर बाद घाट पर चटाई बिछा ध्यान में लीन हो गया। लड़के को उस संन्यासी के सानिध्य में नगर का संपूर्ण दृश्य ही अलौकिक लग रहा था। वह अपनी आँखों में जीवन की भारी उत्सुकता लिए देर तक आस-पास के परिदृश्य को देखता रहा। नदी के किनारे खेलते बच्चे, स्नान करती महिलाएँ, ध्यान में लीन संन्यासी और अपनी योग-साधना को साधते सैकड़ों विदेशी सैलानी। यह संपूर्ण दृश्य मिलकर उसके अंदर एक ऐसा जादुई संसार रचने लगे जिसके सम्मोहन में कोई भी फँस सकता है।
लड़के को याद आया कि इस जगह के बारे में सबसे पहले उसकी दादी ने ही उसे बताया था और एक धुँधलके के साथ वह एक बार फिर से उनकी पूर्व की स्मृतियों में उतरने लगा।
संन्यासी अभी भी अपने ध्यान में लीन था।
लड़का कुछ देर के लिए मानो शून्य में खो गया। एक पल को उसे लगा कि वह ऋषिकेश नहीं बल्कि हरिद्वार में एक बार फिर से अपनी मरी हुई दादी की अस्थियों को गंगा में विसर्जित करने के लिए लाया है और देखते-ही-देखते उसके मन ने अतीत और वर्तमान के मध्य के सारे फ़र्क़ को ख़त्म कर दिया।
इस स्थिति में इंसान के अंदर सामान्यत: वैराग्य का भाव आ जाता है, पर लड़के के मन में दूर-दूर तक ऐसा कोई भाव जागृत नहीं हुआ। वह उत्सुक था, अपनी दादी की मौत को लेकर उसके मन में अभी भी कुछ अनसुलझे सवाल थे जो देखते-ही-देखते उसके मन के अंतर्द्वंद्व में परिवर्तित हो गए।
एक मन उससे कह रहा था कि नहीं, उनकी मौत को जगज़ाहिर करना ठीक नहीं। यह उनके जीवन का अंतिम सत्य नहीं है, उनके संपूर्ण जीवन का सत्य कुछ और रहा होगा जिसके बारे में तुम नहीं जानते। दूसरा मन उसकी इस बात का प्रतिकार कर रहा था। अपने ही सवाल के जवाब में उसने कहा, “मुझे भी इस बात का एहसास है कि जीवन का अंतिम सत्य मौत नहीं है, परंतु उस बच्चे को कौन समझाए जो अभी सिर्फ़ सात साल का है?”
“सिर्फ़ सात साल! तुम किस बच्चे की बात कर रहे हो?” लड़के की बात सुनकर संन्यासी का ध्यान टूट गया। वह अपने मौन से बाहर निकल उसकी बात सुनकर हँसा और पूछा, “तुम सात साल के हो?”
लड़के ने संन्यासी की हँसी पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दिया और न ही उसके सवाल को गंभीरता से लिया। उसने संन्यासी से बस इतना कहा, “दादी जब गुज़रीं तो मेरी उम्र महज़ इतनी ही थी।”
यह सुनकर संन्यासी के चेहरे की मुद्रा बदल गई। मायूसी के कुछ भाव उसके चेहरे पर अपनी जगह बनाने लगे। दोनों के मध्य फिर से एक लंबे वक़्त का मौन पसर गया। संन्यासी लड़के को समझने का पुनः प्रयास करने लगा, पर रत्ती भर भी नहीं समझ पाया। दोनों के मन का मौन थोड़ा और गहरा गया और आस-पास के संपूर्ण वातावरण में शून्यता फैल गई।
इस तरह लड़के का ख़ुद के साथ एक बार फिर से आंतरिक संवाद शुरू हो गया। जिसमें एक बार उतरने के बाद वह परस्पर खोता ही चला गया। लड़का बहुत ही निर्विकार भाव लिए ख़ुद से कहा, “स्मृतियों के दरवाज़े पर मैं आज भी उसी उम्र में खड़ा हूँ जहाँ पर मेरी दादी मुझे छोड़कर गई थीं। क्या मौत के बाद सचमुच सब कुछ समाप्त हो जाता है?’ लड़के के भीतर का अंतर्द्वंद्व संशय और संदेह की स्थिति उत्पन्न कर सवाल में बदलने लगा।
लड़के ने संन्यासी से कहा, “दादी को मरे कई साल हो गए लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वह लकड़ी का ताबूत जिसमें मौत के बाद उनको लेटाया गया था अब भी वहीं पड़ा है जहाँ उन्होंने अपनी अंतिम साँस ली थी।”
संन्यासी ने कहा, “यह वर्षों पुरानी बात है।”
लड़के ने कहा, “दादी को तो हमने कब का जला दिया।”
संन्यासी ने कहा, “वह लकड़ी का ताबूत?”
लड़के ने कहा, “उस ताबूत में अब उनका मरा हुआ ईश्वर सोता है।”
“मरा हुआ ईश्वर!” लड़के की बात सुनकर संन्यासी हतप्रभ हुआ मगर चुप रहा।
लड़के का मन इतने से संवाद भर से पूरी तरह भर गया। उसने कहा, “कभी-कभी सोचता हूँ काश कि उस रात एक झूठ बोल पाया होता तो मेरी दादी आज भी ज़िंदा होती। लेकिन नहीं बोल पाया और महज़ छोटी-सी उम्र में इस निर्मम सच को जान लिया कि ‘ईश्वर ज़िंदा है’ इस दुनिया का सबसे बड़ा और निर्मम झूठ है। मैंने उसी रात ईश्वर के मरे होने की घोषणा कर दी। दादी की मौत के साथ ही मेरा भी ईश्वर मर गया। इस बात को शायद ही कोई समझ पाए कि उस रात एक-एक लम्हे के अंतराल पर मैंने तीन मौतें देखीं। पहले दादी का ईश्वर मरा, फिर दादी, अंत में मेरा ईश्वर।”
“क्या नास्तिकता का भाव यहीं से आया?” संन्यासी ने पूछा।
लड़के ने कहा, “सच कहूँ तो नास्तिक होना मैंने ख़ुद नहीं चुना, ईश्वर की कठोरता ने मुझे इसके लिए बाध्य किया। महज़ एक-एक लम्हे के अंतराल पर उस रात ईश्वर दो बार मरा। बावजूद इसके दादी की मौत ताउम्र मुझ पर भारी रही। ईश्वर की मौत से भी कहीं सौ गुना ज़्यादा भारी। मुझे इस धरती पर सबसे ज़्यादा प्रेम उन्होंने ही किया था। मेरी दादी का स्थान मेरे लिए ईश्वर से सदैव ही चार पायदान ऊपर रहा। सच कहूँ तो दादी का मरना, मेरे बचपन का उजड़ना और ईश्वर की मौत एक तरह से मेरे अंदर से बचपन के मर जाने की भी घोषणा थी। ये वह समय था जब मेरे अंदर से काफ़ी कुछ मर गया। मैंने अपना आधा-अधूरा बचपन जिया। जीवन जीने की कसक लगभग ख़त्म-सी हो गई।”
इस घटना के बाद वह अबोध बच्चा रातों-रात अपनी उम्र से बहुत पहले बड़ा और समझदार हो गया। आँख मूँदकर जिस उम्र में बच्चे अपने आराध्य की पूजा-अर्चना करते हैं, उसी उम्र में वह लड़का ईश्वर से सवाल-जवाब करने लग गया। जीवन को हँसी-ख़ुशी और मस्ती में जीने के बजाय बचपन से ही सही-ग़लत, उचित-अनुचित के फेर में पड़ गया। उसने प्रश्न करना सीख लिया। हर एक चीज़ को संदेह की नज़र से देखने लग गया। उसकी आस्था की ख़ाली हुई जगह में अनास्था का एक बीज पड़ गया। एक ऐसा बीज जो पंद्रह साल बाद एक भारी भरकम वृक्ष बन गया, जिसे अब न कोई आँधी हिला पाती है और न ही तूफ़ान।
संन्यासी के चेहरे का भाव बिलकुल ही शून्य था। लड़के की बात सुनकर उसने ना कुछ कहा और ना ही किसी तरह का भाव प्रकट किया। वह लड़के की कही हर एक बात को बस गंभीरता के साथ सुनता रहा।
लड़के ने कहा, “मैं हर दिन नास्तिक होता गया। आख़िरकार, अनास्था की भी तो अपनी जड़ और ज़मीन होती है। जिस हवा, मिट्टी और जल में आस्था पनपती है, उसी में अनास्था भी पनपती है। इसीलिए, मैंने अपने लिए नास्तिक हो जाने को पूरी तरह से उपयुक्त पाया। लेकिन पूरी तरह से नास्तिक बन नहीं पाया। ईश्वर के अस्तित्व को ख़ारिज कर पाना इतना आसान नहीं है। मैं इधर का हुआ न उधर का, बीच में ही कहीं अटका रह गया। न तो मेरे धार्मिक विचारों को कोई जड़ मिल पाई, न ही कोई ज़मीन। न तो मैं कभी पूरी तरह से ईश्वर के होने को स्वीकार कर पाया और न ही उसके न होने को ही प्रमाणित कर सका। एक तरह से देखा जाए तो मैं कभी भी एक बच्चे के मासूम हृदय से नहीं सोच पाया। वह मासूम बच्चा भी शायद मेरे अंदर से मर गया। अब मुझमें महज़ उसकी आत्मा ज़िंदा है।
“मैं उसकी आत्मा की आवाज़ को सुनने की कोशिश करता हूँ। ऐसा लगता है कि कई वर्षों से कोई मुझे पुकार रहा है। मेरा बचपन कई टुकड़ों में बँट गया है। जबकि मेरा हृदय पवित्र था। मैं हमेशा से ही अपने ईश्वर को प्रेम करने वाला, प्रकृति और उसकी बनाई दुनिया के प्रति विश्वास रखने वाला एक सहज, साधारण प्रवृत्ति का बिलकुल वैसा ही मासूम बच्चा होना चाहता था जैसा कि दुनिया के बाक़ी बच्चे होते हैं।
“ख़ुशियाँ हल्की होती हैं, दुख भारी। सही मायने में उस उम्र में इस बात को समझाने वाला मेरे आस-पास कोई नहीं था और फिर दुखों का भार परस्पर मुझ पर बढ़ता चला गया। मैंने अपना धैर्य, अपना संयम, अपना विश्वास फिर भी लंबे समय तक ख़ुद में सँजोए रखा। काश कि सब कुछ यहीं पर ख़त्म हो गया होता! काश कि यह सब होने के बाद भी मैं अपने बचपन में दोबारा लौट पाया होता! लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके ठीक विपरीत, मेरी अनास्था की ज़मीन दिन-प्रतिदिन और उर्वर हुई और एक के बाद एक करके उसमें ईश्वर के प्रति अविश्वास का बीज पड़ता, पनपता और बड़ा होने के क्रम में एक भारी भरकम वृक्ष बन गया।
“दादी की मौत मेरे लिए हमेशा ही अप्रत्याशित जान पड़ी। मुझे हमेशा से ही यही लगता रहा कि मेरा ईश्वर मुझसे नाराज़ है। अन्यथा मेरी दादी को मुझसे दूर तो नहीं ही करता। मैं कभी भी दादी की मौत को सही साबित नहीं कर पाया हालाँकि उनकी मौत प्राकृतिक थी। मैं सदा ही ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी बना रहा। ईश्वर से नाराज़गी की क़ीमत एक इंसान के लिए क्या हो सकती है मुझे नहीं पता! हम सबका ईश्वर कोई जिद्दी बच्चा तो नहीं है जो अंततः बदले पर उतर आए? लेकिन मेरे अंदर के उस बच्चे को यह सदैव एक तरह का प्रतिशोध लगा।
“मुझे भी हमेशा यही लगा कि ईश्वर मुझसे हर राह पर बदला ले रहा है और यह विश्वास मेरे अंदर तब और प्रगाढ़ हो गया जब कुछ साल बाद मैंने उस लड़की यानी मायरा को भी खो दिया जिससे प्रेम करता था। वह अब इस दुनिया में नहीं है, महज़ उसकी कुछ स्मृतियाँ हैं।
“मैं कभी भी उस बच्चे को ख़ुद से अलग नहीं कर पाया। बीच में जब पढ़ाई-लिखाई, नौकरी और जीवन की अन्य तमाम जद्दोजहद शुरू हुई तब थोड़े समय के लिए ऐसा लगा कि वह बच्चा कहीं खो गया है। लेकिन मायरा के जाने की रिक्तता ने उस बच्चे को फिर से मेरे जीवन में वापस ला दिया। एक तरह से देखा जाए तो वह बच्चा अब बड़ा हो गया है और वर्तमान में दो आत्माओं के साथ ज़िंदा है। बावजूद इसके अब भी उस लड़के की दुनिया उन्हीं दोनों के होने और नहीं होने के अहसासों से बनती और सँवरती है। क्या आप उस बच्चे के बारे में जानना चाहते हैं? वह मैं ही हूँ।”
ये कहते हुए लड़के की पथराई आँखें एक बार फिर से नम हुईं, दो बूँद आँसू टूटे और चेहरा पहले-सा ही सख़्त हो गया। महज़ लम्हे भर के अंतराल में ही उस लड़के के चेहरे में दोबारा वही उदासी का गहरा गाढ़ा रंग घुल गया, जिसे वह बार-बार दूर झटकने का प्रयास करता रहा था, मगर ख़ुद को मुक्त नहीं कर पाया था।
लड़का पहरों तक अपनी पूर्व की स्मृतियों में खोया रहा। इस क्रम में उसे बार-बार यही लगता रहा कि वह अपने अंदर के मरे हुए ईश्वर को ज़िंदा करने की कोशिश कर रहा है।
संजय शेफर्ड
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